पापा आफिस में पहुंचे ही थे कि स्कूल से फोन आया!
सुरीली आवाज में एक मैम बोलीं –
“सर! आप की बेटी जो सेकंड क्लास में है,
मैं उसकी क्लास टीचर बोल रहीं हूँ।
आज पैरंट्स टीचर मीटिंग है। रिपोर्ट कार्ड दिखाया जाएगा।
आप अपनी बेटी के साथ टाईम से पहुंचें।”..
बेचारे पापा क्या करते।
आदेश के पाबंद… तुरंत छुट्टी लेकर, घर से बेटी को लेकर स्कूल पहुंच गए।
सामने गुलाबी साड़ी पहने,छोटी सी बिंदी लगाए, नयी उम्र की, गोरी सी लेकिन बेहद तेज मैम बैठी थी।
पापा कुछ बोल पाते कि इससे पहले लगभग डांटते हुए बोलीं -” आप अभी रुकिए, मैं आप से अलग बात करूंगी।”
पापा ने बेटी की तरफ देखा, और दोनों चुपचाप पीछे जाकर बैठ गए।
“मैम बहुत गुस्से में लगती हैं” – बेटी ने धीरे से कहा। “तुम्हारा रिपोर्ट कार्ड तो ठीक है” – उसी तरह पापा भी धीरे से बोले। “पता नहीं पापा, मैंने तो देखा नहीं। “-बेटी ने अपना बचाव किया। “मुझे भी लगता है, आज तुम्हारी मैम तुम्हारे साथ मेरी भी क्लास लेंगी।” – पापा खुद को तैयार करते हुए बोले।
वो दोनों आपस में फुसफुसा ही रहे थे कि तभी मैम खाली होकर बोलीं – “हाँ! अब आप दोनों भी आ जाइए।
पापा किसी तरह उस शहद भरी मिर्ची सी आवाज के पास पहुंचे। और बेटी पापा के के पीछे छुप कर खड़ी हो गई।
मैम- देखिए! आप की बेटी की शिकायत तो बहुत है लेकिन पहले आप इसकी परीक्षा की कापियां और रिपोर्ट देखिए। और बताइए इसको कैसे पढ़ाया जाये।
… मैम ने सारांश में लगभग सारी बात कह दी..
मैम- पहले इंग्लिश की कापी देखिए.. फेल है आप की बेटी।
… पापा ने एक नजर बेटी को देखा, जो सहमी सी खड़ी थी.. फिर मुस्कुरा कर बोले…
पापा – अंग्रेजी एक विदेशी भाषा है। इस अम्र में बच्चे अपनी ही भाषा नहीं समझ पाते।
… इतना मैम को चिढ़ने के लिए काफी था…
मैम- अच्छा! और ये देखिए! ये हिंदी में भी फेल है। क्यों?
… पापा ने फिर बेटी की तरफ देखा.. मानो उसकी नजरें साॅरी बोल रहीं हों…
पापा – हिंदी एक कठिन भाषा है। ध्वनि आधारित है। इसको जैसा बोला जाता है, वैसा लिखा जाता है। अब आप के इंग्लिश स्कूल में कोई शुद्ध हींदी बोलने वाला नहीं होगा…
…..पापा की बात मैम बीच में काटते हुए बोलीं…
मैम – अच्छा… तो आप और बच्चों के बारे में क्या कहेंगे जो….
इस बार पापा ने मैम की बात काट कर बोले..
पापा – और बच्चे क्यों फेल हुए ये मैं नहीं बता सकता… मै तो….
मैम चिढ़ते हुए बोली – “आप पूरी बात तो सुन लिया करो, मेरा मतलब था कि और बच्चे कैसे पास हो गये…” फेल नहीं”…
अच्छा छोड़ो ये दूसरी कापी देखो आप। आज के बच्चे जब मोबाइल और लैपटॉप की रग रग से वाकिफ हैं तो आप की बच्ची कम्प्यूटर में कैसे फेल हो गई?
…. पापा इस बार कापी को गौर से देखते हुए, गंभीरता से बोले – “ये कोई उम्र है कम्प्यूटर पढ़ने और मोबाइल चलाने की। अभी तो बच्चों को फील्ड में खेलना चाहिए।
… मैम का पारा अब सातवें आसमान पर था… वो कापियां समेटते हुए बोली-” सांइस की कापी दिखाने से तो कोई फायदा है नहीं। क्योंकि मैं भी जानती हूँ कि अल्बर्ट आइंस्टीन बचपन फेल होते थे।”
… पापा चुपचाप थे…
मैम ने फिर शिकायत आगे बढ़ाई – “ये क्लास में डिस्पलिन में नहीं रहती, बात करती है, शोर करती है, इधर-उधर घूमती है।
पापा ने मैम को बीच में रोक कर, खोजती हुई निगाह से बोले…
पापा – वो सब छोड़िए! आप कुछ भूल रहीं हैं। इसमें गणित की कापी कहां है। उसका रिजल्ट तो बताइए।
मैंम-(मुंह फेरते हुए) हां, उसे दिखाने की जरूरत नहीं है।
पापा – फिर भी, जब सारी कापियां दिखा दी तो वही क्यों बाकी रहे।
मैम ने इस बार बेटी की तरफ देखा और अनमने मन से गणित की कापी निकाल कर दे दी।
…. गणित का नम्बर, और विषयों से अलग था…. 100%…..
मैम अब भी मुंह फेरे बैठी थीं, लेकिन पापा पूरे जोश में थे।
पापा – हाँ तो मैंम, मेरी बेटी को इंग्लिश कौन पढ़ाता है?
:
मैम- (धीरे से) मैं!
:
पापा – और हिंदी कौन पढ़ाता है?
:
मैम- “मै”
:
पापा – और कम्प्यूटर कौन पढ़ाता है?
:
मैम- वो भी “मैं”
:
पापा – अब ये भी बता दीजिए कि गणित कौन पढ़ाता है?
:
मैम कुछ बोल पाती, पापा उससे पहले ही जवाब देकर खड़े हो गए…
पापा – “मैं”…
:
मैम – (झेंपते हुए) हां पता है।
:
पापा- तो अच्छा टीचर कौन है????? दुबारा मुझसे मेरी बेटी की शिकायत मत करना। बच्ची है। शरारत तो करेगी ही।
:
मैम तिलमिला कर खड़ी हो गई और जोर से बोलीं-“””मिलना तुम दोनों आज घर पर, दोनों बाप बेटी की अच्छे से खबर लेती हूं”””!!!
Day: May 11, 2021

★ दो महामानवों का मिलन ★
सिध्देश्वर मजूमदार उर्फ मास्टरजी ने #रामकृष्णपरमहंस को बताया कि एक बार #ईश्वरचंद्रविद्यासागर की माँ ने लिखा था कि बेटा अमुक तिथि को तुम्हारे छोटे भाई का ब्याह है। तुम आ जाना।
उक्त तिथि को विद्यासागर घाटाल ग्राम पहुंच गए। माँ के समक्ष अभी खड़े ही हुए थे कि उनकी आंखें बरस पड़ीं। माँ ने डांटते हुए पूछा कि भींगे कपड़े में क्यों? कपड़े तो बदल लेते, तब आते। विद्यासागर मुस्कुराए और कहा कि अभी बदल लेता हूँ माँ। वे मुस्कुरा दीं।
वास्तविकता यह थी कि उनके आदेश का पालन करने के लिए कोलकाता से पैदल चले। रास्ते में दामोदर नदी को तैरकर पार किया। फिर, माँ के पास पहुंचे। धनाभाव था, लेकिन पास में जो भी धन थे उसकी जरूरत व्याह के लिए घर में थी। अपनी जरूरत को उन्होंने समेट लिया था।
मास्टरजी से यह सब सुनते हुए रामकृष्ण रोने लगे। अश्रु बूंदें मोतियों सी टपकने लगी। बीच-बीच में वो ‘माँ -माँ’ पुकारते अचानक व्यग्र हो उठे। वे उठ खड़े हुए और कहा कि मुझे ले चलिए, अभी मिलना है उनसे। मास्टरजी ने कहा कि यह समय उनके अध्ययन का है। फिर वे सो जाते हैं। हम कल प्रातःकाल चलें देव?
रामकृष्ण ने सिर हिलाकर सहमति दी। तब मास्टरजी ने देखा कि उनकी आंखें रक्तमय हो गई हैं। विद्यासागर जी के बारे में सुनते हुए कई घंटों से वे रो रहे थे।
सुबह के समय रामकृष्णदेव और मास्टरजी दोनों विद्यासागर के पास पहुंचे।
विद्यासागर चकित थे कि रामकृष्ण स्वयं पहुंच गए उनके पास वो भी उन्हीं के विद्यालय के एक शिक्षक के साथ! उनके उल्लास का पारावार न था।
रामकृष्ण ने कहा कि खाई, सोता या नदी मिली मगर आज मैंने महासमुद्र देखा है।
हाज़िरजवाब ईश्वरचंद्र ने तत्क्षण कहा कि फिर तो भरकर एक लोटा खारा जल ले जाइयेगा।
हाथ को हवा में लहराते हुए रामकृष्ण देव ने कहा कि नहीं, आप तो विद्या के सागर हैं, अमृत के सागर हैं। अमृत कब खारा हुआ है भला?
इस पर ईश्वरचंद्र विद्यासागर भावविह्वल हो गए। रामकृष्णदेव के बारे में भी कई व्यक्तियों ने उनसे कुछ-कुछ कहा था मगर दो महापुरुषों का संगम आज ही हुआ था। दोनों एकटक दूसरे को निहार रहे थे। चेहरे पर प्रसन्नता थी और और आंखों से नीर बह रहे थे।
★★★
क्या आप कोई ऐसी सत्य घटना साझा कर सकते हैं, जिसे पढ़ते ही हृदय भगवान के लिए व्याकुल हो जाये?
दिनांक: 1 नवंबर 1979।
समय: रात्रि 1 बजे।
स्थान: तिरुपति मंदिर।
पूरा तिरुपति शहर और स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण भी शयन कर रहे थे और घनघोर शांत रात्रि थी की इतने में ही…
ठंन्न ठंन्न ठंन्न ठंन्न!
तिरुपति मंदिर में भगवान वेंकटेश्वर के श्रीविग्रह के ठीक आगे जो बड़ा सा घंट है वो अपने आप हिलने लगा और उस घंट नाद से पूरा तिरुपति शहर एकदम आश्चर्य में भरकर उठ खड़ा हुआ।
मंदिर रात्रि 12 बजे पूर्ण रूप से बंद हो गया था, फिर ये कैसी घंटा नाद की ध्वनि आ रही है?
कोई भी जीवित व्यक्ति मंदिर में रात्रि 12 के बाद रहना संभव नही, तो फिर किसने ये घंटा नाद किया?
कोई जीव-जंतु मंदिर में प्रवेश नही कर सकते क्योंकि सारे द्वार बंद है, तो फिर ये कौन है?
मंदिर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी श्री पी वी आर के प्रसाद के नेत्रो में अश्रु थे क्योंकि केवल वे जान पा रहे थे कि ये केवल घंटा नाद नही है, ये भगवान ने अपना संकेत दे दिया है मेरे “वरुण जाप” की सफलता के लिए।
भगवान् के सभी भक्त यह घटना बड़ी श्रद्धा से पढ़ें :-
यह अलौकिक दिव्य चमत्कारी घटना सन् 1979 नवंबर माह की हैं।
सन् 1979 में तिरुपति क्षेत्र में भयंकर सूखा पडा। दक्षिण-पूर्व का मानसून पूरी तरह विफल हों गया था। गोगर्भम् जलाशय (जो तिरुपति में जल-आपूर्ति का प्रमुख स्त्रोत हैं) लगभग सूख चुका था। आसपास स्थित कुँए भी लगभग सूख चुके थे।
तिरुपति ट्रस्ट के अधिकारी बड़े भारी तनाव में थे। ट्रस्ट अधिकारियों की अपेक्षा थी की सितम्बर-अक्टूबर की चक्रवाती हवाओं से थोड़ी-बहुत वर्षा हों जाएगी किन्तु नवम्बर आ पहुंचा था। थोडा-बहुत , बस महीने भर का पानी शेष रह गया था। मौसम विभाग स्पष्ट कर चुका था की वर्षा की कोई संभावना नहीं हैं।
सरकारें हाथ खड़ी कर चुकीं थीं। ट्रस्ट के सामने मन्दिर में दर्शन निषेध करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं बचा था। दर्शन निषेध अर्थात् दर्शन-पूजन अनिश्चित् काल के लिए बन्द कर देना।
ट्रस्टीयों की आत्मा स्वयं धिक्कार रही थी की कैसे श्रद्धालुओं को कह पायेंगे की जल के अभाव के कारण देवस्थान में दर्शन प्रतिबंधित कर दिए गए हैं? किन्तु दर्शन बंद करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचा था।
विधर्मियों और मूर्तिपूजन के विरोधियों का आनन्द अपने चरम पर था। नास्तिक लोग मारे ख़ुशी के झूम रहे थे। अखबारों में ख़बरें आ रही थी की जो भगवान् अपने तीर्थ में जल-आपूर्ति की व्यवस्था नहीं कर सकते वो भगवद्भक्तमण्डल पर कृपा कैसे करेंगे?
सनातन धर्मानुयायियों को खुलेआम अन्धविश्वासी और सनातन धर्म को अंधविश्वास कहा जा रहा था।
श्रद्धालु धर्मानुयायी रो रहे थे , उनके आंसू नहीं थम रहे थे!
कुछ दिन और निकल गए किन्तु जल-आपूर्ति की कोई व्यवस्था नहीं।
अचानक घबराए हुए ट्रस्टीयों को कुछ बुद्धि आई और उन्होंने वेदों और शास्त्रों के धुरन्धर विद्वान् और तिरुपति ट्रस्ट के सलाहकार , 90 वर्षीय श्री उप्पुलरी गणपति शास्त्री जी महाराज से सम्पर्क किया।
ट्रस्टीयों ने महाराजश्री से पूछा की क्या वेदों और शास्त्रों में इस गंभीर परिस्थिति का कोई उपाय हैं?
श्री उप्पुलरी गणपति शास्त्री जी महाराज ने उत्तर दिया की वेदों और शास्त्रों में इस लोक की और अलौकिक समस्त समस्याओं का निदान हैं। महाराजश्री ने ट्रस्टीयों को “वरुण जप” करने का परामर्श दिया।
महाराजश्री ने ट्रस्टीयों को बता दिया की पूर्ण समर्पण , श्रद्धा और विश्वास से यदि अनुष्ठान किया जाए तभी अनुष्ठान फलीभूत होगा अन्यथा नहीं। श्रद्धा में एक पैसेभर की कमी पूरे अनुष्ठान को विफल कर देगी।
ट्रस्टीयों ने “वरुण जाप” करने का निर्णय ले लिया और दूर-दूर से विद्वानों को निमंत्रण भेजा गया। समय बहुत ही कम था और लक्ष्य बहुत ही बड़ा था। जल-आपूर्ति मात्र दस दिनों की बाकी रह गई थीं। 1 नवम्बर को जप का मुहूर्त निकला था।
तभी बड़ी भारी समस्याओं ने ट्रस्टीयों को घेर लिया। जिन बड़े-बड़े विद्वानों को निमंत्रण भेजा गया था उनमे से अधिकाँश ने आने में असमर्थता व्यक्त कर दी। किसी का स्वास्थ्य खराब था , तो किसी के घर मृत्यु हों गई थी (मरणा-शौच) ; किसी को कुछ तो किसी को कुछ समस्या आ गई।
“वरुण-जाप” लगभग असंभव हों गया !
इधर इन खबरों को अखबार बड़ी प्रमुखता से चटखारे ले-लेकर छापे जा रहे थे और सनातन धर्म , धर्मानुयायियों , ट्रस्टमण्डल और तिरुपति बालाजी का मज़ाक बनाए जा रहे थे। धर्म के शत्रु सनातन धर्म को अंधविश्वास सिद्ध करने पर तुले हुए थे।
ट्रस्ट के अध्यक्ष श्री प्रसाद साहब की आँखों में आंसू थे। उन्होंने रो-रोकर आर्त ह्रदय से प्रभु वेंकटेश से प्रार्थना की । सारे ट्रस्टी और भक्तों ने भी प्रार्थना की।
सभी ने प्रभु से प्रार्थना की – “क्या वरुण जाप नहीं हों पाएगा? क्या मंदिर के दर्शन बन्द हों जायेंगे? क्या हजारों-लाखों साल की परम्परा लुप्त हों जाएगी?
नवम्बर के महीने में रात्रीविश्राम के लिए मंदिर के पट बंद हों चुके थे । मंदिर में कोई नहीं था। सभी चिंतित भगवद्भक्त अपने-अपने घरों में रो-रोकर प्रभु से प्रार्थना कर रहे थे।
और तभी रात्रि में 1 बजे यह घंटा नाद गूंज उठा पूरे तिरुमला पर्वत पर, मानो प्रभु सबसे कह रहे हो “चिंता मत करो! मैं हूँ तुम्हारे साथ!”
दूसरे दिन सुबह से ही “वरुण जाप” हेतु अनुकूलताएँ मिलनी आरम्भ हों गई। जिन विद्वानों ने आने में असमर्थता व्यक्त कर दी थीं उनकी उपलब्धि के समाचार आने लग गए। 8 नवम्बर को पुनः मुहूर्त निर्धारित कर लिया गया। जो विद्वान् अनुष्ठान से मुंह फेर रहे थे , वे पुरी शक्ति के साथ अनुष्ठान में आ डटे।
“वरुण जाप” तीन दिनों तक चलनेवाली परम् कठिन वैदिक प्रक्रिया हैं । यह प्रातः लगभग तीन बजे आरम्भ हों जाती हैं। इसमें कुछ विद्वानों को तो घंटो छाती तक पुष्करिणी सरोवर में कड़े रहकर “मन्त्र जाप” करने थे , कुछ भगवान् के “अर्चा विग्रहों” का अभिषेक करते थे , कुछ “यज्ञ और होम” करते थे तो कुछ “वेदपाठ” करते थे। तीन दिनों की इस परम् कठिन वैदिक प्रक्रिया के चौथे दिन पूर्णाहुति के रूप में “सहस्त्र कलशाभिषेकम्” सेवा प्रभु “श्री वेंकटेश्वर” को अर्पित की जानेवाली थी।
तीन दिनों का अनुष्ठान संपन्न हुआ। सूर्यनारायण अन्तरिक्ष में पूरे तेज के साथ दैदीप्यमान हों रहे थे। बादलों का नामोनिशान तक नहीं था।
भगवान् के भक्त बुरी तरह से निराश होकर मन ही मन भगवन से अजस्त्र प्रार्थना कर रहे थे।
भगवान् के “अर्चा विग्रहों” को पुष्करिणी सरोवर में स्नान कराकर पुनः श्रीवारी मंदिर में ले जाया जा रहा था।
सेक्युलर पत्रकार चारों ओर खड़े होकर तमाशा देख रहे थे और हंस रहे थे और चारों ओर विधर्मी घेरकर चर्चा कर रहे थे की “ अनुष्ठान से बारिश? ऐसा कहीं होता हैं? कैसा अंधविश्वास हैं यह?“ कैसा पाखण्ड हैं यह?”
ट्रस्ट के अध्यक्ष श्री प्रसाद साहब और ट्रस्टीगण मन ही मन सोच रहे थे की “हमसे कौनसा अपराध हों गया?” , “क्यों प्रभु ने हमारी पुकार अस्वीकार कर दी?” , अब हम संसार को और अपनेआप को क्या मुंह दिखाएँगे?”
इतने में ही दो तीन पानी की बूंदे श्री प्रसाद के माथे पर पड़ी..
उन्हें लगा कि पसीने की बूंदे होंगी और घोर निराशा भरे कदम बढ़ाते रहे मंदिर की ओर पर फिर और पाँच छह मोटी मोटी बूंदे पड़ी!
सर ऊपर उठाकर देखा तो आसमान में काले काले पानी से भरे हुए बादल उमड़ आए है और घनघोर बिजली कड़कड़ा उठी!
दो तीन सेकेण्ड में मूसलधार वर्षा आरम्भ हुई! ऐसी वर्षा की सभी लोगो को भगवान के उत्सव विग्रहों को लेकर मंदिर की ओर दौड़ लगानी पड़ी फिर भी वे सभी सर से पैर तक बुरी तरह से भीग गए थे।
याद रहे, वर्षा केवल तिरुपति के पर्वत क्षेत्र में हुई, आसपास एक बूँद पानी नहीं बरसा। गोगर्भम् जलाशय और आसपास के कुंएं लबालब भरकर बहने लगे। इंजिनियरों ने तुरंत आकर बताया की पूरे वर्ष तक जल-आपूर्ति की कोई चिंता नहीं।
सेक्युलर पत्रकार और धर्म के शत्रुओं के मुंह पर हवाइयां उड़ने लगी और वे बगलें झाँकने लगे। लोगों की आँखें फटी-की-फटी रह गई। भक्तमण्डल जय-जयकार कर उठा।
यह घटना सबके सामने घटित हुई और हज़ारों पत्रकार और प्रत्यक्षदर्शी इसके प्रमाण हैं लेकिन इस बात को दबा दिया गया।[1]
“सनातन धर्म” की इस इतनी बड़ी जीत के किससे कभी टेलीविज़न , सिनेमा अथवा सोशल मीडिया पर नहीं गाये जाते ।
भगवान् वेंकटेश्वर श्रीनिवास कोई मूर्ती नहीं वरन् साक्षात् श्रीमन्नारायण स्वयं हैं। अपने भक्तों की पुकार सुनकर वे आज भी दौड़े चले आते हैं। भक्त ह्रदय से पुकारें तो सही।
“वेंकटाद्री समं स्थानं , ब्रह्माण्डे नास्ति किंचन् ।
श्रीवेंकटेश समो देवों , न भूतो न भविष्यति ॥भगवान वेंकटेश की जय कल्कि रूपाय नमः
एक यात्री ने नाव के अंदर थूक दिया
नाव बीच नदी में डूब गई, शिकायत राजा तक आई.. राजा के दरबार में पेश किये गये – राजा ने नाविक से पूछा- नाव कैसे डूबी ?*
राजा : क्या नाव में छेद था ?
नाविक – नहीं महाराज, नाव बिल्कुल दुरुस्त थी !
राजा – इसका मतलब, तुमने सवारी अधिक बिठाई ?
नाविक – नहीं महाराज, सवारी नाव की क्षमतानुसार ही थे और न जाने कितनी बार मैंने उससे अधिक सवारी बिठाकर भी नाव पार लगाई है !
राजा – आंधी, तूफान जैसी कोई प्राकृतिक आपदा भी तो नहीं थी न ?
नाविक – मौसम सुहाना तथा नदी भी बिल्कुल शान्त थी महाराज !
राजा – कही मदिरा पान तो नहीं किया था तुमने ?
नाविक – नहीं महाराज, आप चाहें तो इन लोगों से पूछ कर संतुष्ट हो सकते हैं यह लोग भी मेरे साथ तैरकर जीवित लौटे हैं !
महाराज – फिर, क्या चूक हुई ? कैसे हुई इतनी बड़ी दुर्घटना ?
नाविक – महाराज, नाव हौले-हौले, बिना हिलकोरे लिये नदी में चल रही थी. तभी नाव में बैठे एक आदमी ने नाव के भीतर ही थूक दिया !
मैंने पतवार रोक कर उसका विरोध किया और पूछा कि भाई “तुमने नाव के भीतर क्यों थूका?”
उसने उपहास में कहा “क्या मेरे नाव में थूकने से ये नाव डूब जायेगी ?”
मैंने कहा- “नाव तो नहीं डूबेगी लेकिन तुम्हारे इस निकृष्ट कार्य से हमें घिन आ रही है, बताओ, जो नाव तुमको अपने सीने पर बिठाकर इस पार से उस पार ले जा रही है तुम उसी में क्यों थूक रहे हो ??
राजा – फिर?
नाविक – महाराज मेरी इतनी बात पर वो तुनक गया, बोला पैसा देते हैं नदी पार करने के. कोई एहसान नहीं कर रहे तुम और तुम्हारी नाव.
राजा (विस्मय के साथ) – पैसा देने का क्या मतलब, नाव में ही थूकेगा क्या ? अच्छा, फिर क्या हुआ ?
नाविक – महाराज वो मुझसे झगड़ा करने लगा.
राजा – नाव में बैठे और लोग क्या कर रहे थे ? क्या उन लोगों ने उसका विरोध नहीं किया ?
नाविक – हॉ, नाव के बहुत से लोग मेरे साथ उसका विरोध करने लगे !
राजा – तब तो उसका मनोबल टूटा होगा, उसको अपनी गलती का एहसास हुआ होगा ?
नाविक – ऐसा नहीं था महाराज, नाव में कुछ लोग ऐसे भी थे जो उसके साथ उसके पक्ष में खड़े हो गये.. नाव के भीतर ही दो खेमे बंट गये, बीच मझधार में ही यात्री आपस में उलझ पड़े…
राजा – चलती नाव में ही मारपीट, तुमने उन्हें समझाया तथा रोका नहीं ?…
नाविक – रोका महाराज, हाथ जोड़कर विनती भी की, मैने कहा ” नाव इस वक्त अपने नाजुक दौर में है, इस वक्त नाव में तनिक भी हलचल हम सबकी जान का खतरा बन जायेगी लेकिन वो नहीं माने, सब एक दूसरे पर टूट पड़े तथा नाव ने बीच गहरी धारा में ही संतुलन खो दिया महाराज…
नाव उन लोगो की वजह से डुबी, जिन लोगों ने गलत का तर्क देकर उस थूक मारने वाले का साथ दिया *आशा है आप समझ ही गए होंगे*
आपका देश नाजुक दौर से गुजर रहा है । भला-बुरा पहचान लें । ताकि नाव के संतुलन खोने से आप और आपके साथी बाकी लोग न मारे जाए..
🙏नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि 🙏 साभार
☝🏻🙏🏻🚩🚩* CMSRIVASTAVA
जय श्री कृष्णा जी…….. चोर और राजा"
किसी जमाने में एक चोर था। वह बडा ही चतुर था। लोगों का कहना था कि वह आदमी की आंखों का काजल तक उडा सकता था। एक दिन उस चोर ने सोचा कि जबतक वह राजधानी में नहीं जायगा और अपना करतब नहीं दिखायगी, तबतक चोरों के बीच उसकी धाक नहीं जमेगी। यह सोचकर वह राजधानी की ओर रवाना हुआ और वहां पहुंचकर उसने यह देखने के लिए नगर का चक्कर लगाया कि कहां क्या कर सकता है।
उसने तय कि कि राजा के महल से अपना काम शुरू करेगा। राजा ने रातदिन महल की रखवाली के लिए बहुतसे सिपाही तैनात कर रखे थे। बिना पकडे गये परिन्दा भी महल में नहीं घुस सकता था। महल में एक बहुत बडी घडीं लगी थी, जो दिन रात का समय बताने के लिए घंटे बजाती रहती थी।
चोर ने लोहे की कुछ कीलें इकठटी कीं ओर जब रात को घडी ने बारह बजाये तो घंटे की हर आवाज के साथ वह महल की दीवार में एकएक कील ठोकता गया। इसतरह बिना शोर किये उसने दीवार में बारह कीलें लगा दीं, फिर उन्हें पकड पकडकर वह ऊपर चढ गया और महल में दाखिल हो गया। इसके बाद वह खजाने में गया और वहां से बहुत से हीरे चुरा लाया।
अगले दिन जब चोरी का पता लगा तो मंत्रियों ने राजा को इसकी खबर दी। राजा बडा हैरान और नाराज हुआ। उसने मंत्रियों को आज्ञा दी कि शहर की सडकों पर गश्त करने के लिए सिपाहियों की संख्या दूनी कर दी जाय और अगर रात के समय किसी को भी घूमते हुए पाया जाय तो उसे चोर समझकर गिरफतार कर लिया जाय।
जिस समय दरबार में यह ऐलान हो रहा था, एक नागरिक के भेष में चोर मौजूद था। उसे सारी योजना की एक एक बात का पता चल गया। उसे फौरन यह भी मालूम हो यगा कि कौन से छब्बीस सिपाही शहर में गश्त के लिए चुने गये हैं। वह सफाई से घर गया और साधु का वेश धारण करके उन छब्बीसों सिपाहियों की बीवियों से जाकर मिला। उनमें से हरेक इस बात के लिए उत्सुक थी कि उसकी पति ही चोर को पकडे ओर राजा से इनाम ले।
एक एक करके चोर उन सबके पास गया ओर उनके हाथ देख देखकर बताया कि वह रात उसके लिए बडी शुभ है। उसक पति की पोशाक में चोर उसके घर आयेगा; लेकिन, देखो, चोर की अपने घर के अंदर मत आने देना, नहीं तो वह तुम्हें दबा लेगा। घर के सारे दरवाजे बंद कर लेना और भले ही वह पति की आवाज में बोलता सुनाई दे, उसके ऊपर जलता कोयला फेंकना। इसका नतीजा यह होगा कि चोर पकड में आ जायगा।
सारी स्त्रियां रात को चोर के आगमन के लिए तैयार हो गईं। अपने पतियों को उन्होंने इसकी जानकारी नहीं दी। इस बीच पति अपनी गश्त पर चले गये और सवेरे चार बजे तक पहरा देते रहे। हालांकि अभी अंधेरा था, लेकिन उन्हें उस समय तक इधर उधर कोई भी दिखाई नहीं दिया तो उन्होंने सोचा कि उस रात को चोर नहीं आयगा, यह सोचकर उन्होंने अपने घर चले जाने का फैसला किया। ज्योंही वे घर पहुंचे, स्त्रियों को संदेह हुआ और उन्होंने चोर की बताई कार्रवाई शुरू कर दी।
फल वह हुआ कि सिपाही जल गये ओर बडी मुश्किल से अपनी स्त्रियों को विश्वास दिला पाये कि वे ही उनके असली पति हैं और उनके लिए दरवाजा खोल दिया जाय। सारे पतियों के जल जाने के कारण उन्हें अस्पताल ले जाया गया। दूसरे दिन राजा दरबार में आया तो उसे सारा हाल सुनाया गया। सुनकर राजा बहुत चिंतित हुआ और उसने कोतवाल को आदेश दिया कि वह स्वयं जाकर चोर पकड़े।
उस रात कोतवाल ने तेयार होकर शहर का पहरा देना शुरू किया। जब वह एक गली में जा रहा रहा था, चोर ने जवाब दिया, ″मैं चोर हूं।″ कोतवाल समझा कि लड़की उसके साथ मजाक कर रही है। उसने कहा, ″मजाक छाड़ो ओर अगर तुम चोर हो तो मेरे साथ आओ। मैं तुम्हें काठ में डाल दूंगा।″ चोर बाला, ″ठीक है। इससे मेरा क्या बिगड़ेगा!″ और वह कोतवाल के साथ काठ डालने की जगह पर पहुंचा।
वहां जाकर चोर ने कहा, ″कोतवाल साहब, इस काठ को आप इस्तेमाल कैसे किया करते हैं, मेहरबानी करके मुझे समझा दीजिए।″ कोतवाल ने कहा, तुम्हारा क्या भरोसा! मैं तुम्हें बताऊं और तुम भाग जाओं तो ?″ चोर बाला, ″आपके बिना कहे मैंने अपने को आपके हवाले कर दिया है। मैं भाग क्यों जाऊंगा?″ कोतवाल उसे यह दिखाने के लिए राजी हो गया कि काठ कैसे डाला जाता है। ज्यों ही उसने अपने हाथ-पैर उसमें डाले कि चोर ने झट चाबी घुमाकर काठ का ताला बंद कर दिया और कोतवाल को राम-राम करके चल दिया।
जाड़े की रात थी। दिन निकलते-निकलते कोतवाल मारे सर्दी के अधमरा हो गया। सवेरे जब सिपाही बाहर आने लगे तो उन्होंने देखा कि कोतवाल काठ में फंसे पड़े हैं। उन्होंने उनको उसमें से निकाला और अस्पताल ले गये।
अगले दिन जब दरबार लगा तो राजा को रात का सारा किस्सा सुनाया गया। राजा इतना हैरान हुआ कि उसने उस रात चोर की निगरानी स्वयं करने का निश्चय किया। चोर उस समय दरबार में मौजूद था और सारी बातों को सुन रहा था। रात होने पर उसने साधु का भेष बनाया और नगर के सिरे पर एक पेड़ के नीचे धूनी जलाकर बैठ गया।
राजा ने गश्त शुरू की और दो बार साधु के सामने से गुजरा। तीसरी बार जब वह उधर आया तो उसने साधु से पूछा कि, ″क्या इधर से किसी अजनबी आदमी को जाते उसने देखा है?″ साधु ने जवाब दिया कि “वह तो अपने ध्यान में लगा था, अगर उसके पास से कोई निकला भी होगा तो उसे पता नहीं। यदि आप चाहें तो मेरे पास बैठ जाइए और देखते रहिए कि कोई आता-जाता है या नहीं।″ यह सुनकर राजा के दिमाग में एक बात आई और उसने फौरन तय किया कि साधु उसकी पोशाक पहनकर शहर का चक्कर लगाये और वह साधु के कपड़े पहनकर वहां चोर की तलाश में बैठे।
आपस में काफी बहस-मुबाहिसे और दो-तीन बार इंकार करने के बाद आखिर चोर राजा की बात मानने को राजी हो गया ओर उन्होंने आपस में कपड़े बदल लिये। चोर तत्काल राजा के घोड़े पर सवार होकर महल में पहुंचा ओर राजा के सोने के कमरे में जाकर आराम से सो गया, बेचारा राजा साधु बना चोर को पकड़ने के लिए इंतजार करता रहा। सवेरे के कोई चार बजने आये। राजा ने देखा कि न तो साधु लौटा और कोई आदमी या चोर उस रास्ते से गुजरा, तो उसने महल में लौट जाने का निश्चय किया; लेकिन जब वह महल के फाटक पर पहुंचा तो संतरियों ने सोचा, राजा तो पहले ही आ चुका है, हो न हो यह चोर है, जो राजा बनकर महल में घुसना चाहता है। उन्होंने राजा को पकड़ लिया और काल कोठरी में डाल दिया। राजा ने शोर मचाया, पर किसी ने भी उसकी बात न सुनी।
दिन का उजाला होने पर काल कोठरी का पहरा देने वाले संतरी ने राजा का चेहरा पहचान लिया ओर मारे डर के थरथर कांपने लगा। वह राजा के पैरों पर गिर पड़ा। राजा ने सारे सिपाहियों को बुलाया और महल में गया। उधर चोर, जो रात भर राजा के रुप में महल में सोया था, सूरज की पहली किरण फूटते ही, राजा की पोशाक में और उसी के घोड़े पर रफूचक्कर हो गया।
अगले दिन जब राजा अपने दरबार में पहुंचा तो बहुत ही हतरश था। उसने ऐलान किया कि अगर चोर उसके सामने उपस्थितित हा जायगा तो उसे माफ कर दिया जायगा और उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कीह जायगी, बल्कि उसकी चतुराई के लिए उसे इनाम भी मिलेगा। चोर वहां मौजूद था ही, फौरन राजा के सामने आ गया ओर बोला, “महाराज, मैं ही वह अपराधीह हूं।″ इसके सबूत में उसने राजा के महल से जो कुछ चुराया था, वह सब सामने रख दिया, साथ ही राजा की पोशाक और उसका घोड़ा भी। राजा ने उसे गांव इनाम में दिये और वादा कराया कि वह आगे चोरी करना छोड़ देगा। इसके बाद से चोर खूब आनन्द से रहने लगा।
(((( श्री चोखामेला जी ))))
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पूज्यपाद श्री चोखामेला जी के अनुयायी संतो, श्री निर्मल कुमार रामायणी, संत महीपति एवं अन्य कुछ वारकरी संप्रदाय के संतो के कृपाप्रसाद से प्रस्तुत भाव।
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संत श्री चोखामेला भगवान् श्री विट्ठल के अनन्य भक्त थे। पंढरपुर के पास मंगलवेढा नाम के गाँव में श्री चोखामेला निवास करते थे।
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मरे हुए जानवरो को उठाना और साफ़ सफाई की सेवा आदि इनका कार्य था। जाति से यह चतुर्थ वर्ण के थे अतः उस काल में इनको दूर से ही भगवान् का दर्शन करना पड़ता, इस कारण से उन्हें दुःख होता।
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यद्यपि एकनाथ ज्ञानदेव आदि अनेक संतो ने कभी किसी के साथ भेद भाव नहीं रखा और न कभी संतो की जात पूछी परंतु उस समय के ज्ञानी और उंच नीच मानने वाले लोग उनको ताने मारते और हीन जाति का समझते।
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काम धंदा करते समय हृदय की धड़कन समान सतत चोखामेला के श्रीमुख से भगवान् का नामस्मरण होता रहता।
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अनेक तीर्थो में भ्रमण करने के बाद जब ये पंढरपुर आए तब इनका मन यही लगा रह गया। संतो का सहवास, नामस्मरण, कीर्तन, विट्ठल दर्शन से इनका मन पंढरपुर धाम को छोड़ कर जाने को नहीं होता था।
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बीच बीच में संत चोखामेला पंढरपुर आते जाते रहते थे। इनके गुरु संत श्री नामदेव जी थे।
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एक दिन रात्रि में मंदिर के महाद्वार के सामने एक शिला पर बैठे चोखामेला भगवान् को याद करके अभंग (पद) गाने लगे।
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हीन जाति का होने के कारण उनको दूर से ही भगवान् का दर्शन करना पड़ता परंतु भगवान् की भक्ति में किसी तरह का जाति भेद नहीं होता यह प्रभु को प्रकट करना था।
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भक्ति करने का अधिकार सभी को है इस बात को प्रकट करने के लिए संत श्री चोखामेला आदि अनेक संतो का प्राकट्य अन्य अन्य जातियो में हुआ है।
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भक्त हमारे निकट नहीं आ सकता, भक्त रोज हमारे द्वार पर खड़ा रहता है यह जानकार भगवान् स्वयं मंदिर के बाहर आ गए।
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संत बाबा आनंद में गाने लगे और भगवान् उनके साथ नृत्य करने लगे।
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भक्त का संग पाकर प्रभु अतिआनंद में मग्न हो गए और अपने कंठ का रत्नहार प्रभु ने संत जी के गले में डाल दिया।
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रात अधिक हो गयी और भगवान् मंदिर में जाकर सो गए, बाबा भी मंदिर के बाहर सीढ़ी पर सो गए।
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प्रातः काल बाबा उठे और मंदिर का परिसर साफ़ करने की सेवा में लग गए।
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तुलसी माला पुष्पहार उतारते समय पुजारियो ने देखा की भगवान् के गले का रत्नहार गायब है।
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उन्होंने यहाँ वहाँ देखा तो दृष्टी चोखामेला पर पड़ी। पता चला की हार चोखामेला के गले में है।
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पुजारियो ने संत जी पर चोरी का आरोप लगाया। लोगो की भीड़ जमा हो गयी और कुछ लोग संत जी को मारने पीटने लगे।
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बाबा ने बताया की वे निर्दोष है और भगवान् ने स्वयं हमको हार पहनाया है, पर वे लोग संत की बात न माने।
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अंत में उन्होंने श्री भगवान् का स्मरण किया। अपनी वाणी में उन्होंने भगवान् को पुकारते हुए कहा है – प्रभु आप दौड़ कर हमारी मदद को आइये, धीरे धीरे मत चलिए।
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मुझे ये लोग मार रहे है, ऐसा मैंने कौन सा अपराध किया है? मै तुम्हारे द्वार का इमानी कुत्ता हूं। ऐसे प्रसंग में मुझे अपने आप से दूर मत करो, मेरी रक्षा की जिम्मेदारी अब आपकी है।
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संत जी के गले का हार अब भगवान् के कंठ में जा पंहुचा। पुजारी लोग संत बाबा के कंठ से रत्नहार निकालने गए तो रत्नहार कंठ में नहीं था। उन्होंने पूछा – कहा गया रत्नहार? कहा छुपाया तुमने ?
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बाबा ने कहा – मेरे प्रभु ने मेरी विनती सुन ली, वो हार भगवान् के कंठ में ही है।
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पुजारियो ने मंदिर में देखा तो हार भगवान के कंठ में ही था। उन्होंने मारने वालो को रोका और उन्हें पता चल गया की इस चोखामेला में कुछ विशेष शक्ति है अतः कुछ दिन वह चुप रहे।
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एक दिन किसी निंदक ने संत चोखामेला की हँसी उड़ाने के लिए उनके सामने कहा – तुम पर यदि भगवान् का प्रेम है तो भगवान् ने तुम्हे कभी मंदिर के भीतर क्यों नहीं बुलाया?
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ऐसा है तो दिन रात भगवान् के भजन करने से तुम्हे क्या लाभ?
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संत जी ने नम्र वाणी में कहा – श्री भगवान् के दर्शन करने की हमारी योग्यता कहा?
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हम दूर से ही प्रणाम् कर लेते है और हमारा प्रणाम् हमारे प्रभु को प्राप्त हो जाता है, भगवान् हम से बहुत प्रेम करते है।
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भगवान् सब बात जान गए और उस रात भगवान् श्री कृष्ण संत जी की कुटिया में गए और उनका हाथ पकड़ कर उनको मंदिर में ले गए।
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बहुत समय तक संत चोखामेला और भगवान् बाते करते रहे।
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प्रातः पुजारी लोग जल्दी उठ कर मंदिर की प्रातः काल सेवा की तैयारी करने लगे तब उन्हें अंदर से कुछ आवाज आने लगी।
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उन्होंने चोखामेला की आवाज पहचान ली।
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पुजारीयो ने कहा – चोखामेला, दरवाजे पर तो ताला लगा हुआ था बताओ तुम भीतर कैसे आये?
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चोखामेला ने कहा – श्री भगवान् ने ही मुझे हाथ पकड़कर यहाँ लाया है।
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इस घटना से उन लोगो ने यह समझ लिया की भगवान् अपवित्र हो गए और चोखामेला से ईर्ष्या करने लगे।
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उन्होंने सर्वत्र बात फैला दी की चोखमेला की वजह से भगवान् अपवित्र हो गए।
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संत नामदेव उस दिन चोखामेला से भेट करने उनके घर गए। श्री नामदेव जी से चोखामेला को हरिनाम का प्रसाद प्राप्त हुआ था।
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संत श्री नामदेव यद्यपि चोखामेला के गुरु थे परंतु नामदेव जी को संत चोखामेला की भक्ति का प्रताप भलीभांति ज्ञात था।
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वे जानते थे की संत चोखामेला बहुत उच्च होती के महात्मा है अतः नामदेव जी ने चोखामेला के चरणों में प्रणाम् किया। चोखामेला ने भी नामदेव जी के चरणों में प्रणाम् किया।
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नामदेव जी को चोखामेला की पत्नी और पुत्र से मंदिर में घटित प्रसंग का पता चला।
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थरथराते स्वर में चोखामेला बोले – वो विट्ठल पांडुरंग हमारा भगवान् हमारा सर्वस्व हमारे मन से जाता नहीं। उससे मिले बिन कुछ अच्छा नहीं लगता।
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प्रभु को मेरे स्पर्श से कोई आपत्ति नहीं और उन लोगों का कहना है की चोखामेला ने भगवान् को अपवित्र कर दिया।
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नामदेव जी हम आपके जैसे ज्ञानी नहीं है परंतु संत चरणों का और भगवान् का ही हमको आधार है।
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नामदेव जी बोले – बाबा, केवल मंत्र स्तुति स्तोत्र अथवा पुराणों का पारायण करके मन में भक्ति नहीं है तो क्या उपयोग?
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प्रभु तो केवल भाव के भूखे है, केवल भक्तिभाव मांगते है और वह भक्ति भाव् आपके ह्रदय में कुट कुट कर भरा है।
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हमारा साखा पांडुरंग होते हुए हमें लोक निंदा से क्या? इन पर आप क्रोध करे, इनको गालियां दे इतनी भी इनकी पात्रता नहीं। संतो से डांट खाना, संतो का क्रोध भी सबको नहीं प्राप्त होता।
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बाबा आपको जिन्होंने मारा है वे महामूर्ख है और आपके स्पर्श से जिनको आपत्ति होती है न उनके भाग्य में आपका पुण्यस्पर्श लिखा ही नहीं है।
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आज आपकी, सोयराबाई, परिसा, नरहरी, बंका, सावता काका आदि सब संतो, पांडुरंग और गुरुदेव भगवान् की कृपा से कितना सत्संग है। कौन पूछता है इन निंदकों को?
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ऐसे वचन कहकर नामदेव जी चले गए। बाबा के हृदय में आनंद हुआ और वे नाम की मस्ती में मस्त हो गए।
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संत चोखामेला की पत्नी सोयराबाई भी महान भक्ता थी। उसके कोई संतान नहीं होने के कारण वो दुखी रहती थी और प्रभु से प्रार्थना किया करती की हमारे घर संतान नहीं है इसलिए मन व्याकुल होता है।
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एक दिन भगवान् ने वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किया और चोखामेला के घर के सामने आये, उनके हाथ में डंडा, कंठ में तुलसी माला और मस्तक पर चन्दन और बुक्का (काली वैष्णव बिंदी अथवा श्याम बिंदी) था।
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भगवान् उनके घर के बाहर आकर पूछने लगे – ये घर किसका है, घर पर कितने बालक है, घर के सदस्य क्या काम करते है इत्यादि।
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सोयराबाई ने वृद्ध वेशधारी भगवान् को प्रणाम किया और कहा – ये घर भगवान् पांडुरंग का है।
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भगवान् उत्तर सुनकर कहने लगे – अरे !पांडुरंग का घर है।
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सोयराबाई ने आगे कहा – हमारे घर के लोगो को गोविंद का छंद है, वे सब रातदिन उनका समरण करने का काम करते है, हमारे घर संतान का सुख नहीं है बाबा, हमारे घर कोई बालक नहीं।
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वृद्ध ब्राह्मण बोला – इस मार्ग से मै निकला था, मुझे बहुत भूख लगी है कुछ भोजन प्रसाद मिल जाये तो अच्छा होगा !
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उसपर सोयराबाई बोली – बाबा हम नीच जाति के है, आपको हमारे घर का अन्न कैसे चलेगा ?
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बाबा बोले – भक्तो की कैसी जाति, जो हरी भजे सो हरी का है, हमको बहुत भूख लगी है ऐसा कहकर उन्होंने हाथ पसारे।
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सोयराबाई ने सोचा अतिथि भगवान् बिना खाये गए तो अच्छा नहीं और अन्न दिया तो लोग हमको मारेंगे।
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उसने कहा – बाबा आपको हमने इस घर का अन्न दिया तो लोग हमें मारेंगे हमारी निंदा करेंगे।
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इसपर वृद्ध ब्राह्मण बोले – बेटी जाति का विचार तुम मत करो, कल का बासी अन्न होगा तो भी हम खा लेंगे, पर इस घर का अन्न हमको थोड़ा खाने को दे दो।
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सोयराबाई अंदर गयीं और उसने दही चावल लाकर वृद्ध बाबा को दे दिया, दही चावल पाकर बाबा संतुष्ट होकर बोले – बोलो बेटी क्या चाहिए तुम्हे ?
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उसने कहा आपकी कृपा हमपर बनी रहे।
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वृद्ध महात्मा ने उसको बचा हुआ सीथ प्रसाद दे दिया और आशीर्वाद दिया की तुमको निश्चित पुत्र होगा।
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सोयराबाई को प्रभु कृपा से कर्ममेला नाम का पुत्र हुआ, आगे चलकर कर्ममेला भी महान भक्त और कवि हुए।
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भगवान् ने एक दिन विचित्र लीला की। अचानक एक दिन चोखामेला के मन में संसार की असारता और पीड़ा का दुःख मन में आया और वे घर परिवार का विचार किये बिना एकांत में निकल गए।
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रास्ते में बहन निर्मालाबाई का घर पड़ा, निर्मालाबाई ने हरिनाम का प्रसाद संत चोखामेला से ही प्राप्त किया था।
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उनको जब पता चला की चोखामेला घर परिवार की जिम्मेवारी से भाग रहे है तब उन्होंने अपने गुरुदेव होने पर भी चोखामेला को शिष्य की भाँति डांट दिया।
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जब ये सब चल रहा था तब चोखामेला की पत्नी सोयराबाई को प्रसुति की पीड़ा होने लगी और आस पास कोई नहीं था।
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स्वयं भगवान् श्री कृष्ण निर्मालाबाई का वेश धारण करके उनके पास पहुंचे और संपूर्ण सेवा की।
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पुत्र जन्म लेने पर पूरे एक महीने भगवान् ने सोयराबाई का ध्यान रखा।
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समय बीतने पर जब चोखामेला को ये बात पता चली तो उन्हें पश्चाताप हुआ और उन्होंने भगवान् की भक्तवत्सलता का अनुभव किया।
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वे जान गए की हमारी पत्नी महान भक्ता है और इसके गर्भ से जन्मा यह पुत्र जिसने जन्म लेने पर सबसे प्रथम ही प्रभु के दर्शन एवं स्पर्श प्राप्त किये है वो भी महान् संत होगा।
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संत श्री चोखामेला के विषय में यह दिव्य कथा संत श्री एकनाथ जी महाराज ने वर्णन की है।
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स्वर्ग के अमरपुरी में अमृत का घड़ा रखा होता है। स्वर्ग के नाग सर्प आदि उसमे मुख डाल कर पान करते है, झूठा करते है।
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देवता तो स्वर्ग में आने वालो को केवल अमृत सुंघा देते है, पान नहीं कराते।
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पंढरपुर में संत श्री सावता माली बहुत उच्च कोटि के भक्त हुए परंतु वे अपने को बहुत तुच्छ समझते।
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बहुत से निंदक उनको छोटी जाति के है कहकर ताने मारते, पीड़ा पहुँचाते।
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एक दिन प्रभु ने विचित्र लीला रची। स्वर्ग के अमृत को एक बार रोग हो गया, उसका प्रभाव बहुत कम हो गया। अमृत सड़ने लगा।
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देवराज इंद्र के ध्यान में जब यह बात आयी तब उन्हीने देवर्षि नारद जी का स्मरण किया।
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देवर्षि नारद को इंद्र ने इसका समाधान पूछा।
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नारद जी ने बताया की मृत्युलोक में भूतल पर पंढरपूर नाम का दिव्य धाम है जहां बहुत से सिद्ध पवित्रात्मा संतो का जन्म हुआ है।
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साक्षात् भगवान् श्री कृष्ण ईट पर भक्त पुण्डलिक के द्वार पर खड़े है। भगवान् वहां मधुराती मधुर लीला करते है एवं भक्तो के कीर्तन करने पर नृत्य करते है। आप अमृत लेकर वह जाएं, वही पर अमृत शुद्ध होगा।
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यह सुनकर इंद्र के ह्रदय में संतोष हुआ।
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देवराज इंद्र एकादशी के दिन विमान से पंढरपूर में आये उस समय संत श्री नामदेव जी का कीर्तन चल रहा था, बहुत सी दिव्य आत्माए और देवता वहाँ विराजमान थे।
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एकादशी की रात में कीर्तन चलता था, चंद्रभागा किनारे पर यह कीर्तन चल रहा था परंतु संत चोखामेला वहां नहीं थे।
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वे घर पर ही रह कर नामस्मरण कर रहे थे।उच्च कोटि के नामजपक होने से उनमे सिद्धभाव आ गया था,
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एकाएक संत चोखामेला को अनुभव हुआ की प्रभु द्वादशी के पारायण में हमारे घर पधारने वाले है।
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उन्होंने पत्नी से कहा, प्रभु पारायण करने हमारे घर आने वाले है। प्रभु के साथ इंद्र आदि देवता भी संत भगवान् के घर प्रसाद पाने की इच्छा करने लगे।
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श्री नारद जी ने जाकर संत चोखामेला से कहा की इन्द्रादि सभी देव भी आपके घर पर पधारने वाले है।
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प्रभु ने ऋद्धि सिद्धि को आदेश दे रखा था की भोजन समग्री की व्यवस्था ठीक से कर के रखना।
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भगवान् रुक्मिणी माता के संग संत बाबा के घर पधारे। संत जी ने दण्डवत् किया।
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प्रभु ने संत बाबा को उठा कर आलिंगन दिया। संत बाबा के घर के आँगन में प्रसाद पाने पंगत बैठी, संत बाबा की पत्नी भोजन प्रसाद परोसने की सेवा करने लगी।
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इंद्र ने अमृत कलश लाकर भगवान् के सामने रख दिया तब भगवान् ने संत चोखामेला से कहा – बाबा यह देवलोक का अमृत आप शुद्ध कर दीजिये।
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चोखामेला बोले – ये कैसा अमृत है ?आपके मधुर नाम का अमृत, जिसे सब चख सकते है वह नामामृत इस स्वर्ग के अमृत से बहुत अधिक श्रेष्ठ है।
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जैसे शुकदेव जी ने स्वर्ग से अमृत को तुच्छ कह दिया था उसी तरह श्री चोखामेला ने भी भगवन्नाम और कथामृत के सामने स्वर्ग के अमृत को तुच्छ बताया।
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प्रभु के नाम का माहात्म्य और हरिनाम की मधुरता कहते कहते बाबा के आँखों से दो बूँद अश्रु उस अमृत कलश में गिरे।
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प्रभु ने कहा – हो गया शुद्ध, हो गया शुद्ध।
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सबने देखा की सड़ा हुआ अमृत शुद्ध हो गया।
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इस तरह संत श्री चोखामेला कितने उच्च कोटि के संत है और उनके भजन का बल कैसा विलक्षण है यह प्रभु ने सबको दिखलाया।
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संत महीपति महाराज द्वारा भक्तिविजय ग्रन्थ की रचना हुई, जिसमे भक्त चरित्रों का वर्णन है।
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इस ग्रन्थ के अध्याय २३ में लिखा है की भगवान् का हार चोरी करने के पीछे चोखामेला का हाथ है ऐसा मंदिर के पुजारी और कुछ ज्ञानी समझते।
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यद्यपि प्रभु ने लीला करके हार वापस अपने गले में डाल लिया था पर उन लोगो के ह्रदय में चोखामेला के प्रति ईर्ष्या थी।
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भगवान् के मंदिर में भीतर घुस आने वाली बात से खासकर वे लोग क्रोधित थे और उन्होंने समझ लिया था की भगवान् अपवित्र हो गए है।
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अतः उन्होंने कुछ चाल चलने की सोची।
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उन्होंने चोखामेला से चंद्रभागा नदी की दूसरी ओर रहने के लिए कह दिया, उन्होंने चोखमेला से कहा – चले जाओ नदीपार, यहाँ नहीं रहना।
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चंद्रभागा के दूसरे किनारे एक छोटे से पांडुरंग मंदिर में चोखामेला और उनकी पत्नी सेवा करने लगे।
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वहां उन्होंने एक दीपमाला बाँध दी और वही पास निवास करने लगे।
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भगवान के प्रिय भक्त जहां रहते वही प्रभु भोजन करने भी चले जाया करते।
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एक दिन नदी के पास वृक्ष की छाया में प्रत्यक्ष भगवान् श्री कृष्ण संत चोखामेला के साथ बैठ कर प्रेम से भोजन प्रसाद पा रहे थे।
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मंदिर का एक पुजारी उधर किसी काम से गया हुआ था।
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पुजारी वहा आकर सब लीला देखने लगा उसी समय वृक्ष की डाल पर एक कौवा आकर बैठा।
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चोखामेला ने उस से कहा की यहाँ भगवान् भोजन कर रहे है, तुम जाकर किसी दूसरी डाल पर जा बैठो।
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पुजारी ने समझा की इसने हमको ही कौवा कह दिया और पुजारी ने संत बाबा से बहस छेड़ दी और बात बात में पुजारी ने संत जी के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया।
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उस समय संत जी की पत्नी भगवान् की सेवा कर रही थी, उसके हाथ से दही के बर्तन से थोडा दही प्रभु की पीताम्बरी पर गिर गया।
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गड़बड़ी में पुजारी ने थप्पड़ तो जड़ दिया पर उसको भय लगा की हम अकेले है,
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आस पास के कोई लोग अथवा ये पति पत्नी मिलकर हमें पीट न दे, अतः पुजारी वहा से से भाग गया और मंदिर मे आ गया।
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मंदिर में उसने देखा की के भगवान् अश्रुपात कर रहे है, उनके गाल में सूजन है, गाल सूज कर फूल गया है और पीताम्बर पर दही गिरा हुआ है।
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पुजारी समझ गया की हमसे संत का अपराध हुआ है और भगवान् ने संत की चोट स्वयं पर ले ली है।
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उसे बाबा की भक्ति के प्रताप ज्ञात हो गया, भागता हुआ वो बाबा के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा।
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संत बाबा तो क्रोध कभी करते ही न थे। वे तो सर्वथा प्रशांत थे।
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बाद में अनेक उपाय करके भी प्रभु के गाल की सूजन दूर नहीं हो रही थी।
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संत चोखामेला जब मंदिर में जाकर प्रभु से जा लिपटे तब तत्काल प्रभु का गाल पूर्ववत हो गया।
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पुजारी ने स्वयं कहा – श्री भगवान् जात पात का भेद नहीं मानते, वे प्रेम के भूखे है। अब हम भी कभी भेद नहीं करेंगे।
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उस दिन से श्री विट्ठल मंदिर में किसी को भगवान् के श्रीविग्रह को स्पर्श तक करने का अधिकार प्राप्त है।
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कुछ समय बीतने पर मंगलवेढा गांव की सीमा पर सुरक्षा हेतु बड़ी दिवार बाँधने का काम निकल आया।
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मुग़ल शासन था और आस पास के क्षेत्रो से सख्ती और जोर जबरदस्ती कर के मजदूरी हेतु आदमी लाना सैनिको ने शुरू कर दिया।
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उसमे संत चोखामेला को भी पकड़ा गया।
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बाबा कहने लगे – हमको भगवान् के धाम से बाहरहर मत ले जाओ, यहाँ पंढरपुर के अंदर जो मिले वो काम मै करने को तैयार हूं परंतु किसने उनकी बात नहीं सुनी।
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दीवार बनाने का काम आरम्भ हुआ। संत चोखामेला का शरीर तो मंगलवेढा में था परंतु मन से वे भगवान् के पास पंढरपुर से ही रहते।
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एक रात्रि में सब मजदूर श्रमित हो कर दीवार को लग कर सो गए और उसी रात्रि में तूफ़ान आ गया।
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उनकी नींद खुलने से पहले दीवार गिर गयी और सबका शरीर छूट गया, उसमे संत चोखामेला भी थे।
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पंढरपुर में वार्ता आयी। सभी परिवार को एवं संतो को बहुत दुःख हुआ।
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नामदेव जी उस समय पंजाब से वापस पंढरपुर आ रहे थे। नामदेव जी के आने पर उनका सर्वत्र जयजयकार हुआ।
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वहाँ सब संतो के दर्शन नामदेव को प्राप्त हुए और नामदेव जी सबको क्षेमकुशल पूछने लगे।
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उन्होंने एक वारकरी भक्त से पूछा – चोखामेला काका नहीं दिख रहे? वे कहा है?
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वह वारकरी रोने लगा और रोते रोते कहने लगा – नाम, हमारे चोखामेला काका हमको छोड़ कर …..
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नामदेव जी को संत के विरह से बहुत दुःख हुआ। नामदेव बहुत देर तक चोखोबा काका की याद कर के रोते रहे।
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किसी तरह संभलकर वे सोचने लगे की हम चोखामेला के परिवार के सदस्यों से कैसे मिले? उनको सांत्वना कैसे देंगे ?
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नामदेव सीधे विट्ठल मंदिर गए और उन्होंने प्रभु से कहा – क्षेमकुशल पुछु अथवा चोखामेला के विषय में कहूं ?
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उनके जैसे संत मिला नहीं करते। प्रभु आप केवल देखते रह गये? बाबा तो आपके परमभक्त थे, आपने उनको अपने पास बुला लिया पर हमारा क्या?
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भगवान् भी मौन होकर रो रहे थे। प्रभु ने कहा चोखामेला जगत में आये और कार्य करके चल गए, पर सत्य कहू तो वे आये भी नहीं और गए भी नहीं।
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शरीर का वस्त्र क्या चोखामेला है क्या? नाम तुम तो ये सत्य जानते हो। चोखामेला तो भक्तो का निर्मल प्रवाह है वे आये भी नहीं और गए भी नहीं।
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नाम मेरी एक इच्छा है जो तुम्हे पूर्ण करनी है। तुम्हे विनती करता हूं।
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नामदेव जी ने कहा प्रभु आप आज्ञा करे।
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नामा.. चोखामेला की भक्ति का आदर्श संसार में अमर रहे ऐसी हमारी इच्छा है। उनके जैसे संतो के कारण ही तो हमारी भगवत्ता है।
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नाम तुम मंगलवेढा जाओ और संत बाबा की अस्थियां ले आओ और हमारे सामने मंदिर के महाद्वार पर उनकी समाधी बनवाओ।
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नामदेव जी ने भक्तवत्सल भगवान् की स्तुति की और कहा, प्रभु वहाँ बहुत से लोग दीवार के नीचे दबकर मृत्यु को प्राप्त हुए उनमे चोखामेला की अस्थियां कैसे पहचाने ?
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भगवान् ने कहा – नामा, तुमको यह भी हम ही बताये क्या?
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नामदेव ने अपना मस्तक प्रभु के चरणों पर रखा। भगवान् ने दो अश्रु नामदेव के मस्तक पर गिरे।
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नामदेव मंगलवेढा आये। सर्वत्र बिखरे मांस और हड्डियों में बाबा की हड्डियां ढूंढने लगे।
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चोखामेला की अस्थि हाथ में आते ही उनसे दिव्य सुगंध प्रकट हो जाती और विट्ठल नाम सुनाई पड़ता।
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हड्डियों जैसी निर्जीव वस्तु, मल मूत्र मांस से भरे शरीर में भी दिव्य सुगंध और हरि नाम प्रकट करना यह तो संतो की भक्ति का प्रताप ही है।
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अस्थियां लेकर नामदेव जी पंढरपुर में आये और मंदिर प्रमुख के पास जाकर भगवान् की आज्ञा सुनाई।
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मंदिर प्रमुख को बात पर विश्वास नहीं हुआ और उन्होंने समाधी के लिए जगह देने से मना कर दिया।
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दूसरे दिन नामदेव जी के साथ कुछ वारकरी संत और चोखामेला के परिवार के सदस्य भी मंदिर प्रमुख के पास गए और समाधि के लिए जगह देने की विनती करने लगे।
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इतने सबको देख कर मंदिर प्रमुख कुछ डर गए और उस समय उनको चालाकी सूझी।
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उन्होंने सोचा ये सब दरिद्र है, इनको बड़ी रक्कम मांग लेता हूं तो ये चले जायेंगे।
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उसने कहा – मै आपको जगह देता हूं पर महाद्वार की जगह है, महँगी है। आप लोग एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएं लाकर दो तो कुछ बात बनेगी।
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सारी संत मंडली निराश होकर लौट गयी।
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विजय प्राप्त हो गया सोच कर मंदिर प्रमुख घर आये। दोपहर का भोजन आया। बढ़िया बढ़िया व्यंजन थाली में पत्नी ने परोसे।
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उन्होंने थाली से रोटी उठायी और मुख में डालने गए तो मुख में आ गयी स्वर्ण मुद्रा।
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खीर की कटोरी मुख की ओर ले गए तो वह भी मुद्राओ से भर गयी।
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मुख में डालने के लिए निवाला उठाते तो स्वर्ण मुद्रा और नीचे रखते तो पुनः अन्न हो जाता।
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पानी पीने के लिए प्याला उठाया तो उसमे भी स्वर्ण मुद्रा।
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अब वह परेशान हो गया और क्रोध में जाकर नरम गद्दी पर जाकर विश्राम करने लेट गया।
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उसके शरीर में कुछ कठोर लगा, उठ कर देखा तो वह स्वर्ण मुद्राओ पर सोया था।
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अब उसको समझ आ गया की हमने संतो को जगह देने से मन किया, हमारे कारण संतो को कष्ट हुआ।
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पगड़ी पहनी और सीधा भागकर नामदेव जी के चरणों में जा कर पड़ गया।
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उसने कहा हमसे अपराध हो गया, हमको क्षमा करो। आपका सामर्थ्य जानकार भी हमने आपकी बात नहीं मानी।
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आप संत चोखामेला की समाधि का निर्माण कार्य आरम्भ करें।
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नामदेव जी ने उनको उठाया और प्रति नमस्कार किया। उनके आँखों में अश्रु आ गए और संत चोखामेला की समाधी महाद्वार में भगवान् के सामने बाँध दी गयी।
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संत मंडली और भगवान् पांडुरंग को परमानन्द हुआ, अब तो प्रभु के नेत्रो के सामने सदा सदा के लिए संत चोखामेला विराजमान हो गए।
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भक्तवत्सल भगवान् की जय।
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साभार :- भक्तमाल कथा
Bhakti Kathayen भक्ति कथायें ((((((( जय जय श्री राधे )))))))
एक बार की बात है :
एक बार एक राजा घने जंगल में भटक जाता है, जहां उसको बहुत ही प्यास लगती है। इधर – उधर हर जगह तलाश करने पर भी उसे कहीं पानी नहीं मिलता। प्यास से उसका गला सूखा जा रहा था, तभी उसकी नजर एक वृक्ष पर पड़ी जहां एक डाली से टप – टप करती थोड़ी – थोड़ी पानी की बूंदें गिर रही थी। राजा उन बूंदों से दोने को भरने लगा। दोना भरा तो राजा ने प्रसन्न होते हुए जैसे ही उसे पीने के लिए मुंह से लगाया सामने बैठा तोता टेंटें की आवाज करता हुआ आया उस दोने को झपट्टा मार के गिरा दिया और वापस सामने वाली डाली पर बैठ गया। राजा दोबारा उस खाली दोने को भरने लगा।
काफी मशक्कत के बाद एक बार फिर दोना भरा, लेकिन जैसे ही राजा ने उसे पीने के लिए मुंह से लगाया तोते ने एक बार फिर दोने को झपट्टा मार के गिरा दिया। राजा क्रोधित हो उठा और चाबुक को तोते के ऊपर दे मारा। तोते के प्राण पखेरू उड़ गए। राजा ने सोचा कि इस तोते से तो पीछा छूटा अब बूंद – बूंद करके दोना नहीं भरूंगा। जहां से यह पानी टपक रहा है वहीं जाकर झट से पानी भर लूं। ऐसा सोचकर वह उस डाली के पास जाता है, जहां से पानी टपक रहा था। लेकिन जब उस डाली पर राजा ने एक भयंकर अजगर को सोते देखा तो उनके पावों के नीचे से जमीन खिसक गई। अजगर के मुंह से लार टपक रही थी, जिसे राजा पानी समझ रहा था। राजा दुखी हो उठा। मन ही मन खुद को धिक्कारने लगा कि मैंने यह क्या कर दिया? जो पक्षी बार - बार मुझे जहर पीने से बचा रहा था मैंने उसे ही मार डाला। हे भगवान् मैंने अज्ञानता में कितना बड़ा घोर पाप कर दिया। मित्रों, इसलिए कहते हैं कि... क्षमा और दया धारण करने वाला ही सच्चा वीर होता है। क्रोध में व्यक्ति दूसरों के साथ - साथ खुद का भी नुकसान कर लेता है। क्रोध वो जहर है, जिसकी उत्पत्ति अज्ञानता से होती है और अंत पश्चाताप से होता है।
श्री श्री भी यही कहते हैं :”क्रोध के समय कोई भी निर्णय न लो। क्रोध हमेशा अपने साथ नकारात्मकता को लेकर आता है। क्रोध हमारी सोचने और समझने की क्षमता को हर लेता है।”
🌷 जय गुरुदेव 🌷 जय माँ काली 🌷
न्याय
एक दिन एक कुत्ता श्रीराम के दरबार में आया और उसने प्रभु से शिकायत की– “राजन,कितने दुख की बात है कि जिस राज्य की कीर्ति चहुँ ओर राम राज्य के रूप में फैली हुई है वहीं लोग हिंसा और अन्याय का सहारा लेते हैं। मैं आपके महल के पास ही एक गली में लेटा हुआ था, जब एक साधू आया और उसने मुझे पत्थर मारकर घायल कर दिया। देखिए मेरे सिर पर लगे घाव से अभी भी रक्त बह रहा है। वह साधू अभी भी गली में ही होगा। कृपया मेरे साथ न्याय कीजिए और अन्यायी को उसके दुष्कर्म का दंड दीजिए।”
श्रीराम के आदेश पर साधु को दरबार में लाया गया। साधू ने कहा – “यह कुत्ता गली में पूरा मार्ग रोक कर लेटा हुआ था। मैंने इसे उठाने के लिए आवाज़ें दीं और ताली बजाई लेकिन यह नहीं उठा। मुझे गली के पार जाना था, इसलिए मैंने इसे एक पत्थर मारकर भगा दिया।
श्रीराम ने साधु से कहा – “एक साधू होने के नाते तो तुम्हें किंचित भी हिंसा नहीं करनी चाहिए थी। तुमने गंभीर अपराध किया है और इसके लिए दंड के भागी हो।
श्रीराम ने साधू को दंड देने के विषय पर दरबारियों से चर्चा की।
दरबारियों ने एक मत होकर निर्णय लिया – “चूंकि इस बुद्धिमान कुत्ते ने यह वाद प्रस्तुत किया है अतएव दंड के विषय पर भी इस का मत ले लिया जाए।”
कुत्ते ने कहा – “राजन, इस नगरी से पचास योजन दूर एक अत्यंत समृद्ध और संपन्न मठ है जिसके महंत की दो वर्ष पूर्व मृत्यु हो चुकी है। कृपया इस साधू को उस मठ का महंत नियुक्त कर दें।”
श्रीराम और सभी दरबारियों को ऐसा विचित्र दंड सुनकर बड़ी हैरानी हुई। उन्होंने कुत्ते से ऐसा दंड सुनाने का कारण पूछा।
कुत्ते ने कहा – “मैं ही दो वर्ष पूर्व उस मठ का महंत था। ऐसा कोई सुख, प्रमाद, या दुर्गुण नहीं है, जो मैंने वहां रहते हुए नहीं भोगा हो। इसी कारण इस जन्म में मैं कुत्ता बनकर पैदा हुआ हूं। अब शायद आप मेरे दंड का भेद जान गए होंगे।”
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