मैंने सुना है, एक सम्राट का एक नाई था। वह बड़ा प्रसन्न था। सम्राट भीर् ईष्या करता था उससे। कि वह बड़ा मस्त आदमी था। सम्राट की मालिश करता, दाढ़ी बनाता, हजामत बनाता, गीत गुनगुनाता रहता, गपशप करता रहता। हमेशा प्रसन्न था।
एक दिन उदास हो गया। फिर उसकी उदासी बढ़ती गई। सम्राट ने पूछा, क्या मामला है? उसने कहा, मेरी तनख्वाह बड़ा दें। तनख्वाह दुगुनी कर दी गई। सम्राट उसको प्रेम करता था। लेकिन कुछ हल न हुआ। तनख्वाह तिगनी कर दी गई, कुछ हल न हुआ। वह और भी सूखता गया, और दुबला हो गया!
आखिर एक दिन सम्राट ने कहा, “सुन! तू जंगल तो नहीं गया था?”
उसने कहा, “मैं गया था।”
“तू एक पीपल वृक्ष के नीचे तो नहीं था, जहां किसी ने आवाज दी हो कि ले, यह धन अपने साथ ले जा?”
उसने कहा, “अरे! आपको पता कैसे चला?”
उसने कहा, “तू वह मटका वापस लौटा दे। उसी के चक्कर में तू पड़ा है। एक दफे मैं भी उसी चक्कर में पड़ चुका हूं। वह पीपल के वृक्ष में एक यक्ष रहता है। और उसके पास एक मटका है, जिसमें निन्यानबे रुपए हैं। और जो भी वहां से निकलता है, वह लोगों से कहता है कि ले जाओ। यह मटका ले जाओ।”
और जो भी ले जाता है, वह मुश्किल में पड़ जाता है। क्योंकि जब वह घर जाकर गिनता है निन्यानबे, तो सौ करने की
वासना पैदा होती है।
ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जिसके पास निन्यानबे हों, और सौ करने की वासना पैदा न हो।
वह वैसा ही स्वाभाविक है, जैसे तुम्हारा दांत टूट जाता है तो जीभ वहीं-वहीं जाती है। पहले कभी नहीं जाती थी! वर्षों तक वह दांत वहां था, तुमने कभी चिंता न की, न जीभ ने उसकी खोज खबर ली। आज दांत टूट गया। उठते, बैठते, सोते, जागते जीभ वहीं-वहीं जाती है। वह जगह खाली हो गई। वह खाली जगह को भरने का मन होता है।
वे जो निन्यानबे रुपए हैं, खतरनाक हैं। उस राजा ने कहा, “तू जा वापस और मटका लौटाकर आ। मैं भी उस झंझट में पड़ चुका था। और बड़ी मेरी जान मुसीबत में पड़ गई थी।”
क्योंकि जिस दिन से वह मटका उस नाई को मिल गया, वह मुश्किल में पड़ गया। उसे एक रुपया रोज मिलता था राजा से। उसने सोचा, कल उपवास ही कर लें। एक दिन की ही तो बात है। एक रुपया डाल देंगे, सौ हो जाएंगे। लेकिन जब वे सौ हो गए, तो लगा, एक सौ एक करने में और भी ठीक रहेगा। फिर बढ़ती गई बात। फिर कभी अंत नहीं आता।
इस जगत में पूरा तो मिल ही नहीं सकता। पूरा तो सिर्फ परमात्मा ही मिल सकता है। और कोई चीज पूरी नहीं मिल सकती। पूरा तो तुम्हें तुम्हारा स्वरूप ही मिल सकता है और कोई चीज पूरी नहीं मिल सकती।
इसलिए जिन्होंने खोजा है, जिन्होंने पाया है, उन्होंने कहा है, जब तक अपने को ही न पा लोगे, तब तक दुखी ही रहोगे, तड़पोगे।
“पूरा मिल्या तबै सुख उपज्यो”
ओशो