. सन्त का जूठा
भगवान के प्रति सबकी अपनी अपनी निष्ठा होती है, अपने अपने भाव होते है, एक बाबा का बड़ा प्यारा भाव ठाकुर जी के प्रति था।
सन्त नित्य ठाकुर जी को भोग लगाते और फिर उस भोग को स्वयं खाया करते थे।
एक दिन किसी मन्दिर में भण्डारा था, भण्डारे में बहुत सारा भोजन बनना था और बनने के बाद पहले सन्तो को पवाते फिर सबको मिलता इसमें बहुत देर लगती।
अब बाबा ने सोचा बहुत देर हो गई है तो ये सोचकर बाबा ने मिश्री का भोग ठाकुर जी को लगाया और मन्दिर चले गए।
फिर जब सन्तो ने पा लिया तब मन्दिर से भण्डार ग्रह से भोग लेकर घर की तरफ चले कि ठाकुर जी को भोग लगाकर हम भी पा लेंगे।
जब घर के निकट पहुँचे तो सोचने लगे मिश्री का भोग तो मैं लगाकर गया था अब इसकी क्या जरुरत है और दोने में से उठाकर एक ग्रास खा लिया।
जब निवाला मुँह में रखा तो सोचने लगे जब घर तक आ ही गया था तो भगवान को भोग लगाकर फिर खाता, पर अब तो निवाला मुख में डाल ही चुके थे।
बाबा को इस बात से बड़ा दुःख हुआ।
बाबा मन ही मन अपने को धिकारने लगे रे पापी ! ठाकुर जी को भोग लगाकर खाता तो क्या जाता, घर के बाहर तक तो आ ही चुका था।
अब तो बाबा को इतना दुःख हुआ कि वह मुँह का ग्रास उगला भी नहीं और निगला भी नहीं निगला इसलिए नहीं कि ठाकुर जो को भोग नहीं लगाया था और उगला इसलिए नहीं कि भण्डारे से लाए भोग का अनादर हो जाता।
बाबा घर के बाहर ही बैठ गए और उनके दोनों आँखों से आँसूओं कि धारा बहने लगी।
बाबा को ऐसे बैठे हुए दो दिन बीत गए तीसरे दिन रात को एक छोटा सा बालक दौड़ता हुआ आया और बाबा का मुँह अपने हाथ से खोलकर ग्रास निकाला और खुद वह ग्रास खाया और बाबा कुछ कहते इससे पहले ही वह अँधेरे में गुम हो गया।
बाबा अवाक् देखते रहे क्योंकि वे इतने दुःख में डूबे हुए थे उन्हें दीन दुनिया कि कोई खबर ही नहीं थी। कुछ देर बाद बाबा अंदर गए और ठाकुर जी के चरणों में गिर कर रोने लगे और बोले वाह प्रभु अपने तुच्छ दास के लिए तुमने मेरे मुख का जूठा स्वयं खा लिया।
सच है भक्त का भाव पूरा करने के लिए भगवन कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाते है।~०~ "जय जय श्री राधे"