Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

3-5-2021

🙏 कहानी 🙏

“सच्ची मित्रता” कहानी बहुत पुरानी है पर हमेशा से प्रासंगिक रही है। खास तौर पर आज जब सभी को अपनी जान बचाने कि पड़ी है, तो यह प्यारी सी भावनाओं की चाशनी से लबरेज़ कहानी और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है। वह एक छोटी-सी झोपड़ी थी | एक छोटा-सा दीया झोपड़ी के एक कोने में रखा अपने प्रकाश को दूर-दूर तक फैलाने की कोशिश कर रहा था | लेकिन एक कोने तक ही उसकी रोशनी सीमित होकर रह गयी थी | इस कारण झोपड़ी का अधिकतर भाग अंधकार में डूबा था | फिर भी उसकी यह कोशिश जारी थी, कि वह झोपड़ी को अंधकार रहित कर दे |

झोपड़ी के कोने में टाट पर दो आकृतियां बैठी कुछ फुसफुसा रही थी | वे दोनों आकृतियां एक पति-पत्नी थे |

पत्नी ने कहा – “स्वामी ! घर का अन्न जल पूर्ण रूप से समाप्त है, केवल यही भुने चने हैं |”

पति का स्वर उभरा – “हे भगवान ! यह कैसी महिमा है तेरी, क्या अच्छाई का यही परिणाम होता है |”

“हूं” पत्नी सोच में पड़ गयी | पति भी सोचनीय अवस्था में पड़ गया |

काफी देर तक दोनों सोचते रहे | अंत में पत्नी ने कहा – “स्वामी ! घर में भी खाने को कुछ नहीं है | निर्धनता ने हमें चारों ओर से घेर लिया है | आपके मित्र कृष्ण अब तो मथुरा के राजा बन गये हैं, आप जाकर उन्हीं से कुछ सहायता मांगो |”

पत्नी की बात सुनकर पति ने पहले तो कुछ संकोच किया | पर फिर पत्नी के बार-बार कहने पर वह द्वारका की ओर रवाना होने पर सहमत हो गया |

सुदामा नामक उस गरीब आदमी के पास धन के नाम पर फूटी कौड़ी भी नहीं थी, और ना ही पैरों में जूतियां |

मात्र एक धोती थी, जो आधी शरीर पर और आधी गले में लिपटी थी | धूल और कांटो से भरे मार्ग को पार कर सुदामा द्वारका जा पहुंचा |

जब वह कृष्ण के राजभवन के द्वार पर पहुंचा, तो द्वारपाल ने उसे रोक लिया |

सुदामा ने कहा – “मुझे कृष्ण से मिलना है |”

द्वारपाल क्रूद्र होकर बोला – “दुष्ट महाराज कृष्ण कहो |”

सुदामा ने कहा – “कृष्ण ! मेरा मित्र है |”

यह सुनते ही द्वारपाल ने उसे सिर से पांव तक घूरा और अगले ही क्षण वह हंस पड़ा |

“तुम हंस क्यों रहे हो” सुदामा ने कहा |

“जाओ कहीं और जाओ, महाराज ऐसे मित्रों से नहीं मिलते” द्वारपाल ने कहा और उसकी ओर से ध्यान हटा दिया |

किंतु सुदामा अपनी बात पर अड़े रहे |

द्वारपाल परेशान होकर श्री कृष्ण के पास आया और उन्हें आने वाले की व्यथा सुनाने लगा |

सुदामा का नाम सुनकर कृष्ण नंगे पैर ही द्वार की ओर दौड़ पड़े |

द्वार पर बचपन के मित्र को देखते ही वे फूले न समाये | उन्होंने सुदामा को अपनी बाहों में भर लिया और उन्हें दरबार में ले आये |

उन्होंने सुदामा को अपनी राजगद्दी पर बिठाया | उनके पैरों से काटे निकाले पैर धोये |

सुदामा मित्रता का यह रूप प्रथम बार देख रहे थे | खुशी के कारण उनके आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे |

और फिर कृष्ण ने उनके कपड़े बदलवाये | इसी बीच उनकी धोती में बंधे भुने चनों की पोटली निकल कर गिर पड़ी | कृष्ण चनो की पोटली खोलकर चने खाने लगे |

द्वारका में सुदामा को बहुत सम्मान मिला, किंतु सुदामा फिर भी आशंकाओं में घिरे रहे | क्योंकि कृष्ण ने एक बार भी उनके आने का कारण नहीं पूछा था | कई दिन तक वे वहां रहे |

और फिर चलते समय भी ना तो सुदामा उन्हें अपनी व्यथा सुना सके और ना ही कृष्ण ने कुछ पूछा |

वह रास्ते भर मित्रता के दिखावे की बात सोचते रहे |

सोचते सोचते हुए वे अपनी नगरी में प्रवेश कर गये | अंत तक भी उनका क्रोध शांत न हुआ |

किंतु उस समय उन्हें हेरानी का तेज झटका लगा | जब उन्हें अपनी झोपड़ी भी अपने स्थान पर न मिली |

झोपड़ी के स्थान पर एक भव्य इमारत बनी हुयी थी | यह देखकर वे परेशान हो उठे | उनकी समझ में नहीं आया, कि यह सब कैसे हो गया | उनकी पत्नी कहां चली गयी |

सोचते-सोचते वे उस इमारत के सामने जा खड़े हुये | द्वारपाल ने उन्हें देखते ही सलाम ठोका और कहा – “आइये मालिक |”

यह सुनते ही सुदामा का दिमाग चकरा गया |

“यह क्या कह रहा है” उन्होंने सोचा |

तभी द्वारपाल पुन: बोला – “क्या सोच रहे हैं, मालिक आइये न |”

“यह मकान किसका है” सुदामा ने अचकचाकर पूछा |

“क्या कह रहे हैं मालिक, आप ही का तो है |”

तभी सुदामा की दृष्टि अनायांस ही ऊपर की ओर उठती चली गयी | ऊपर देखते ही वह और अधिक हैरान हो उठे | ऊपर उनकी पत्नी एक अन्य औरत से बात कर रही थी |

उन्होंने आवाज दी –

अपना नाम सुनते ही ऊपर खड़ी सुदामा की पत्नी ने नीचे देखा और पति को देखते ही वह प्रसन्नचित्त होकर बोली –
“आ जाइये, स्वामी! यह आपका ही घर है |”

यह सुनकर सुदामा अंदर प्रवेश कर गये |

पत्नी नीचे उतर आयी तो सुदामा ने पूछा – “यह सब क्या है |”

पत्नी ने कहा – “कृष्ण! कृपा है, स्वामी |”

“क्या” सुदामा के मुंह से निकला | अगले ही पल वे सब समझ गये | फिर मन ही मन मुस्कुराकर बोले – “ छलिया कहीं का |”

मित्रों” मित्र वही है जो मित्र के काम आये | असली मित्रता वह मित्रता होती है जिसमें बगैर बताये, बिना एहसान जताये, मित्र की सहायता इस रूप में कर दी जाये कि, मित्र को भी पता ना चले | जैसा उपकार श्री कृष्ण ने अपने बाल सखा सुदामा के साथ किया |” जब जब भी यह कथा पढ़ी या सुनी जाती है, मन एक मिठास से भर जाता है। आज फिर समय है मित्रता का उदाहरण समाज के सामने रखने का। ये तो समझ में आ रहा है कि *"ब्रह्म सत्यम् जगन् मिथ्या"* और

“यह संसार नश्वर है “
तो बिना कहे, बिना जताए, बिना किसी भेदभाव के अपने पड़ोसी, मित्रों, परिचितों, सहकर्मियों और अपनों की हर तरह से मदद करें। आर्थिक रूप से भी। हर तरह से । अभी सुरक्षित हैं, बहुत अच्छी बात है। पर शायद हमें भी दुआओं की जरूरत पड़ जाय। समय बहुत कठिन है……. मिलजुल कर ही निकल सकता है। कठिनाई में एक दूसरे का ही सहारा होता है। क्या पता कब, किसको, किसकी जरूरत पड़ जाय।🙏

🙏 साहिब बंदगी जी🙏

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सागर-भर शुभ मंगल कामनाओ सहित कृतज्ञ हृदय से शुभ रात्रि सुहृदयश्रेष्ठ💐💐। *""अहंकार से बचें""*

दोस्तों ,

एक दिन रामकृष्ण परमहंस किसी संत के साथ बैठे हुए थे। ठंड के दिन थे। शाम हो गई थी। तब संत ने ठंड से बचने के लिए कुछ लकड़ियां एकट्ठा कीं और धूनी जला दी। दोनों संत धर्म और अध्यात्म पर चर्चा कर रहे थे। इनसे कुछ दूर एक गरीब व्यक्ति भी बैठा हुआ। उसे भी ठंड लगी तो उसने भी कुछ लकड़ियां एकट्ठा कर लीं। अब लकड़ी जलाने के लिए उसे आग की जरूरत थी। वह तुरंत ही दोनों संतों के पास पहुंचा और धूनी से जलती हुई लकड़ी का एक टुकड़ा उठा लिया।

एक व्यक्ति ने संत द्वारा जलाई गई धूनी को छू लिया तो संत गुस्सा हो गए। वे उसे मारने लगे। संत ने कहा कि तू पूजा-पाठ नहीं करता है, भगवान का ध्यान नहीं करता, तेरी हिम्मत कैसे हुई, तूने मेरे द्वारा जलाई गई धूनी को छू लिया।​​​​​​​ रामकृष्ण परमहंस ये सब देखकर मुस्कुराने लगे। जब संत ने परमहंसजी को प्रसन्न देखा तो उन्हें और गुस्सा आ गया। उन्होंने परमहंसजी से कहा, ‘आप इतना प्रसन्न क्यों हैं? ये व्यक्ति अपवित्र है, इसने गंदे हाथों से मेरे द्वारा जलाई गई अग्नि को छू लिया है तो क्या मुझे गुस्सा नहीं होना चाहिए ?’​​​​​​​​​​​​​​

परमहंसजी ने कहा, ‘मुझे नहीं मालूम था कि कोई चीज छूने से अपवित्र हो जाती है। अभी आप ही कह रहे थे कि ये सभी इंसानों में परमात्मा का वास है। और थोड़ी ही देर बाद आप ये बात खुद ही भूल गए।’ उन्होंने आगे कहा, ‘दरअसल इसमें आपकी गलती नहीं है। आपका शत्रु आपके अंदर ही है, वह है अहंकार। घमंड की वजह से हमारा सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता है। इस बुराई पर काबू पाना बहुत मुश्किल है।’​​​​​​​

शिक्षा:- जो लोग घमंड करते हैं, उनके दूसरे सभी गुणों का महत्व खत्म हो जाता है। इस बुराई की वजह से सब कुछ बर्बाद हो सकता है। इसीलिए अहंकार से बचना चाहिए।

|(‘}, |(/\_ “” सुनील पाठक “” जमशेदपुर

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डमरू

एक बार की बात है, देवताओं के राजा इंद्र ने कृषकों से किसी कारण से नाराज होकर बारह वर्षों तक बारिश न करने का निर्णय लेकर किसानों से कहा-” अबआप लोग बारह वर्षों तक फसल नही ले सकेंगे।”

सारे कृषकों ने चिंतातुर होकर एक साथ इंद्रदेव से वर्षा करवाने प्रार्थना की । इंद्र ने कहा -” यदि भगवान शंकर अपना डमरू बजा देंगे तो वर्षा हो सकती है।” इंद्र ने किसानों को ये उपाय तो बताया लेकिन साथ में गुप्तवार्ता कर भगवान शिव से ये आग्रह कर दिया कि आप किसानों से सहमत न होना।
जब किसान भगवान शंकर के पास पहुँचे तो भगवान ने उन्हें कहा -” डमरू तो बारह वर्ष बाद ही बजेगा।”

किसानों ने निराश होकर बारह वर्षों तक खेती न करने का निर्णय लिया।

उनमें से एक किसान था जिसने खेत में अपना काम करना नहीं छोड़ा। वो नियमति रूप से खेत जोतना, निंदाई, गुड़ाई, बीज बोने का काम कर रहा था। ये माजरा देख कर गाँव के किसान उसका मज़ाक उड़ाने लगे। कुछ वर्षों बाद गाँव वाले इस परिश्रमी किसान से पूछने लगे -” जब आपको पता है कि बारह वर्षों तक वर्षा नही होने वाली तो अपना समय और ऊर्जा क्यों नष्ट कर रहे हो?”

उस किसान ने उत्तर दिया- मैं,भी जानता हूँ कि बारह वर्ष फसल नही आने वाली लेकिन मैं, ये काम अपने अभ्यास के लिए कर रहा हूँ।*क्योंकि बारह साल कुछ न करके मैं,खेती किसानी का काम भूल जाऊँगा,मेरे शरीर की श्रम करने की आदत छूट जाएगी। इसीलिए ये काम मैं, नियमित कर रहा हूँ ताकि जब बारह साल बाद वर्षा होगी तब मुझे अपना काम करने के लिए कोई कठिनाई न हो।

ये तार्किक चर्चा माता पार्वती भी बड़े कौतूहल के साथ सुन रही थी। बात सुनने के बाद माता, भगवान शिव से सहज बोली – ” प्रभु,आप भी बारह वर्षों के बाद डमरू बजाना भूल सकते हैं।”
माता पार्वती की बात सुन कर भोले बाबा चिंतित हो गए।अपना डमरू बज रहा या नही ये देखने के लिए उन्होंने डमरू उठाया और बजाने का प्रयत्न करने लगे।
जैसे ही डमरू बजा बारिश शुरू हो गई…. जो किसान अपने खेत में नियमित रूप से काम कर रहा था उसके खेत में भरपूर फसल आयी। बाकी के किसान पश्याताप के अलावा कुछ न कर सके।
“अभ्यास” हमें परिपूर्ण बनाता है, अभ्यास काम की गुणवत्ता टिकाए रखने सूत्र है, अभ्यास चिर युवा बने रहने का रहस्य है।
दो सप्ताह, दो माह, दो वर्षों के बाद कभी तो लाकडाउन खत्म होगा, सामान्य जनजीवन शुरू होगा। केवल नकारात्मक बातों पर अपना ध्यान लगाने के बजाय हम अपने कार्य- व्यवसाय से संबंधित कुशलताओं की धार पैनी करने का, अपनी कुशलताओं को बढ़ाने का, अपना ज्ञान बढाने का, अपनी अभिरुचि का अभ्यास करते रहेंगे। यदि आज हम अपनी कुशलताओं, ज्ञान आदि को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर अपना अभ्यास करते रहेंगे, हम अपना काम कैसे और अच्छे से कर सकते है इस बात पर अपना पूरा फ़ोकस रखेंगे तो डमरू कभी भी बजे, हमारी तैय्यारी पूरी रहेगी। आने वाली सभी चुनोतियोँ का सामना कुशलता के साथ अपनी पूरी क्षमता से कर सकेंगे।
कोरोना अभी गया नही है, अपना ध्यान रखें। घर में रहेंगे तो आपके साथ अन्य लोग भी सुरक्षित रहेंगे। अपनी – अपनी क्षमता ,योग्यता के अनुसार पीड़ितों की यथासंभव सहायता करेंगे तो समाज इस जंग को अवश्य जीतेगा।

डमरू कभी भी बज सकता है।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत