—–विजेता —–
“बाबा, खेलो न!”
“दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँ तुम्हें ढूँढ रही होगी।”
“माँ को पता है- मैं तुम्हारे पास हूँ । वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। पकड़म- पकड़ाई ही खेल लो न !”
“बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है ।”
“मुझे नहीं खेलना उनके साथ । वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते ।” अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला, “मेरा खाना तो माँ बनाती है, तुम्हारी माँ कहाँ है?”
“मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गयी थी।” नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कराकर कहा ।
“बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नज़दीक आकर उसका झुर्रियों भरा चेहरा अपने नन्हें हाथों में भर लिया,”अब तुम्हें अपना खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मै माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!”
“दोस्त!” बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, “अपना काम खुद ही करना चाहिए—और फिर—अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ—है न !”
“और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।”
“तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें ।” बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा। बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।
कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गये।बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पटटी बाँधने लगा।
पटटी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया- मोतियाबिन्द के आपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिल्कुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।
“बाबा,पकड़ो—पकड़ो!” बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था,
उसने बच्चे को हाथ पकड़ने के लिए हाथ फैलाए तो एक विचार उसके मस्तिक में कौंधा-जब दूसरी आँख से भी अंधा हो जाएगा—तब?—तब?—वह—क्या करेगा?—किसके पास रहेगा?—बेटों के पास? नहीं—नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया—हर बार अपमानित होकर लौटा है—तो फिर?—
“मैं यहाँ हूँ—मुझे पकड़ो!”
उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए—हाथ से टटोलकर देखा—मेज—उस पर रखा गिलास—पानी का जग—यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई—और –और—यह रहा बिजली का स्विच—लेकिन —तब—मुझ अंधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?—होगी—तब भी रोशनी की ज़रुरत होगी—अपने लिए नहीं—दूसरों के लिए—मैंने कर लिया—मैं तब भी अपना काम खुद कर लूँगा!”
“बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए—तुम हार गए—तुम हार गए!” बच्चा तालियाँ पीट रहा था।
बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होंठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी। ----- सुकेश साहनी