पंडित कौन है?
(महाभारत उद्योग पर्व, विदुर प्रजागर, अध्याय 32 से)
आत्म ज्ञान समारम्भस्तितिज्ञा धर्म नित्यता।
यमर्था नापकर्षन्ति सवै पण्डित उच्यते॥
जिसने आत्मज्ञान का अच्छी तरह आरम्भ किया है, जो निकम्मा आलसी कभी न रहे। सुख, दुख, हानि, लाभ, निन्दा, स्तुति, हर्ष शोक न करे, धर्म में ही निश्चिन्त रहे, लुभावनी विषय वासनाओं में आकर्षित न हो वही पण्डित कहलाता है।
निषेवते प्रशन्तानि, निन्दितानि न सेवते।
अनास्तिकः श्रद्वधान, एतत्पण्डित लक्षणम्॥
सदा धर्म युक्त कर्मों में प्रवृत्त रहे, अधर्म युक्त कर्मों का त्याग करें, ईश्वर, वेद और सदाचार पर निष्ठा रखे, एवं श्रद्धालु हो, यह पण्डितों के लक्ष्य है।
क्षिप्रं विजानाति चिरंश्रणोति,
विज्ञायचार्थ भजते न कामात्।
नासम्पृष्टा पयुँक्ते परार्थे,
सत्प्रज्ञानं प्रथम पण्डितस्य॥
जो कठिन विषय को भी शीर्ष जान सके, बहुत समय तक शास्त्रों का पठन, श्रवण और मनन करे, जितना ज्ञान हो उसे परोपकार में लगावे, स्वार्थ भावनाओं का परित्याग करे, अनावश्यक स्थान पर मौन रहे, वह प्रज्ञान पंडित होता है।
नाप्राप्यमभिवाच्छन्ति, नष्ट नेच्छन्ति शोच्तुम्।
आपत्सुच न मुहान्ति, नराः पण्डित बुद्वय॥
जो अयोग्य वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा न करे, नष्ट हुए पदार्थों के लिये शोक न करे, आपत्ति काल में मोहित होकर कर्तव्य न छोड़े वही बुद्धिमान पण्डित है।
प्रवृत्त वाक् चित्र कथ ऊहवान् प्रतिभान वान्।
आशु प्रथस्य वक्ता चयः स पण्डित उच्यते॥
जिसने विद्याओं का अध्ययन किया है, जो शंकाओं का समाधान करने में समर्थ है, शास्त्रों की व्याख्या कर सकता है, तर्क शील और कुशल वक्ता है वही पण्डित कहला सकता है।
पण्डित कौन है।
(ले.- पं. तुलसीराम शर्मा वृन्दावन)
‘पण्डा आत्मविषया बुद्धिः येषातेहि पण्डिताः’
(गीता. 2।11 शाँकर भाष्त)
आत्म विषयक बुद्धि का नाम पण्डा है और वह बुद्धि जिनमें होवे पण्डित है।
सत्यं तपोज्ञान महिंसताच विद्वत्प्रणाँम च सुशीलताच एतानि। योधारयते सविद्वान न केवलयः पूठतेस विद्वान॥
– सुभाषितरत्न भाण्डागार
सत्य, तप, ज्ञान, अहिंसा, विद्वानों का सत्कार और शीलता ये गुण जिसमें है वह विद्वान (पण्डित) है केवल शास्त्र पढ़ने वाला नहीं।
निषेवते प्रशस्तामि निन्दितानिन सेवते।
अनास्तिकः श्रद्वधान एतत्पंडितलक्षणाम्॥ 21॥
-विदुर नीति अ01
जो सुन्दर कर्मों को करता है निन्दित कर्म नहीं करता, जो नास्तिक नहीं है और श्रद्धावान वह पंडित है।
क्रोधो हषश्च दर्पण ही स्तम्भो मान्यमानिता।
यमर्थान्नाप कर्षन्ति सवै पंडित उच्चते॥22॥
जिस पुरुष को क्रोध, हर्ष, घमण्ड, भय, संकोच एवं बड़प्पन की भावना- अपने कर्तव्य कर्म से लज्जा नहीं हटा सकती है वही पंडित है।
आर्य कर्मणि रज्यन्ते भूति कर्मणि कुर्बते।
हितं च नाभ्यसूयन्ति पंडिता भरतर्पभः ॥30॥
हे धृतराष्ट्र! पण्डित लोग शास्त्रानुकूल मार्ग पर चलते हैं और जिन कर्मों को करने से कल्याण प्राप्त होता है उनको करते हैं हितकारी वाक्यों को प्रेम से सुनते हैं और हितोपदेष्टा का सत्कार करते हैं।
पठकाः पाठ का श्वैव येचान्ये शास्त्र चिन्तकाः।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा वः क्रियावान स पंडितः॥
-म.मा.वन. 313। 110
पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले और शास्त्र के चिन्तक ये सब एक प्रकार से व्यसनी हैं परन्तु जो शास्त्र में लिखे पर चलने वाला है वह पण्डित है।
मातृ वतपरदाराणि पर द्वव्याणिलोष्ठवत।
आत्मवत सर्वभूतानि यः पश्यति स पण्डितः॥
-सुभाषितरत्वभाँडागार
पराई स्त्रियों को माता के समान मानता हो, पराये धन को मिट्टी समझता हो, सारे प्राणियों को अपने समान अर्थात् उनके दुख में दुख सुख में सुख मानता हो, वह पंडित है।
नंपडित मतोराम बहु पुस्तक धारणात।
पर लोक भयं यस्यतमाहु पंडित बुधाः॥
-विष्णु धमोत्तर पु0 2।51।13
हे राम! बहुत पुस्तक पढ़ने से पंडित नहीं होता, जिसको परलोक का भय है अर्थात् पाप कर्म से बचा हुआ है उसी को बुद्धिमान पंडित कहते हैं।
आत्मार्थ जीवन लोके अस्मिन्कोन जीवति मानवाः।
परं परोपकार्थच यो जीवति स पंडितः॥
अपने लिए तो इस संसार में कौन नहीं जीता अर्थात् सभी जीते है। परन्तु जो परोपकार के लिए जीवित रहता है वह पंडित है।
युध्यन्ते पक्षि पशवः पठन्ति शुक सारिकाः।
दातु शक्नोति यो दानं स शूरः स च पंडितः॥
लड़ते तो पशु पक्षी भी हैं और पढ़ते तो तोता मैना भी हैं, इसलिए केवल शास्त्रार्थ या पठन पाठन की योग्यता से कोई शूर वीर नहीं होता जो दान दे सकता है अपनी शक्तियों को परमार्थ में लगा सकता है वही शूर है और वही पंडित है।
सर्वनाश समुत्पन्नेह्रार्घत्यजति पंडितः।
अर्धन कुरुते कार्यसर्व नाशो न जायते॥
सर्वनाश सामने आने पर पंडित लोग आधार त्याग देते हैं और आधे से कार्य करते हैं जिससे सर्वनाश नहीं होता।
संत कबीर ने पंडित की बड़ी अच्छी परिभाषा की है-
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय॥
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