Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

🕉️🕉️🕉️ श्री आदिशक्ति नमः🕉️🕉️🕉️
🕉️🕉️🕉️ हम आपके हृदय में विराजमान उस आदिशक्ति को कोटि-कोटि नमन व वंदन करते हैं!🕉️🕉️🕉️
🕉️🕉️🕉️ आज की कहानी🕉️🕉️🕉️
🕉️🕉️🕉️ कर्मो की दौलत🕉️🕉️🕉️ एक राजा था जिसने ने अपने राज्य में क्रूरता से बहुत सी दौलत इकट्ठा करके(एकतरह शाही खजाना )आबादी से बाहर जंगल एक सुनसान जगह पर बनाए तहखाने मे सारे खजाने को खुफिया तौर पर छुपा दिया था खजाने की सिर्फ दो चाबियां थी एक चाबी राजा के पास और एक उसकेएक खास मंत्री के पास थी इन दोनों के अलावा किसी को भी उस खुफिया खजाने का राज मालूम ना था एक रोज़ किसी को बताए बगैर राजा अकेले अपने खजाने को देखने निकला,तहखाने का दरवाजा खोल कर अंदर दाखिल हो गया और अपने खजाने को देख देख कर खुश हो रहा था,और खजाने की चमक से सुकून पा रहा था। उसी वक्त मंत्री भी उस इलाके से निकला और उसने देखा की खजाने का दरवाजा खुला है वो हैरान हो गया और ख्याल किया कि कही कल रात जब मैं खजाना देखने आया तब शायद खजाना का दरवाजा खुला रह गया होगा, उसने जल्दी जल्दी खजाने का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया और वहां से चला गया,उधर खजाने को निहारने के बाद राजा जब संतुष्ट हुआ,और दरवाजे के पास आया तो ये क्या...दरवाजा तो बाहर से बंद हो गया था,उसने जोर जोर से दरवाजा पीटना शुरू किया पर वहां उनकी आवाज सुननेवाला उस जंगल में कोई ना था ।

राजा चिल्लाता रहा,पर अफसोस कोई ना आया वो थक हार के खजाने को देखता रहा अब राजा भूख और पानी की प्यास से बेहाल हो रहा था , पागलो सा हो गया..वो रेंगता रेंगता हीरो के संदूक के पास गया और बोला ए दुनिया के नायाब हीरो मुझे एक गिलास पानी दे दो..फिर मोती सोने चांदी के पास गया और बोला ए मोती चांदी सोने के खजाने मुझे एक वक़्त का खाना दे दो..राजा को ऐसा लगा की हीरे मोती उसे बोल रहे हो की तेरे सारी ज़िन्दगी की कमाई तुझे एक गिलास पानी और एक समय का खाना नही दे सकती..राजा भूख से बेहोश हो के गिर गया ।
जब राजा को होश आया तो सारे मोती हीरे बिखेर के दीवार के पास अपना बिस्तर बनाया और उस पर लेट गया,वो दुनिया को एक पैगाम देना चाहता था लेकिन उसके पास कागज़ और कलम नही था ।
राजा ने पत्थर से अपनी उंगली फोड़ी और बहते हुए खून से दीवार पर कुछ लिख दिया,उधर मंत्री और पूरी सेना लापता राजा को ढूंढते रहे पर बहुत दिनों तक राजा ना मिला तो मंत्री राजा के खजाने को देखने आया,उसने देखा कि राजा हीरे जवाहरात के बिस्तर पर मरा पड़ा है,और उसकी लाश को कीड़े मोकड़े खा रहे थे,राजा ने दीवार पर खून से लिखा हुआ था…ये सारी दौलत एक घूंट पानी ओर एक निवाला नही दे सकी…
यही अंतिम सच है ,आखिरी समय आपके साथ आपके कर्मो की दौलत जाएगी,चाहे आप कितनी बेईमानी से हीरे पैसा सोना चांदी इकट्ठा कर लो सब यही रह जाएगा ।
इसीलिए जो जीवन आपको प्रभु ने उपहार स्वरूप दिया है , उसमें अच्छे कर्म लोगों की भलाई के काम कीजिए बिना किसी स्वार्थ के ओर अर्जित कीजिए अच्छे कर्मो की अनमोल दौलत |जो आपके सदैव काम आएगा!
🕉️🕉️🕉️ श्री आदिशक्ति नमः🕉️🕉️🕉️
🕉️🕉️🕉️ सुप्रभातम्🕉️🕉️🕉️

सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

Posted in रामायण - Ramayan

क्या रामायण भगवान राम के जन्म के पहले लिखी गयी थी ?

तो इसका उत्तर है – नहीं।

सत्यता यह है कि रामायण का निर्माण वाल्मीकि जी ने भगवान राम के लंकाकांड लीला के बहुत समय बाद ही लिखा था । इसका प्रमाण वाल्मीकिजी रामायण के पहले श्लोक ही है, जिसमे वाल्मीकिजी एवं नारदजी का संवाद है ।

वाल्मीकिजी नारद जी से पूछते है :-

“तपःस्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् ।
नारदं परिपप्रच्छ वाल्मोकिमुनिपुङ्गवम् ॥ १ ॥”

तपस्या और स्वाध्याय ( वेदपाठ ) में निरत और बोलने वालों में श्रेष्ठ , श्रीनारद मुनि जी से वाल्मीकि जी ने पूछा ॥१ ॥

इस समय संसार मे सबसे गुणवान ,वीर्यवान, धर्मज्ञ, अनेक प्रकार के चरित्र लीलाएं करने वाले , प्राणीमात्र के हितैषी, विद्धवान,क्रोध को जीतने वाले ,तेजस्वी, युद्ध मे क्रुद्ध होने पर देवताओ को भी भयभीत कर दे, ऐसे महावीर का इतिहास का लिखना है, कृपा कर आप मुझे ऐसे महापुरुष का नाम बताएं …..

वाल्मीकि जी के पूछने पर नारदजी ने वाल्मीकिजी को श्रीरामजी का इतिहास बताया ।।
वही इतिहास वाल्मीकि जी ने कुश और लव को कंठस्थ करवाया, कुश और लव ने उस काव्य को श्रीराम के दरबार मे गाया ।।
सन्दर्भ – वाल्मीकि रामायण ( बालकांड – श्लोक 1-2)

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

यह एक साल पुराना मंदिर था


यह एक साल पुराना मंदिर था । कुछ भक्तों ने मिलकर इस मंदिर का नवीनीकरण कार्य शुरू किया ।✍️ मंदिर में सालों से रह रहे कबूतरों को भ्रम था कि अब कहाँ रहने जाएंगे? पास की मस्जिद में रहने वाले कबूतरों को पता चला तो कुछ कबूतर वहां से आकर मंदिर में रहते थे✍️ कबूतरों को मस्जिद में कुछ महीने रहने के लिए बुलाया गया था । मंदिर के सारे कबूतर मस्जिद में रुकने गए ।✍️ उसी क्षेत्र में एक चर्च भी था । चर्च के कबूतरों को भी खबर मिली कि मंदिर के कबूतर अब मस्जिद के कबूतरों के साथ आश्रय ले रहे हैं । चर्च के कुछ कबूतर मस्जिद में गए और मंदिर के कबूतरों से अनुरोध किया कि कुछ दिनों के लिए चर्च के मेहमान बनें । मंदिर के कबूतर भी कुछ दिन रुकने चर्च गए ।✍️ मंदिर के ये कबूतर कुछ दिन गुरुद्वारे के कबूतर के मेहमान बन गए और कुछ दिन देरासर के कबूतरों के साथ रहे । मंदिर निर्माण पूरा होने के बाद कबूतर अपने मूल स्थान पर लौटे ।✍️ कबूतर के छोटे से बच्चे ने अपने बड़े से पूछा ′′ दादा हम कुछ महीनों तक हर जगह घूमे तो देखा मंदिर में आने वालों को हिन्दू कहते हैं, मस्जिद में आने वालों को मुसलमान कहते हैं, आने वालों को मुसलमान कहते हैं चर्च में ईसाई कहलाते हैं, गुरूद्वारे में आने वालों को सिख कहते हैं और अगर देरासर जाए तो जैन क्यों? ”✍️ बड़े कबूतर ने कहा बेटा ये सब अलग अलग धर्मों का पालन करते हैं वरना इस सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने तो मानव धर्म ही बनाया था, लेकिन मनुष्य ने अपनी बुद्धि और वाणी का दुरुपयोग करके अलग अलग धर्मों का निर्माण किया था.”✍️ छोटे बच्चे का मन नहीं भरा तो उसने एक और सवाल कर दिया दादा मंदिर में रहकर भी कबूतर कहलाते हैं और मस्जिद में रहकर भी कबूतर कहलाते हैं । जैसे हम सब कबूतर एक जैसे दिखते हैं, ये लोग भी दिखने में एक जैसे हैं, फिर जब मंदिर मस्जिद जाते हैं तो हिन्दू मुस्लिम नहीं इंसान क्यों नहीं कहलाते? ”✍️ बड़े कबूतर ने छोटे बच्चे से प्यार से कहा, ′′ बेटा हम बिना बुद्धि और बेजुबान पक्षी के कबूतर हैं और मनुष्यों में बहुत बुद्धि और शब्द हैं, इसलिए उन्होंने अपनी बुद्धि और वाणी से भेदभाव पैदा किया है.”✍️ हे प्रभु आपसे यही प्रार्थना है कि आप हमारे भेदभाव को दूर करें और हमें एक कबूतर जैसी समझ दें कि हम आपकी सृष्टि के हर इंसान से प्रेम कर सकें ।

Posted in पुस्तकालय

नीति – सुभाषित – Niti & Subhasit – 300 books list.


 सुभाषित पुस्तके मेरे संग्रहालय से.
 harshad30.wordpress.com
 973-66331781
  
  
Chhoti Chhoti Batein 00 Front Page
Sanskrit Subhashit – Dilip Pathak 001 A.mp3
Sanskrit Subhashit – Dilip Pathak 001 B.mp3
Subhashita Ratna Bhandagara-Kashinathsharma
अमृत कण – श्री शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती
कालीदास के सुभाषित
जैन सूक्ति कोश
ताओ उपनिषद्
धम्म्पदं – विनोबा
१०नारद भक्ति सूत्राणि
११महासुभाषितसंग्रह ४००१-५००० – विकिपुस्तकानि.mhtml
१२मानिनी यश मुक्तामाला-श्री मान मंदिर सेवा संस्थान
१३विश्व के १००० सर्वश्रेष्ठ अनमोल वचन
१४विश्व सूक्ति खंड ३
१५श्री नारद भक्ति सूत्रे
१६श्री शंकराचार्य की वाणी
१७सुभाषित और विनोद – वाक् वैभव
१८सुभाषित और विनोद
१९सुभाषित और सुक्तिया – प्रेमचंद
२०सुभाषित मंजूषा  – चौधरी रामसिंह
२१सुभाषित रत्नाकर – कृष्णशास्त्री भाटवडेकर
२२सुभाषितानि
२३सूक्ति त्रिवेणी
२४सूक्ति-सागर
२५हिंदी सुभाषित सहस्त्र
२६અંતરને અજવાળો
२७ઉક્તિ ભંડાર
२८ઉપદેશ-સાર
२९કંઠાભરણમ્
३०તપોવન સુવિચારવન
३१દાદી ની પ્રસાદી 
३२દુહો દસમો વેદ
३३દ્રષ્ટાંત શતક – છોટાલાલ નરભેરામ ભટ્ટ
३४નારદ નાં ભક્તિસૂત્રો
३५રવીન્દ્રનાથની રત્નકણિકાઓ
३६રામ કૃષ્ણ પરમ હંસ ના વચનામૃતો
३७વીણેલા ગુલાબ – 100 વિચાર કણિકા
३८વેદોની સોનેરી સુક્તિઓ
३९સંસ્કૃત સુભાષિત નવનીત – ભાઈસંકર પુરોહિત 
४०સદુપદેશ
४१સરળ સુભાષિત શતક – કાંતિભાઈ મહેતા 
४२સુત્રાવલી – ભાગ ૨ – સ્વામી નારાયણ
४३સુભાષિત સંગ્રહ
४४સુભાષિતો
४५સોનેરી સુભાષિતો – શાંતિ આંકડીયાકર 
४६સોનેરી સુવાક્યો નો ખજાનો 
४७સોનેરી સુવિચારો 
Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

ચમારને બોલે
વાંકાનેરના દરબારમાં આજ રંગરાગની છોળો ઊડે છે. ગઢમાં માણસો તો શું, પણ કૂતરાં-મીંદડાંયે ગુલતાનમાં ડોલે છે. એારડામાં વડારણોનાં ગીતો ગાજે છે અને દોઢીમાં શરણાઈઓ પ્રભાતિયાંના સૂર છેડીને વરરાજાને મીઠી નીંદરમાંથી જગાડે છે. દરબારના કુંવર પરણે છે. વાંકાનેરની વસ્તીને ઘેર સોનાનો સૂરજ ઊગ્યો છે.

આખું ગામ જ્યારે હરખમાં ગરકાવ હતું, ત્યારે એક માનવીના હૈયામાંથી અફસોસના નિસાસા નીકળી રહ્યા છે. આખી રાત એણે પથારીમાં આળોટી આળોટીને વિતાવી છે : મટકુંયે નથી માર્યું. જાગીને મનમાં મનમાં ગાયા કર્યું છે કે –

વીરા, ચાંદલિયો ઊગ્યો ને હરણ્યું આથમી રે,
વીરા, ક્યાં લગણ જોઉં તમારી વાટ રે,
મામેરા વેળા વહી જાશે રે.

ડેલીએ જરાક કોઈ ઘોડા કે ગાડાનો સંચાર થાય ત્યાં તો આશાભરી ઊઠી ઊઠીને એણે ડેલીમાં નજર કર્યા કરી છે. પણ અત્યાર સુધી એ જેની વાટ જોતી હતી તે મહેમાનના ક્યાંયે વાવડ નથી.

એ શોકાતુર માનવી બીજું કોઈ નહિ, પણ વરરાજાની ખુદ જનેતા છે. જેનું પેટ પરણતું હોય એને અંતરે વળી હરખ કેવા ? એને તો કંઈક કંઈક રિસામણાનાં ​મનામણાં કરવાના હોય, સંભારી સંભારી સહુ સગાંવહાલાંને લગ્નમાં સોંડાડવાનાં હોય.

એ બધું હોય, પણ વાંકાનેરના રાજકુંવરની માતાને હૈયે તો બીજી વધુ અણીદાર બરછી ખટકતી હતી. રાજાજી આવી આવીને એને મે’ણાં મારતા હતા : “કાં ! કહેતાં’તાં ને કુંવરના મામા મોટું મોટું મોસાળું કરવા આવશે. કાં ગાંફથી પહેરામણનું ગાડું આવી પહોંચ્યું ને ? તમારાં પિયરિયાંએ તો તમારા બધાય કોડ પૂર્યા ને શું !”

ઊજળું મોં રાખીને રાણી મરકતે હોઠે ઉત્તર દેતાં : “હા ! હા ! જોજો તો ખરા, દરબાર ! હવે ઘડી-બે-ઘડીમાં મારા પિયરનાં ઘોડાંની હણહણાટી સંભળાવું છું. આવ્યા વિના એ રહે જ નહિ.”

પહેરામણીનું ચોઘડિયું બેસવા આવ્યું. ગેાખમાં ડોકાઈને રાણી નજર કરે છે કે ગાંફને માર્ગે ક્યાંય ખેપટ ઊડે છે ! ક્યાંય ઘોડાના ડાબા ગાજે છે ! પણ એમ તો કંઈ કંઈ વાર તણાઈ તણાઈને એ રજપૂતાણીની આંખો આંસુડે ભીંજાતી હતી. એવામાં ઓચિંતો મારગ ઉપરથી અવાજ આવ્યો : “ બા, જે શ્રીકરશન !”

સાંભળીને રાણીએ નીચે નજર કરી. ગાંફના ચમારને ભાળ્યો – કેમ જાણે પોતાનો માનો જાયો ભાઈ આવીને ઊભો હોય, એવો ઉલ્લાસ પિયરના એક ચમારને દેખીને એના અંતરમાં ઊપજવા લાગ્યો; કેમ કે એને મન તો આજ આખું મહિયર મરી ગયું લાગતું હતું. એ બોલ્યાં: “ઓહોહો ! જે શ્રીકરશન ભાઈ ! તું આંહીં ક્યાંથી, બાપુ ?”

“બા, હું તો ચામડાં વેચવા આવ્યો છું. મનમાં થયું કે લાવ ને, બાનું મોઢું તો જોતો જાઉં, પણ ગઢમાં તો આજ લીલો માંડવો રોપાતો હોય, ભામણબામણ ઊભા ​હોય. એટલે શી રીતે જવાય? પછી સૂઝ્યું ગોખેથી ટૌકો કરતો જાઉં !”

“હેં ભાઈ ! ગાંફના કાંઈ વાવડ છે ?”

“ના. બા ! કેમ પૂછ્યું ? વીવાએ કોઈ નથી આવ્યું ?”

રાણી જવાબ વાળી ન શક્યાં. હૈયું ભરાઈ આવ્યું. ટપ ટપ આંખોમાંથી પાણી પડવા લાગ્યાં. ચમાર કહે : “અરે, બા ! બાપ ! ખમ્મા તમને, કાં કોચવાવ ?”

“ભાઈ ! અટાણે કુંવરને પે’રામણીનો વખત છે. પણ ગાંફનું કોઈ નથી આવ્યું. એક કોરીય મામેરાની નથી મોકલી. અને મારે માથે મે’ણાંના મે વરસે છે. મારા પિયરમાં તે શું બધાં મરી ખૂટ્યાં ?”

“કોઈ નથી આવ્યું ?” ચમારે અજાયબ બનીને પૂછ્યું.

“ના બાપ! તારા વિના કોઈ નહિ.”

ચમારના અંતરમાં એ વેણ અમૃતની ધાર જેવું બનીને રેડાઈ ગયું. મારા વિના કોઈ નહિ ! – હાં ! મારા વિના કોઈ નહિ ! હું ય ગાંફનો છું ને ! ગાંફની આબરૂના કાંકરા થાય એ ટાણે હું મારો ધરમ ન સંભાળું ? આ બે’નડીનાં આંસુડાં મારાથી શું દીઠાં જાય ? એ બોલી ઊઠ્યો : “બા ! તું રો તો તને મારાં છોકરાંના સોગંદ. હમણાં જોજે, ગાંફની આબરૂને હું જાતી રોકું છું કે નહિ ?”

“અરેરે ભાઈ ! તું શું કરીશ ?”

“શું કરીશ ? બા, બાપુને હું ઓળખું છું. આજ એની કોણ જાણે કેમ ભૂલ થઈ ગઈ હોય ! પણ હું એને ઓળખું છું. હવે તું હરમત રાખજે હો, મા ! શું કરવું તે મને સૂઝી ગયું છે.”

એમ કહીને ચમાર ચાલ્યેા. દરબારગઢની દોઢીએ જઈને દરબારને ખબર મોકલ્યા : “ગાંફથી ખેપિયો આવ્યો ​છે અને દરબારને કહો, ઝટ મોઢે થાવું છે.”

દરબાર બહાર આવ્યા. તેમણે ચમારને દેખ્યો; મશ્કરીનાં વેણ કાઢ્યાં , “કાં, ભાઈ ! મામેરું લઈને આવ્યા છો કે ?”

“હા, અન્નદાતા ! આવ્યો છું તો મામેરું લઈને જ.”

“એમ ! એાહો ! કેમ, તમને મોકલવા પડ્યા ? ગાંફના રજપૂત ગરાશિયા શું દલ્લીને માથે હલ્લો લઈને ગયેલ છે ?”

“અરે, દાદા ! ગાંફના ધણીને તો પોતાની તમામ વસ્તી પોતાના કુટુંબ જેવી છે. આજ મારા બાપુ પંડે આવતા હતા, પણ ત્યાં એક મરણ થઈ ગયું. કોઈથી નીકળાય તેવું ન રહ્યું, એટલે મને દોડાવ્યો છે.”

“ત્યારે તો મામેરાનાં ગાડાંની હેડ્ય વાંસે હાલી આવતી હશે, કાં ?”

“એમ હોય, બાપા ! ગાંફના ભાણેજનાં મોસાળાં કાંઈ ગાડાંની હેડ્યુંમાં સામે ?”

“ત્યારે ?”

“એ અમારું ખસતા ગામ કુંવરને પે’રામણીમાં દીધું.”

દરબારે મોમાં આંગળી નાખી : એને થયું કે આ માણસની ડાગળી ખસી ગઈ હશે. એણે પૂછ્યું : “કાંઈ કાગળ દીધો છે ?”

“ના દાદા ! કાગળ વળી શું દેવો’તો ! ગાંફના ધણીને એમ ખબર નહિ હોય કે જીવતાજાગતા માનવીથીયે કાગળની કટકીની આંઈ વધુ ગણતરી હશે !”

ચમારનાં તોછડા વેણની અંદર વાંકાનેરના રાજાએ કંઈક સચ્ચાઈ ભરેલી ભાળી. આખા ગઢમાં વાત પ્રસરી ગઈ કે ગાંફનો એક ઢોર ચીરનારો ઢેઢ આવીને ખસતા ​ગામની પહેરામણી સંભળાવી ગયો. રાણીને માથે મે’ણાંના ઘા પડતા હતા તે થંભી ગયા. બીજી બાજુએ ચમારે ગાંફનો કેડો પકડ્યો. એને બીક હતી કે જો કદાચ વાંકાનેરના અસવાર છૂટીને ગાંફ જઈ ખબર કાઢશે તો ગાંફનું ને મારું નાક કપાશે. એટલે મૂઠીઓ વાળીને એ તો દોડવા માંડ્યો. ગાંફ પહોંચીને ગઢમાં ગયો, જઈને દરબારને મોઢામોઢ વેણ ચોડ્યાં:

“ફટ્ય છે તમને, દરબાર ! લાજતા નથી ? એાલી બેનડી બચારી વાંકાનેરને ગોખે બેઠી બેઠી પાણીડાં પાડે છે. એને ધરતીમાં સમાવા વેળા આવી પહોંચી છે. અને તમે આંહીં બેઠા રિયા છો ? બાપુ ! ગાંફને ગાળ બેસે એનીય ખેવના ન રહી ?”

“પણ છે શું, મૂરખા ?” દરબાર આ મીઠી અમૃત જેવી ગાળો સાંભળીને હસતા હસતા બેાલ્યા.

“હોય શું બીજું ? ભાણેજ પરણે છે ને મામા મોસાળાં લઈને અબઘડી આવશે એવી વાટ જોવાય છે.”

“અરર ! એ તો સાંભર્યું જ નહિ : ગજબ થયો ! હવે કેમ કરવું ?”

“હવે શું કરવાનું હતું ? ઈ તો પતી ગયું. હવે તો મારે જીવવું, કે જીભ કરડીને મરવું એ જ વાત બાકી રઈ છે.”

“કાં, એલા ! તારું તે શું ફટકી ગ્યું છે ?”

“હા બાપુ ! ફટકી ગ્યું’તું એટલે જ તમારા થકી મામેરામાં ખસતા ગામ દઈને આવ્યો છું.”

“શી વાત કરછ ? તું આપણું ખસતા દઈ આવ્યો ?”

“હા, હા ! હવે તમારે જે કરવું હોય તે કહી નાખો એટલે મને મારો મારગ સૂઝે.” ​દરબારનું હૈયું ભરાઈ આવ્યું : “વાહ ! વાહ, મારી વસ્તી ! પરદેશમાંય એને મારી આબરૂ વહાલી થઈ. ગાંફનું બેસણું લાજે એટલા માટે એણે કેટલું જોખમ ખેડ્યું ! વાહ, મારી વસ્તીને મારા ઉપર કેટલો વિશ્વાસ !”

“ભાઈ! ખસતા ગામ તેં તારા બોલ ઉપર દીધું. એ મારે અને મારી સો પેઢીને કબૂલ મંજૂર છે. આજ તારે મરવાનું હોય? તારા વિના તો મારે મરવું પડત!”

ચમારને દરબારે પાઘડી બંધાવી અને ડેલીએ ભાણેજનાં લગ્ન ઊજવવાં શરૂ થયાં. ચમારવાડે પણ મરદો ને એારતો પોરસમાં આવી જઈ વાતો કરવા લાગ્યાં : “વાત શી છે ? આપણા ભાણુભા પરણે એનાં મોસાળાં આપણે ન કરીએ તો કોણ કરે ? ધણી ભૂલ્યો, પણ આપણાથી ભુલાય ?”

વાંકાનેરના અસવારે આવીને ખબર કાઢ્યા. ગાંફના ધણીએ જવાબ મોકલ્યો : “એમાં પૂછવા જેવું શું લાગ્યું ? ગાંફની વસ્તીને તો મેં કોરે કાગળે સહિયું કરી આપી છે.”

વરની માતા હવે દાઝ કાઢીકાઢીને વાંકાનેરના દરબાર ગઢમાં લગ્નગીત ગજવી રહ્યાં છે કે–

તરવાર સરખી ઊજળી રે ઢોલા !
તરવાર ભેટમાં વિરાજે રે વાલીડા વીરને,
એવી રે હોય તો પ્રણજો રે ઢોલા,
નીકર સારેરી પરણાવું રે વાલીડા વીરને.

આજે એ ખસતા ગામ તો છેક ભાલમાં ગાંફ રાજની પડખે જ છે, આજુબાજુ ગાંફની જ સીમ છે, અને વાંકાનેર તો ત્યાંથી પચાસ ગાઉ દૂર હશે. છતાં અત્યારે એ ગામ વાંકાનેરને તાબે છે. આજુબાજુ બીજે ક્યાંય એક તસુ જમીન પણ વાંકાનેરની નથી. [આ કથા ભાલની અંદર પ્રચલિત છે, કહેવાય છે કે એને બન્યા આ જ ૩૦૦ વર્ષ થયાં હશે. નામઠામ જડતાં નથી. ચોક્કસ વર્ષ તથા નામઠામ મેળવવા માટે વાંકાનેર દીવાનસાહેબને વિનંતી કરતાં, તેમણે જણાવ્યું છે કે જૂનાં દફતરો તથા અન્ય સ્થળે તપાસ કરતાં એ દંતકથામાં કાંઈ સત્યાંશ હોવાનું લાગતું નથી. તેમ છતાં પ્રચલિત કથા તરીકે અમે એને અહી આપીએ છીએ. અમને લાગે છે કે, ખસતા ગામની ભૌગોલિક સ્થિતિ જોતાં વાંકાનેરના અને તે ગામના જોડાણની સાથે કંઈક સુંદર ઈતિહાસ જરૂર સંકળાયો હોવો જોઈએ.]

ભગવાન મીર

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

सोच_का_अंतर


#सोच_का_अंतरएक अंधा लड़का एक इमारत की सीढ़ियों पर बैठा था. उसके पैरों के पास एक टोपी रखी थी. पास ही एक बोर्ड रखा था, जिस पर लिखा था, “मैं अंधा हूँ, मेरी मदद करो.” टोपी में केवल कुछ सिक्के थे वहां से गुजरता एक आदमी यह देख कर रुका, उसने अपनी जेब से कुछ सिक्के निकले और टोपी में गिरा दिये. फिर उसने उस बोर्ड को पलट कर कुछ शब्द लिखे और वहां से चला गया. उसने बोर्ड को पलट दिया था जिससे कि लोग वह पढ़ें जो उसने लिखा था जल्द ही टोपी को भरनी शुरू हो गई. अधिक से अधिक लोग अब उस अंधे लड़के को पैसे दे रहे थे. दोपहर को बोर्ड बदलने वाला आदमी फिर वहां आया. वह यह देखने के लिए आया था उसके शब्दों का लोगों पर क्या प्रभाव पड़ा? अंधे लड़के ने उसके क़दमों की आहट पहचान ली और पूछा, “आप सुबह मेरे बोर्ड को बदल कर गए थे? आपने बोर्ड पर क्या लिखा था? उस आदमी ने कहा मैंने केवल सत्य लिखा था, मैंने तुम्हारी बात को एक अलग तरीके से लिखा, “आज एक खूबसूरत दिन है और मैं इसे नहीं देख सकता आपको क्या लगता है? पहले वाले शब्द और बाद वाले शब्द, एक ही बात कह रहे थे?बेशक दोनों संकेत लोगों को बता रहे थे कि लड़का अंधा था. लेकिन पहला संकेत बस इतना बता रहा था कि वह लड़का अंधा है. जबकि दूसरा संकेत लोगों को यह बता रहा था कि वे कितने भाग्यशाली हैं कि वे अंधे नहीं हैं. क्या दूसरा बोर्ड अधिक प्रभावशाली था? दोस्तों! यह कहानी हमें बताती है कि, जो कुछ हमारे पास है उसके लिए हमें आभारी होना चाहिए. रचनात्मक रहो. अभिनव रहो. अलग और सकारात्मक सोच रखो. लोगों को अच्छी चीजों की तरफ, समझदारी से आकर्षित करो. जीवन तुम्हे रोने का एक कारण देता है, तो तुम्हारे पास मुस्कुराने के लिए 10 कारण हैं.

राज वकानी

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

हैहयवंश की कथा


“हैहयवंश की कथा” एक बार भगवान विष्णु वैकुण्ठ लोक में लक्ष्मी जी के साथ विराजमान थे। उसी समय उच्चेः श्रवा नामक अश्व पर सवार होकर रेवंत का आगमन हुआ। उच्चेः श्रवा अश्व सभी लक्षणों से युक्त, देखने में अत्यंत सुन्दर था। उसकी सुंदरता की तुलना किसी अन्य अश्व से नहीं की जा सकती थी। अतः लक्ष्मी जी उस अश्व के सौंदर्य को एकटक देखती रह गई। जब भगवान विष्णु ने लक्ष्मी को मंत्रमुग्ध होकर अश्व को देखते हुए पाया तो उन्होंने उनका ध्यान अश्व की ओर से हटाना चाहा, लेकिन लक्ष्मी जी देखने में तल्लीन रही। भगवान विष्णु द्वारा बार-बार झकझोरने पर भी लक्ष्मी जी की तंद्रा भंग नहीं हुई तब इसे अपनी अवहेलना समझकर भगवान विष्णु को क्रोध आ गया और खीझंकर लक्ष्मी को शाप देते हुए कहा- “तुम इस अश्व के सौंदर्य में इतनी खोई हो कि मेरे द्वारा बार-बार झकझोरने पर भी तुम्हारा ध्यान इसी में लगा रहा, अतः तुम अश्वी हो जाओ।” जब लक्ष्मी का ध्यान भंग हुआ और शाप का पता चला तो वे क्षमा मांगती हुई समर्पित भाव से भगवान विष्णु की वंदना करने लगी- “मैं आपके वियोग में एक पल भी जीवित नहीं रह पाउंगी, अतः आप मुझ पर कृपा करे एवं अपना शाप वापस ले ले।” तब विष्णु ने अपने शाप में सुधार करते हुए कहा- “शाप तो पूरी तरह वापस नहीं लिया जा सकता। लेकिन हां, तुम्हारे अश्व रूप में पुत्र प्रसव के बाद तुम्हे इस योनि से मुक्ति मिलेगी और तुम पुनः मेरे पास वापस लौटोगी।” भगवान विष्णु के शाप से अश्वी बनी हुई लक्ष्मी जी यमुना और तमसा नदी के संगम पर भगवान शिव की तपस्या करने लगी। लक्ष्मी जी के तप से प्रसन्न होकर शिव पार्वती के साथ आए। उन्होंने लक्ष्मी जी से तप करने का कारण पूछा तब लक्ष्मी जी ने अश्वी हो जाने से संबंधित सारा वृतांत उन्हें सुना दिया और अपने उद्धार की उनसे प्रार्थना की। तब भगवान शिव ने कहा- “देवी ! तुम चिंता न करो। इसके लिए मैं विष्णु को समझाऊंगा कि वे अश्व रूप धारणकर तुम्हारे साथ रमण करे और तुमसे अपने जैसा ही पुत्र उत्पन्न करे ताकि तुम उनके पास शीघ्र वापस जा सको।” भगवान शिव की बात सुनकर अश्वी रूप धारी लक्ष्मी जी को काफी प्रसन्नता हुई। उन्हें यह आभास होने लगा कि अब मैं शीघ्र ही शाप के बंधन से मुक्त हो जाउंगी और श्री हरि (विष्णु) को प्राप्त कर लुंगी। भगवान शिव वहां से चले गए। अश्वी रूप धारी लक्ष्मी जी पुनः तपस्या में लग गई। काफी समय बीत गया। लेकिन भगवान विष्णु उनके समीप नहीं आए। तब उन्होंने भगवान शिव का पुनः स्मरण किया। भगवान शिव प्रकट हुए। उन्होंने लक्ष्मी जी संतुष्ट करते हुए कहा- “देवी ! धैर्य धारण करो। धैर्य का फल मीठा होता है। विष्णु अश्व रूप में तुम्हारे समीप अवश्य आएंगे।” इतना कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए। कैलाश पहुंचकर भगवान शिव विचार करने लगे कि विष्णु को कैसे अश्व बनाकर लक्ष्मी जी के पास भेजा जाए। अंत में, उन्होंने अपने एक गण-चित्ररूप को दूत बनाकर विष्णु के पास भेजा। चित्ररूप भगवान विष्णु के लोक में पहुंचे। भगवान शिव का दूत आया है, यह जानकर भगवान विष्णु ने दूत से सारा समाचार कहने को कहा। दूत ने भगवान शिव की सारी बाते उन्हें कह सुनाई। अंत में, भगवान विष्णु शिव का प्रस्ताव मानकर अश्व बनने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने अश्व का रूप धारण किया और पहुंच गए यमुना और तपसा के संगम पर जहां लक्ष्मी जी अश्वी का रूप धारण कर तपस्या कर रही थी। भगवान विष्णु को अश्व रूप में आया देखकर अश्वी रूप धारी लक्ष्मी जी काफी प्रसन्न हुई। दोनों एक साथ विचरण एवं रमण करने लगे। कुछ ही समय पश्चात अश्वी रूप धारी लक्ष्मी जी गर्भवती हो गई। यथा समय अश्वी के गर्भ से एक सुन्दर बालक का जन्म हुआ। तत्पश्चात लक्ष्मी जी वैकुण्ठ लोक श्री हरि विष्णु के पास चली गई। लक्ष्मी जी के जाने के बाद उस बालक के पालन पोषण की जिम्मेवारी ययाति के पुत्र तुर्वसु ने ले ली, क्योंकि वे संतान हीन थे और पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ कर रहे थे। उस बालक का नाम हैहय रखा गया। कालांतर में हैहय के वंशज ही हैहयवंशी कहलाए। ———-:::×:::———- “जय जय श्री राधे”******************************************** “श्रीजी की चरण सेवा”

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

कर्मानुसार सुख एवं दुख


“कर्मानुसार सुख एवं दुख” एक बार माता लक्ष्मी ने भगवान विष्णु से कहा की प्रभु मैंने पृथ्वी पर देखा है कि जो व्यक्ति पहले से ही अपने प्रारब्ध से दुःखी है आप उसे और ज्यादा दुःख प्रदान करते हैं, और जो सुख में हैं आप उसे दुःख नहीं देते है। भगवान ने इस बात को समझाने के लिए माता लक्ष्मी को धरती पर चलने के लिए कहा और दोनों ने इंसानी रूप में पति-पत्नी का रूप लिया और एक गांव के पास डेरा जमाया। शाम के समय भगवान ने माता लक्ष्मी से कहा की हम मनुष्य रूप में यहाँ आए हैं इसलिए यहाँ के नियमों का पालन करते हुए हमें यहाँ भोजन करना होगा। इसलिए मैं भोजन कि सामग्री की व्यवस्था करता हूँ, तब तक तुम भोजन बनाओ। जब भगवान के जाते ही माता लक्ष्मी रसोई में चूल्हे को बनाने के लिए बाहर से ईंटें लेने गईं और गांव में कुछ जर्जर हो चुके मकानों से ईंटें लाकर चूल्हा तैयार कर दिया। चूल्हा तैयार होते ही भगवान वहाँ पर बिना कुछ लाए ही प्रकट हो गए। माता लक्ष्मी ने उनसे कहा आप तो कुछ लेकर नहीं आए, भोजन कैसे बनेगा। भगवान बोले, “लक्ष्मी ! अब तुम्हें इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी। भगवान ने माता लक्ष्मी से पूछा की तुम चूल्हा बनाने के लिए इन ईटों को कहाँ से लेकर आई।” तो माता लक्ष्मी ने कहा, “प्रभु ! इस गांव में बहुत से ऐसे घर भी हैं जिनका रख रखाव सही ढंग से नहीं हो रहा है। उनकी जर्जर हो चुकी दीवारों से मैं ईंटें निकाल कर ले आई।” भगवान ने फिर कहा, “जो घर पहले से खराब थे तुमने उन्हें और खराब कर दिया। तुम ईंटें उन सही घरों की दीवार से भी तो ला सकती थीं।” माता लक्ष्मी बोलीं, “प्रभु ! उन घरों में रहने वाले लोगों ने उनका रख रखाव बहुत सही तरीके से किया है और वो घर सुन्दर भी लग रहे हैं, ऐसे में उनकी सुन्दरता को बिगाड़ना उचित नहीं होता।” भगवान बोले, “लक्ष्मी ! यही तुम्हारे द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर है। जिन लोगों ने अपने घर का रख रखाव अच्छी तरह से किया है यानि सही कर्मों से अपने जीवन को सुन्दर बना रखा है उन लोगों को दुःख कैसे हो सकता है। मनुष्य के जीवन में जो भी सुखी है वो अपने कर्मों के द्वारा सुखी है, और जो दु:खी है वो अपने कर्मों के द्वारा दु:खी है। इसलिए हर एक मनुष्य को अपने जीवन में ऐसे ही कर्म करने चाहिए की, जिससे इतनी मजबूत व खूबसूरत इमारत खड़ी हो कि कभी भी कोई भी उसकी एक ईंट भी निकालने न पाए।” यह काम जरा भी मुश्किल नहीं है। केवल सकरात्मक सोच और निःस्वार्थ भावना की आवश्यकता है। इसलिए जीवन में हमेशा सही रास्ते का ही चयन करें और उसी पर चलें। ———::;×:::——— “जय जय श्री राधे”******************************************** “श्रीजी की चरण सेवा”

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

गजेन्द्र मोक्ष कथा


“गजेन्द्र मोक्ष कथा” अति प्राचीन काल की बात है। द्रविड़ देश में एक पाण्ड्यवंशी राजा राज्य करते थे। उनका नाम था इंद्रद्युम्न। वे भगवान की आराधना में ही अपना अधिक समय व्यतीत करते थे। यद्यपि उनके राज्य में सर्वत्र सुख-शांति थी। प्रजा प्रत्येक रीति से संतुष्ट थी, तथापि राजा इंद्रद्युम्न अपना समय राजकार्य में कम ही दे पाते थे। वे कहते थे कि भगवान विष्णु ही मेरे राज्य की व्यवस्था करते हैं। अतः वे अपने इष्ट परम प्रभु की उपासना में ही दत्तचित्त रहते थे। राजा इंद्रद्युम्न के मन में आराध्य-आराधना की लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। इस कारण वे राज्य को त्याग कर मलय-पर्वत पर रहने लगे। उनका वेश तपस्वियों जैसा था। सिर के बाल बढ़कर जटा के रूप में हो गए थे। वे निरंतर परमब्रह्म परमात्मा की आराधना में तल्लीन रहते। उनके मन और प्राण भी श्री हरि के चरण-कमलों में मधुकर बने रहते। इसके अतिरिक्त उन्हें जगत की कोई वस्तु नहीं सुहाती। उन्हें राज्य, कोष, प्रजा तथा पत्नी आदि किसी प्राणी या पदार्थ की स्मृति ही नहीं होती थी। एक बार की बात है, राजा इन्द्रद्युम्न प्रतिदिन की भांति स्नानादि से निवृत होकर सर्वसमर्थ प्रभु की उपासना में तल्लीन थे। उन्हें बाह्य जगत का तनिक भी ध्यान नहीं था। संयोग वश उसी समय महर्षि अगस्त्य अपने समस्त शिष्यों के साथ वहाँ पहुँच गए। लेकिन न पाद्ध, न अघ्य और न स्वागत। मौनव्रती राजा इंद्रद्युम्न परम प्रभु के ध्यान में निमग्न थे। इससे महर्षि अगस्त्य कुपित हो गए। उन्होंने इंद्रद्युम्न को शाप दे दिया- “इस राजा ने गुरुजनों से शिक्षा नहीं ग्रहण की है और अभिमानवश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणों का अपमान करने वाला यह राजा हाथी के समान जड़बुद्धि है, इसलिए इसे घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो।” महर्षि अगत्स्य भगवदभक्त इंद्रद्युम्न को यह शाप देकर चले गए। राजा इन्द्रद्युम्न ने इसे श्री भगवान का मंगलमय विधान समझकर प्रभु के चरणों में सिर रख दिया। क्षीराब्धि में दस सहस्त्र योजन लम्बा, चौड़ा और ऊंचा त्रिकुट नामक पर्वत था। वह पर्वत अत्यंत सुन्दर एवं श्रेष्ठ था। उस पर्वतराज त्रिकुट की तराई में ऋतुमान नामक भगवान वरुण का क्रीड़ा-कानन था। उसके चारों ओर दिव्य वृक्ष सुशोभित थे। वे वृक्ष सदा पुष्पों और फूलों से लदे रहते थे। उसी क्रीड़ा-कानन ऋतुमान के समीप पर्वतश्रेष्ठ त्रिकुट के गहन वन में हथनियों के साथ अत्यंत शक्तिशाली और अमित पराक्रमी गजेन्द्र रहता था। एक बार की बात है। गजेन्द्र अपने साथियों सहित तृषाधिक्य (प्यास की तीव्रता) से व्याकुल हो गया। वह कमल की गंध से सुगंधित वायु को सूंघकर एक चित्ताकर्षक विशाल सरोवर के तट पर जा पहुँचा। गजेन्द्र ने उस सरोवर के निर्मल, शीतल और मीठे जल में प्रवेश किया। पहले तो उसने जल पीकर अपनी तृषा बुझाई, फिर जल में स्नान कर अपना श्रम दूर किया। तत्पश्चात उसने जलक्रीडा आरम्भ कर दी। वह अपनी सुंड में जल भरकर उसकी फुहारों से हथिनियों को स्नान कराने लगा। तभी अचानक गजेन्द्र ने सूंड उठाकर चीत्कार की। पता नहीं किधर से एक मगर ने आकर उसका पैर पकड़ लिया था। गजेन्द्र ने अपना पैर छुड़ाने के लिए पूरी शक्ति लगाई परन्तु उसका वश नहीं चला, पैर नहीं छूटा। अपने स्वामी गजेन्द्र को ग्राहग्रस्त देखकर हथिनियां, कलभ और अन्य गज अत्यंत व्याकुल हो गए। वे सूंड उठाकर चिंघाड़ने और गजेन्द्र को बचाने के लिए सरोवर के भीतर-बाहर दौड़ने लगे। उन्होंने पूरी चेष्टा की लेकिन सफल नहीं हुए। वस्तुतः महर्षि अगत्स्य के शाप से राजा इंद्रद्युम्न ही गजेन्द्र हो गए थे और गन्धर्वश्रेष्ठ हूहू महर्षि देवल के शाप से ग्राह हो गए थे। वे भी अत्यंत पराक्रमी थे। संघर्ष चलता रहा। गजेन्द्र स्वयं को बाहर खींचता और ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींचता। सरोवर का निर्मल जल गंदला हो गया था। कमल-दल क्षत-विक्षत हो गए। जल-जंतु व्याकुल हो उठे। गजेन्द्र और ग्राह का संघर्ष एक सहस्त्र वर्ष तक चलता रहा। दोनों जीवित रहे। यह दृश्य देखकर देवगण चकित हो गए। अंततः गजेन्द्र का शरीर शिथिल हो गया। उसके शरीर में शक्ति और मन में उत्साह नहीं रहा। परन्तु जलचर होने के कारण ग्राह की शक्ति में कोई कमी नहीं आई। उसकी शक्ति बढ़ गई। वह नवीन उत्साह से अधिक शक्ति लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा। असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में पड़ गए। उसकी शक्ति और पराक्रम का अहंकार चूर-चूर हो गया। वह पूर्णतया निराश हो गया। किन्तु पूर्व जन्म की निरंतर भगवद आराधना के फलस्वरूप उसे भगवत्स्मृति हो आई। उसने निश्चय किया कि मैं कराल काल के भय से चराचर प्राणियों के शरण्य सर्वसमर्थ प्रभु की शरण ग्रहण करता हूँ। इस निश्चय के साथ गजेन्द्र मन को एकाग्र कर पूर्वजन्म में सीखे श्रेष्ठ स्त्रोत द्वारा परम प्रभु की स्तुति करने लगा। गजेन्द्र की स्तुति सुनकर सर्वात्मा सर्वदेव रूप भगवान विष्णु प्रकट हो गए। गजेन्द्र को पीड़ित देखकर भगवान विष्णु गरुड़ पर आरूढ़ होकर अत्यंत शीघ्रता से उक्त सरोवर के तट पर पहुंचे। जब जीवन से निराश तथा पीड़ा से छटपटाते गजेन्द्र ने हाथ में चक्र लिए गरुडारूढ़ भगवान विष्णु को तीव्रता से अपनी ओर आते देखा तो उसने कमल का एक सुन्दर पुष्प अपनी सूंड में लेकर ऊपर उठाया और बड़े कष्ट से कहा- “नारायण! जगद्गुरो! भगवान! आपको नमस्कार है।” गजेन्द्र को अत्यंत पीड़ित देखकर भगवान विष्णु गरुड़ की पीठ से कूद पड़े और गजेन्द्र के साथ ग्राह को भी सरोवर से बाहर खींच लाए और तुरन्त अपने तीक्ष्ण चक्र से ग्राह का मुँह फाड़कर गजेन्द्र को मुक्त कर दिया। ब्रह्मादि देवगण श्री हरि की प्रशंसा करते हुए उनके ऊपर स्वर्गिक सुमनों की वृष्टि करने लगे। सिद्ध और ऋषि-महर्षि परब्रह्म भगवान विष्णु का गुणगान करने लगे। ग्राह दिव्य शरीर-धारी हो गया। उसने विष्णु के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और भगवान विष्णु के गुणों की प्रशंसा करने लगा। भगवान विष्णु के मंगलमय वरद हस्त के स्पर्श से पाप मुक्त होकर अभिशप्त हूँ गन्धर्व ने प्रभु की परिक्रमा की और उनके त्रैलोक्य वन्दित चरण-कमलों में प्रणाम कर अपने लोक चला गया। भगवान विष्णु ने गजेन्द्र का उद्धार कर उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध और देवगण उनकी लीला का गान करने लगे। गजेन्द्र की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने सबके समक्ष कहा- “प्यारे गजेन्द्र! जो लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठकर तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि का दान करूँगा।” यह कहकर भगवान विष्णु ने पार्षद रूप में गजेन्द्र को साथ लिया और गरुडारुड़ होकर अपने दिव्य धाम को चले गए। ———-::;×:::———– “जय जय श्रीहरि”******************************************* “श्रीजी की चरण सेवा”

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

भक्त अम्बरीष


“भक्त अम्बरीष की छोटी रानी के विवाह की कथा” भक्तवर अम्बरीष की अपूर्व भगवद्भक्ति पर एक राजकुमारी लुब्ध हो गयी। उसने निश्चय किया कि मैं उन्हीं को अपने पतिके रूप में वरण करूँगी। अपने दृढ़ विचार उसने अपने पिता के समक्ष उपस्थित कर दिया। पिता ने पत्र में सारी बातेंं लिखकर एक ब्राह्मण द्वारा अम्बरीष के पास भेजा। ब्राह्मणदेव नृपशिरोमणि अम्बरीष के पास पहुँचे और पत्र उन्हें दे दिया। पत्र पढ़कर नरेश ने कहा- “भगवद्भजन और राज्य कार्य से मुझे तनिक भी अवकाश नहीं मिलता कि किसी भी रानी की सेवा में उपस्थित हो सकूँ। रानियाँ भी मेरे अधिक हैं। ऐसी स्थिति में किसी अन्य राजकुमारी का परिणय मुझे प्रिय नहीं है।” ब्राह्मणदेव लौट आये। श्रीअम्बरीष का सन्देश राजा और उनकी पुत्री को उन्होंने सुना दिया। राजकुमारी के मन की कली विकसित हो गयी।उसने सोचा- “ऐसे पुरुष जिन्हें विलास आदि से पूरी विरक्ति और भगवान् के चरणों में अनुपम अनुरक्ति है, धन्य हैं। मैं उन्हें अवश्य ही पति बनाऊँगी। इस प्रकार अपना जीवन सफल कर लूँगी।” ब्राह्मणदेवता पुनः अम्बरीष के पास पहुँचे और बोले- “राजकुमारी ने अत्यन्त विनय से कहा है कि आपके विचारों को सुनकर मेरा ह्रदय गदगद् हो गया है। मन से आपको मैंने पति बना लिया है। पत्नी के रूप में यदि आपने मुझे स्वीकार नहीं किया तो मैं आत्महत्या कर लूँगी। स्त्री-वध के महापाप से आप बच नहीं सकेंगे।” धर्मप्राण नरेश ने विवाह स्वीकार कर लिया। उन्होंने ब्राह्मण को अपना खड्ग देकर कहा, “आप इससे राजकुमारी की भाँवरी फिरा लें।” प्रसन्नमन ब्राह्मण लौटे। राजकुमारी हर्षातिरेक से नाच उठीं। खड्ग से भाँवरी फिरा कर उसका विवाह-संस्कार पूर्ण हुआ। वे माता-पिता से विदा होकर पतिगृह में आ गयीं। परम भगवद्-भक्त पति की शान्त मूर्ति के दर्शन कर उन्होंने अपना अहोभाग्य समझा। ———-:::×:::———- “जय जय श्री राधे”******************************************* “श्रीजी की चरण सेवा”