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पिता का आशीर्वाद

गुजरात के खंभात के एक व्यापारी की यह सत्य घटना है। जब मृत्यु का समय सन्निकट आया तो पिता ने अपने एकमात्र पुत्र धनपाल को बुलाकर कहा कि बेटा – मेरे पास धनसंपत्ति नहीं है कि मैं तुम्हें विरासत में दूं। पर मैंने जीवनभर सच्चाई और प्रामाणिकता से काम किया है। तो मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि, तुम जीवन में बहुत सुखी रहोगे और धूल को भी हाथ लगाओगे तो वह सोना बन जायेगी।

बेटे ने सिर झुकाकर पिताजी के पैर छुए।

पिता ने सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और संतोष से अपने प्राण त्याग कर दिए।

अब घर का खर्च बेटे धनपाल को संभालना था। उसने एक छोटी सी ठेला गाड़ी पर अपना व्यापार शुरू किया। धीरे धीरे व्यापार बढ़ने लगा। एक छोटी सी दुकान ले ली। व्यापार और बढ़ा।

अब नगर के संपन्न लोगों में उसकी गिनती होने लगी।
उसको विश्वास था कि यह सब मेरे पिता के आशीर्वाद का ही फल है। क्योंकि, उन्होंने जीवन में दु:ख उठाया, पर कभी धैर्य नहीं छोड़ा !
श्रद्धा नहीं छोड़ी !
प्रामाणिकता नहीं छोड़ी !
इसलिए उनकी वाणी में बल था और उनके आशीर्वाद फलीभूत हुए। और मैं सुखी हुआ।

उसके मुंह से बारबार यह बात निकलती थी।

एक दिन एक मित्र ने पूछा : तुम्हारे पिता में इतना बल था, तो वह स्वयं संपन्न क्यों नहीं हुए ? सुखी क्यों नहीं हुए ?

धर्मपाल ने कहा : “मैं पिता की ताकत की बात नहीं कर रहा हूं। मैं उनके आशीर्वाद की ताकत की बात कर रहा हूं।”

इस प्रकार वह बारबार अपने पिता के आशीर्वाद की बात करता, तो लोगों ने उसका नाम ही रख दिया बाप का आशीर्वाद !

धनपाल को इससे बुरा नहीं लगता ! वह कहता कि मैं अपने पिता के आशीर्वाद के काबिल निकलूं, यही चाहता हूं।

ऐसा करते हुए कई साल बीत गए। वह विदेशों में व्यापार करने लगा। जहां भी व्यापार करता, उससे बहुत लाभ होता

एक बार उसके मन में आया, कि मुझे लाभ ही लाभ होता है !! तो मैं एक बार नुकसान का अनुभव करूं।

तो उसने अपने एक मित्र से पूछा, कि ऐसा व्यापार बताओ कि जिसमें मुझे नुकसान हो।

मित्र को लगा कि इसको अपनी सफलता का और पैसों का घमंड आ गया है। इसका घमंड दूर करने के लिए इसको ऐसा धंधा बताऊं कि इस को नुकसान ही नुकसान हो।

तो उसने उसको बताया कि तुम भारत में लौंग खरीदो और जहाज में भरकर अफ्रीका के जंजीबार में जाकर बेचो

धर्मपाल को यह बात ठीक लगी।

जंजीबार तो लौंग का देश है। वहां से लौंग भारत में आते हैं और यहां 10-12 गुना भाव पर बिकते हैं।

भारत में खरीद करके जंजीबार में बेचें, तो साफ नुकसान सामने दिख रहा है।

परंतु धर्मपाल ने तय किया कि मैं भारत में लौंग खरीद कर, जंजीबार खुद लेकर जाऊंगा। देखूं कि पिता के आशीर्वाद कितना साथ देते हैं।

नुकसान का अनुभव लेने के लिए उसने भारत में लौंग खरीदे और जहाज में भरकर खुद उनके साथ जंजीबार द्वीप पहुंचा।

जंजीबार में सुल्तान का राज्य था।

धर्मपाल जहाज से उतरकर के और लंबे रेतीले रास्ते पर जा रहा था ! वहां के व्यापारियों से मिलने को।

उसे सामने से सुल्तान जैसा व्यक्ति पैदल सिपाहियों के साथ आता हुआ दिखाई दिया।

उसने किसी से पूछा कि यह कौन है ?

उन्होंने कहा कि यह सुल्तान हैं।

सुल्तान ने उसको सामने देखकर उसका परिचय पूछा।

उसने कहा, मैं भारत के गुजरात के खंभात का व्यापारी हूं। और यहां पर व्यापार करने आया हूं।

सुल्तान ने उसको व्यापारी समझ कर उसका आदर किया और उससे बात करने लगा।

धर्मपाल ने देखा कि सुल्तान के साथ सैकड़ों सिपाही हैं। परंतु उनके हाथ में तलवार, बंदूक आदि कुछ भी न होकर बड़ी बड़ी छलनियां है। उसको आश्चर्य हुआ। उसने विनम्रता पूर्वक सुल्तान से पूछा, आपके सैनिक इतनी छलनी लेकर के क्यों जा रहे हैं।

सुल्तान ने हंसकर कहा “बात यह है, कि आज सवेरे मैं समुद्र तट पर घूमने आया था। तब मेरी उंगली में से एक अंगूठी यहां कहीं निकल कर गिर गई। अब रेत में अंगूठी कहां गिरी, पता नहीं। तो इसलिए मैं इन सैनिकों को साथ लेकर आया हूं। यह रेत छानकर मेरी अंगूठी उसमें से तलाश करेंगे।

धर्मपाल ने कहा – अंगूठी बहुत महंगी होगी।

सुल्तान ने कहा – “नहीं ! उससे बहुत अधिक कीमत वाली अनगिनत अंगूठी मेरे पास हैं। पर वह अंगूठी एक फकीर का आशीर्वाद है।”

“मैं मानता हूं कि मेरी सल्तनत इतनी मजबूत और सुखी उस फकीर के आशीर्वाद से है। इसलिए मेरे मन में उस अंगूठी का मूल्य सल्तनत से भी ज्यादा है।”

इतना कह कर के सुल्तान ने फिर पूछा “बोलो सेठ- इस बार आप क्या माल ले कर आये हो।”

धर्मपाल ने कहा कि – लौंग !!

लों ऽ ग !!!

सुल्तान के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।

यह तो लौंग का ही देश है सेठ। यहां लौंग बेचने आये हो ? किसने आपको ऐसी सलाह दी। जरूर वह कोई आपका दुश्मन होगा। यहां तो एक पैसे में मुट्ठी भर लौंग मिलते हैं।

यहां लोंग को कौन खरीदेगा ? और तुम क्या कमाओगे ?

धर्मपाल ने कहा “मुझे यही देखना है, कि यहां भी मुनाफा होता है या नहीं।”

“मेरे पिता के आशीर्वाद से आज तक मैंने जो धंधा किया, उसमें मुनाफा ही मुनाफा हुआ तो अब मैं देखना चाहता हूं कि उनके आशीर्वाद यहां भी फलते हैं या नहीं।”

सुल्तान ने पूछा -पिता का आशीर्वाद ? इसका क्या मतलब ?

धर्मपाल ने कहा “मेरे पिता सारे जीवन ईमानदारी और प्रामाणिकता से काम करते रहे परंतु धन नहीं कमा सके। उन्होंने मरते समय मुझे भगवान का नाम लेकर मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया था कि तेरे हाथ में धूल भी सोना बन जाएगी।

ऐसा बोलते-बोलते धर्मपाल नीचे झुका और जमीन की रेत से एक मुट्ठी भरी और सम्राट सुल्तान के सामने मुट्ठी खोलकर उंगलियों के बीच में से रेत नीचे गिराई तो….
धर्मपाल और सुल्तान दोनों के आश्चर्य का पार नहीं रहा।

उसके हाथ में एक हीरे जड़ित अंगूठी थी।

यह वही सुल्तान की गुमी हुई अंगूठी थी।

अंगूठी देखकर सुल्तान बहुत प्रसन्न हो गया। बोला, वाह खुदा आप की करामात का पार नहीं। आप पिता के आशीर्वाद को सच्चा करते हो।

धर्मपाल ने कहा : “फकीर के आशीर्वाद को भी वही परमात्मा सच्चा करता है।”

सुल्तान और खुश हुआ। धर्मपाल को गले लगाया और कहा मांग सेठ।आज तू जो मांगेगा मैं दूंगा।

धर्मपाल ने कहा “आप 100 वर्ष तक जीवित रहो और प्रजा का अच्छी तरह से पालन करो। प्रजा सुखी रहे। इसके अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए।”

सुल्तान और अधिक प्रसन्न हो गया। उसने कहा, सेठ तुम्हारा सारा माल में आज खरीदता हूं और तुम्हें इसकी मुंहमांगी कीमत दूंगा।

*सीख 😗 इस कहानी से शिक्षा मिलती है, कि पिता का आशीर्वाद हो, तो दुनिया की कोई ताकत कहीं भी तुम्हें पराजित नहीं होने देगी। पिता और माता की सेवा का फल निश्चित रूप से मिलता है। आशीर्वाद जैसी और कोई संपत्ति नहीं।

बालक के मन को जानने वाली मां और भविष्य को संवारने वाले पिता यही दुनिया के दो महान ज्योतिषी है। बस इनका सम्मान करो तो तुमको भगवान के पास भी कुछ मांगना नहीं पड़ेगा। अपने बुजुर्गों का सम्मान करें ! यही भगवान की सबसे बड़ी सेवा है। 🙏Jai Shri Ram🙏

मीरा गोयल

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संत सूरदास जी के जीवन का एक प्रसंग-

एक बार संत सूरदास जी को किसी ने भजन के लिए आमंत्रित किया..
भजन कार्यक्रम के बाद उस व्यक्ति को सूरदास जी को अपने घर तक पहुँचाने का ध्यान नही रहा और वह अन्य अतिथियों की सेवा में व्यस्त हो गया।

सूरदास जी ने भी उसे कष्ट नहीं देना चाहा और खुद लाठी लेकर गोविंद–गोविंद करते हुये अंधेरी रात में पैदल घर की ओर निकल पड़े ।
रास्ते मे एक कुआं पड़ता था ।
वे लाठी से टटोलते–टटोलते भगवान श्रीकृष्ण का नाम लेते हुये बढ़ रहे थे और चलते चलते कुएं में गिर गये। तो उन्होंने श्रीकृष्ण को पुकारा। कोई बालक आकर बोला बाबा! आप मेरे हाथ पकड लो… मैं आपको निकाल दुंगा। तो सुरदास जी उस बालक का हाथ पकड लिए… जब वो पकडे उनके तन में बिजली सी दौड गई। शरीर रोमांचित होने लगा… बालक का हाथ कमल से भी कोमल है। ऐसा शरीर मैंने कभी छुआ ही नहीं… बालक की शरीर से महक आ रही थी… चंदन,कस्तूरी, तुलसी का भीनी भीनी सुगंध नाशा में प्रवेश कर रही है… दिव्य अनुभूति हो रहा है।
अब उन्हें लगा कि उस बालक ने उनकी लाठी पकड़ ली है… मार्ग दिखाकर ले जाने लगा है।

तब उन्होंने पूछा – तुम कौन हो ? उत्तर मिला – बाबा! मैं एक बालक हूँ । मैं भी आपका भजन सुन कर लौट रहा हूँ… आपके पिछे पिछे ही आ रहा था। देखा कि आप कुएं में गिर गये हैं…तो दौड कर इधर आ गया । चलिये, आपको आपके घर तक छोड़ दूँ।
सूरदास जी ने पूछा- तुम्हारा नाम क्या है पुत्र ?
“बाबा! अभी तक माँ ने मेरा नाम नहीं रखा है।‘
तब मैं तुम्हें किस नाम से पुकारूँ ?
कोई भी नाम चलेगा बाबा… लोग मुझे तरह तरह के नाम से पुकारते हैं… कितना गिनाउं आपको ?

सूरदास जी ने रास्ते में और कई सवाल पूछे।
उन्हे लगा कि हो न हो, यह मेरे कन्हैया ही है।
वे समझ गए कि आज गोपाल खुद मेरे पास आए हैं । क्यो नहीं मैं इनका हाथ पकड़ लूँ ।
यह सोंच उन्होने अपना हाथ उस लकड़ी पर श्रीकृष्ण की ओर बढ़ाने लगे ।
भगवान श्रीकृष्ण उनकी यह चाल समझ गए… वो तो अंतर्यामी हैं ही… उनसे क्या छुपा है ।
सूरदास जी का हाथ धीरे–धीरे आगे बढ़ रहा था । जब केवल चार अंगुल अंतर रह गया, तब श्रीकृष्ण लाठी को छोड़ दूर चले गए । जैसे उन्होने लाठी छोड़ी, सूरदास जी विह्वल हो गए… आंखो से अश्रुधारा बह निकली । बोले – “मैं अंधा हूँ ,ऐसे अंधे की लाठी छोड़ कर चले जाना क्या कन्हैया तुम्हारी बहादुरी है ?

और..
उनके श्रीमुख से वेदना के यह स्वर निकल पड़े

“हाथ छुड़ाये जात हो, निर्बल जानि के मोय ।
हृदय से जब जाओगे, तो सबल जानूँगा तोय ।।”
अर्थात् मुझे निर्बल जानकार मेरा हाथ छुड़ा कर जाते हो, पर मेरे हृदय से जाओ तो मैं तुम्हें बलवान कहूँ…पुरुष समझुं।

भगवान तो सदैव भक्त के पिछे पिछे चलते हैं… आज भगवान भक्त सुरदास जी के पिछे पिछे चल रहे हैं… भगवान भक्त के हाथ कभी नहीं छोडते। आज भगवान ने सुरदास जी का हाथ पकड लिया। भगवान श्रीकृष्ण सुरदास जी के बात सुनकर बोले…
“बाबा! अगर मैं ऐसे भक्तों के हृदय से चला जाऊं तो फिर मैं कहाँ रहूँ ?… आप ही बताओ। मैं ना वैकुंठ में हुं…ना यज्ञ स्थल पर जहां मंत्रों से आहुति दी जाती है। मैं तो भक्तों के हृदय में रहता हूँ… जब वो मुझको स्मरण करते हैं,मैं भी उनका स्मरण करता हूँ। मुझे मेरे पत्नी लक्ष्मी जी उतनी प्रिय नहीं हैं, मुझे दाउ भैया उतने प्रिय नहीं हैं… मेरे स्वांश भगवान शंकर जी उतने प्रिय नहीं हैं… और क्या कहुं मुझे मेरे प्राण जितने प्रिय नहीं हैं…उतने प्रिय मेरे भक्तजन हैं… उनके लिए मैं स्वयं उपस्थित हुं बाबा!… जो मेरा निंदा करता है मैं उसे क्षमा कर सकता हूँ… पर जो मेरे भक्तों की निंदा, अपमान करता है मैं उसको कभी क्षमा नहीं करता… जब वो भक्त क्षमा करेगा तब मैं क्षमा करुंगा। ऋषि दुर्वासा जी ने महाराज अंबरीष जी का अपमान कर दिया… तो भगवान का सुदर्शन चक्र चल पडा… जब ऋषि दुर्वासा ने महाराज अंबरीष से क्षमा मांगे,तब सुदर्शन चक्र अलक्षित हो गया… ऐसो है हमारा कन्हैया…

जय श्री कृष्णा जय जगन्नाथ🙏🚩