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पाँच सौ साल पुरानी बात है, भारत के दक्षिणी तट पर एक राजा के दरबार में एक यूरोपियन आया था। मई का महीना था, मौसम गर्म था पर उस व्यक्ति ने एक बड़ा सा कोर्ट-पतलून और सिर पर बड़ी सी टोपी डाल रखी थी।

उस व्यक्ति को देखकर जहाँ राजा और दरबारी हँस रहे थे, वहीं वह आगन्तुक व्यक्ति भी दरबारियों की वेशभूषा को देखकर हैरान हो रहा था।

स्वर्ण सिंहासन पर बैठे जमोरिन राजा के समक्ष हाथ जोड़े खड़ा वह व्यक्ति वास्कोडिगामा था जिसे हम भारत के खोजकर्ता के नाम से जानते हैं।

यह बात उस समय की है जब यूरोप वालों ने भारत का सिर्फ नाम भर सुन रखा था, पर हाँ…इतना जरूर जानते थे कि पूर्व दिशा में भारत एक ऐसा उन्नत देश है जहाँ से अरबी व्यापारी सामान खरीदते हैं और यूरोपियन्स को महँगे दामों पर बेचकर बड़ा मुनाफा कमाते हैं।

भारत के बारे में यूरोप के लोगों को बहुत कम जानकारी थी लेकिन यह “बहुत कम” जानकारी उन्हें चैन से सोने नहीं देती थी…और उसकी वजह ये थी कि वास्कोडिगामा के आने के दो सौ वर्ष पहले (तेरहवीं सदी) पहला यूरोपियन यहाँ आया था जिसका नाम मार्कोपोलो (इटली) था। यह व्यापारी शेष विश्व को जानने के लिए निकलने वाला पहला यूरोपियन था जो कुस्तुनतुनिया के जमीनी रास्ते से चलकर पहले मंगोलिया फिर चीन तक गया था।

ऐसा नहीं था कि मार्कोपोलो ने कोई नया रास्ता ढूँढा था बल्कि वह प्राचीन शिल्क रूट होकर ही चीन गया था जिस रूट से चीनी लोगों का व्यापार भारत सहित अरब एवं यूरोप तक फैला हुआ था। जैसा कि नाम से ज्ञात हो रहा है चीन के व्यापारी जिस मार्ग से होकर अपना अनोखा उत्पाद ” रेशम ” तमाम देशों तक पहुँचाया था उन मार्गों को ” रेशम मार्ग ” या शिल्क रूट कहते हैं।

(आज की तारीख में यह मार्ग विश्व की अमूल्य धरोहरों में शामिल है)।

तो मार्कोपोलो भारत भी आया था, कई राज्यों का भ्रमण करते हुए केरल भी गया था। यहाँ के राजाओं की शानो शौकत, सोना-चाँदी जड़ित सिंहासन, हीरों के आभूषण सहित खुशहाल प्रजा, उन्नत व्यापार आदि देखकर वापस अपने देश लौटा था। भारत के बारे में यूरोप को यह पहली पुख्ता जानकारी मिली थी।

इस बीच एक गड़बड़ हो गई, अरब देशों में पैदा हुआ इस्लाम तब तक इतना ताकतवर हो चुका था कि वह आसपास के देशों में अपना प्रभुत्व जमाता हुआ पूर्व में भारत तक पहुँच रहा था तो वहीं पश्चिम में यूरोप तक।
कुस्तुनतुनीया (वर्तमान टर्की )जो कभी ईसाई रोमन साम्राज्य की राजधानी हुआ करती थी, उसके पतन के बाद वहाँ मुस्लिमों का शासन हो गया….और इसी के साथ यूरोप के लोगों के लिए एशिया का प्रवेश का मार्ग बंद हो गया क्योंकि मुस्लिमों ने इसाईयों को एशिया में प्रवेश की इजाजत नहीं दी।

अब यूरोप के व्यापारियों में बेचैनी शुरू हुई, उनका लक्ष्य बन गया कि किसी तरह भारत तक पहुँचने का मार्ग ढूँढा जाए।

तो सबसे पहले क्रिस्टोफर कोलंबस निकले भारत को खोजने (1492 में) पर वे बेचारे रास्ता भटक कर अमेरिका पहुँच गए। परंतु उन्हें यकीन था कि यही इंडिया है और वहाँ के लोगों का रंग गेहुँआ – लाल देखकर उन्हें “रेड इंडियन” भी कह डाला। वे खुशी खुशी अपने देश लौटे, लोगों ने जब पूछा कि इंडिया के बारे में मार्कोपोलो बाबा की बातें सच है ना? तब उन्होंने कहा कि – अरे नहीं, कुछ नहीं है वहाँ ..सब जंगली हैं वहाँ।

अब लोगों को शक हुआ।

बात पुर्तगाल पहुँची, एक नौजवान और हिम्मती नाविक वास्कोडिगामा ने अब भारत को खोजने का बीड़ा उठाया। अपने बेड़े और कुछ साथियों को लेकर निकल पड़ा समुद्र में और आखिरकार कुछ महीनों बाद भारत के दक्षिणी तट कालीकट पर उसने कदम रखा।

इस बीच इटली के एक दूसरे नाविक के माइंड में एक बात कचोट रही थी कि आखिर कोलंबस पहुँचा कहाँ था , जिसने आकर ये कहा था कि इंडिया के लोग लाल और जंगली हैं ? उसकी बेचैनी जब बढ़ने लगी तो वह निकल पड़ा कोलंबस के बताये रास्ते पर! उसका नाम था अमेरिगो वेस्पुसी। जब वो वहाँ पहुँचा (1501ई.में) तो देखा कि ये तो वाकई एक नई दुनिया है, कोलंबस तो ठीक ही कह रहा था। पर इसने उसे इंडिया कहने की गलती नहीं की। वापस लौटकर जब इसने बताया कि वो इंडिया नहीं बल्कि एक “नई दुनिया” है तो यूरोपियन्स को दोहरी खुशी मिली। इंडिया के अलावे भी एक नई दुनिया मिल चुकी थी। लोग अमेरिगो वेस्पुसी की सराहना करने लगे, सम्मानित करने लगे, लगे हाथों उस ऩई दुनिया का नामकरण भी इन्हीं महाशय के नाम पर “अमेरिका” कर दिया गया।

यह बात कोलंबस तक पहुँची तो वह हैरान हुआ कि ढूँढा उसने और नाम हुआ दूसरे का, इंडिया कहने की गलती जो की थी उसने।

खैर, अब यूरोप के व्यापारियों के लिए भारत का दरवाजा खुल चुका था, नये समुद्री मार्ग की खोज हो चुकी थी जो यूरोप और भारत को जोड़ सकता था।

सिंहासन पर बैठे जमोरिन राजा से वास्कोडिगामा ने हाथ जोड़कर व्यापार की अनुमति माँगी, अनुमति मिली भी पर कुछ सालों बाद हालात बदल गए।

बहुत सारे पुर्तगाली व्यापारी आने लगे, इन्होंने अपनी ताकत बढ़ाई, साम दाम दंड की नीति अपनाते हुए राजा को कमजोर कर दिया गया और अन्ततः राजा का कत्ल भी इन्हीं पुर्तगालियों के द्वारा करवा दिया गया।

70 – 80 वर्षों तक पुर्तगालियों द्वारा लूटे जाने के बाद फ्रांसीसी आए। इन्होंने भी लगभग 80 वर्षों तक भारत को लूटा। इसके बाद डच (हालैंड वाले) आए श, उन्होंने भी खूब लूटा और सबसे अंत में अँगरेज आए पर ये लूट कर भागने के लिए नहीं बल्कि इन्होंने तो लूट का तरीका ही बदल डाला।

इन्होंने पहले तो भारत को गुलाम बनाया फिर तसल्ली से लूटते रहे। 20 मई 1498 को वास्कोडिगामा भारत की धरती पर पहला कदम रखा था और राजा के समक्ष अनुमति लेने के लिए हाथ जोड़े खड़ा था। उसके बाद उस लूटेरे और उनके साथियों ने भारत को जितना बर्बाद किया वो इतिहास बन गया।

आज जिसे हम भारत का खोजकर्ता कहते नहीं अघाते हैं, दरअसल वह एक लूटेरा था जिसने सिर्फ भारत को लूटा ही नहीं था बल्कि यहाँ रक्तपात भी बहुत किया था।

भारतीय इतिहास में वास्कोडिगामा के चरित्र के बारे में ये बातें हमें नहीं बताई गई है।

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एक फटी धोती और फटी #कमीज पहने एक व्यक्ति अपनी 15-16 साल की बेटी के साथ एक बड़े होटल में पहुंचा। उन दोंनो को कुर्सी पर बैठा देख एक #वेटर ने उनके सामने दो #गिलास साफ ठंडे पानी के रख दिए और पूछा- आपके लिए क्या लाना है?

उस व्यक्ति ने कहा- “मैंने मेरी बेटी को वादा किया था कि यदि तुम कक्षा दस में जिले में प्रथम आओगी तो मैं तुम्हे शहर के सबसे बड़े होटल में एक डोसा खिलाऊंगा।
इसने वादा पूरा कर दिया। कृपया इसके लिए एक डोसा ले आओ।”वेटर ने पूछा- “आपके लिए क्या लाना है?” उसने कहा-“मेरे पास एक ही डोसे का पैसा है।”पूरी बात सुनकर वेटर मालिक के पास गया और पूरी कहानी बता कर कहा-“मैं इन दोनो को भर पेट नास्ता कराना चाहता हूँ।अभी मेरे पास पैसे नहीं है,इसलिए इनके बिल की रकम आप मेरी सैलेरी से काट लेना।”मालिक ने कहा- “आज हम होटल की तरफ से इस #होनहार बेटी की सफलता की पार्टी देंगे।”

होटलवालों ने एक टेबल को अच्छी तरह से सजाया और बहुत ही शानदार ढंग से सभी उपस्थित ग्राहको के साथ उस गरीब बच्ची की सफलता का जश्न मनाया।मालिक ने उन्हे एक बड़े थैले में तीन डोसे और पूरे मोहल्ले में बांटने के लिए मिठाई उपहार स्वरूप पैक करके दे दी। इतना सम्मान पाकर आंखों में खुशी के आंसू लिए वे अपने घर चले गए।

समय बीतता गया और एक दिन वही लड़की I.A.S.की परीक्षा पास कर उसी शहर में कलेक्टर बनकर आई।उसने सबसे पहले उसी होटल मे एक सिपाही भेज कर कहलाया कि कलेक्टर साहिबा नास्ता करने आयेंगी। होटल मालिक ने तुरन्त एक टेबल को अच्छी तरह से सजा दिया।यह खबर सुनते ही पूरा होटल ग्राहकों से भर गया।

कलेक्टर रूपी वही लड़की होटल में मुस्कराती हुई अपने माता-पिता के साथ पहुंची।सभी उसके सम्मान में खड़े हो गए।होटल के मालिक ने उन्हे गुलदस्ता भेंट किया और आर्डर के लिए निवेदन किया।उस लड़की ने खड़े होकर होटल मालिक और उस बेटर के आगे नतमस्तक होकर कहा- “शायद आप दोनों ने मुझे पहचाना नहीं।मैं वही लड़की हूँ जिसके पिता के पास दूसरा डोसा लेने के पैसे नहीं थे और आप दोनों ने #मानवता की सच्ची मिसाल पेश करते हुए,मेरे पास होने की खुशी में एक शानदार पार्टी दी थी और मेरे पूरे मोहल्ले के लिए भी मिठाई पैक करके दी थी।
🎈आज मैं आप दोनों की बदौलत ही कलेक्टर बनी हूँ।आप दोनो का एहसान में सदैव याद रखूंगी।आज यह पार्टी मेरी तरफ से है और उपस्थित सभी ग्राहकों एवं पूरे होटल स्टाफ का बिल मैं दूंगी।कल आप दोनों को “” श्रेष्ठ नागरिक “” का सम्मान एक नागरिक मंच पर किया जायेगा।

शिक्षा– किसी भी गरीब की गरीबी का मजाक बनाने के वजाय उसकी प्रतिभा का उचित सम्मान करें l 😀

वर्षा कुमारी सिंग

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મારુંમનરાજી_છે

એ હતી સાવ કદરુપી.. પણ નામ હતું રુપી.. કાળીભઠ ચામડી , ત્રાંસા અખડાબખડા દાંત , ને આંખે , નાકે જરાય નમણાઈ નહીં.. અને એ કારણે જ એ કુંવારી રહી ગઈ..
માં હતી , ત્યાં સુધી વાત કરનાર હતું , પણ એના મર્યા પછી ઘરમાં વાત કરનાર પણ કોઈ ના રહ્યું..
” જેવા નસીબ..” એમ માની એણે એકલતા સ્વિકારી લીધી.. અને વાત કરવાનો ઉપાય શોધી લીધો..
વાડામાંથી કડબનો પૂળો લાવી ખાટલામાં સુવડાવ્યો.. ઓસીકું રાખ્યું.. ગોદડું ઓઢાડ્યું , બોલી “એ.. આ મારો વર..” અને પછી ગાવા લાગી..
છે કડબનો પૂળો , મારું મન રાજી છે..
વર મુછાળો મૂળો , મારું મન રાજી છે..
આજ દિવસ રુડો , મારું મન રાજી છે..
મારો અખંડ ચુડો , મારું મન રાજી છે..
ને.. પછી તો , એ ઘરમાં કામ કરતી જાય.. ને પૂળા મૂળા વર સાથે વાતો કરતી જાય..
” હું બહાર જાઉં છું , ઘરનું ધ્યાન રાખજો..” ” આજે શેનું શાક બનાવું ?..” “ તમને ટાઢ વાય તો કહેજો.. બીજું ગોદડું ઓઢાડું..”


રુપી ફળીયું વાળતી વાળતી ગાતી હતી.. ” છે કડબનો પૂળો , મારું મન રાજી છે..”
એવામાં શંકર અને પાર્વતિ ફરવા નિકળ્યા.. રુપીનું દુખ જોઈ , પાર્વતિને દયા આવી.. એણે હઠ કરી કે ” ભગવાન.. આનું દુખ દુર કરો..”
બન્ને બ્રાહ્મણ બ્રાહ્મણીનું રુપ લઈ ડેલીએ આવ્યા.. રુપીને કહ્યું..
” બાઈ અમે ભૂખ્યા છીએ.. તારા ધણીને પુછીને અમને ભોજન કરાવ..”
રુપી અંદર જઈને બોલી..” એય.. સાંભળો .. આપણે ઘરે અતિથિ આવ્યા છે.. શીરો પુરી ખવડાવું ને..?”
એમ કહી રસોઈ આદરી.. શીરો પુરી બનાવી નાખ્યા..
બ્રાહ્મણે વાત કરી કે ” મારે નિયમ છે કે મને પુરુષ ઘરધણી પીરસે , તો જ ખવાય.. તારા વરને કહે કે મને થાળી પીરસે..”
રુપીની આંખમાં આંસુ આવી ગયા..
તત્કાળ શંકર પાર્વતિ સાચા રુપમાં આવી ગયા..
” બાઈ , તારી પતિભક્તિ , પ્રેમ અને ભોળપણથી અમે પ્રસન્ન થયા છીએ.. તારાં બધા દુખ દુર થશે..”
પાર્વતિએ રુપીને રુપ આપ્યું.. શંકરે કડબના પૂળાના મૂળાને જીવ આપ્યો..
” બાઈ જા , તારા ધણીને બહાર બોલાવી લાવ..”
રુપી અંદર ગઈ .. ઓઢાડેલ ગોદડું આઘું કર્યું.. મરદ મુછાળા સોહામણા ધણી મૂળાને જોઈ રાજી રાજી થઈ ગઈ..
અરીસામાં જોયું.. તો પોતે પણ રુપનો અંબાર થઈ ગઈ હતી..
બેય બહાર આવ્યા.. જોયું તો શંકર પાર્વતિ અંતરધ્યાન થઈ ગયા હતા.. રુપી હસતી હસતી ગાવા લાગી..
હતો કડબનો પૂળો , મારું મન રાજી રે..
મળ્યો મુછાળો મૂળો , મારું મન રાજી રે..
આજ દિવસ રુડો , મારું મન રાજી રે..
મારો અખંડ ચુડો , મારું મન રાજી રે..

  • જયંતીલાલ ચૌહાણ ૨૦-૫-૨૧
    બચપણમાં સાંભળેલ વાર્તા પરથી..
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પોપટભાઈનું_મામેરું

એક બાઈ હતી.. એણે ફળિયામાં જામફળી વાવી હતી.. એમાં ફળ આવવા માંડ્યા.. જામફળ કાચા હતા , ત્યારે જ એક પોપટ આવીને બેસતો.. અને પાકું ફળ ગોતતો.. બાઈ રોજ પોપટને ઉડાડી મુકતી..
એક દિવસ એક જામફળ પાક્યું.. પોપટ આવીને ખાવા જતો હતો , ત્યાં બાઈએ એને ઉડાડી મુક્યો.. એ દુર જઈને બેઠો.. બાઈએ પાકેલું ફળ તોડી લીધું.. પોપટે કહ્યું..
” બેન , મને જામફળ બહુ ભાવે.. થોડુંક આપને..”
બાઈએ અડધું જામફળ આપ્યું..” લે ભાઈ પોપટ.. તું પણ અડધું ખા..”
પછી તો રોજ પોપટ આવે.. “ બેન , મને કંઈક ખાવાનું આપને..”
એ બાઈ રોજ નવું નવું ખાવાનું આપે..
એક દિવસ રોજની જેમ પોપટ આવ્યો.. બાઈએ ખાવાનું આપ્યું .. પણ એ ઉદાસ હતી..
પોપટે પુછ્યું ” બેન , આજે તું ઉદાસ કેમ છો ? ”
બાઈએ કહ્યું ” મારી નણંદના લગ્ન છે.. મારી સાસુએ મને કહ્યું છે કે ‘ તારા ભાઈને કહેજે કે સારું મામેરું લઈ આવે..’ મારે કોઈ ભાઈ નથી.. મારી જેઠાણીનો ભાઈ ખુબ શાહુકાર છે.. એ મામેરામાં કપડાં ઘરેણા લાવશે.. બધા મારી હાંસી કરશે..” એમ કહેતાં એ રડવા લાગી..
પોપટે કહ્યું ” બેન , મુંઝાઈશ નહીં.. હું તારો ભાઈ.. એનાથી સવાયું મામેરું લઈ આવીશ..” એમ કહી એ ઉડી ગયો..
પોપટે વિચાર કર્યો.. રાજાની રાણીને રાજી કરું તો મોટું મામેરું મળે..
એ ઉડતો ઉડતો જંગલમાં ખુબ દુર ગયો.. ત્યાં સોનેરી રંગના , ખુબ સુવાસ વાળા ફુલનું ઝાડ હતું.. તેણે એક સરસ ફુલ તોડ્યું.. અને આવ્યો રાજમહેલ પાસે.. રાણી ઝરુખામાં બેઠી હતી , ત્યાં જઈને બેઠો.. રાણી તો ફુલના રંગ અને સુવાસથી દંગ થઈ ગઈ.. દાસીને હુકમ કર્યો .. “ આ પોપટને થાળ ભરીને ખાવાનું આપો..”
પોપટ બોલ્યો.. “ રાણી સાહેબા.. મારે ખાવાનું નથી જોઈતું.. મારી બેનનું મામેરું ભરાવી દ્યો.. તો ફુલ આપું..”
રાણીએ કહ્યું ” બોલ , શું જોઈએ તારે બેનના મામેરામાં..? ”
પોપટે કહ્યું ” એક સોનાનો હાર , બે કંગન ને સાત સાડી.. રાજના ઢોલી શરણાઈયા વગાડતા આવે.. ને હું પાલખીમાં બેસીને મામેરું આપવા જાઉં.. એટલું કરી દ્યો .. તો ફુલ આપું..”
રાણીએ તરત જ દાસ દાસીઓને પોપટ કહે તેમ કરવા હુકમ કર્યો.. પોપટે રાણીને ફુલ આપ્યું..
આ બાજુ મામેરા ભરવાનો સમય થતો હતો.. બાઈને એમ .. કે બિચારો પોપટ શું લાવશે..
પણ ત્યાં તો ઢોલ નગારા , શરણાઈ સંભળાઈ.. પોપટ પાલખીમાં બેસીને બહેનનું મામેરું લઈને આવ્યો..
બાઈએ હેતથી પોપટભાઈ અને મામેરાને વધાવ્યાં..
જુઓ , ભાઈ બહેનનો પ્રેમ.. ને જીવતાં શીખો એમ..

  • જયંતીલાલ ચૌહાણ ૨૪-૫-૨૧
    દાદીમાની વારતાઓ જેવી જુની શૈલીમાં આ બાળવાર્તા લખવાનો પ્રયાસ કર્યો છે.. આપના અભિપ્રાય આવકાર્ય છે..
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जम्मू-कश्मीर के महाराज हरिसिंह द्वारा पाकिस्तान में शामिल होने से इंकार करने पर पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया था. महाराज ने अपनी सेना को उनसे मुकाबला करने केलिए भेजा तो महाराज के सभी मुस्लिम सैनिक एक एक कर आक्रमणकारियों से मिल गये और जम्मू-कश्मीर के अपने ही हिन्दू-सिक्ख जनता का नरसंहार, लूट, बलात्कार करने लगे.

लेफ्टिनेंट कर्नल नारायण जम्मू-कश्मीर के अपने ही मुस्लिम सैनिकों द्वारा बेरहमी से कत्ल कर दिए गये. राजौरी में करीब ३०००० (ओफिसिअल डेटा) हिन्दू सिक्खों का नरसंहार कर उनकी स्त्रियों को पेशावर और रावलपिंडी के बाजारों में बेच दिया गया. गिलगित में ब्रिगेडियर गन्सारा सिंह सेना सहित अपने ही मुस्लिम विद्रोही सैनिकों से घिर गये. विद्रोही सैनिकों से उन्हें सरेंडर करने केलिए कहा गया पर वे भारत से सहायता की उम्मीद में डटे रहे परन्तु मुस्लिम सैनिकों द्वारा बंदी बनाये गये हिन्दू सिक्खों के लगातार नरसंहार और बलात्कार से आहत हो उनकी जान और अस्मत बचाने केलिए स्वेच्छा से सैनिकों सहित आत्मसमर्पण कर दिया जिन्हें तुरंत बेरहमी से कत्ल कर दिया गया…

महाराज हरिसिंह ने नेहरु सरकार से सैन्य सहायता मांगी पर नेहरु अपने दोनों शर्तों पर डटे थे कि पहले जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय करें तथा भारत समर्थकों और हिन्दुओं की हत्या के अपराध में जेल में बंद शेख अब्दुल्ला को तत्काल रिहा कर प्रधानमन्त्री बनायें. २७ अक्टूबर, १९४७ को महाराज ने दोनों शर्त मान ली. सरदार पटेल के दबाब में उसी दिन सेना रवाना कर दी गयी परन्तु नेहरु पर्याप्त सैन्य सहायता भेजने में आनाकानी करते रहे.

स्कार्दू में मेजर शेरजंग थापा के सैनिक मुस्लिम आक्रमणकारियों से सिक्खों की जान और अस्मत बचाने केलिए एक एक कर शहीद हो रहे थे. नेहरु सरकार से कई बार सैन्य सहायता और गोला बारूद की मांग की गयी पर कोई सहायता नहीं भेजा गया. सारा गोला बारूद खत्म होने पर मजबूरन बचे हुए सैनिको सहित १४ अगस्त, १९४८ को आत्मसमर्पण करना पड़ा. थापा को बंदी बना लिया गया और सैनिकों का बेरहमी से कत्ल कर दिया गया. १४ अगस्त को ही पाकिस्तान से आदेश आया कि इस्लामिक कानून के तहत बंदी बनाये सभी सिक्खों (४००००) का कत्ल कर दिया जाए और उनकी स्त्रियों को सैनिकों में बाँट दी जाये.

१९९७ में स्कार्दू की इस घटना के बारे में जब पहली बार पढ़ा था तब अल्लाह ईश्वर तेरो नाम जपनेवाला, श्रीराम कि जगह या अल्लाह उतनी ही श्रद्धा से बोलने वाला, मन्दिरों के साथ मस्जिदों के सामने भी श्रद्धा से सर झुकानेवाला मुझे पहली बार संदेह हुआ कि अल्लाह और ईश्वर एक कदापि नहीं हो सकता है….

खैर, नीचे लेख में ऐसी कई कहनियों का संग्रह लेफ्टिनेंट जेनरल के.के. नंदा की पुस्तक “कश्मीर निरंतर युद्ध के साए में” से लिया गया है. इतिहास के पन्नों से गायब इन गुमनाम शहीदों की कहानियां आपलोगों को अवश्य पढनी चाहिए ताकि आप उन्हें दो मिनट याद कर श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें ताकि उनकी आत्मा को शांति मिले. ॐ शांति!!
http://truehistoryofindia.in/stories-of-martyrdom-in-jammu-kashmir-1947/

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बहुत ही अच्छी स्टोरी है कृपया जरूर पढ़ें 👏
.
एक जौहरी के निधन के बाद उसका
परिवार संकट में पड़ गया।😂😂
,
खाने के भी लाले पड़ गए।😇
,
एक दिन उसकी पत्नी ने अपने 💃बेटे
को नीलम का एक हार
देकर कहा- ‘बेटा, इसे अपने चाचा की
दुकान पर ले जाओ।😂
,
कहना इसे बेचकर कुछ रुपये दे दें।😛
,
💃बेटा वह हार लेकर चाचा जी के पास गया।
,
👳चाचा ने हार को अच्छी तरह से देख
परखकर कहा- बेटा,
मां से कहना कि अभी बाजार
बहुत मंदा है।😍
,
थोड़ा रुककर बेचना,
अच्छे दाम मिलेंगे।😍
,
उसे थोड़े से रुपये देकर कहा कि
तुम कल से दुकान पर आकर बैठना।😁😁
,
अगले दिन से वह लड़का रोज दुकान
पर जाने लगा और वहां हीरों
रत्नो की परख का काम सीखने लगा।😍😍
,
एक दिन वह बड़ा पारखी बन गया।
लोग दूर-दूर से अपने हीरे की परख कराने
आने लगे।😍😍
,
एक दिन उसके चाचा ने कहा, बेटा अपनी
मां से वह हार लेकर आना और कहना
कि अब बाजार बहुत तेज है,😍😍
,
उसके अच्छे दाम मिल जाएंगे।😁
,
मां से हार लेकर उसने परखा तो
पाया कि वह तो नकली है।😇😂
,
वह उसे घर पर ही छोड़ कर
दुकान लौट आया।😂😂
,
👳चाचा ने पूछा, हार नहीं लाए?
,
उसने कहा, वह तो नकली था।😊😍
,
तब 👳चाचा ने कहा- जब तुम पहली बार
हार लेकर आये थे, तब मैं उसे
नकली बता देता तो तुम सोचते कि
आज हम पर बुरा वक्त आया तो चाचा
हमारी चीज को भी नकली
बताने लगे।😍
,
आज जब तुम्हें खुद ज्ञान हो गया तो
पता चल गया कि हार सचमुच नकली है।😍
,
सच यह है कि ज्ञान के बिना इस संसार में
हम जो भी सोचते, देखते और जानते हैं,
सब गलत है।😛😂
,
और ऐसे ही गलतफहमी का शिकार
होकर रिश्ते बिगडते है।
Think and Live Long Relationship
ज़रा सी रंजिश पर ,ना छोड़
किसी अपने का दामन.😇
,
ज़िंदगी बीत जाती है
अपनो को अपना बनाने में.😇
🌹ॐ शांति🌹

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सम्राट चंद्रगुप्त अपने मंत्रियों के साथ एक विशेष मंत्रणा में व्यस्त
थे कि प्रहरीने सूचित किया कि आचार्य चाणक्य राजभवन में पधार रहे हैं ।

सम्राट चकित रह गए । इस असमय में गुरू का आगमन ! वह घबरा भी गए । अभी वह कुछ सोचते ही कि लंबे-लंबे डग भरते चाणक्य ने सभा में प्रवेश किया । सम्राट चंद्रगुप्त सहित सभी सभासद सम्मान में उठ गए ।

सम्राट ने गुरूदेव को सिंहासन पर आसीन होने को कहा ।
आचार्य चाणक्य बोले – ”भावुक न बनो सम्राट, अभी तुम्हारे समक्ष तुम्हारा गुरू नहीं, तुम्हारे राज्य का एक याचक खड़ा है, मुझे कुछ
याचना करनी है ।

”चंद्रगुप्त की आँखें डबडबा आईं। बोले – ” आप
आज्ञा दें, समस्त राजपाट आपके चरणों में डाल दूं ।” चाणक्य ने
कहा – ” मैंने आपसे कहा भावना में न बहें, मेरी याचना सुनें । ” गुरूदेव की मुखमुद्रा देख सम्राट चंद्रगुप्त गंभीर हो गए । बोले -” आज्ञा दें ।
चाणक्य ने कहा – ” आज्ञा नहीं , याचना है कि मैं
किसी निकटस्थ सघन वन में साधना करना चाहता हूं । दो माह के लिए राजकार्य से मुक्त कर दें और यह स्मरण रहे वन में अनावश्यक मुझसे कोई मिलने न आए । आप भी नहीं । मेरा उचित प्रबंध करा दें ।

चंद्रगुप्त ने कहा – ” सब कुछ स्वीकार है । ” दूसरे दिन प्रबंध कर
दिया गया । चाणक्य वन चले गए ।

अभी उन्हें वन गए एक सप्ताह
भी न बीता था कि यूनान से सेल्युकस (सिकन्दर का सेनापति) अपने जामाता चंद्रगुप्त से मिलने भारत पधारे । उनकी पुत्री हेलेन का विवाह चंद्रगुप्त से हुआ था । दो – चार दिन के बाद उन्होंने चाणक्य से मिलने की इच्छा प्रकट कर दी ।

सेल्युकस ने कहा – ”सम्राट, आप वन में अपने गुप्तचर भेज दें । उन्हें मेरे बारे में कहें । वह मेरा बड़ा आदर करते है । वह कभी इन्कार नहीं करेंगे ।“ अपने श्वसुर की बात मान चंद्रगुप्त ने ऐसा ही किया। गुप्तचर भेज दिए गए ।

चाणक्य ने उत्तर दिया – ”ससम्मान सेल्युकस वन लाए जाएं, मुझे उनसे मिल कर प्रसन्नता होगी ।”

सेना के संरक्षण में सेल्युकस वन पहुंचे । औपचारिक अभिवादन के बाद चाणक्यने पूछा – ”मार्ग में कोई कष्ट तो नहीं हुआ । ”इस पर सेल्युकस ने कहा – ”भला आपके रहते मुझे कष्ट होगा ? आपने मेरा बहुत ख्याल रखा ।“

न जाने इस उत्तर का चाणक्य पर क्या प्रभाव पड़ा कि वह बोल उठे – “हां, सचमुच आपका मैंने बहुत ख्याल रखा ।”इतना कहने के बाद चाणक्य ने सेल्युकस के भारत की भूमि पर कदम रखने के बाद से वन आने तक की सारी घटनाएं सुना दीं । उसे इतना तक
बताया कि सेल्युकस ने सम्राट से क्या बात की, एकांत में अपनी पुत्री से क्या बातें हुईं । मार्ग में किस सैनिक से क्या पूछा ।

सेल्युकस व्यथित हो गए । बोले – ”इतना अविश्वास ? मेरी गुप्तचरी की गई । मेरा इतना अपमान ।“

चाणक्य ने कहा – ”न तो अपमान, न अविश्वास और न ही गुप्तचरी । अपमान की तो बात मैं सोच भी नहीं सकता ।

सम्राट भी इन
दो महीनों में शायद न मिल पाते । आप हमारे अतिथि हैं । रह गई बात सूचनाओं की तो वह मेरा ”राष्ट्रधर्म” है । आप कुछ भी हों, पर
विदेशी हैं ।

मातृभूमि से आपकी जितनी प्रतिबद्धता है, वह इस राष्ट्र से नहीं हो सकती । यह स्वाभाविक भी है । मैं तो सम्राज्ञी की भी प्रत्येक गतिविधि पर दृष्टि रखता हूं । मेरे इस ‘धर्म‘ को अन्यथा न लें । मेरी भावना समझें ।“

सेल्युकस हैरान हो गया । वह चाणक्य के पैरों में गिर पड़ा ।
उसने कहा – ” जिस राष्ट्र में आप जैसे राष्ट्रभक्त हों, उस देश की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देख सकता ।” सेल्युकस वापस लौट गया ।

… क्या हम भारतीय राष्ट्रधर्म का पालन
कर रहे हैं

मोहनलाल जैन

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बाजार में एक चिड़ीमार तीतर बेच रहा था,,,

उसके पास एक बडी जालीदार टोकरी में बहुत सारे तीतर थे..!

और एक छोटी जालीदार टोकरी में सिर्फ एक ही तीतर था..!

एक ग्राहक ने पूछा
एक तीतर कितने का है..?

“40 रूपये का..!”

ग्राहक ने छोटी टोकरी के तीतर की कीमत पूछी।

तो वह बोला,
“मैं इसे बेचना ही नहीं चाहता..!”

“लेकिन आप जिद करोगे,
तो इसकी कीमत 500 रूपये होगी..!”

ग्राहक ने आश्चर्य से पूछा,
“इसकी कीमत इतनी ज़्यादा क्यों है..?”

“दरअसल यह मेरा अपना पालतू तीतर है और यह दूसरे तीतरों को जाल में फंसाने का काम करता है..!”

“जब ये चीख पुकार कर दूसरे तीतरों को बुलाता है और दूसरे तीतर बिना सोचे समझे ही एक जगह जमा हो जाते हैं फिर मैं आसानी से सभी का शिकार कर लेता हूँ..!”

बाद में, मैं इस तीतर को उसकी मनपसंद की ‘खुराक” दे देता हूँ जिससे ये खुश हो जाता है..!

“बस इसीलिए इसकी कीमत भी ज्यादा है..!”

उस समझदार आदमी ने तीतर वाले को 500 रूपये देकर उस तीतर की सरे आम बाजार में गर्दन मरोड़ दी..!

किसी ने पूछा,
“अरे, ज़नाब आपने ऐसा क्यों किया..?

उसका जवाब था,
“ऐसे दगाबाज को जिन्दा रहने का कोई हक़ नहीं है जो अपने मुनाफे के लिए अपने ही समाज को फंसाने का काम करे और अपने लोगो को धोखा दे..!”

हमारे आसपास 500 रू की क़ीमत वाले बहुत से तीतर हैं..! उनसे सावधान रहिये !
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गुरु – शिष्य

एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा- ‘गुरु जी,कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है, कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं | इनमें कौन सही है?’

गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया-

पुत्र,जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं, मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं|

यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट न था| गुरु जी को इसका आभास हो गया |वे कहने लगे-‘लो, तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ|ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे |’

एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए |गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे-‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’ वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे |सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले-‘जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा |’

अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहुँच चुके थे |लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं ,उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा | वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया |वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे |

अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था | अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके |

वहाँ पहुँच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी|

पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी |अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये |गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेहपूर्वक पूछा- ‘पुत्रो,ले आये गुरुदक्षिणा ?’तीनों ने सर झुका लिया |गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा- ‘गुरुदेव,हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये |हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं

’गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते हो ?प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो |’तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये |

वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था,अचानक बड़े उत्साह से बोला-‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं |आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है |

गुरु जी भी तुरंत ही बोले-‘हाँ, पुत्र,मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना,सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके |

दूसरे,यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप,स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें |’अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था |

अंततः,

यही कहना कि यदि हम मन, वचन और कर्म- इन तीनों ही |सब के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त मन वाला व्यक्ति अपने वचनों से कभी भी किसी को आहत करने का दुःसाहस नहीं करता और उसकी यही ऊर्जा उसके पुरुषार्थ के मार्ग की समस्त बाधाओं को हर लेती है |वस्तुतः,हमारे जीवन का सबसे बड़ा ‘उत्सव’ पुरुषार्थ ही होता है-ऐसा विद्वानों का मत है |
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