महाभारत का एक प्रसंग हैं,
अश्वमेध यज्ञ चल रहा था, बड़े-बड़े ॠषियों और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दी जा रही थी। कहते हैं, कि उस यज्ञ में बड़े-बड़े देवता आए यहाँ तक कि देवराज इन्द्र तक भी उपस्थित हुये,स्वयं भगवान् श्रीकॄष्ण तक वहाँ साक्षात् उपस्थित थे।
दान देने का उपक्रम चल रहा था, अश्वमेध यज्ञ की पूर्णाहुति की पावन वेला थी, इतने में ही सबने देखा,
कि एक गिलहरी उस यज्ञ-मण्डप पर पहुँची और अपने शरीर को उलट-पुलट करने लगी।
यज्ञ-मण्डप में मौजूद सभी लोग बड़े ताज्जुब से उस गिलहरी को देख रहे थे, और भी ज्यादा आश्चर्य तो इस बात का था कि उस गिलहरी का आधा शरीर सोने का था, और आधा शरीर वैसा ही था, जैसा कि आम गिलहरियों का होता है।
माहाराज युधिष्ठिरजी के लिये यह बात आश्चर्यचकित करने वाली थी, ऐसी गिलहरी पहले कभी नहीं देखी गई।एक बार तो दान-दक्षिणा, मन्त्रोच्चार और देवों के आह्वान का उपक्रम तक ठहर गया।
महाराज युधिष्ठिरजी ने यज्ञ को बीच में ही रोक कर गिलहरी को सम्बोधित करते हुये पूछा:-
ओ गिलहरी! मेरे मन में दो शंकायें हैं,पहली शंका तो यह है कि तुम्हारा आधा शरीर सोने का कैसे है.? और दूसरी शंका यह है, कि तुम यहाँ यज्ञ-मण्डप में आकर अपने शरीर को लोट-पोट क्यों कर रही हो.?
गिलहरी ने युधिष्ठिरजी की तरफ मधुर मुस्कान के साथ कहा:-
महाराज युधिष्ठिरजी! आपका प्रश्न बहुत सार्थक हैं। बात दरअसल यह है, कि आपके इसी यज्ञ-स्थल से कोई दस कोस दूर एक गरीब लकडहारे का परिवार तीन दिन से भूखा था। उस लकडहारे ने जैसै-तैसे कर रोटियों का इन्तजाम किया। रात की वेला हो चुकी थी,पूरा परिवार भूख से बेहाल था लेकिन, जैसे ही वे खाना खाने बैठे तो देखा, कि उस घर के बाहर दरवाजे पर एक भूखा भिक्षुक खड़ा था, और खाने के लिये माँग रहा था।
लकडहारे ने अपनी पत्नी से कहा, कि तुम लोग भोजन कर लो और मेरे हिस्से की जो रोटी हैं, वह इस भूखे को दे दो।
वह भूखा भिक्षुक रोटी खाने लगा और रोटी खाते-खाते उसने कहा कि मैं अभी भी भूखा हूँ, मेरा पेट नहीं भरा है,
तब लकडहारे की पत्नी ने कहा कि इसे मेरे हिस्से की भी रोटी इन्हें दे दो, लकडहारे के पत्नी की रोटी भी दे दी गई,
मगर फिर भी वह भूखा रहा।
बच्चों ने भी अपनी-अपनी रोटियाँ दे दी लकडहारे के परिवार ने अपने मन को समझाया कि हम तीन दिन से भूखे हैं और एक दिन भूखे रह लेंगे तो क्या फर्क पड़ेगा! हमारे द्वार पर आया कोई प्रार्थी भूखा नहीं लौटना चाहिये।
भूखे ने रोटियाँ खाई, पानी पीया और चल दिया।
गिलहरी ने आगे का वृत्तान्त बताया कि उस भूखे व्यक्ति के भोजन करने के बाद मैं उधर से गुजरी। जिस स्थान पर उस भिक्षुक ने भोजन किया था, वहाँ रोटी के कुछ कण बिखर गये थे। मैं उन कणों के ऊपर से गुजरी तो मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ, कि जहाँ-जहाँ मेरे शरीर पर वे कण लगे थे वह सोने का हो गया। मैं चौक पड़ी, उस छोटे से लकडहारे के अंश भर दान से,एक छोटे से शुभ-कर्म से मेरे शरीर का आधा हिस्सा सोने का हो गया।
मैंने यहाँ के अश्वमेध यज्ञ के बारे में सुना,तो सोचा कि वहाँ महान् यज्ञ का आयोजन हो रहा हैं, महादान दिया जा रहा है, तप हो रहा है, शुभ से शुभ कर्म आयोजित हो रहे हैं। यदि मैं इस यज्ञ में शामिल होऊँ, तो मेरा शेष शरीर भी सोने का हो जायेगा।
लेकिन,माहाराज युधिष्ठिरजी, मैं एक बार नहीं सौ बार आपके इन दान से गिरे इन कणों पर लोट-पोट हो गई हूँ लेकिन मेरा बाकी का शरीर सोने का न बन पाया। मैं यह सोच रही हूँ, कि असली यज्ञ कौन-सा है? आपका यह अश्वमेध-यज्ञ या उस लकडहारे की आंशिक आहुति वाला वह यज्ञ?
माहाराज युधिष्ठिरजी आपका यह यज्ञ केवल एक दम्भाचार भर हैं।
गिलहरी के ऐसे तर्कपूर्ण वृतांत को सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने वरदहस्त मुद्रा में गिलहरी को बिना मांगे मनोवांछित वरदान सहित मधुर मुस्कान से उसे मुक्ति का वरदान दिया ।।
जीवन में उस किसान का-सा यज्ञ हो सके, तो जीवन का पुण्य समझो। ऐसा कोई यज्ञ न लाखों खर्च करने से होगा और न ही घी की आहुतियों से होगा। भूखे-प्यासे किसी आदमी के लिये, किसी पीड़ित, अनाथ और दर्द से कराहते हुये व्यक्ति के लिये अपना तन, मन, अपना धन कोई भी अगर अंश भर भी दे सको, प्रदान कर सको, तो वह आपकी ओर से एक महान् यज्ञ होगा, एक महान् दान और एक महान् तप होगा,
भगवान् करे, आप सबके जीवन में ऐसे पुण्य-पल ऐसी पावन-वेला सृजित हो उपलब्ध हो।
🙏🏻🙏🏻जय श्री राम🙏🏻🙏🏻
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