चहेती रसोई से भागने का मन कर रहा था। आधा काम भी नहीं निपटा था। पसीने से लथ-पथ मैं मारे गरमी के बेहाल हुई जा रही थी। एकदम पीछे की तरफ बनी मेरी रसोई में तनिक भी हवा की गुंजाइश नहीं है।………बेटी की बहुत याद आ रही थी। तीन महीने पहले ही उसके हाथ पीले कर दिए थे। चार बरस की थी वो तब से पिछले साल गरमी तक, चुपके से मेरे पीछे आ कर खड़ी हो जाती। ठंडी-ठंडी हवा के झोंके बता देते, मेरी गुड़िया मेरे पीछे खड़ी पंखा झल रही है। कितना मना करती पर मानती ही नहीं। खड़ी रहती मेरे साथ ही। उसकी दादी अम्मा खूब चिढ़ाती उसे, ” बड़ी आई माँ की चहेती।”….. सुनकर हम दोनों माँ-बेटी हँस दिया करते। आज उमस भरी गरमी में ये यादें भी बयार जैसी कलेजे को ठंडक दे रहीं थीं। जैसे मैं महसूस कर रही हूँ उन हवा के झोंको को।……..महसूस करने में बाल कहाँ उड़ते हैं, उड़ रहे थे मेरे। चौंक कर पीछे देखा। एक हाथ से अपनी छड़ी थामे दूसरे हाथ से पंखा झलती माँ मेरे पीछे खड़ी थी। मैं सकपकाती हुई बोली, “माँ आप यहाँ?” “अब तेरी चहेती तो ससुराल चली गई। उसकी माँ को गरमी लग रही होगी, तो मैं आ गई।” “मेरी कहाँ वो तो आप की चहेती है। आप जो कहतीं वही तो वो किया करती है।” जवाब सुनकर माँ के चेहरे का रंग बदल गया। चिढ़ सी गईं बोलीं, ” वो कैसे भला?” “सब मालूम है मुझे सालों से चल रही आप दोनों की इस मिली-भगत का। आप ही हमेशा उसे यहाँ भेजा करतीं थीं ना………ये पंखा देकर।” माँ शर्मा गयीं। उनको शर्माता देख मेरी तो हँसी छूट पड़ी।……माँ भी हँस पड़ी। रसोई फिर से गुलजार हो गई मेरी। माँ-बेटी नहीं………अब सास-बहु के ठहाकों से।
Day: July 10, 2021
🌺 #भक्तमहादेव
महादेव जी को एक बार बिना कारण के किसी को प्रणाम करते देखकर पार्वती जी ने पूछा आप किसको प्रणाम करते रहते हैं?
शिव जी पार्वती जी से कहते हैं कि हे देवी ! जो व्यक्ति एक बार राम कहता है उसे मैं तीन बार प्रणाम करता हूँ।
पार्वती जी ने एक बार शिव जी से पूछा आप श्मशान में क्यूँ जाते हैं और ये चिता की भस्म शरीर पे क्यूँ लगाते हैं?
उसी समय शिवजी पार्वती जी को श्मशान ले गए। वहाँ एक शव अंतिम संस्कार के लिए लाया गया। लोग राम नाम सत्य है कहते हुए शव को ला रहे थे।
शिव जी ने कहा कि देखो पार्वती ! इस श्मशान की ओर जब लोग आते हैं तो राम नाम का स्मरण करते हुए आते हैं। और इस शव के निमित्त से कई लोगों के मुख से मेरा अतिप्रिय दिव्य राम नाम निकलता है उसी को सुनने मैं श्मशान में आता हूँ, और इतने लोगों के मुख से राम नाम का जप करवाने में निमित्त बनने वाले इस शव का मैं सम्मान करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, और अग्नि में जलने के बाद उसकी भस्म को अपने शरीर पर लगा लेता हूँ।
राम नाम बुलवाने वाले के प्रति मुझे अगाध प्रेम रहता है।
एक बार शिवजी कैलाश पर पहुंचे और पार्वती जी से भोजन माँगा। पार्वती जी विष्णु सहस्रनाम का पाठ कर रहीं थीं। पार्वती जी ने कहा अभी पाठ पूरा नही हुआ, कृपया थोड़ी देर प्रतीक्षा कीजिए।
शिव जी ने कहा कि इसमें तो समय और श्रम दोनों लगेंगे। संत लोग जिस तरह से सहस्र नाम को छोटा कर लेते हैं और नित्य जपते हैं वैसा उपाय कर लो।
पार्वती जी ने पूछा वो उपाय कैसे करते हैं? मैं सुनना चाहती हूँ।
शिव जी ने बताया, केवल एक बार राम कह लो तुम्हें सहस्र नाम, भगवान के एक हज़ार नाम लेने का फल मिल जाएगा।
एक राम नाम हज़ार दिव्य नामों के समान है।
पार्वती जी ने वैसा ही किया।
पार्वत्युवाच –
केनोपायेन लघुना विष्णोर्नाम सहस्रकं?
पठ्यते पण्डितैर्नित्यम् श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो।।
ईश्वर उवाच-
“श्री राम राम रामेति, रमे रामे मनोरमे”।
“सहस्र नाम तत्तुल्यम राम नाम वरानने”।।
यह राम नाम सभी आपदाओं को हरने वाला, सभी सम्पदाओं को देने वाला दाता है, सारे संसार को विश्राम/शान्ति प्रदान करने वाला है। इसीलिए मैं इसे बार बार प्रणाम करता हूँ।
“आपदामपहर्तारम् दातारम् सर्वसंपदाम्”।
“लोकाभिरामम् श्रीरामम् भूयो भूयो नमयहम्”।
भव सागर के सभी समस्याओं और दुःख के बीजों को भूंज के रख देनेवाला/समूल नष्ट कर देने वाला, सुख संपत्तियों को अर्जित करने वाला, यम दूतों को खदेड़ने/भगाने वाला केवल राम नाम का गर्जन(जप) है।
“भर्जनम् भव बीजानाम्, अर्जनम् सुख सम्पदाम्”।
“तर्जनम् यम दूतानाम्, राम रामेति गर्जनम्”।
प्रयास पूर्वक स्वयम् भी राम नाम जपते रहना चाहिए और दूसरों को भी प्रेरित करके राम नाम जपवाना चाहिए। इस से अपना और दूसरों का तुरन्त कल्याण हो जाता है। यही सबसे सुलभ और अचूक उपाय है।
इसीलिए हमारे देश में प्रणाम–
#राम_राम कहकर किया जाता है।
🙏 #जयजयश्री_राम 🙏
🙏🏻🚩🚩 #जय_श्रीराम 🚩🚩
एक व्यक्ति बहुत परेशान था।उसके दोस्त ने उसे सलाह दी कि कृष्ण भगवान की पूजा शुरू कर दो।
उसने एक कृष्ण भगवान की मूर्ति घर लाकर उसकी पूजा करना शुरू कर दी।
कई साल बीत गए लेकिन
कोई लाभ नहीं हुआ।
एक दूसरे मित्र ने कहा कि
तू काली माँ कीपूजा कर,
जरूर तुम्हारे दुख दूर होंगे।
अगले ही दिन वो एक काली माँ की मूर्ति घर ले आया।
कृष्ण भगवान कीमूर्ति मंदिर के ऊपर बने एक टांड पर रख दी और काली माँ की मूर्ति मंदिर में रखकर पूजा शुरू कर दी।
कई दिन बाद उसके दिमाग में ख्याल आया कि जोअगरबत्ती, धूपबत्ती काली जी को जलाता हूँ, उसे तो श्रीकृष्ण जी भी सूँघते होंगे। ऐसा करता हूँ कि श्रीकृष्ण का मुँह बाँध देता हूँ।
जैसे ही वो ऊपर चढ़कर श्रीकृष्ण का मुँह बाँधने लगा कृष्ण भगवान ने उसका हाथ पकड़ लिया। वो हैरान रह गया और भगवान से पूछा –
इतने वर्षों से पूजाकर रहा था तब नहीं आए! आज कैसे प्रकट हो गए?
*भगवान श्रीकृष्ण ने समझाते हुए कहा, “आज तक तू एक मूर्ति समझकर मेरी पूजा करता था। किन्तु आज तुम्हें एहसास हुआ कि “कृष्ण साँस ले रहा है!” बस मैं आ गया।”
“जय श्री कृष्ण” 🙏
सुभ कश्यप
विनम्रता की जीत –
सुबह मेघनाथ से लक्ष्मण का अंतिम युद्ध होने वाला था। वह मेघनाथ जो अब तक अविजित था। जिसकी भुजाओं के बल पर रावण युद्ध कर रहा था। अप्रितम योद्धा ! जिसके पास सभी दिव्यास्त्र थे।
सुबह लक्ष्मण जी , भगवान राम से आशीर्वाद लेने गये।
उस समय भगवान राम पूजा कर रहे थे !
पूजा समाप्ति के पश्चात प्रभु श्री राम ने हनुमानजी से पूछा अभी कितना समय है युद्ध होने में?
हनुमानजी ने कहा कि अभी कुछ समय है! यह तो प्रातःकाल है।
भगवान राम ने लक्ष्मण जी से कहा ! यह पात्र लो भिक्षा मांगकर लाओ , जो पहला व्यक्ति मिले उसी से कुछ अन्नं मांग लेना।
सभी बड़े आश्चर्य में पड़ गये। आशीर्वाद की जगह भिक्षा! लेकिन लक्ष्मण जी को जाना ही था।
लक्ष्मण जी जब भिक्षा मांगने के लिए निकले तो उन्हें सबसे पहले रावण का सैनिक मिल गया! आज्ञा अनुसार मांगना ही था। यदि भगवान की आज्ञा न होती तो उस सैनिक को लक्ष्मण जी वहीं मार देते। परंतु वे उससे भिक्षा मांगते है।
सैनिक ने अपनी रसद से लक्ष्मण जी को कुछ अन्न दे दिए।
लक्ष्मण जी वह अन्न लेकर भगवान राम को अर्पित कर दिए।
तत्पश्चात भगवान राम ने उन्हें आशीर्वाद दिया…विजयी भवः।
भिक्षा का मर्म किसी के समझ नहीं आया ! कोई पूछ भी नहीं सकता था… फिर भी यह प्रश्न तो रह ही गया।फ़िर भीषण युद्ध हुआ!
अंत मे मेघनाथ ने त्रिलोक कि अंतिम शक्तियों को लक्ष्मण जी पर चलाया। ब्रह्मास्त्र , पशुपात्र , सुदर्शन चक्र ! इन अस्त्रों कि कोई काट न थी।
लक्ष्मण जी सिर झुकाकर इन अस्त्रों को प्रणाम किए। सभी अस्त्र उनको आशीर्वाद देकर वापस चले गए।
उसके बाद राम का ध्यान करके लक्ष्मण जी ने मेघनाथ पर बाण चलाया ! वह हँसने लगा और उसका सिर कटकर जमीन पर गिर गया।उसकी मृत्यु हो गई।
उसी दिन सन्ध्याकालीन समय भगवान राम शिव की आराधना कर रहे थे। वह प्रश्न तो अबतक रह ही गया था। हनुमानजी ने पूछ लिया! प्रभु वह भिक्षा का मर्म क्या है ?
भगवान मुस्कराने लगे , बोले मैं लक्ष्मण को जानता हूँ….वह अत्यंत क्रोधी है।लेकिन युद्ध में बहुत ही विन्रमता कि आवश्यकता पड़ती है! विजयी तो वही होता है जो विन्रम हो। मैं जानता था मेघनाथ! ब्रह्मांड कि चिंता नहीं करेगा। वह युद्ध जीतने के लिये दिव्यास्त्रों का प्रयोग करेगा! इन अमोघ शक्तियों के सामने विन्रमता ही काम कर सकती थी। इसलिये मैंने लक्ष्मण को सुबह झुकना बताया!एक वीर शक्तिशाली व्यक्ति जब भिक्षा मांगेगा तो विन्रमता स्वयं प्रवाहित होगी। लक्ष्मण ने मेरे नाम से बाण छोड़ा था …यदि मेघनाथ उस बाण के सामने विन्रमता दिखाता तो मैं भी उसे क्षमा कर देता।
भगवान श्रीरामचन्द्र जी एक महान राजा के साथ अद्वितीय सेनापति भी थे। युद्धकाल में विन्रमता शक्ति संचय का भी मार्ग है ! वीर पुरुष को शोभा भी देता है।इसलिए किसी भी बड़े धर्म युद्ध में विजय प्राप्ति के लिए विनम्रता औऱ धैर्य का होना अत्यंत आवश्यक है……
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा भी है……………….
धीरज धर्म मित्र अरु नारी…
आपद काल परिखिअहिं चारी…!!
जय जय हनुमान🚩🙏
जय जय श्री राम❤️🙏
शुभ अपराह्न…
एक समय की बात है। किसी शहर में एक बड़ी फैक्ट्री का निर्माण हो रहा था मगर उस प्लांट को बनाने के दौरान एक बड़ी समस्या सामने आ रही थी.
🙄
वो समस्या ये थी कि एक भारी भरकम मशीन को प्लांट में बने एक गहरे गढ्ढे के तल में बैठाना था लेकिन मशीन का भारी वजन एक चुनौती बन कर उभर रहा था।
🙄
मशीन साईट पर आ तो गयी पर उसे 30 फीट गहरे गढ्ढे में कैसे उतारा जाये
ये एक बड़ी समस्या थी !!
अगर ठीक से नहीं बैठाया गया तो फाउंडेशन और मशीन दोनों को बहुत नुकसान उठाना पड़ता।
आपको बता दें कि ये वो समय था जब बहुत भारी वजन उठाने वाली क्रेनें हर जगह उपलब्ध नहीं थीं.
जो थीं वो अगर उठा भी लेतीं तो गहरे गढ्ढे में उतारना उनके बस की बात नहीं थी।
आखिरकार हार मानकर इस समस्या का समाधान ढूढ़ने के लिए प्लांट बनाने वाली कम्पनी ने टेंडर निकाला और इस टेंडर का नतीज़ा ये हुआ कि बहुत से लोगो ने इस मशीन को गड्ढे में फिट करने के लिए अपने ऑफर भेजे
उन्होंने सोचा कि कहीं से बड़ी क्रेन मंगवा कर मशीन फिट करवा देंगे
इस हिसाब से उन्होंने 25 से 30 लाख रुपये काम पूरा करने के मांगे
लेकिन उन लोगो के बीच एक बनिया था जिसने कंपनी से पूछा कि अगर मशीन पानी से भीग जाये तो कोई समस्या होगी क्या ?
इस पर कंपनी ने जबाव दिया कि मशीन को पानी में भीग जाने पर कोई फर्क नहीं पड़ता
उसके बाद उसने भी टेंडर भर दिया ।
जब सारे ऑफर्स देखे गये तो उस बनिये ने काम करने के सिर्फ 15 लाख मांगे थे
जाहिर है मशीन बैठाने का काम उसे मिल गया.
लेकिन अजीब बात ये थी कि उस बनिये ने ये बताने से मना कर दिया कि वो ये काम कैसे करेगा,
बस इतना बोला कि ये काम करने का हुनर और सही टीम उसके पास है
उसने कहा – कम्पनी बस उसे तारीख और समय बतायें कि किस दिन ये काम करना है।
आखिर वो दिन आ ही गया.
हर कोई उत्सुक था ये जानने के लिए कि ये बनिया काम कैसे करेगा?
उसने तो साईट पर कोई तैयारी भी नहीं की थी
तय समय पर कई ट्रक उस साईट पर पहुँचने लगे.
उन सभी ट्रकों पर बर्फ लदी थी, जो उन्होंने गढ्ढे में भरना शुरू कर दिया।
जब बर्फ से पूरा गढ्ढा भर गया तो उन्होंने मशीन को खिसकाकर बर्फ की सिल्लियों के ऊपर लगा दिया।
इसके बाद एक पोर्टेबल वाटर पंप चालू किया गया और गढ्ढे में पाइप डाल दिया जिससे कि पानी बाहर निकाला जा सके.
बर्फ पिघलती गयी, पानी बाहर निकाला जाता रहा, मशीन नीचे जाने लगी।
4-5 घंटे में ही काम पूरा हो गया और कुल खर्चा 1 लाख रुपये से भी कम आया
मशीन एकदम अच्छे से फिट हो गयी और उस बनिये ने 14 लाख रुपये से अधिक मुनाफा भी कमा लिया।
😁😁
वास्तव में बिज़नेस बड़ा ही रोचक विषय है.
ये एक कला है, जो व्यक्ति की सूझबूझ, चतुराई और व्यवहारिक समझ पर निर्भर करता है।
😘
मुश्किल से मुश्किल समस्याओं का भी सरल समाधान खोजना ही एक अच्छे बिजनेसमैन की पहचान है
और ये बनिये ने साबित कर दिया कि बनियों की सोच सबसे अलग और आगे रहती है l
🙏भारत के अच्छे नागरिक बनिए🙏

💧💦💧💦💧💦💧💦💧💦💧
💐💐ओशो नमन।।💐💐💐
महाराष्ट्र में विठोबा की कथा है कि एक भक्त…….।
महाराष्ट्र में ही कृष्ण का नाम विठोबा। विठोबा यानी कृष्ण। पर कैसे विठोबा हो गए कृष्ण! एक भक्त अपनी मां के पैर दबा रहा था। और कृष्ण उस पर बड़े प्रसन्न थे। वे आकर पीछे खड़े हो गए। और यह भक्त वर्षों से रोता था, विरहलीन रहता था, गीत गाता था, नाचता था। और इससे मिलने आ गए। और उन्होंने कहा कि देख, तू क्या उस तरफ मुंह किए हुए है? मैं तेरा भगवान, जिसकी तूने इतने दिन पूजा—प्रार्थना— अर्चना की, धूप—दीप जलाए। मैं मौजूद हूं! लौट, मेरी तरफ देख।
उस भक्त ने कहा, अभी—एक ईंट पास में पड़ी थी, पीछे सरका दी और कहा—इस पर बैठ रहो। इसलिए विठोबा! बिठा दिया ईंट पर। इस पर बैठ रहो, अभी मैं मां के पैर दबा रहा हूं। तुम ठीक वक्त नहीं आए।
भगवान को जिसने छोड़ दिया मां के पैर दबाने के लिए, तब कर्तव्य! जो करने योग्य है! अभी भगवान भी बीच में आ जाए, तो कोई अर्थ नहीं रखता।
कर्तव्य शब्द की गरिमा खो गई। कृष्ण के समय में कर्तव्य शब्द बड़ा दूसरा अर्थ रखता था। कर्तव्य का अर्थ यह नहीं था कि जो नहीं करने की इच्छा है, और करना पड़ता है। नहीं, कर्तव्य का अर्थ था—बडा सात्विक भाव था उसमें छिपा—वह अर्थ था, जो करने योग्य है, जो ही करने योग्य है, जिसके अतिरिक्त करने योग्य कुछ भी नहीं है।
कहा, बेवक्त आए! समय से आना। और अगर रुकना ही हो, तुम्हारी मरजी है। यह ईंट है, बैठ रहो।
किसी भक्त ने कृष्ण को ऐसा नहीं बिठाया। इसलिए पंढरपुर के विठोबा का मंदिर अनूठा है।बहुत मंदिर हैं, जहां भगवान अपनी ही मरजी से खडे हैं; यहाँ भक्त की मरजी से बैठे हैं! और ईंट पर बैठे हैं; कुछ खास बड़ा सिंहासन नहीं है। लेकिन जब तक उसने अपनी मां को सुला न दिया, जब उसकी मां सो गई—घंटों लगे होंगे—तभी उसने मुंह किया। लेकिन कृष्ण को वह बडा प्यारा हो गया। क्योंकि जहां ऐसा प्रेम है, वहीं तो प्रार्थना का फूल खिलता है।
➡ गीता दर्शन
💕ओशो 💕👏👏👏👏👏

🌼आस्था की जीत…🌼
सन् 1979 में तिरुपति क्षेत्र में
भयंकर सूखा पडा…
दक्षिण-पूर्व का मानसून पूरी तरह
विफल हों गया था।
गोगर्भम् जलाशय
(जो तिरुपति में जल-आपूर्ति का प्रमुख स्त्रोत हैं) लगभग सूख चुका था।
आसपास स्थित कुँए भी लगभग सूख चुके थे…
तिरुपति ट्रस्ट के अधिकारी
बड़े भारी तनाव में थे।
ट्रस्ट अधिकारियों की अपेक्षा थी कि
सितम्बर-अक्टूबर की चक्रवाती हवाओं से
थोड़ी-बहुत वर्षा हों जाएगी ,
किन्तु नवम्बर आ पहुंचा था।
थोडा-बहुत , बस महीने भर का पानी
शेष रह गया था।
मौसम विभाग स्पष्ट कर चुका था कि
वर्षा की कोई संभावना नहीं हैं…
सरकारें हाथ खड़ी कर चुकीं थीं।
ट्रस्ट के सामने मन्दिर में दर्शन निषेध करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं बचा था।
दर्शन निषेध अर्थात् दर्शन-पूजन
अनिश्चित् काल के लिए बन्द कर देना…
ट्रस्टीयों की आत्मा स्वयं धिक्कार रही थी कि कैसे श्रद्धालुओं को कह पायेंगे कि
जल के अभाव के कारण
देवस्थान में दर्शन प्रतिबंधित कर दिए गए हैं? किन्तु दर्शन बंद करने के अतिरिक्त
कोई विकल्प नहीं बचा था…
विधर्मियों और मूर्तिपूजन के विरोधियों का आनन्द अपने चरम पर था।
नास्तिक लोग मारे ख़ुशी के झूम रहे थे।
अखबारों में ख़बरें आ रही थी कि
जो भगवान् अपने तीर्थ में जल-आपूर्ति की व्यवस्था नहीं कर सकते,
वो भगवद्भक्तमण्डल पर कृपा कैसे करेंगे?
सनातन धर्मानुयायियों को खुलेआम अन्धविश्वासी और सनातन धर्म को
अंधविश्वास कहा जा रहा था…
श्रद्धालु धर्मानुयायी रो रहे थे ,
उनके आंसू नहीं थम रहे थे…
कुछ दिन और निकल गए
किन्तु जल-आपूर्ति की कोई व्यवस्था नहीं।
अचानक घबराए हुए ट्रस्टीयों को
कुछ बुद्धि आई और उन्होंने वेदों और शास्त्रों के धुरन्धर विद्वान् और तिरुपति ट्रस्ट के सलाहकार , 90 वर्षीय श्री उप्पुलरी गणपति शास्त्री जी महाराज से सम्पर्क किया…
ट्रस्टीयों ने महाराजश्री से पूछा कि
क्या वेदों और शास्त्रों में
इस गंभीर परिस्थिति का कोई उपाय हैं?
श्री उप्पुलरी गणपति शास्त्री जी महाराज ने
उत्तर दिया कि वेदों और शास्त्रों में
इस लोक की और अलौकिक समस्त समस्याओं का निदान हैं।
महाराजश्री ने ट्रस्टीयों को
“वरुण जप” करने का परामर्श दिया…
महाराजश्री ने ट्रस्टीयों को बता दिया कि
पूर्ण समर्पण , श्रद्धा और विश्वास से यदि
अनुष्ठान किया जाए तभी
अनुष्ठान फलीभूत होगा, अन्यथा नहीं।
श्रद्धा में एक रत्ती भर की कमी
पूरे अनुष्ठान को विफल कर देगी…
ट्रस्टीयों ने “वरुण जाप” करने का
निर्णय ले लिया और दूर-दूर से विद्वानों को निमंत्रण भेजा गया।
समय बहुत ही कम था और लक्ष्य
बहुत ही बड़ा था।
जल-आपूर्ति मात्र दस दिनों की
बाकी रह गई थीं।
1 नवम्बर को जप का मुहूर्त निकला था…
तभी बड़ी भारी समस्याओं ने
ट्रस्टीयों को घेर लिया।
जिन बड़े-बड़े विद्वानों को निमंत्रण भेजा गया था उनमे से अधिकाँश ने आने में
असमर्थता व्यक्त कर दी।
किसी का स्वास्थ्य खराब था ,
तो किसी के घर मृत्यु हों गई थी
(मरणा-शौच) ;
किसी को कुछ तो किसी को कुछ
समस्या आ गई…
“वरुण-जाप” लगभग असंभव हों गया !
इधर इन खबरों को अखबार
बड़ी प्रमुखता से चटखारे ले-लेकर
छापे जा रहे थे और सनातन धर्म ,
धर्मानुयायियों , ट्रस्टमण्डल और तिरुपति बालाजी का मज़ाक बनाए जा रहे थे।
धर्म के शत्रु सनातन धर्म को
अंधविश्वास सिद्ध करने पर तुले हुए थे…
ट्रस्ट के अध्यक्ष श्री प्रसाद साहब की
आँखों में आंसू थे।
उन्होंने रो-रोकर आर्त ह्रदय से
प्रभु वेंकटेश से प्रार्थना की ।
सारे ट्रस्टी और भक्तों ने भी प्रार्थना की…
सभी ने प्रभु से प्रार्थना की –
“क्या वरुण जाप नहीं हों पाएगा?
क्या मंदिर के दर्शन बन्द हों जायेंगे?
क्या हजारों-लाखों साल की परम्परा
लुप्त हों जाएगी?
नवम्बर के महीने में रात्रीविश्राम के लिए
मंदिर के पट बंद हों चुके थे ।
मंदिर में कोई नहीं था।
सभी चिंतित भगवद्भक्त अपने-अपने घरों में
रो-रोकर प्रभु से प्रार्थना कर रहे थे…
और तभी रात्रि में 1 बजे घंटा नाद
गूंज उठा पूरे तिरुमला पर्वत पर,
मानो प्रभु सबसे कह रहे हो-
“चिंता मत करो!
मैं हूँ तुम्हारे साथ…”
दूसरे दिन सुबह से ही “वरुण जाप” हेतु अनुकूलताएँ मिलनी आरम्भ हों गई।
जिन विद्वानों ने आने में
असमर्थता व्यक्त कर दी थीं
उनकी उपलब्धि के समाचार आने लग गए।
8 नवम्बर को पुनः
मुहूर्त निर्धारित कर लिया गया।
जो विद्वान् अनुष्ठान से मुंह फेर रहे थे ,
वे पूरी शक्ति के साथ अनुष्ठान में आ डटे।
“वरुण जाप” तीन दिनों तक
चलनेवाली परम् कठिन वैदिक प्रक्रिया हैं ।
यह प्रातः लगभग तीन बजे आरम्भ हों जाती हैं। इसमें कुछ विद्वानों को तो घंटो छाती तक पुष्करिणी सरोवर में कड़े रहकर
“मन्त्र जाप” करने थे ,
कुछ भगवान् के “अर्चा विग्रहों” का
अभिषेक करते थे ,
कुछ “यज्ञ और होम” करते थे
तो कुछ “वेदपाठ” करते थे।
तीन दिनों की इस परम् कठिन
वैदिक प्रक्रिया के चौथे दिन
पूर्णाहुति के रूप में
“सहस्त्र कलशाभिषेकम्”
सेवा प्रभु “श्री वेंकटेश्वर” को
अर्पित की जानेवाली थी…
तीन दिनों का अनुष्ठान संपन्न हुआ।
सूर्यनारायण अन्तरिक्ष में पूरे तेज के साथ दैदीप्यमान हों रहे थे।
बादलों का नामोनिशान तक नहीं था…
भगवान् के भक्त बुरी तरह से
निराश होकर मन ही मन भगवन से अजस्त्र प्रार्थना कर रहे थे।
भगवान् के “अर्चा विग्रहों” को
पुष्करिणी सरोवर में स्नान कराकर
पुनः श्रीवारी मंदिर में ले जाया जा रहा था।सेक्युलर पत्रकार चारों ओर खड़े होकर
तमाशा देख रहे थे
और अट्टहास कर रहे थे !
चारों ओर विधर्मी घेरकर
चर्चा कर रहे थे कि -“ अनुष्ठान से बारिश?
ऐसा कहीं होता हैं?
कैसा अंधविश्वास हैं यह?
“ कैसा पाखण्ड हैं यह?”
ट्रस्ट के अध्यक्ष श्री प्रसाद साहब
और ट्रस्टीगण मन ही मन सोच रहे थे कि
“हमसे कौनसा अपराध हों गया?” ,
“क्यों प्रभु ने हमारी पुकार अस्वीकार कर दी?” , अब हम संसार को और अपनेआप को
क्या मुंह दिखाएँगे?”
इतने में ही दो तीन पानी की बूंदे
श्री प्रसाद के माथे पर पड़ी..
उन्हें लगा कि पसीने की बूंदे होंगी और घोर निराशा भरे कदम बढ़ाते रहे मंदिर की ओर पर फिर और पाँच छह मोटी मोटी बूंदे पड़ी!
सर ऊपर उठाकर देखा तो आसमान में काले काले पानी से भरे हुए बादल उमड़ आए है और घनघोर बिजली कड़कड़ा उठी!
दो तीन सेकेण्ड में मूसलधार वर्षा आरम्भ हुई! ऐसी वर्षा की सभी लोगो को भगवान के उत्सव विग्रहों को लेकर मंदिर की ओर दौड़ लगानी पड़ी फिर भी वे सभी सर से पैर तक बुरी तरह से भीग गए थे।
स्मरण रहे,
वर्षा केवल तिरुपति के पर्वत क्षेत्र में हुई, आसपास एक बूँद पानी नहीं बरसा।
गोगर्भम् जलाशय और आसपास के कुंएं लबालब भरकर बहने लगे।
इंजिनियरों ने तुरंत आकर बताया कि
पूरे वर्ष तक जल-आपूर्ति की कोई चिंता नहीं…
सेक्युलर पत्रकार और धर्म के शत्रुओं के
मुंह पर हवाइयां उड़ने लगी
और वे बगलें झाँकने लगे।
लोगों की आँखें फटी-की-फटी रह गई। भक्तमण्डल जय-जयकार कर उठा…
यह घटना सबके सामने घटित हुई
और हज़ारों पत्रकार और प्रत्यक्षदर्शी इसके प्रमाण हैं लेकिन इस बात को दबा दिया गया…
“सनातन धर्म” की इस इतनी बड़ी जीत के
किस्से कभी टेलीविज़न ,
सिनेमा अथवा सोशल मीडिया पर
नहीं गाये जाते…
भगवान् वेंकटेश्वर श्रीनिवास
कोई मूर्ती नहीं वरन् साक्षात्
श्रीमन्नारायण स्वयं हैं।
अपने भक्तों की पुकार सुनकर वे
आज भी दौड़े चले आते हैं।
भक्त ह्रदय से पुकारें तो सही…
“वेंकटाद्री समं स्थानं ,
ब्रह्माण्डे नास्ति किंचन् ।
श्रीवेंकटेश समो देवों ,
न भूतो न भविष्यति…“
💐।। सादर जय सिया राम ।।💐💐
तिरुपति बालाजी को गोविंदा क्यों कहा जाता है ?
यह एक अत्यंत रोचक घटना है, माँ महालक्ष्मी की खोज में भगवान विष्णु जब भूलोक पर आए, तब यह सुंदर घटना घटी।
भूलोक में प्रवेश करते ही, उन्हें भूख एवं प्यास मानवीय गुण प्राप्त हुए, भगवान श्रीनिवास ऋषि अगस्त्य के आश्रम में गए और बोले, “मुनिवर मैं एक विशिष्ट मुहिम से भूलोक पर (पृथ्वी) पर आया हूँ और कलयुग का अंत होने तक यहीं रहूंगा”।
मुझे गाय का दूध अत्यंत पसंद है और और मुझे अन्न के रूप में उसकी आवश्यकता है।
मैं जानता हूँ कि आपके पास एक बड़ी गौशाला है, उसमें अनेक गाएँ हैं, मुझे आप एक गाय दे सकते हैं क्या?
ऋषि अगस्त्य हँसे और कहने लगे, “स्वामी मुझे पता है कि आप श्रीनिवास के मानव स्वरूप में, श्रीविष्णु हैं”।
मुझे अत्यंत आनंद है कि इस विश्व के निर्माता और शासक स्वयं मेरे आश्रम में आए हैं, मुझे यह भी पता है की आपने मेरी भक्ति की परीक्षा लेने के लिए यह मार्ग अपनाया है, फिर भी स्वामी, मेरी एक शर्त है कि मेरी गौशाला की पवित्र गाय केवल ऐसे व्यक्ति को मिलनी चाहिए जो उसकी पत्नी संग यहाँ आए, मुझे आप को उपहार स्वरूप गाय देना अच्छा लगेगा, परंतु जब तुम मेरे आश्रम में देवी लक्ष्मी संग आओगे, और गौदान देने के लिए पूछोगे, तभी मैं ऐसा कर पाऊँगा।
भगवान श्रीनिवास हँसे और बोले ठीक है मुनिवर, तुम्हें जो चाहिए वह मैं करूँगा, ऐसा कहकर वे वापस चले गए।
बाद में भगवान श्रीनिवास ने देवी पद्मावती से विवाह किया ।
विवाह के कुछ दिन पश्चात भगवान श्रीनिवास, उनकी दिव्य पत्नी पद्मावती के साथ, ऋषि अगस्त्य महामुनि के आश्रम में आए पर उस वक्त ऋषि आश्रम में नहीं थे। भगवान श्रीनिवासन से उनके शिष्यों ने पूछा आप कौन हैं? और हम आपके लिए क्या कर सकते हैं ?
प्रभु ने उत्तर दिया, “मेरा नाम श्रीनिवासन है, और यह मेरी पत्नी पद्मावती है”। आपके आचार्य को मेरी रोज की आवश्यकता के लिए एक गाय दान करने के लिए कहा था, परंतु उन्होंने कहा था कि पत्नी के साथ आकर दान मांगेंगे तभी मैं गाय दान दूंगा।
यह तुम्हारे आचार्य की शर्त थी, इसीलिए मैं अब पत्नी संगआया हूँ ।
शिष्यों ने विनम्रता से कहा, “हमारे आचार्य आश्रम में नहीं है इसीलिए कृपया आप गाय लेने के लिए बाद में आइये”। श्रीनिवासन हंँसे और कहने लगे, मैं आपकी बात से सहमत हूंँ, परंतु मैं संपूर्ण जगत का सर्वोच्च शासक हूंँ, इसीलिए तुम सभी शिष्यगण मुझ पर विश्वास रख सकते हैं और मुझे एक गाय दे सकते हैं, मैं फिर से नहीं आ सकता।
शिष्यों ने कहा, निश्चित रूप से आप धरती के शासक हैं बल्कि यह संपूर्ण विश्व भी आपका ही है, परंतु हमारे दिव्य आचार्य हमारे लिए सर्वोच्च हैं, और उनकी आज्ञा के बिना हम कोई भी काम नहीं कर सकते।
धीरे-धीरे हंसते हुए भगवान कहने लगे, आपके आचार्य का आदर करता हूँ कृपया वापस आने पर आचार्य को बताइए कि मैं सपत्नीक आया था, ऐसा कहकर भगवान श्रीनिवासन तिरुमाला की दिशा में जाने लगे। कुछ मिनटों में ऋषि अगस्त्य आश्रम में वापस आए, और जब उन्हें इस बात का पता लगा तो वे अत्यंत निराश हुए ।
“श्रीमन नारायण स्वयं माँ लक्ष्मी के संग, मेरे आश्रम में आए थे”। दुर्भाग्यवश मेैं आश्रम में नहीं था, बड़ा अनर्थ हुआ ।
फिर भी कोई बात नहीं, प्रभु को जो गाय चाहिए थी, वह तो देना ही चाहिए। ऋषि तुरंत गौशाला में दाखिल हुए, और एक पवित्र गाय लेकर भगवान श्रीनिवास और देवी पद्मावती की दिशा में भागते हुए निकले, थोड़ी दूरी पर श्रीनिवास एवं पत्नी पद्मावती उन्हें नजर आए।
उनके पीछे भागते हुए ऋषि तेलुगु भाषा में पुकारने लगे, स्वामी (देवा) गोवु (गाय) इंदा (ले जाओ) तेलुगु में गोवु अर्थात गाय, और इंदा अर्थात ले जाओ।
स्वामी, गोवु इंदा… स्वामी, गोवु इंदा… स्वामी, गोवु इंदा… स्वामी, गोवु इंदा… (स्वामी गाय ले जाइए).. कई बार पुकारने के पश्चात भी भगवान ने नहीं देखा, इधर मुनि ने अपनी गति बढ़ाई, और स्वामी ने पुकारे हुए शब्दों को सुनना शुरू किया।
भगवान की लीला, उन शब्दों का रूपांतर क्या हो गया। स्वामी गोविंदा, स्वामी गोविंदा, स्वामी गोविंदा, गोविंदा गोविंदा गोविंदा !!
ऋषि के बार बार पुकारने के पश्चात भगवान श्रीनिवास वेंकटेश्वर एवं देवी पद्मावती वापिस मुड़े और ऋषि से पवित्र गाय स्वीकार की ।
मुनिवर तुमने ज्ञात अथवा अज्ञात अवस्था में मेरे सबसे प्रिय नाम गोविंदा को 108 बार बोल दिया है, कलयुग के अंत तक पवित्र सप्त पहाड़ियों पर मूर्ति के रूप में भूलोक पर रहूँगा, मुझे मेरे सभी भक्त “गोविंदा” नाम से पुकारेंगे ।
इन सात पवित्र पहाड़ियों पर, मेरे लिए एक मंदिर बनाया जाएगा, और हर दिन मुझे देखने के लिए बड़ी संख्या में भक्त आते रहेंगे। भक्त पहाड़ी पर चढ़ते हुए, अथवा मंदिर में मेरे सामने मुझे, गोविंदा नाम से पुकारेंगे।
मुनिराज कृपया ध्यान दीजिए, हर समय मुझे इस नाम से पुकारे जाते वक्त, तुम्हें भी स्मरण किया जाएगा क्योंकि इस प्रेम भरे नाम का कारण तुम हो, यदि किसी भी कारणवश कोई भक्त मंदिर में आने में असमर्थ रहेगा, और मेरे गोविंदा नाम का स्मरण करेगा। तब उसकी सारी आवश्यकता मैं पूरी करूँगा। सात पहाड़ियों पर चढ़ते हुए जो गोविंदा नाम को पुकारेगा, उन सभी श्रद्धालुओं को मैं मोक्ष दूंगा।
गोविंदा हरि गोविन्दा वेंकटरमणा गोविंदा, श्रीनिवासा गोविन्दा वेंकटरमणा गोविन्दा!!
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यश चौराशिया
क्रोध के दो मिनट
एक युवक ने विवाह के दो साल बाद परदेस जाकर व्यापार करने की इच्छा पिता से कही ।
पिता ने स्वीकृति दी तो वह अपनी गर्भवती पत्नी को माँ-बाप के जिम्मे छोड़कर व्यापार करने चला गया ।
परदेश में मेहनत से बहुत धन कमाया और
वह धनी सेठ बन गया
सत्रह वर्ष धन कमाने में बीत गए तो सन्तुष्टि हुई और वापस घर लौटने की इच्छा हुई ।
पत्नी को पत्र लिखकर आने की सूचना दी और जहाज में बैठ गया ।
उसे जहाज में एक व्यक्ति मिला जो दुखी मन से बैठा था ।
सेठ ने उसकी उदासी का कारण पूछा तो उसने बताया कि इस देश में ज्ञान की कोई कद्र नही है ।
मैं यहाँ ज्ञान के सूत्र बेचने आया था पर
कोई लेने को तैयार नहीं है ।
सेठ ने सोचा ‘इस देश में मैने बहुत धन कमाया है,
और यह मेरी कर्मभूमि है,
इसका मान रखना चाहिए !’
उसने ज्ञान के सूत्र खरीदने की इच्छा जताई ।
उस व्यक्ति ने कहा-
मेरे हर ज्ञान सूत्र की कीमत 500 स्वर्ण मुद्राएं हैं ।
सेठ को सौदा तो महंगा लग रहा था..
लेकिन कर्मभूमि का मान रखने के लिए 500 स्वर्ण मुद्राएं दे दी ।
व्यक्ति ने ज्ञान का पहला सूत्र दिया-
कोई भी कार्य करने से पहले दो मिनट
रूककर सोच लेना ।
सेठ ने सूत्र अपनी किताब में लिख लिया ।
कई दिनों की यात्रा के बाद रात्रि के समय सेठ अपने नगर को पहुँचा ।
उसने सोचा इतने सालों बाद घर लौटा हूँ तो क्यों न चुपके से बिना खबर दिए सीधे पत्नी के पास पहुँच कर उसे सरप्राईज (आश्चर्य उपहार) दूँ ।
घर के द्वारपालों को मौन रहने का इशारा करके सीधे अपने पत्नी के कक्ष में गया
तो वहाँ का नजारा देखकर…
उसके पांवों के नीचे की जमीन खिसक गई ।
पलंग पर उसकी पत्नी के साथ एक
युवक सोया हुआ था ।
अत्यंत क्रोध में सोचने लगा कि
मैं परदेस में भी इसकी चिंता करता रहा और ये यहां अन्य पुरुष के साथ…
दोनों को जिन्दा नही छोड़ूगाँ ।
क्रोध में तलवार निकाल ली ।
वार करने ही जा रहा था कि इतने में ही
उसे 500 स्वर्ण मुद्राओं से प्राप्त ज्ञान सूत्र याद आ गया कि
… कोई भी कार्य करने से
पहले दो मिनट सोच लेना…
सोचने के लिए रूका ।
तलवार पीछे खींची तो एक बर्तन से टकरा गई ।
बर्तन गिरा तो पत्नी की नींद खुल गई ।
जैसे ही उसकी नजर अपने पति पर पड़ी
वह ख़ुश हो गई और कहा-
आपके बिना जीवन सूना सूना था ।
इन्तजार में इतने वर्ष कैसे निकाले
यह मैं ही जानती हूँ ।
सेठ तो पलंग पर सोए पुरुष को
देखकर क्रोधित था ।
पत्नी ने युवक को उठाने के लिए कहा- बेटा उठ जाग, तेरे पिता आए हैं ।
युवक उठकर जैसे ही पिता को प्रणाम
करने झुका माथे की पगड़ी पैरों में गिर गई ।
उसके लम्बे बाल बिखर गए ।
सेठ की पत्नी ने कहा- स्वामी ये आपकी बेटी है। पिता के बिना इसके मान को कोई आंच न आए इसलिए मैंने इसे बचपन से पुत्र के समान ही पालन पोषण और संस्कार दिए हैं।
यह सुनकर सेठ की आँखों से
अश्रुधारा बह निकली ।
पत्नी और बेटी को गले लगाकर
सोचने लगा
कि यदि
आज मैने उस ज्ञानसूत्र को नहीं अपनाया होता
तो जल्दबाजी में कितना अनर्थ हो जाता ।
मेरे ही हाथों मेरा निर्दोष परिवार खत्म हो जाता ।
ज्ञान का यह सूत्र उस दिन तो मुझे बेहद महंगा लग रहा था लेकिन ऐसे सूत्र के लिए तो 500 स्वर्ण मुद्राएं बहुत कम हैं ।
‘ज्ञान तो अनमोल है ‘
इस कहानी का सार यह है कि
जीवन के दो मिनट, जो दुःखों से बचाकर सुख की बरसात कर सकते हैं । वे हैं –
“क्रोध के दो मिनट”
राम चंद्र आर्य
1990 की घटना..
आसाम से दो सहेलियाँ रेलवे में भर्ती हेतु गुजरात रवाना हुई।
रास्ते में एक स्टेशन पर गाडी बदलकर आगे का सफ़र उन्हें तय करना था, लेकिन पहली गाड़ी में कुछ लड़को ने उनसे छेड़-छाड़ की इस वजह से अगली गाड़ी में तो कम से कम सफ़र सुखद हो, यह आशा मन में रखकर भगवान से प्रार्थना करते हुए दोनों सहेलियाँ स्टेशन पर उतर गयी। और भागते हुए रिजरवेशन चार्ट तक वे पहुची और चार्ट देखने लगी.चार्ट देख दोनों परेशान और भयभीत हो गयी, क्यों की उनका रिजर्वेशन कन्फर्म नहीं हो पाया था।
मायूस और न चाहते उन्होंने नज़दीक खड़े TC से गाड़ी में जगह देने के लिए विनती की TC ने भी गाड़ी आने पर कोशिश करने का आश्वासन दिया….एक दूसरे को शाश्वती देते दोनों गाड़ी का इंतज़ार करने लगी।
आख़िरकार गाड़ी आ ही गयी और दोनों जैसे तैसे गाड़ी में एक जगह बैठ गए…अब सामने देखा तो क्या! सामने दो पुरूष बैठे थे।
पिछले सफ़र में हुई बदसलूकी कैसे भूल जाती लेकिन अब वहा बैठने के अलावा कोई चारा भी नहीं था क्यों की उस डिब्बे में कोई और जगह ख़ाली भी नहीं थी। गाडी निकल चुकी थी और दोनों की निगाहें TC को ढूंढ रही थी, शायद कोई दूसरी जगह मिल जाये……कुछ समय बाद गर्दी को काटते हुए TC वहा पहुँच गया और कहने लगा, कही जगह नहीं और इस सीट का भी रिजर्वेशन अगले स्टेशन से हो चूका है, कृपया आप अगले स्टेशन पर दूसरी जगह देख लीजिये। यह सुनते ही दोनों के पैरो तले जैसे जमीन ही खिसक गयी। क्योंकी रात का सफ़र जो था.गाड़ी तेज़ी से आगे बढ़ने लगी। जैसे जैसे अगला स्टेशन पास आने लगा दोनों परेशान होने लगी लेकिन सामने बैठे पुरूष उनके परेशानी के साथ भय की अवस्था बड़े बारीकी से देख रहे थे। जैसे अगला स्टेशन आया, दोनो पुरूष उठ खड़े हो गए, और चल दिये….अब दोनों लड़कियो ने उनकी जगह पकड़ ली, और गाड़ी निकल पड़ी। कुछ देर बाद वो नौजवान वापस आये और कुछ कहे बिना नीचे सो गए।
दोनों सहेलियाँ यह देख अचम्भित हो गयी और डर भी रही थी, जिस प्रकार सुबह के सफ़र में हुआ था उसे याद कर डरते सहमते हुए सो गयी….सुबह चाय वाले की आवाज़ सुन नींद खुली दोनों ने उन पुरूषों को धन्यवाद कहा तो उनमे से एक पुरूष ने कहा ” बहनजी गुजरात में कोई मदद चाहिए हो तो जरुर बताना” …अब दोनों सहेलियों का उनके बारे में मत बदल चुका था। खुद को बिना रोके एक लड़की ने अपनी बुक निकाली और उनसे अपना नाम और संपर्क लिखने को कहा…दोनों ने अपना नाम और पता बुक में लिखा और “हमारा स्टेशन आ गया है” ऐसा कह वे दोनों ट्रेन से उतर गए!
दोनों सहेलियों ने उस बुक में लिखे नाम पढ़े, वो नाम थे- नरेंद्र मोदी और शंकर सिंह वाघेला……
यह लेखिका फ़िलहाल General Manager of the centre for railway information system Indian railway New Delhi में कार्यरत है और यह लेख “The Hindu” इस अंग्रेजी पेपर में पेज नं 1 पर “A train journey and two names to remember” इस नाम से दिनांक 1 जून 2014 को प्रकाशित हुआ..
तो क्या आप, अब भी सोचते है कि हमने गलत प्रधानमन्त्री चुना है?