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पहले बात करते हैं बोड्स लॉ(Bode’s Law) की, इसने पृथ्वी से ग्रहों की दूरी का एक समानुपातिक गणित दिया और बताया कि प्रत्येक ग्रह दूनी दूनी दूरी पर स्थित है। Titius ने सन् 1766 में Bode को लिखा था और सन् 1772 में यह प्रचारित हुआ। इसके बाद ही सन् 1801 में मंगल तथा बृहस्पति के मध्य Ceres को खोजा गया था। Titius-Bode से भी पहले Gregory ने 1702 में इसे लिखा था। कुछ अन्य सन्दर्भ भी मिलते हैं कि योरुप में यह बात कुछ अन्य लोग भी लिख पढ़ रहे थे। इस प्रकार Bode’s Law को अब Gregory-Wolff-Titius-Bode Law भी कहा जाने लगा है।
ग्रहों की अवस्थिति तथा दूरी के समानुपात की अवधारणा या सूत्र वस्तुतः अत्यन्त प्राचीन है और भारतीय पुराणों में ही इसका सर्वप्रथम उल्लेख प्राप्त होता है।
महाभारत युद्ध का हाल जब संजय धृतराष्ट्र को सुनाने पहुँचता है तब आरम्भ में भूमि के वर्णन के साथ ही सौरमण्डल का वर्णन भी है क्योंकि पृथ्वी सौरमण्डल के अन्तर्गत है और उसी पृथ्वी पर ही युद्ध हुआ था।
धृतराष्ट्र बोले- संजय! तुमने यहाँ #जम्बूखण्‍ड का यथावत् वर्ण‍न किया है। अब तुम इसके विस्तार और परिमाण को ठीक-ठीक बताओ। संजय! समुद्र के सम्पूर्ण परिमाण को भी अच्छी तरह समझा कर कहो। इसके बाद मुझसे #शाकद्वीप और #कुशद्वीप का वर्णन करो। संजय! इसी प्रकार #शाल्मलिद्वीप, #क्रौंचद्वीप तथा सूर्य, चन्द्रमा एवं राहु से सम्बन्ध रखने वाली सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन करो।

संजय बोले- राजन्! बहुत-से द्वीप हैं, जिनसे सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है। अब मैं आपकी आज्ञा के अनुसार सात द्वीपों का तथा चन्द्रमा, सूर्य और राहु का भी वर्णन करूंगा। राजन्! जम्बूद्वीप का विस्तार पूरे 18600 योजन है। इसके चारों ओर जो खारे पानी का समुद्र है, उसका विस्तार जम्बूद्वीप की अपेक्षा दूना माना गया है। लवणसमुद्र सब ओर से मण्‍डलाकार है। राजन्! अब मैं शाकद्वीप का यथावत् वर्णन आरम्भ करता हूँ। कुरुनन्दन! मेरे इस न्यायोचित कथन को आप ध्‍यान देकर सुनें।

महाराज! नरेश्‍वर! वह द्वीप विस्तार की दृष्टि से जम्बूद्वीप के परिमाण से दूना है। भरतश्रेष्‍ठ! उसका समुद्र भी विभागपूर्वक उससे दूना ही है। भरतश्रेष्‍ठ! उस समुद्र का नाम क्षीरसागर है, जिसने उक्त द्वीप को सब ओर से घेर रखा है।

संजय बोले- महाराज! कुरुनन्दन! इसके बाद वाले द्वीपों के विषय में जो बातें सुनी जाती हैं, वे इस प्रकार हैं; उन्हें आप मुझसे सुनिये। #क्षीरोद समुद्र के बाद #घृतोद समुद्र है। फिर #दधिमण्‍डोदक समुद्र है। इनके बाद #सुरोद समुद्र है, फिर #मीठे पानी का सागर है। महाराज! इन समुद्रों से घिरे हुए सभी द्वीप और पर्वत उत्तरोत्तर #दुगुने विस्तार वाले हैं।
धृतराष्ट्र बोले- संजय! तुमने द्वीपों की स्थिति के विषय में तो बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया है। अब जो अन्तिम विषय- सूर्य, चन्द्रमा तथा राहु का प्रमाण बताना शेष रह गया है, उसका वर्णन करो। संजय बोले- महाराज! मैंने द्वीपों का वर्णन तो कर दिया। अब ग्रहों का यथार्थ वर्णन सुनिये। कौरवश्रेष्‍ठ! राहु की जितनी बड़ी लंबाई-चौड़ाई सुनने में आती है, वह आपको बताता हूँ। महाराज! सुना है कि राहु ग्रह मण्‍डलाकार है। निष्‍पाप नरेश! राहु ग्रह का व्यासगत विचार बारह हजार योजन है और उसकी परिधि का विस्तार छत्तीस हजार योजन है। पौराणिक विद्वान् उसकी विपुलता (मोटाई) छ: हजार योजन की बताते हैं। राजन्! चन्द्रमा का व्यास ग्यारह हजार योजन है।
कुरूश्रेष्ठ! उनकी परिधि या मण्‍डल का विस्तार तैंतीस हजार योजन बताया गया है और महामना शीतरश्मि चन्द्रमा का वैपुल्यगत विस्तार (मोटाई) उनसठ सौ योजन हैं। कुरुनन्दन! सूर्य का व्यासगत विस्तार दस हजार योजन है और उनकी परिधि या मण्‍डल का‍ विस्तार तीस हजार योजन है तथा उनकी विपुलता अट्ठावन सौ योजन की है।

अनघ! इस प्रकार शीघ्रगामी परम उदार भगवान् सूर्य के त्रिविध विस्तार का वर्णन सुना जाता है। भारत! यहाँ सूर्य का प्रमाण बताया गया, इन दोनों से अधिक विस्तार रखने के कारण राहु यथासमय इन सूर्य और चन्द्रमा को आच्छादित कर लेता है।

✍🏼अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी

🎋”भूतपूर्व वैयाकरणज्ञ 🔥भव्य-भारत”🎋
एक समय था, जब भारत सम्पूर्ण विश्व में प्रत्येक क्षेत्र सबसे आगे था । प्राचीन काल में सभी भारतीय बहुश्रुत,वेद-वेदाङ्गज्ञ थे । राजा भोज को तो एक साधारण लकडहारे ने भी व्याकरण में छक्के छुडा दिए थे ।व्याकरण शास्त्र की इतनी प्रतिष्ठा थी की व्याकरण ज्ञान शून्य को कोई अपनी लड़की तक नही देता था ,यथा :- “अचीकमत यो न जानाति,यो न जानाति वर्वरी।अजर्घा यो न जानाति,तस्मै कन्यां न दीयते”

यह तत्कालीन लोक में ख्यात व्याकरणशास्त्रीय उक्ति है ‘अचीकमत, बर्बरी एवं अजर्घा इन पदों की सिद्धि में जो सुधी असमर्थ हो उसे कन्या न दी जाये” प्रायः प्रत्येक व्यक्ति व्याकरणज्ञ हो यही अपेक्षा होती थी ताकि वह स्वयं शब्द के साधुत्व-असाधुत्व का विवेकी हो,स्वयं वेदार्थ परिज्ञान में समर्थ हो, इतना सम्भव न भी हो तो कम से कम इतने संस्कृत ज्ञान की अपेक्षा रखी ही जाती थी जिससे वह शब्दों का यथाशक्य शुद्ध व पूर्ण उच्चारण करे :-
यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।
स्वजनो श्वजनो माऽभूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत्॥

अर्थ : ” पुत्र! यदि तुम बहुत विद्वान नहीं बन पाते हो तो भी व्याकरण (अवश्य) पढ़ो ताकि ‘स्वजन’ ‘श्वजन’ (कुत्ता) न बने और ‘सकल’ (सम्पूर्ण) ‘शकल’ (टूटा हुआ) न बने तथा ‘सकृत्’ (किसी समय) ‘शकृत्’ (गोबर का घूरा) न बन जाय। “

भारत का जन जन की व्याकरणज्ञता सम्बंधित प्रसंग “वैदिक संस्कृत” पेज के महानुभव ने भी आज ही उद्धृत की है जो महाभाष्य ८.३.९७ में स्वयं पतञ्जलि महाभाग ने भी उद्धृत की हैं ।

सारथि के लिए उस समय कई शब्द प्रयोग में आते थे । जैसे—सूत, सारथि, प्राजिता और प्रवेता ।

आज हम आपको प्राजिता और प्रवेता की सिद्धि के बारे में बतायेंगे और साथ ही इसके सम्बन्ध में रोचक प्रसंग भी बतायेंगे ।

रथ को हाँकने वाले को “सारथि” कहा जाता है । सारथि रथ में बाई ओर बैठता था, इसी कारण उसे “सव्येष्ठा” भी कहलाता थाः—-देखिए,महाभाष्य—८.३.९७

सारथि को सूत भी कहा जाता था , जिसका अर्थ था—-अच्छी प्रकार हाँकने वाला । इसी अर्थ में प्रवेता और प्राजिता शब्द भी बनते थे । इसमें प्रवेता व्यकारण की दृष्टि से शुद्ध था , किन्तु लोक में विशेषतः सारथियों में “प्राजिता” शब्द का प्रचलन था ।

भाष्यकार ने गत्यर्थक “अज्” को “वी” आदेश करने के प्रसंग में “प्राजिता” शब्द की निष्पत्ति पर एक मनोरंजक प्रसंग दिया है । उन्होंने “प्राजिता” शब्द का उल्लेख कर प्रश्न किया है कि क्या यह प्रयोग उचित है ? इसके उत्तर में हाँ कहा है ।

कोई वैयाकरण किसी रथ को देखकर बोला, “इस रथ का प्रवेता (सारथि) कौन है ?”

सूत ने उत्तर दिया, “आयुष्मन्, इस रथ का प्राजिता मैं हूँ ।”

वैयाकरण ने कहा, “प्राजिता तो अपशब्द है ।”

सूत बोला, देवों के प्रिय आप व्याकरण को जानने वाले से निष्पन्न होने वाले केवल शब्दों की ही जानकारी रखते हैं, किन्तु व्यवहार में कौन-सा शब्द इष्ट है, वह नहीं जानते । “प्राजिता” प्रयोग शास्त्रकारों को मान्य है ।”

इस पर वैयाकरण चिढकर बोला, “यह दुरुत (दुष्ट सारथि) तो मुझे पीडा पहुँचा रहा है ।”

सूत ने शान्त भाव से उत्तर दिया, “महोदय ! मैं सूत हूँ । सूत शब्द “वेञ्” धातु के आगे क्त प्रत्यय और पहले प्रशंसार्थक “सु” उपसर्ग लगाकर नहीं बनता, जो आपने प्रशंसार्थक “सूत” निकालकर कुत्सार्थक “दुर्” उपसर्ग लगाकर “दुरुत” शब्द बना लिया । सूत तो “सूञ्” धातु (प्रेरणार्थक) से बनता है और यदि आप मेरे लिए कुत्सार्थक प्रयोग करना चाहते हैं, तो आपको मुझे “दुःसूत” कहना चाहिए, “दुरुत” नहीं ।

उपर्युक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि सारथि, सूत और प्राजिता तीनों शब्दों का प्रचलन हाँकने वाले के लिए था । व्याकरण की दृष्टि से प्रवेता शब्द शुद्ध माना जाता था । इसी प्रकार “सूत” के विषय में भी वैयाकरणों में मतभेद था ।
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इत्यलयम् 🌺 संलग्न कथानक के लिये “वैदिक संस्कृत” पृष्ठ के प्रति कृतज्ञ हूँ।💐

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