ओशो…
मैं एक यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। मेरे जो वाइस—चांसलर थे, नए— नए आए थे। तो मैं उनसे मिलने गया। जैसे ही मैं उनसे मिलने पहुंचा, उन्होंने मुझसे कहा, कैसे आए? तो मैंने कहा, जाता हूं। क्योंकि किसी काम से नहीं आया। सिर्फ राम—राम करने आया।
उन्होंने कहा, क्या मतलब! वे थोड़े हैरान हुए कि पढ़ा—लिखा लडका, राम—राम करने! मैंने कहा, आप अजनबी आए हैं, नए—नए आए हैं। मैं आपके पड़ोस में ही हूं। पड़ोसी हैं। सिर्फ राम—राम करने आया। और अब कभी नहीं आऊंगा। क्योंकि मैंने यह नहीं सोचा था कि आप पूछेंगे, कैसे आए?
इसका मतलब यह है कि आपके पास जो लोग आते हैं, काम से ही आते हैं, कोई गैर—काम नहीं आता। और आप भी जिनके पास जाते होंगे, काम से ही जाते होंगे, गैर—काम नहीं जाते। तो आपकी जिंदगी फिजूल है। सिर्फ काम ही काम है या कुछ और भी है उसमें!
मैं तो चला गया कहकर; वे नाराज भी हुए होंगे, परेशान भी हुए होंगे, सोचते भी रहे होंगे। दूसरे दिन उन्होंने मुझे बुलवाया कि मैं रात सो नहीं सका। तुम्हारा क्या मतलब है? सच में मुझे ऐसा लगने लगा रात, उन्होंने मुझसे कहा, कि मैंने यह पूछकर ठीक नहीं किया कि कैसे आए?
मैंने भी कहा, कम से कम मुझे बैठ तो जाने देते। यह बात पीछे भी हो सकती थी। राम—राम तो पहले हो जाती। मुझे कुछ काम नहीं है और कभी आपसे कोई काम पड़ने का काम भी नहीं है। कोई प्रयोजन भी नहीं है। लेकिन हम सोच ही नहीं सकते.।
फिर तो उनसे मेरा काफी संबंध हो गया। लेकिन अब भी वे मुझे कभी मिलते हैं, तो वे कहते हैं, वह मैं पहला दिन नहीं भूल पाता, जिस दिन मैंने तुम से पूछ लिया कि कैसे आए? और तुमने कहा कि सिर्फ राम—राम करने आया, कुछ काम से नहीं आया। उस दिन से पहले मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि बेकाम कोई आएगा!
जिंदगी हमारी धंधे जैसी हो गई है। सब काम है। उसमें प्रेम, उसमें कुछ खेल, उसमें कुछ सहज—नहीं, कुछ भी नहीं है।
स्वार्थरहित का अर्थ है, जीवन के उत्सव में सम्मिलित, अकारण। कोई कारण नहीं है, खुश हो रहे हैं। और सदा अपने को केंद्र नहीं बनाए हुए हैं। सारी दुनिया को सदा अपने से नहीं सोच रहे हैं, कि मेरे लिए क्या होगा! मुझे क्या लाभ होगा! मुझे क्या हानि होगी! हर चीज के पीछे अपने को खड़ा नहीं कर रहे हैं।
चौबीस घंटे में अगर दों—चार घंटे भी ऐसे आपकी जिंदगी में आ जाएं, तो आप पाएंगे कि धर्म ने प्रवेश शुरू कर दिया। और आपकी जिंदगी में कहीं से परमात्मा आने लगा। कभी अकारण कुछ करें। और अपने को केंद्र बनाकर मत करें।
सब का प्रेमी, हेतुरहित दयालु..।
दया तो हम करते हैं, लेकिन उसमें हेतु हो जाता है। और हेतु बड़े छिपे हुए हैं।
आप बाजार से निकलते हैं और एक भिखमंगा आपसे दो पैसे मांगता है। अगर आप अकेले हों और कोई न देख रहा हो, तो आप उसकी तरफ ध्यान नहीं देते। लेकिन अगर चार साथी साथ में हों, तो इज्जत का सवाल हो जाता है। अब दो पैसे के लिए मना करने में ऐसा लगता है कि लोग क्या सोचेंगे कि अरे, इतने कृपण! ऐसे कंजूस कि दो पैसे न दे सके?
भिखमंगा भी देखता है; अकेले में आपको नहीं छेड़ता। अकेले में आपसे निकालना मुश्किल है। चार आदमी देख रहे हों, भीड़ खड़ी हो, बाजार में हों, पकड़ लेता है पैर। आपको देना पड़ता है। भिखमंगे को नहीं, अपने अहंकार की वजह। हेतु है वहां, कि लोग देख लेंगे, तो समझेंगे कि चलो, दयावान है। देता है। या देते हैं कभी, तो उसके पीछे कोई पुण्य—अर्जन का खयाल होता है। देते हैं कभी, तो उसके पीछे किसी भविष्य में, स्वर्ग में पुरस्कार मिलेगा, उसका खयाल होता है।
लेकिन बिना किसी कारण, हेतुरहित दया, दूसरा दुखी है इसलिए! इसलिए नहीं कि आपको इससे कुछ मिलेगा। दूसरा दुखी है इसलिए, दूसरा परेशान है इसलिए अगर दें, तो दान घटित होता है। अगर आप किसी कारण से दे रहे हैं, जिसमें आपका ही कोई हित है.।
मैं गया था एक कुंभ के मेले में। तो कुंभ के मेले में पंडित और पुजारी लोगों को समझाते हैं कि यहां दो, जितना दोगे, हजार गुना वहा, भगवान के वहा मिलेगा। हजार गुने के लोभ में कई नासमझ दे फंसते हैं। हजार गुने के लोभ में! कि यहां एक पैसा दो, वहा हजार पैसा लो! यह तो धंधा साफ है। लेकिन देने के पीछे अगर लेने का कोई भी भाव हो, तो दान तो नष्ट हो गया, धंधा हो गया, सौदा हो गया।
कृष्ण कहते हैं, हेतुरहित दयालु अगर कोई हो, तो परमात्मा उसमें प्रवेश कर जाता है। वह परमात्मा को प्यारा है।
सब का प्रेमी।
प्रेम हम भी करते हैं। किसी को करते हैं, किसी को नहीं करते हैं। तो जिसको हम प्रेम करते हैं, उतना ही द्वार परमात्मा के लिए हमारी तरफ खुला है। वह बहुत संकीर्ण है। जितना बड़ा हमारा प्रेम होता है, उतना बड़ा द्वार खुला है। अगर हम सबको प्रेम करते हैं, तो सभी हमारे लिए द्वार हो गए, सभी से परमात्मा हममें प्रवेश कर सकता है।
लेकिन हम एक को भी प्रेम करते हैं, यह भी संदिग्ध है। सबको तो प्रेम करना दूर, एक को भी करते हैं, यह भी संदिग्ध है। उसमें भी हेतु है; उसमें भी प्रयोजन है। पत्नी पति को प्रेम कर रही है, क्योंकि वही सुरक्षा है, आर्थिक आधार है। पति पत्नी को प्रेम, कर रहा है, क्योंकि वही उसकी कामवासना की तृप्ति है। लेकिन यह सब लेन—देन है। यह सब बाजार है। इसमें प्रेम कहीं है नहीं।
जब आप प्रेम भी कर रहे हैं और प्रयोजन आपका ही है कुछ, तो वह प्रेम परमात्मा के लिए द्वार नहीं बन सकता। इसीलिए हम कुछ को प्रेम करते हैं, जिनसे हमारा स्वार्थ होता है। जिनसे हमारा स्वार्थ नहीं होता, उनको हम प्रेम नहीं करते। जिनसे हमारे स्वार्थ में चोट पड़ती है, उनको हम घृणा करते हैं।
मगर हमेशा केंद्र में मैं हूं। जिससे मेरा लाभ हो, उसे मैं प्रेम करता हूं; जिससे हानि हो, उसको घृणा करता हूं। जिससे कुछ भी न हो, उसके प्रति मैं तटस्थ हूं उपेक्षा रखता हूं उससे कुछ लेना—देना नहीं है।
परमात्मा के लिए द्वार खोलने का अर्थ है, सब के प्रति। लेकिन सब के प्रति कब होगा? वह तभी हो सकता है, जब मुझे प्रेम में ही आनंद आने लगे, स्वार्थ में नहीं। इस बात को थोड़ा समझ लें। जब मुझे प्रेम में ही आनंद आने लगे, प्रेम से क्या मिलता है, यह सवाल नहीं है।
कोई पत्नी है, उससे मुझे कुछ मिलता है, कोई बेटा है, उससे मुझे कुछ मिलता है। कोई मां है, उससे मुझे कुछ मिलता है। कोई पिता है, कोई भाई है, कोई मित्र है, उनसे मुझे कुछ मिलता है। उन्हें मैं प्रेम करता हूं र क्योंकि उनसे मुझे कुछ मिलता है। अभी मुझे प्रेम का आनंद नहीं आया। अभी प्रेम भी एक साधन है, और कुछ मिलता है, उसमें मेरा आनंद है।
लेकिन प्रेम तो खुद ही अदभुत बात है। उससे कुछ मिलने का सवाल ही नहीं है। प्रेम अपने आप में काफी है। प्रेम इतना बड़ा आनंद है कि उससे आगे कुछ चाहने की जरूरत नहीं है।
जिस दिन मुझे यह समझ में आ जाए कि प्रेम ही आनंद है, और यह मेरा अनुभव बन जाए कि जब भी मैं प्रेम करता हूं तभी आनंद घटित हो जाता है, आगे—पीछे लेने का कोई सवाल नहीं है। तो फिर मैं काहे को कंजूसी करूंगा कि इसको करूं और उसको न करूं?
फिर तो मैं खुले हाथ, मुक्त— भाव से, जो भी मेरे निकट होगा, उसको ही प्रेम करूंगा। वृक्ष भी मेरे पास होगा, तो उसको भी प्रेम करूंगा, क्योंकि वह भी आनंद का अवसर क्यों छोड़ देना! एक पत्थर मेरे पास होगा, तो उसको भी प्रेम करूंगा, क्योंकि वह भी आनंद का अवसर क्यों छोड़ देना!
जिस दिन आपको प्रेम में ही रस का पता चल जाएगा, उस दिन आप जो भी है, जहां भी है, उसको ही प्रेम करेंगे। प्रेम आपकी श्वास बन जाएगी।
आप श्वास इसलिए नहीं लेते हैं कि उससे कुछ मिलेगा। श्वास जीवन है; उससे कुछ लेने का सवाल नहीं है। प्रेम और गहरी श्वास है, आत्मा की श्वास है; वह जीवन है। जिस दिन आपको यह समझ में आने लगेगा, उस दिन आप प्रेम को स्वार्थ से हटा देंगे। और प्रेम तब आपकी सहज चर्या बन जाएगी।
गीता दर्शन–(भाग–6) प्रवचन–146
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