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आने वाली पीढ़ी मे धर्म कल्याण के लिए ऐसे साधुओं की बहुत आवश्यकता है। #नागासाधु से बने सुप्रीम कोर्ट के वकील -#करुणेशशुक्ला.!
आज हम आपको एक ऐसे व्यक्तित्व करुणेश शुक्ला के बारे में कुछ जानकारी देंगे, जो अभी भारत के सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता है।

जिन्होंने #श्रीरामजन्मभूमि केस में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और श्री महंत धर्मदास जी महाराज जी के लिए वकील रहे।

करुणेश शुक्ला वकील बनने से पहले अयोध्या के सुप्रसिद्ध हनुमान गढ़ी में एक “नागा साधु” थे और पुजारी के रूप में कार्य करते थे। गुरु परम्परा के अनुसार उत्तराधिकार में इनके पास पचारी स्टेट की अपार संपदा थी लेकिन हिंदुत्व के प्रेम में हिंदुत्व की रक्षा के लिए जमीनी स्तर पर काम करने के लिए सब कुछ छोड़कर गुरु आज्ञा से सुप्रीम कोर्ट में वकील बने।

श्री राम जन्मभूमि अयोध्या केस में विजय प्राप्त हुई। और अब श्री कृष्ण जन्म भूमि, मथुरा के लिए केस लड़ रहे हैं। और साथ ही उनकी टीम के द्वारा काशी-विश्वनाथ को आजादी दिलाने की मुहिम शुरू हो गई है।

करुणेश जी ने देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए और अपने जान की बिना कोई परवाह किए, सुप्रीम कोर्ट में कुरान के खिलाफ केस दर्ज किया है। यह एक अति संवेदनशील मामला है जोकि कुरान की चौबीस आयतें जो भारतीय संविधान का उलंघन करती हैं उसको कुरान से हटाने के लिए है। अगर यह हो जाता है तो आने वाले भविष्य में विश्व को बहुत बड़ी लड़ाई से बचाया जा सकता है।

साथ ही देश को एक वैभवशाली राष्ट्र बनाने के लिए भारतीय संविधान से “सेकूलर” और “सोशलिस्ट” जैसे शब्द हटाने के लिए याचिका दायर की है। ये शब्द आपातकालीन स्थिति में भारत के संविधान में डाल दिया गया था।

साथ ही कई सारी हिन्दू लड़कियां जो “लव जिहाद में फंस गई है, उनके लिए फ्री में केस लड़ते हैं, और उन लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाकर नयी जिंदगी शुरू करने में मदद करते हैं।

साथ ही तमाम सारे मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से हिन्दू समाज को जागरूक करते हैं। साथ ही गरीब हिन्दू भाईयों के लिए “माइक्रो फाइनेंस” की व्यवस्था करते हैं। जिन हिन्दू भाईयों को अपना व्यवसाय शुरू करना चाहते हैं उनकी आर्थिक सहायता करते हैं। साथ ही करुणेश जी मानवता में विश्वास रखते हैं और मानवतावादी संगठन मिशन ह्यूमेंनिटी के संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष है।

देश में शांति बनी रहे, विश्व में शांति की स्थापना के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। “करुणेश शुक्ला जी” के बारे में ऐसे कुछ जानकारी हम जो इंटरनेट के माध्यम से हम निकाल सके हम आप लोगों के साथ शेयर कर रहे हैं। आप सभी लोग ऐसे प्रचंड हिन्दू बीर योद्धा के साथ जुड़े और देश और धर्म की रक्षा करें। जय_सनातन.

मोहनलाल जैन

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एक बार एक बादशाह सर्दियों की शाम अपने महल में दाखिल हो रहा था तभी उसने एक बूढ़े दरबान को देखा जो महल के मुख्य दरवाज़े पर बिलकुल पुरानी और फटी वर्दी में पहरा दे रहा था…।

बादशाह ने उस बूढ़े दरबान के करीब अपनी सवारी को रुकवाया और उससे पूछा…

“सर्दी नही लग रही तुम्हें…इन फटे हुए कपड़ों में कैसे रात गुजारते हो ?”

दरबान ने जवाब दिया….. “बहुत लग रही है हुज़ूर ! मगर क्या करूँ, गर्म कपड़े हैं नही मेरे पास, इसलिए मज़बूरी में बर्दाश्त करना पड़ता है, कोई चारा भी नहीं है…. औऱ ड्यूटी तो करनी ही है ,नहीं तो गुजारा कैसे होगा…..” ??

बादशाह का दिल पसीज गया औऱ वह सोचने लगा कि इस बूढ़े के लिए क्या किया जाए ??

कुछ सोचकर बादशाह ने कहा ” तुम चिंता मत करो..मैं अभी महल के अंदर जाकर तुरंत अपना ही कोई गर्म कपड़ा तुम्हारे लिए भेजता हूँ…तुम बस थोड़ी देर औऱ इंतज़ार करो…।”

दरबान ने बहुत खुश होकर बादशाह को दिल से सलाम किया साथ ही उसके प्रति अपनी कृतज्ञता औऱ वफ़ादारी का भी इज़हार किया।

लेकिन…… बादशाह जैसे ही महल में दाखिल हुआ ,वह अपनी रानी औऱ बच्चों के साथ बातचीत में उलझ गया औऱ कुछ देर के बाद वह दरबान के साथ किया हुआ अपना वादा भूल गया।

उधर दरबान बेसब्री से इंतजार करता रहा, करता रहा।वह बार बार झांक कर देखता कि महल के अंदर से कोई आ रहा है कि नहीं । इसी तरह इंतजार में ही दरबान की पूरी रात गुजर गई ।

सुबह महल के मुख्य दरवाज़े पर उस बूढ़े दरबान की अकड़ी हुई लाश पड़ी मिली और ठीक उसके करीब ही मिट्टी पर उसकी उंगलियों से लिखा गया ये शब्द भी जो चीख़ चीख़कर उसकी बेबसी की दास्तान सुना रहे थे……” बादशाह सलामत ! मैं कई सालों से लगातार सर्दियों में इसी फटी वर्दी में दरबानी कर रहा था लेकिन मुझें कोई ख़ास परेशानी नहीं हो रही थी , मगर कल रात सिर्फ़ आपके एक गर्म लिबास के वादे ने मेरी जान निकाल दी…मैं इस उम्मीद के साथ इस दुनिया से विदा ले रहा हूँ कि भविष्य में आप फ़िर किसी लाचार ग़रीब इंसान से कोई झूठा वादा नहीं करेंगे……।”

” सहारे इंसान को अंदर तक खोखला कर देते हैं और दूसरों के प्रति उसकी उम्मीदें उसे बेहद कमज़ोर बना देती हैं ” …..!

“इसलिए हमसब सिर्फ़ अपनी ताकत औऱ सामर्थ्य के बल पर जीना शुरू करें औऱ खुद की सहन शक्ति, ख़ुद की ख़ूबी पर भरोसा करना सीखें क्योंकि हमारा हमसे अच्छा साथी, दोस्त, गुरु और हमदर्द इस दुनिया में शायद औऱ कोई नही हो सकता ।

ये हमें हमेशा याद रखने की जरुरत है कि ज़िंदगी तो अपने दम पर जी जाती है , दूसरों के कंधों पर तो सिर्फ़ ज़नाज़े उठा करते हैं………..!!

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बहु बेटे भी इसी ग्रह के प्राणी हैं।

लॉकडाउन के समय मेरी बाई माताजी का निधन हो गया ,तब हम तो नहीं जा सके। मेरी भाभी ने उन्हें सुहागन के रूप में तैयार करके विदा किया ,और सभी कार्यक्रम किए। हम लोग जब बाद में गए तब हमने देखा कि मेरे बाबूजी, जो कि वृद्ध हैं ,रात को उनका जी घबराता है ,तब मेरे भाभी ने बोला कि जीजी हम भी बाबूजी के पास ही सोते हैं। रात को कुछ भी हो जाए तो हम एकदम देख तो ले ।
सुनकर सोचने लगी कि, जहां देखो, जिसे देखो ,फेसबुक पर, पेपर में मिलने जुलने वालों में बहू बेटों की चर्चा है, कहीं कहीं ऐसा होता भी है। लेकिन मैं जब ज्यादा गहराई से सोचती हूं ,तो ऐसा लगता है कि बहु बेटे इतने भी बुरे नहीं होते जितना कि उन्हें दिखाया जाता है, और इसके लिए मुझे कुछ कारण लगते हैं।
नई नई बहू जब घर में आती है उस समय ससुराल का ,सासू का वातावरण उसके मानस पटल पर अंकित हो जाता है, और उस समय वह जो व्यवहार देखती है उसके आधार पर वह अपना मानस तैयार कर लेती है, और उसे लगता है कि यहां पर निबाह करना मुश्किल है, तो क्या करूं? मम्मी जी को मेरे हाथ की कुछ भी चीज तो अच्छी नहीं लगती, कुछ परिवारों में ऐसा होता है की बहुओं का किया हुआ कोई भी काम सांसों को पसंद नहीं आता, चाहे खाना बनाना हो, घर की सफाई हो ,कपड़े हो ,या बहुत सारे काम ,कोई बहू अपना घर छोड़कर अस्तित्व की तलाश में ससुराल आती है, लेकिन उसे वह कहीं नजर नहीं आता, तो उसे बुरा लगता है और उसे लगता है कि इससे तो मैं अलग भली, मेरे घर में मैं कुछ कर तो सकूंगी। क्योंकि इस घर में तो मैं कुछ करने से रही।
दूसरी बात कभी-कभी बेटे को लगता है कि मेरी पत्नी बहुत अलग है और इस घर के वातावरण में रच बस नहीं पाएगी, और इससे तो मेरे मम्मी पापा को दुख ही मिलेगा, इस से अच्छा है कि मैं अपना आशियाना अलग बना लूं ,ताकि माता-पिता भी खुश रह सके ,और हम भी खुश रह सके।
तीसरी बात मुझे लगती है आर्थिक रूप से भी कोई कोई बेटे बहू इतने संपन्न नहीं होते कि वह अपने माता पिता को सभी सुविधाएं दे सके, इसलिए वह थोड़े उदासीन हो जाते हैं।
चौथी बात बेटे बहू सोचते हैं कि अभी तो माता-पिता सक्षम है, समर्थ है, अपना जीवन चला सकते हैं, तो फिर हम हमारे हिसाब से हमारे जीवन को चला लें।
आजकल जाब भी बाहर हो गए हैं ,बच्चों के सपने अलग हैं, उनके सपनों को पंख भी चाहिए तो माता-पिता भी सोचते हैं, ठीक हैं इन्हें इनके हिसाब से इनकी जिंदगी बिताने दो ।
मुझे तो इस दृष्टिकोण में कोई बुराई नजर नहीं आती ।सभी का अपना अपना जीवन है। सभी की अपनी-अपनी सोच है, सभी के अपने अपने विचार हैं, बच्चे भले ही उदासीन हो जाएं माता पिता का स्नेह कम नहीं होता। वैसे ही अगर हमारे बचपन के संस्कार उत्तम होंगे, तो हमारे बच्चे हमारी जरूरत पर हमारे साथ अवश्य होंगे ।
किसी भी सिक्के के दो पहलू हैं। आज जो माता-पिता हैं, कल वे भी बेटे बहु थे, आज जो बेटे बहु हैं ,कल वे बी माता पिता बनेंगे। अतः यह तो एक क्रम है जो चलता ही रहता है।
अगर हम इसे समस्या मानेंगे तो भी इसका कोई हल नहीं है ।बस होना तो यही चाहिए कि हम सब एक दूसरे को, एक दूसरे की कमियों के साथ सहज, सरल रूप में स्वीकार करें। एक दूसरे से प्यार करें, चाहे दूर रहें, चाहे पास रहें अगर हम पास में भी हैं, और हमारे मतभेद ज्यादा है, तो शांति से कोई भी नहीं रह पाएगा और अशांति की स्थिति में व्यक्ति की जो प्रगति , विकास है वह भी रुक जाएगा ,और सब छोटी छोटी बातों में लग कर ही अपने जीवन के अनमोल समय को व्यतीत कर लेंगे।
इसलिए मैं तो समझती हूं की बहू बेटे भी इसी ग्रह के प्राणी हैं, उनके भी जज्बात है, भावनाएं हैं वे माता-पिता का सम्मान करना जानते हैं, करते भी हैं, सभी के तरीके अलग-अलग हैं ।
इतनी बड़ी दुनिया में सभी को अपने अपने अस्तित्व की तलाश है ।सभी को स्पेस चाहिए इसलिए यह एक ऐसा मुद्दा है कि जिस पर जितनी बातें करो कम है, फिर भी मुझे खुशी होती है कि मेरे परिचित कम से कम 120 -125 परिवार है और उन परिवारों में किसी भी परिवार में माता-पिता की आवमानना का कोई प्रसंग मुझे दिखाई नहीं देता ।बच्चे चाहे दूर हो या पास हो वह सदैव हमारे नजदीक है ,यह लिखकर में किसी भी माता-पिता के भावनाओं को उपेक्षित नहीं कर रही, बल्कि अपने मन की भावनाएं बता रही हूं ।क्योंकि मैं अभी एक बहू भी हूं, और मेरी भी बहू है। अतः दोनों में अपने आप को देखती हूं तो लगता है, सब अपनी अपनी जगह सही है ।
सभी की अपनी-अपनी समस्याएं हैं ,और सभी की अपनी-अपनी सोच है। अतः हमें हमारे पूर्वाग्रहों से दूर यह सोचना है कि बहु बेटे बुरे नहीं हैं, जहां कहीं भी ऐसी स्थिति होगी अपवाद स्वरूप होगी, और इसका हल भी निकालना जरूरी है।
सुधा जैन

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શહેરની એક નામાંકિત શાળામાં વાર્ષિક પરિક્ષાઓ પુરી થયા બાદ પ્રથમ વર્ષના વિદ્યાર્થીઓ માટે એક ખાસ ક્વિઝ રાખવામાં આવી. શિક્ષકે પ્રથમ વર્ષ પૂર્ણ કરેલ બધા જ વિદ્યાર્થીઓને એક વર્ગમાં ભેગા કર્યા. વિદ્યાર્થીઓને સુચના આપતા કહ્યુ , “ આપના માટે એક નાની ક્વિઝનું આયોજન કરવામાં આવ્યુ છે. તમને બધાને એક પ્રશ્નપત્ર આપવામાં આવશે. આ પ્રશ્નપત્રમાં જુદી-જુદી બાબતોને લગતા માત્ર 10 પ્રશ્નો પુછવામાં આવ્યા છે. જે તમામ પ્રશ્નોના સાચા ઉતરો આપશે એને ઇનામ આપવામાં આવશે.
પ્રશ્નપત્ર હાથમાં આવતા જ બધા વિદ્યાર્થીઓ ફટાફટ જવાબ આપવા લાગ્યા. વર્ગના સૌથી હોશિયાર વિદ્યાર્થીએ તો માત્ર 9 મિનિટમાં જ 9 પ્રશ્નોના જવાબ આપી દીધા પણ 10માં પ્રશ્નનો ઉતર આપવા માટે એ 10 મિનિટથી વિચાર કરતો હતો પણ એને જવાબ યાદ જ નહોતો આવતો. વર્ગના તમામ વિદ્યાર્થી આ 10માં નંબરના પ્રશ્ન પર આવીને અટકી ગયા.
એક વિદ્યાર્થી તો પોતાની જગ્યા પર ઉભો જ થઇ ગયો અને કહ્યુ , “ સર, આ 10માં નંબર પરના પ્રશ્નનો જવાબ ન આપીએ તો ચાલે?” શિક્ષકે વળતો ઉતર આપ્યો , “ ના બેટા , નહી ચાલે. એ પ્રશ્ન બાકીના પ્રશ્ન જેટલો જ અગત્યનો છે. બાકીના બધા જ પ્રશ્નોના જવાબ સાચા હશે પરંતું જો 10માં નંબરના પ્રશ્નનો જવાબ નહી આપ્યો હોય કે ખોટો આપ્યો હશે તો ઇનામ નહી મળે.”
પ્રશ્નપત્રનો છેલ્લો સવાલ કંઇક આવો હતો.
પ્રશ્ન નંબર. 10. – આપણી શાળાના દરવાજા પર બેસીને તમારા બધાનું ધ્યાન રાખનાર વોચમેનનું પુરુ નામ લખો.
મિત્રો, આપણી આ જીવનયાત્રામાં અનેક લોકોનો નાનો મોટો ફાળો હોય છે. આ બધા જ લોકો આપણી હુંફ અને પ્રેમ ઝંખતા હોય છે. માત્ર પૈસો કે પદના આધારે જ વ્યક્તિને નાની કે મોટી સમજવાની ભુલ ક્યારેય ન કરવી.

વિશાલ સોજીત્રા

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એક જંગલ હતું.તેમાં એક હરણી ગર્ભવતી હતી અને તેનું બચ્ચુ જન્મવાની તૈયારીમાં જ હતું. દૂર દેખાઈ રહેલું નદી પાસેનું એક ઘાસનું મેદાન તેને સુરક્ષિત જણાતા, તેણે ત્યાં જઈ બચ્ચાને જન્મ આપવાનો નિર્ણય કર્યો. તે ધીમે ધીમે ત્યાં જવા આગળ વધી અને ત્યાં જ તેને પ્રસૂતિની પીડા શરૂ થઈ ગઈ.
તે જ ક્ષણે અચાનક તે વિસ્તારના આકાશમાં કાળા ડિબાંગ વાદળા છવાઈ ગયાં અને વિજળીનો ગડગડાટ શરૂ થઈ ગયો. વિજળી પડતા ત્યાં દાવાનળ ફેલાઈ ગયો. હરણીએ ગભરાયેલી નજરે ડાબી બાજુ જોયું તો ત્યાં તેને એક શિકારી પોતાના તરફ તીરનું નિશાન તાકતો દેખાયો. તે જમણી તરફ ફરી ઝડપથી એ દિશામાં આગળ વધવા ગઈ ત્યાં તેને એક ભૂખ્યો વિકરાળ સિંહ પોતાની દિશામાં આવતો દેખાયો.
આ સ્થિતીમાં ગર્ભવતી હરણી શું કરી શકે કારણ તેને પ્રસૂતિની પીડા શરૂ થઈ ચૂકી છે.
તમને શું લાગે છે? તેનું શું થશે? શું હરણી બચી જશે?
શું તે પોતાના બચ્ચાને જન્મ આપી શકશે? શું તેનું બચ્ચુ બચી શકશે?
કે પછી દાવાનળમાં બધું સળગીને ભસ્મીભૂત થઈ જશે?
શું હરણી ડાબી તરફ ગઈ હશે? ના,ત્યાં તો શિકારી તેના તરફ બાણનું નિશાન તાકી ઉભો હતો.
શું હરણી જમણી તરફ ગઈ હશે?ના,ત્યાં સિંહ તેને ખાઈ જવા તૈયાર હતો.
શું હરણી આગળ જઈ શકે તેમ હતી?ના,ત્યાં ધસમસ્તી નદી તેને ટાની જઈ શકે એમ હતું.
શું હરણી પાછળ જઈ શકે તેમ હતી?ના,ત્યાં દાવાનળ તેને બાળીને ભસ્મ કરી દઈ શકે તેમ હતો.
જવાબ : આ ઘટના સ્ટોકેઇસ્ટીક પ્રોબેબીલીટી થિયરીનું એક ઉદાહરણ છે.
તે કંઈજ કરતી નથી.તે માત્ર પોતાના બચ્ચાને,એક નવા જીવને જન્મ આપવા પર જ ધ્યાન કેન્દ્રિત કરે છે. એ ક્ષણ પછીની ફક્ત એક જ બીજી ક્ષણમાં આ પ્રમાણે ઘટનાક્રમ બનવા પામે છે.
એક ક્ષણમાં શિકારી પર વિજળી પડે છે અને તે અંધ બની જાય છે.આકસ્મિક બનેલી આ ઘટનાને લીધે શિકારી નિશાન ચૂકી જાય છે અને તીર હરણીની બાજુમાંથી પસાર થઈ જાય છે. તીર સિંહના શરીરમાં ઘૂસી જાય છે અને તે બૂરી રીતે ઘાયલ થઈ જાય છે. એ જ ક્ષણે મૂશળધાર વર્ષા વરસે છે અને દાવાનળને બૂઝાવી નાંખે છે. એ જ ક્ષણે હરણી એક સુંદર,તંદુરસ્ત બચ્ચાને જન્મ આપે છે.
આપણા સૌના જીવનમાં એવી કેટલીક ક્ષણો આવે છે જ્યારે બધી દિશાઓમાંથી નકારાત્મક વિચારો અને સંજોગો આપણને ઘેરી વળે છે.એમાંના કેટલાક વિચારો તો એટલા શક્તિશાળી હોય છે કે તે આપણા પર હાવી થઈ જાય છે અને આપણને શૂન્યમનસ્ક બનાવી મૂકે છે.
પણ જીવનમાં એક જ ક્ષણમાં પરિસ્થીતી તદ્દન બદલાઈ જઈ શકે છે.જો તમે ધાર્મિક હોવ,અંધશ્રદ્ધાળુ હોવ,નાસ્તિક હોવ,આધ્યાત્મિક હોવ, અજ્ઞેય હોવ કે ગમે તે હોવ,આ એક ક્ષણને આમાંની કોઈ પણ એક રીતે મૂલવી શકો છો – ઇશ્વરનો ચમત્કાર, શ્રદ્ધા, સદનસીબ, યોગાનુયોગ, કર્મ કે પછી ‘ખબર નહિ કઈ રીતે (આમ બનવા પામ્યું)’
એ ક્ષણે હરણી માટે સૌથી વધુ અગત્યની બાબત હતી બચ્ચાને જન્મ આપવો કારણ જિંદગી એક અતિ મૂલ્યવાન ચીજ છે.
ચાલો આપણે સૌ ઇશ્વરને પ્રાર્થના કરી કે ભવિષ્યમાં આપણને આવી હકારાત્મક દ્રષ્ટી પ્રાપ્ત થાય અને કોઈ પણ નકારાત્મક કલ્પના કે વિચાર આપણને સ્પર્શી પણ ન શકે

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रामायण पवित्र ग्रंथ है। इसकी कथा जितनी #आदर्श है उसके पात्र उतने ही #प्रेरणादायी। क्या आप रामायण के सभी #पात्रों को जानते हैं, नहीं, तो यह जानकारी आपके लिए है। प्रस्तुत है रामायण के #प्रमुख पात्र और उनका #परिचय …

दशरथ – रघुवंशी राजा इन्द्र के मित्र कौशल के राजा तथा राजधानी एवं निवास अयोध्या

कौशल्या – दशरथ की बड़ी रानी, राम की माता

सुमित्रा – दशरथ की मंझली रानी, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न की माता

कैकयी – दशरथ की छोटी रानी, भरत की माता

सीता – जनकपुत्री,राम की पत्नी

उर्मिला – जनकपुत्री, लक्ष्मण की पत्नी

मांडवी – जनक के भाई कुशध्वज की पुत्री,भरत की पत्नी

श्रुतकीर्ति – जनक के भाई कुशध्वज की पुत्री,शत्रुघ्न की पत्नी

राम – दशरथ तथा कौशल्या के पुत्र, सीता के पति

लक्ष्मण – दशरथ तथा सुमित्रा के पुत्र,उर्मिला के पति

भरत – दशरथ तथा कैकयी के पुत्र,मांडवी के पति

शत्रुघ्न – दशरथ तथा सुमित्रा के पुत्रश्रुतकीर्ति के पति,मथुरा के राजा लवणासूर के संहारक

शान्ता – दशरथ की पुत्री,राम भगिनी

बाली – किष्किन्धा (पंपापुर) का राजा,रावण का मित्र तथा साढ़ू,साठ हजार हाथियों का बल

सुग्रीव – बाली का छोटा भाई,जिनकी हनुमान जी ने मित्रता करवाई

तारा – बाली की पत्नी,अंगद की माता, पंचकन्याओं में स्थान

रुमा – सुग्रीव की पत्नी,सुषेण वैद्य की बेटी

अंगद – बाली तथा तारा का पुत्र ।

रावण – ऋषि पुलस्त्य का पौत्र, विश्रवा तथा पुष्पोत्कटा का पुत्र

कुंभकर्ण – रावण तथा कुंभिनसी का भाई, विश्रवा तथा पुष्पोत्कटा का पुत्र

कुंभिनसी – रावण तथा कुुंंभकर्ण की भगिनी,विश्रवा तथा पुष्पोत्कटा की पुत्री

विश्रवा – ऋषि पुलस्त्य का पुत्र, पुष्पोत्कटा-राका-मालिनी का पति

विभीषण – विश्रवा तथा राका का पुत्र,राम का भक्त

पुष्पोत्कटा – विश्रवा की पत्नी,रावण, कुंभकर्ण तथा कुंभिनसी की माता

राका – विश्रवा की पत्नी,विभीषण की माता

मालिनी – विश्रवा की तीसरी पत्नी,खर-दूषण,त्रिसरा तथा शूर्पणखा की माता ।

त्रिसरा – विश्रवा तथा मालिनी का पुत्र,खर-दूषण का भाई एवं सेनापति

शूर्पणखा – विश्रवा तथा मालिनी की पुत्री, खर-दूषण एवं त्रिसरा की भगिनी,विंध्य क्षेत्र में निवास ।

मंदोदरी – रावण की पत्नी,तारा की भगिनी, पंचकन्याओं में स्थान

मेघनाद – रावण का पुत्र इंद्रजीत,लक्ष्मण द्वारा वध

दधिमुख – सुग्रीव का मामा

ताड़का – राक्षसी,मिथिला के वनों में निवास,राम द्वारा वध।

मारिची – ताड़का का पुत्र,राम द्वारा वध (स्वर्ण मृग के रूप में)।

सुबाहू – मारिची का साथी राक्षस,राम द्वारा वध।

सुरसा – सर्पों की माता।

त्रिजटा – अशोक वाटिका निवासिनी राक्षसी, रामभक्त,सीता से अनुराग।

प्रहस्त – रावण का सेनापति,राम-रावण युद्ध में मृत्यु।

विराध – दंडक वन में निवास,राम लक्ष्मण द्वारा मिलकर वध।

शंभासुर – राक्षस, इन्द्र द्वारा वध, इसी से युद्ध करते समय कैकेई ने दशरथ को बचाया था तथा दशरथ ने वरदान देने को कहा।

सिंहिका(लंकिनी) – लंका के निकट रहने वाली राक्षसी,छाया को पकड़कर खाती थी।

कबंद – दण्डक वन का दैत्य,इन्द्र के प्रहार से इसका सर धड़ में घुस गया,बाहें बहुत लम्बी थी,राम-लक्ष्मण को पकड़ा राम-लक्ष्मण ने गड्ढा खोद कर उसमें गाड़ दिया।

जामवंत – रीछ,रीछ सेना के सेनापति।

नल – सुग्रीव की सेना का वानरवीर।

नील – सुग्रीव का सेनापति जिसके स्पर्श से पत्थर पानी पर तैरते थे,सेतुबंध की रचना की थी।

नल और नील – सुग्रीव सेना मे इंजीनियर व राम सेतु निर्माण में महान योगदान। (विश्व के प्रथम इंटरनेशनल हाईवे “रामसेतु”के आर्किटेक्ट इंजीनियर)

शबरी – अस्पृश्य जाति की रामभक्त, मतंग ऋषि के आश्रम में राम-लक्ष्मण-सीता का आतिथ्य सत्कार।

संपाती – जटायु का बड़ा भाई,वानरों को सीता का पता बताया।

जटायु – रामभक्त पक्षी,रावण द्वारा वध, राम द्वारा अंतिम संस्कार।

गुह – श्रंगवेरपुर के निषादों का राजा, राम का स्वागत किया था।

हनुमान – पवन के पुत्र,राम भक्त,सुग्रीव के मित्र।

सुषेण वैद्य – सुग्रीव के ससुर ।

केवट – नाविक,राम-लक्ष्मण-सीता को गंगा पार कराई।

शुक्र-सारण – रावण के मंत्री जो बंदर बनकर राम की सेना का भेद जानने गए।

अगस्त्य – पहले आर्य ऋषि जिन्होंने विन्ध्याचल पर्वत पार किया था तथा दक्षिण भारत गए।

गौतम – तपस्वी ऋषि,अहिल्या के पति,आश्रम मिथिला के निकट।

अहिल्या – गौतम ऋषि की पत्नी,इन्द्र द्वारा छलित तथा पति द्वारा शापित,राम ने शाप मुक्त किया,पंचकन्याओं में स्थान।

ऋण्यश्रंग – ऋषि जिन्होंने दशरथ से पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराया था।

सुतीक्ष्ण – अगस्त्य ऋषि के शिष्य,एक ऋषि।

मतंग – ऋषि,पंपासुर के निकट आश्रम, यहीं शबरी भी रहती थी।

वशिष्ठ – अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं के गुरु।

विश्वामित्र – राजा गाधि के पुत्र,राम-लक्ष्मण को धनुर्विद्या सिखाई थी।

शरभंग – एक ऋषि, चित्रकूट के पास आश्रम।

सिद्धाश्रम – विश्वमित्र के आश्रम का नाम।

भारद्वाज – वाल्मीकि के शिष्य,तमसा नदी पर क्रौंच पक्षी के वध के समय वाल्मीकि के साथ थे,मां-निषाद’ वाला श्लोक कंठाग्र कर तुरंत वाल्मीकि को सुनाया था।

सतानन्द – राम के स्वागत को जनक के साथ जाने वाले ऋषि।

युधाजित – भरत के मामा।

जनक – मिथिला के राजा।

सुमन्त – दशरथ के आठ मंत्रियों में से प्रधान ।

मंथरा – कैकयी की मुंह लगी दासी,कुबड़ी।

देवराज – जनक के पूर्वज-जिनके पास परशुराम ने शंकर का धनुष सुनाभ (पिनाक) रख दिया था।

मय दानव – रावण का ससुर और उसकी पत्नी मंदोदरी का पिता

मायावी –मय दानव का पुत्र और रावण का साला, जिसका बालि ने वध किया था

मारीच –रावण का मामा

सुमाली –रावण का नाना

माल्यवान –सुमाली का भाई, रावण का वयोवृद्ध मंत्री

नारंतक – रावण का पुत्र,मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण रावण ने उसे सागर में प्रवाहित कर दिया था। रावण ने अकेले पड़ जाने के कारण युद्ध में उसकी सहायता ली थी।

दधिबल – अंगद का पुत्र जिसने नारंतक का वध किया था। नारंतक शापित था कि उसका वध दधिबल ही करेगा।

अयोध्या – राजा दशरथ के कौशल प्रदेश की राजधानी,बारह योजन लंबी तथा तीन योजन चौड़ी नगर के चारों ओर ऊंची व चौड़ी दीवारों व खाई थी,राजमहल से आठ सड़कें बराबर दूरी पर परकोटे तक जाती थी।

साभार संकलन पं. प्रणयन एम पाठक 👏👏

जयश्रीराम🚩🚩

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क्रौंच पक्षी वध से द्रवित होकर वाल्मीकि के मुंह से निकला रामायण का ये पद

मनुष्य ने पहली कविता कब लिखी, यह बता पाना बहुत कठिन है। परन्तु, संस्कृत के आदि कवि वाल्मीकि के बारे में कहा जाता है कि प्रथम काव्याभियक्ति उन्हीं के स्वर से हुई है।

रामायण में सारस जैसे एक क्रौंच पक्षी का वर्णन भी आता है। भारद्वाज मुनि और ऋषि वाल्मीकि क्रौंच पक्षी के वध के समय तमसा नदी के तट पर थे। भगवान श्रीराम के समकालीन ऋषि थे वाल्मीकि। उन्होंने रामायण तब लिखी, जब रावण-वध के बाद राम का राज्याभिषेक हो चुका था। वे रामायण लिखने के लिए सोच रहे थे और विचार-विमर्श कर रहे थे लेकिन उनको कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।

तब एक दिन सुबह गंगा के पास बहने वाली तमसा नदी के एक अत्यंत निर्मल जल वाले तीर्थ पर मुनि वाल्मीकि अपने शिष्य भारद्वाज के साथ स्नान के लिए गए। वहां नदी के किनारे पेड़ पर क्रौंच पक्षी का एक जोड़ा अपने में मग्न था, तभी व्याध ने इस जोड़े में से नर क्रौंच को अपने बाण से मार गिराया। रोती हुई मादा क्रौंच भयानक विलाप करने लगी। इस हृदयविदारक घटना को देखकर वाल्मीकि का हृदय इतना द्रवित हुआ कि उनके मुख से अचानक श्लोक फूट पड़ा:-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।।

अर्थात- निषाद। तुझे कभी भी शांति न मिले, क्योंकि तूने इस क्रौंच के जोड़े में से एक की, जो काम से मोहित हो रहा था, बिना किसी अपराध के ही हत्या कर डाली।

गुरु वाल्मीकि ने जब भारद्वाज से कहा कि यह जो मेरे शोकाकुल हृदय से फूट पड़ा है, उसमें चार चरण हैं, हर चरण में अक्षर बराबर संख्या में हैं और इनमें मानो तंत्र की लय गूंज रही है अत: यह श्लोक के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता।

पादबद्धोक्षरसम: तन्त्रीलयसमन्वित:।
शोकार्तस्य प्रवृत्ते मे श्लोको भवतु नान्यथा।।

करुणा में से काव्य का उदय हो चुका था, जो वैदिक काव्य की शैली, भाषा और भाव से एकदम अलग था, नया था और इसीलिए वाल्मीकि को ब्रह्मा का आशीर्वाद मिला कि तुमने काव्य रचा है, तुम आदिकवि हो, अपनी इसी श्लोक शैली में रामकथा लिखना, जो तब तक दुनिया में रहेगी, जब तक पहाड़ और नदियां रहेंगे-

यावत् स्थास्यन्ति गिरय: लरितश्च महीतले।
तावद्रामायणकथा सोकेषु प्रचरिष्यति।।

वाल्मीकि जब अपनी ओर से रामायण की रचना पूरी कर चुके थे तब राम द्वारा परित्यक्ता, गर्भिणी सीता भटकती हुई उनके आश्रम में आ पहुंची। बेटी की तरह सीता को उन्होंने अपने आश्रय में रखा। वहां सीता ने दो जुड़वां बेटों, लव और कुश को जन्म दिया। दोनों बच्चों को वाल्मीकि ने शास्त्र के साथ ही शस्त्र की शिक्षा प्रदान की। इन्हीं बच्चों को मुनि ने अपनी लिखी रामकथा याद कराई जो उन्होंने सीता के आने के बाद फिर से लिखनी शुरू की थी और उसे नाम दिया-उत्तरकांड। उसी रामकथा को कुश और लव ने राम के दरबार में अश्वमेघ यज्ञ के अवसर पर सम्पूर्ण रूप से सुनाया था।

!! जय श्री राम !!
जीवन जी सत्संग है,जीवन जी अनुबंध।
सकल अर्थ में है सखे, श्रीरघुवर की गंध।।
!! जय श्री राम !!

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क्रौंच पक्षी वध से द्रवित होकर वाल्मीकि के मुंह से निकला रामायण का ये पद

मनुष्य ने पहली कविता कब लिखी, यह बता पाना बहुत कठिन है। परन्तु, संस्कृत के आदि कवि वाल्मीकि के बारे में कहा जाता है कि प्रथम काव्याभियक्ति उन्हीं के स्वर से हुई है।

रामायण में सारस जैसे एक क्रौंच पक्षी का वर्णन भी आता है। भारद्वाज मुनि और ऋषि वाल्मीकि क्रौंच पक्षी के वध के समय तमसा नदी के तट पर थे। भगवान श्रीराम के समकालीन ऋषि थे वाल्मीकि। उन्होंने रामायण तब लिखी, जब रावण-वध के बाद राम का राज्याभिषेक हो चुका था। वे रामायण लिखने के लिए सोच रहे थे और विचार-विमर्श कर रहे थे लेकिन उनको कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।

तब एक दिन सुबह गंगा के पास बहने वाली तमसा नदी के एक अत्यंत निर्मल जल वाले तीर्थ पर मुनि वाल्मीकि अपने शिष्य भारद्वाज के साथ स्नान के लिए गए। वहां नदी के किनारे पेड़ पर क्रौंच पक्षी का एक जोड़ा अपने में मग्न था, तभी व्याध ने इस जोड़े में से नर क्रौंच को अपने बाण से मार गिराया। रोती हुई मादा क्रौंच भयानक विलाप करने लगी। इस हृदयविदारक घटना को देखकर वाल्मीकि का हृदय इतना द्रवित हुआ कि उनके मुख से अचानक श्लोक फूट पड़ा:-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।।

अर्थात- निषाद। तुझे कभी भी शांति न मिले, क्योंकि तूने इस क्रौंच के जोड़े में से एक की, जो काम से मोहित हो रहा था, बिना किसी अपराध के ही हत्या कर डाली।

गुरु वाल्मीकि ने जब भारद्वाज से कहा कि यह जो मेरे शोकाकुल हृदय से फूट पड़ा है, उसमें चार चरण हैं, हर चरण में अक्षर बराबर संख्या में हैं और इनमें मानो तंत्र की लय गूंज रही है अत: यह श्लोक के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता।

पादबद्धोक्षरसम: तन्त्रीलयसमन्वित:।
शोकार्तस्य प्रवृत्ते मे श्लोको भवतु नान्यथा।।

करुणा में से काव्य का उदय हो चुका था, जो वैदिक काव्य की शैली, भाषा और भाव से एकदम अलग था, नया था और इसीलिए वाल्मीकि को ब्रह्मा का आशीर्वाद मिला कि तुमने काव्य रचा है, तुम आदिकवि हो, अपनी इसी श्लोक शैली में रामकथा लिखना, जो तब तक दुनिया में रहेगी, जब तक पहाड़ और नदियां रहेंगे-

यावत् स्थास्यन्ति गिरय: लरितश्च महीतले।
तावद्रामायणकथा सोकेषु प्रचरिष्यति।।

वाल्मीकि जब अपनी ओर से रामायण की रचना पूरी कर चुके थे तब राम द्वारा परित्यक्ता, गर्भिणी सीता भटकती हुई उनके आश्रम में आ पहुंची। बेटी की तरह सीता को उन्होंने अपने आश्रय में रखा। वहां सीता ने दो जुड़वां बेटों, लव और कुश को जन्म दिया। दोनों बच्चों को वाल्मीकि ने शास्त्र के साथ ही शस्त्र की शिक्षा प्रदान की। इन्हीं बच्चों को मुनि ने अपनी लिखी रामकथा याद कराई जो उन्होंने सीता के आने के बाद फिर से लिखनी शुरू की थी और उसे नाम दिया-उत्तरकांड। उसी रामकथा को कुश और लव ने राम के दरबार में अश्वमेघ यज्ञ के अवसर पर सम्पूर्ण रूप से सुनाया था।

!! जय श्री राम !!
जीवन जी सत्संग है,जीवन जी अनुबंध।
सकल अर्थ में है सखे, श्रीरघुवर की गंध।।
!! जय श्री राम !!

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प्रभु श्रीराम के धनुष कोदंड की खासियत जानकर चौंक जाएंगे आप
‘कोदंड’ का अर्थ होता है बांस से निर्मित।
कोदंड (Kodanda) : एक बार समुद्र पार करने का जब कोई मार्ग नहीं समझ में आया तो भगवान श्रीराम ने समुद्र को अपने तीर से सुखाने की सोची और उन्होंने तरकश से अपना तीर निकाला ही था और प्रत्यंचा पर चढ़ाया ही था कि समुद्र के देवता वरुणदेव प्रकट हो गए और उनसे प्रार्थना करने लगे थे। बहुत अनुनय-विनय के बाद राम ने अपना तीर तरकश में रख लिया।
भगवान श्रीराम को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है। हालांकि उन्होंने अपने धनुष और बाण का उपयोग बहुत मुश्किल वक्त में ही किया। उनके धनुष बाण को कोदंड कहा जाता था।

देखि राम रिपु दल चलि आवा। बिहसी कठिन कोदण्ड चढ़ावा।।
अर्थात शत्रुओं की सेना को निकट आते देखकर श्रीरामचंद्रजी ने हंसकर कठिन धनुष कोदंड को चढ़ाया।

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि भगवान राम के धनुष का नाम कोदंड था इसीलिए प्रभु श्रीराम को कोदंड कहा जाता था। कोदंड का अर्थ होता है बांस से निर्मित। कोदंड एक चमत्कारिक धनुष था जिसे हर कोई धारण नहीं कर सकता था। कोदंड नाम से भिलाई में एक राम मंदिर भी है जिसे ‘कोदंड रामालयम मंदिर’ कहा जाता है। भगवान श्रीराम ने दंडकारण्य में 10 वर्ष से अधिक समय तक भील, वनवासी और आदिवासियों के बीच रहकर उनकी सेवा की थी।

कोदंड की खासियत :
कोदंड एक ऐसा धनुष था जिसका छोड़ा गया बाण लक्ष्य को भेदकर ही वापस आता था। एक बार की बात है कि देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत ने श्रीराम की शक्ति को चुनौती देने के उद्देश्य से अहंकारवश कौवे का रूप धारण किया और सीताजी को पैर में चोंच मारकर लहू बहाकर भागने लगा।

तुलसीदासजी लिखते हैं कि जैसे मंदबुद्धि चींटी समुद्र की थाह पाना चाहती हो उसी प्रकार से उसका अहंकार बढ़ गया था और इस अहंकार के कारण वह-

।।सीता चरण चोंच हतिभागा। मूढ़ मंद मति कारन कागा।।
।।चला रुधिर रघुनायक जाना। सीक धनुष सायक संधाना।।

वह मूढ़ मंदबुद्धि जयंत कौवे के रूप में सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भाग गया। जब रक्त बह चला तो रघुनाथजी ने जाना और धनुष पर तीर चढ़ाकर संधान किया। अब तो जयंत जान बचाने के लिए भागने लगा।

वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के पास गया, पर इन्द्र ने भी उसे श्रीराम का विरोधी जानकर अपने पास नहीं रखा। तब उसके हृदय में निराशा से भय उत्पन्न हो गया और वह भयभीत होकर भागता फिरा, लेकिन किसी ने भी उसको शरण नहीं दी, क्योंकि रामजी के द्रोही को कौन हाथ लगाए?

जब नारदजी ने जयंत को भयभीत और व्याकुल देखा तो उन्होंने कहा कि अब तो तुम्हें प्रभु श्रीराम ही बचा सकते हैं। उन्हीं की शरण में जाओ। तब जयंत ने पुकारकर कहा- ‘हे शरणागत के हितकारी, मेरी रक्षा कीजिए प्रभु श्रीराम।’…इति रामचरित मानस कथा
साभार

!!! जय जय श्रीराम !!!

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

“रामायण” क्या है??

अगर कभी पढ़ो और समझो तो आंसुओ पे काबू रखना…….

रामायण का एक छोटा सा वृतांत है, उसी से शायद कुछ समझा सकूँ… 😊

एक रात की बात हैं, माता कौशल्या जी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी।
नींद खुल गई, पूछा कौन हैं ?

मालूम पड़ा श्रुतकीर्ति जी (सबसे छोटी बहु, शत्रुघ्न जी की पत्नी)हैं ।
माता कौशल्या जी ने उन्हें नीचे बुलाया |

श्रुतकीर्ति जी आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं

माता कौशिल्या जी ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो बेटी ?
क्या नींद नहीं आ रही ?

शत्रुघ्न कहाँ है ?

श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी,
गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए ।

उफ !
कौशल्या जी का ह्रदय काँप कर झटपटा गया ।

तुरंत आवाज लगाई, सेवक दौड़े आए ।
आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी,
माँ चली ।

आपको मालूम है शत्रुघ्न जी कहाँ मिले ?

अयोध्या जी के जिस दरवाजे के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले !!

माँ सिराहने बैठ गईं,
बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी नेआँखें खोलीं,

माँ !

उठे, चरणों में गिरे, माँ ! आपने क्यों कष्ट किया ?
मुझे बुलवा लिया होता ।

माँ ने कहा,
शत्रुघ्न ! यहाँ क्यों ?”

शत्रुघ्न जी की रुलाई फूट पड़ी, बोले- माँ ! भैया राम जी पिताजी की आज्ञा से वन चले गए,
भैया लक्ष्मण जी उनके पीछे चले गए, भैया भरत जी भी नंदिग्राम में हैं, क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं ?

माता कौशल्या जी निरुत्तर रह गईं ।

देखो क्या है ये रामकथा…

यह भोग की नहीं….त्याग की कथा हैं..!!

यहाँ त्याग की ही प्रतियोगिता चल रही हैं और सभी प्रथम हैं, कोई पीछे नहीं रहा… चारो भाइयों का प्रेम और त्याग एक दूसरे के प्रति अद्भुत-अभिनव और अलौकिक हैं ।

“रामायण” जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देती हैं ।

भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी सीता माईया ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया..!!

परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण जी कैसे राम जी से दूर हो जाते!
माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की..

परन्तु जब पत्नी “उर्मिला” के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी,
परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा.??

क्या बोलूँगा उनसे.?

यहीं सोच विचार करके लक्ष्मण जी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी आरती का थाल लेके खड़ी थीं और बोलीं-

“आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु श्रीराम की सेवा में वन को जाओ…मैं आपको नहीं रोकूँगीं। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।”

लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था.!!

परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया..!!

वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है..पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे.!!

लक्ष्मण जी चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया.!!

वन में “प्रभु श्री राम माता सीता” की सेवा में लक्ष्मण जी कभी सोये नहीं , परन्तु उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया.!!

मेघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मण जी को “शक्ति” लग जाती है और हनुमान जी उनके लिये संजीवनी का पर्वत लेके लौट रहे होते हैं, तो बीच में जब हनुमान जी अयोध्या के ऊपर से गुजर रहे थे तो भरत जी उन्हें राक्षस समझकर बाण मारते हैं और हनुमान जी गिर जाते हैं.!!

तब हनुमान जी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि, सीता जी को रावण हर ले गया, लक्ष्मण जी युद्ध में मूर्छित हो गए हैं।

यह सुनते ही कौशल्या जी कहती हैं कि राम को कहना कि “लक्ष्मण” के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना। राम वन में ही रहे.!!

माता “सुमित्रा” कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं..अभी शत्रुघ्न है.!!

मैं उसे भेज दूंगी..मेरे दोनों पुत्र “राम सेवा” के लिये ही तो जन्मे हैं.!!

माताओं का प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिला जी को देखा तो सोचने लगे कि, यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं?

क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं?

हनुमान जी पूछते हैं- देवी!

आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं…सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा।

उर्मिला जी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा.!!

उर्मिला बोलीं- “
मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता.!!

रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता.!!

आपने कहा कि, प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं..!

जो “योगेश्वर प्रभु श्री राम” की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता..!!

यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं..

मेरे पति जब से वन गये हैं, तबसे सोये नहीं हैं..

उन्होंने न सोने का प्रण लिया था..इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं..और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया…वे उठ जायेंगे..!!

और “शक्ति” मेरे पति को लगी ही नहीं, शक्ति तो प्रभु श्री राम जी को लगी है.!!

मेरे पति की हर श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में ही सिर्फ राम हैं, तो शक्ति राम जी को ही लगी, दर्द राम जी को ही हो रहा.!!

इसलिये हनुमान जी आप निश्चिन्त होके जाएँ..सूर्य उदित नहीं होगा।”

राम राज्य की नींव जनक जी की बेटियां ही थीं…

कभी “सीता” तो कभी “उर्मिला”..!!

भगवान् राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया ..परन्तु वास्तव में राम राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण और बलिदान से ही आया .!!

जिस मनुष्य में प्रेम, त्याग, समर्पण की भावना हो उस मनुष्य में राम हि बसता है…
कभी समय मिले तो अपने वेद, पुराण, गीता, रामायण को पढ़ने और समझने का प्रयास कीजिएगा .,जीवन को एक अलग नज़रिए से देखने और जीने का सऊर मिलेगा .!!

“लक्ष्मण सा भाई हो, कौशल्या माई हो,
स्वामी तुम जैसा, मेरा रघुराइ हो..
नगरी हो अयोध्या सी, रघुकुल सा घराना हो,
चरण हो राघव के, जहाँ मेरा ठिकाना हो..
हो त्याग भरत जैसा, सीता सी नारी हो,
लव कुश के जैसी, संतान हमारी हो..
श्रद्धा हो श्रवण जैसी, सबरी सी भक्ति हो,
हनुमत के जैसी, निष्ठा और शक्ति हो… “

!! जय जय श्री राम !!