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🙏 केवट की कथा 🙏
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क्षीरसागर में भगवान विष्णु शेष शैया पर विश्राम कर रहे हैं और लक्ष्मी जी उनके पैर दबा रही हैं। विष्णु जी के एक पैर का अंगूठा शैया के बाहर आ गया और लहरें उससे खिलवाड़ करने लगीं।
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क्षीरसागर के एक कछुवे ने इस दृश्य को देखा और मन में यह विचार कर कि मैं यदि भगवान विष्णु के अंगूठे को अपनी जिव्ह्या से स्पर्श कर लूँ तो मेरा मोक्ष हो जायेगा उनकी ओर बढ़ा।
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उसे भगवान विष्णु की ओर आते हुये शेषनाग जी ने देख लिया और कछुवे को भगाने के लिये जोर से फुँफकारा। फुँफकार सुन कर कछुवा भाग कर छुप गया।
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कुछ समय पश्चात् जब शेष जी का ध्यान हट गया तो उसने पुनः प्रयास किया। इस बार लक्ष्मी देवी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उसे भगा दिया।
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इस प्रकार उस कछुवे ने अनेकों प्रयास किये पर शेष जी और लक्ष्मी माता के कारण उसे कभी सफलता नहीं मिली। यहाँ तक कि सृष्टि की रचना हो गई और सत्युग बीत जाने के बाद त्रेता युग आ गया।
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इस मध्य उस कछुवे ने अनेक बार अनेक योनियों में जन्म लिया और प्रत्येक जन्म में भगवान की प्राप्ति का प्रयत्न करता रहा। अपने तपोबल से उसने दिव्य दृष्टि को प्राप्त कर लिया था।
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कछुवे को पता था कि त्रेता युग में वही क्षीरसागर में शयन करने वाले विष्णु राम का, वही शेष जी लक्ष्मण का और वही लक्ष्मी देवी सीता के रूप में अवतरित होंगे तथा वनवास के समय उन्हें गंगा पार उतरने की आवश्यकता पड़ेगी। इसीलिये वह भी केवट बन कर वहाँ आ गया था।
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एक युग से भी अधिक काल तक तपस्या करने के कारण उसने प्रभु के सारे मर्म जान लिये थे इसीलिये उसने राम से कहा था कि मैं आपका मर्म जानता हूँ।
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संत श्री तुलसी दास जी भी इस तथ्य को जानते थे इसलिये अपनी चौपाई में केवट के मुख से कहलवाया है कि
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“कहहि तुम्हार मरमु मैं जाना”।
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केवल इतना ही नहीं, इस बार केवट इस अवसर को किसी भी प्रकार हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। उसे याद था कि शेषनाग क्रोध कर के फुँफकारते थे और मैं डर जाता था।
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अबकी बार वे लक्ष्मण के रूप में मुझ पर अपना बाण भी चला सकते हैं पर इस बार उसने अपने भय को त्याग दिया था, लक्ष्मण के तीर से मर जाना उसे स्वीकार था पर इस अवसर को खो देना नहीं।
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इसीलिये विद्वान संत श्री तुलसी दास जी ने लिखा है –
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पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव
न नाथ उरराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन
दसरथ सपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहु लखनु पै
जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास
नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
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( हे नाथ ! मैं चरणकमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा; मैं आपसे उतराई भी नहीं चाहता। हे राम ! मुझे आपकी दुहाई और दशरथ जी की सौगंध है, मैं आपसे बिल्कुल सच कह रहा हूँ। भले ही लक्ष्मण जी मुझे तीर मार दें, पर जब तक मैं आपके पैरों को पखार नहीं लूँगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ ! हे कृपालु ! मैं पार नहीं उतारूँगा। )
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तुलसीदास जी आगे और लिखते हैं –
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सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥
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केवट के प्रेम से लपेटे हुये अटपटे वचन को सुन कर करुणा के धाम श्री रामचन्द्र जी जानकी जी और लक्ष्मण जी की ओर देख कर हँसे। जैसे वे उनसे पूछ रहे हैं कहो अब क्या करूँ, उस समय तो केवल अँगूठे को स्पर्श करना चाहता था और तुम लोग इसे भगा देते थे पर अब तो यह दोनों पैर माँग रहा है।
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केवट बहुत चतुर था। उसने अपने साथ ही साथ अपने परिवार और पितरों को भी मोक्ष प्रदान करवा दिया। तुलसी दास जी लिखते हैं –
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पद पखारि जलु पान
करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि
पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥
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चरणों को धोकर पूरे परिवार सहित उस चरणामृत का पान करके उसी जल से पितरों का तर्पण करके अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनन्दपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्र को गंगा के पार ले गया।

( 2 )

उस समय का प्रसंग है … जब केवट भगवान् के चरण धो रहे है ।
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बड़ा प्यारा दृश्य है, भगवान् का एक पैर धोकर उसे निकलकर कठौती से बाहर रख देते है, और जब दूसरा धोने लगते है,
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तो पहला वाला पैर गीला होने से जमीन पर रखने से धूल भरा हो जाता है,
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केवट दूसरा पैर बाहर रखते है, फिर पहले वाले को धोते है, एक-एक पैर को सात-सात बार धोते है ।
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फिर ये सब देखकर कहते है, प्रभु एक पैर कठौती मे रखिये दूसरा मेरे हाथ पर रखिये, ताकि मैला ना हो ।
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जब भगवान् ऐसा ही करते है। तो जरा सोचिये … क्या स्थिति होगी , यदि एक पैर कठौती में है दूसरा केवट के हाथो में,
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भगवान् दोनों पैरों से खड़े नहीं हो पाते बोले – केवट मै गिर जाऊँगा ?
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केवट बोला – चिंता क्यों करते हो भगवन् !
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दोनों हाथो को मेरे सिर पर रख कर खड़े हो जाईये, फिर नहीं गिरेगे ,
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जैसे कोई छोटा बच्चा है जब उसकी माँ उसे स्नान कराती है तो बच्चा माँ के सिर पर हाथ रखकर खड़ा हो जाता है, भगवान् भी आज वैसे ही खड़े है।
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भगवान् केवट से बोले – भईया केवट ! मेरे अंदर का अभिमान आज टूट गया…
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केवट बोला – प्रभु ! क्या कह रहे है ?
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भगवान् बोले – सच कह रहा हूँ केवट, अभी तक मेरे अंदर अभिमान था, कि …. मै भक्तो को गिरने से बचाता हूँ पर..
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आज पता चला कि, भक्त भी भगवान् को गिरने से बचाता है ।
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सालिक दास वैष्णव

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आइए एक किस्सा सुनाता हूं! Facebook और WhatsApp की दुनिया समझने में आसानी होगी।

एक आदमी ने 1995 में अमेरिका में दो बैंक लूटे। दोनों जगह वह बिना चेहरा ढके गया और बैंक से पैसा लूटने के बाद मुस्कराता हुआ सिक्योरिटी कैमरा के सामने जाकर खड़ा हो गया। कैमरे के सामने बड़े आराम से काफी देर उसको मुंह चिंढ़ाता रहा, फिर वह भाग गया। पर रात होते तक पुलिस ने उसकी पहचान कर के उसको गिरफ्तार कर लिया।
लुटेरा अपनी गिरफ्तारी पर स्तब्ध था। उसको समझ नहीं आ रहा था कि उसकी पहचान कैसे हुई। पुलिस वालों ने उसको बताया कि भइया, हमें पहचान करने में कोई दिक्कत नहीं आई थी क्योंकि तुम नकाब नहीं पहने थे और उसके ऊपर तुम खुद ही सिक्योरिटी कैमरा के सामने आकर अपना वीडियो बना गए थे।

अब यहां से कहानी में खेल है…

लुटरे को उनकी बात पर यकीन नहीं हो रहा था। वह हैरान था कि कैमरे ने उसकी तस्वीर ले कैसे ली, जबकि वह अपने चेहरे पर नीबू का रस लगा कर गया था। उसको विश्वास था कि नीबू का रस आदमी को अदृश्य कर देता है और पुलिस वाले जो कैमरे पर लिया जो वीडियो दिखा रहे हैं,वह फर्जी है।
उसकी दलील थी कि नीबू का रस अदृश्य स्याही बनाने के लिए उपयोग किया जाता है, चूंकि उसके उपयोग से लिखा हुआ गायब हो जाता है, तो उसका चेहरा भी गायब हो गया होगा इसलिए उसके मुताबिक उसके सामने जो वीडियो साक्ष्य प्रस्तुत किए जा रहे थे, वे सब नकली थे। पुलिस ने उसे बहुत समझाया, पर वह नहीं माना और अंत तक अपनी बात पर अड़ा रहा कि वास्तव में नीबू की वजह से वह अदृश्य था और पुलिस बकवास कर रही थी। वैसे यह बैंक चोर न तो पागल था और न ही उसने मादक पदार्थों का सेवन किया हुआ था। बस,उसे अपने ज्ञान पर इतना आत्मविश्वास था कि उसके आगे उसे सारे साक्ष्य बेतुके और झूठे लग रहे थे।

घटना से प्रेरित होकर कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के दो विद्वान-डेविड डनिंग,जस्टिन क्रुगर ने एक शोध शुरू किया,जिसकी परिणति डनिंग-क्रुगर सिद्धांत के रूप में हुई।

व्यंग्य शिरोमणि हरिशंकर परसाई ने उनके निष्कर्ष को पहले ही शब्द दे दिए थे। परसाई ने कहा था, आत्मविश्वास कई तरीके का होता है- धन का, सत्ता का या फिर ज्ञान का। पर सबसे प्रचंड आत्मविश्वास मूर्ख का होता है। बैंक चोर ने परसाई की हंसाई को गंभीर रूप दे दिया था।

बैंक चोर की मूर्खता से प्रभावित होकर डनिंग और क्रुगर ने जो अध्ययन किया,उसमें पाया कि अमूमन जिन लोगों के पास कम जानकारी होती है और जिनमें जानकारी जमा करने की क्षमता भी कम होती है,वे अपने सीमित ज्ञान को लेकर बेहद आक्रामक होते हैं। क्षमता के अभाव में उनके पास साक्ष्य को अस्वीकार कर देने की प्रतिभा होती है और वे बहस किए जाते हैं कि जो वे कह रहे हैं वही सही है और स्वयं में साक्ष्य भी है।
बैंक चोर की तरह वे भी नीबू का रस लगा कर गायब हो जाने वाली बात कर पूरे आत्मविश्वास से अड़े रहते हैं। आखिरकार, वे तर्क करते हैं कि जब नीबू से लिखावट गायब हो सकती है, तो आदमी क्यों नहीं ?…

इसे पढ़कर हंसी आए चाहे ना आए, कईयों का चेहरा जरूर सामने आ गया होगा।क्योंकि हमारे आस-पास भी कई लोग नींबू का रस लगाए टहल रहे हैं और उन्हें लगता है,हम पहचान नहीं पाएंगे।

मूर्खों से भिड़ना भी मूर्खता है। बीमारी से लड़ो, बीमार से नहीं। 😊 #Copied😊

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प्रेरक प्रसंग : मनपर नियन्त्रण

बहुत-सी धनुष-बाण प्रतियोगिताएं जीतनेके पश्चात एक युवक स्वयंको सबसे बडा धनुर्धर मानने लगा । वह जहां भी जाता, वहांके धनुर्धरोंको अपनेसे प्रतिस्पर्धा करनेकी चुनौती देता और उन्हें पराजितकर उनका उपहास करता । एक बार उसने एक प्रसिद्ध धनुर्धरको चुनौती देनेका निर्णय लिया और भोर कालमें ही पर्वतोंके मध्य स्थित उनके मठपर जा पहुंचा ।
“महोदय ! मैं आपको बाण कलाकी स्पर्धाके लिए चुनौती देता हूं ।” नवयुवक बोला ।

दूसरे धनुर्धरने नवयुवककी चुनौती स्वीकार कर ली । शक्ति-परीक्षण आरम्भ हुआ ।

नवयुवकने अपने प्रथम प्रयासमें ही दूर रखे लक्ष्यके ठीक मध्यमें अपना चिह्न लगा दिया और अगले प्रयासमें उसने लक्ष्यपर लगे पहले बाणको ही भेद डाला ।

अपनी योग्यतापर अहङ्कार करते हुए नवयुवक बोला, “कहिए महोदय, क्या आप इससे भी उत्तमतर करके दिखा सकते हैं ? यदि ‘हां‘, तो करके दिखाइए, यदि ‘नहीं‘ तो पराजय मान लीजिए ।”

वरिष्ठ धनुर्धर बोले, ”पुत्र, मेरे पीछे आओ !”

वरिष्ठ धनुर्धर चलते-चलते एक भयङ्कर खाईके पास पहुंच गए ।

नवयुवक यह सब देख कुछ घबराया और बोला, “महोदय, आप मुझे कहां लेकर जा रहे हैं ?“

महोदय बोले, “भयभीत मत हो । हम गन्तव्य स्थानपर लगभग पहुंच ही गए हैं, अब हमें इस जर्जर पुलियाके मध्यमेंसे होकर जाना है ।”

नवयुवकने देखा कि दो पर्वतोंको परस्पर जोडनेके लिए किसीने लकडीकी अस्थाई पुलियाका निर्माण किया था और वरिष्ठ धनुर्धर उसीपर जानेके लिए कह रहे थे ।

वरिष्ठ धनुर्धर पुलके मध्य पहुंचे, तूणीरसे बाण निकाला और दूर एक पेडके तनेपर सटीक लक्ष्य साधा । लक्ष्य भेदनेके पश्चात वे बोले, “आओ पुत्र, अब तुम भी उसी पेडपर लक्ष्य साधकर अपनी दक्षता सिद्ध करो ।”

नवयुवक भयभीत होकर आगे बढा और अत्यधिक कठिनाईके साथ पुलके मध्य पहुंचा । किसी प्रकार धनुषपर बाण चढाया; परन्तु बाण लक्ष्यके आस-पास भी नहीं लगा ।

नवयुवक निराश हो गया और उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली ।

तब महोदय बोले, “पुत्र, तुमने धनुष बाणपर तो नियन्त्रण पा लिया है; परन्तु तुम्हारा अपने मनपर अभी भी नियन्त्रण नहीं है, जो किसी भी परिस्थितिमें लक्ष्यको भेदनेके लिए आवश्यक है । पुत्र, इस बातको सदा ध्यानमें रखो कि जबतक मनुष्यके भीतर कुछ सीखनेकी जिज्ञासा है, तबतक उसके ज्ञानमें वृद्धि होती है; किन्तु जब उसके भीतर सर्वश्रेष्ठ होनेका अहङ्कार उत्पन्न हो जाता है, तब उसका पतन होना प्रारम्भ हो जाता है ।”

नवयुवक वरिष्ठ धनुर्धरकी बात समझ चुका था, उसे अनुभव हो गया कि उसके धनुर्विद्याका ज्ञान केवल अनुकूल परिस्थितियोंमें ही सक्षम है और उसे अभी बहुत कुछ सीखना शेष है । उसने तत्काल ही अपने अहङ्कारके लिए उनसे क्षमा मांगी और सदा एक शिष्यकी भांति सीखने और अपने ज्ञानपर अहङ्कार न करनेकी शपथ ली ।

देव रीषी

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. परहित का चिंतन

एक राजा था जिसे शिल्प कला अत्यंत प्रिय थी। वह मूर्तियों की खोज में देस-परदेस जाया करता थे। इस प्रकार राजा ने कई मूर्तियाँ अपने राज महल में लाकर रखी हुई थी और स्वयं उनकी देख रेख करवाते।
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सभी मूर्तियों में उन्हें तीन मूर्तियाँ जान से भी ज्यादा प्यारी थी। सभी को पता था कि राजा को उनसे अत्यंत लगाव हैं।

एक दिन जब एक सेवक इन मूर्तियों की सफाई कर रहा था तब गलती से उसके हाथों से उनमें से एक मूर्ति टूट गई। जब राजा को यह बात पता चली तो उन्हें बहुत क्रोध आया और उन्होंने उस सेवक को तुरन्त मृत्युदण्ड दे दिया।

सजा सुनने के बाद सेवक ने तुरन्त अन्य दो मूर्तियों को भी तोड़ दिया। यह देख कर सभी को आश्चर्य हुआ।

राजा ने उस सेवक से इसका कारण पूछा,तब उस सेवक ने कहा – “महाराज !! क्षमा कीजियेगा, यह मूर्तियाँ मिट्टी की बनी हैं, अत्यंत नाजुक हैं। अमरता का वरदान लेकर तो आई नहीं हैं। आज नहीं तो कल टूट ही जाती अगर मेरे जैसे किसी प्राणी से टूट जाती तो उसे अकारण ही मृत्युदंड का भागी बनना पड़ता। मुझे तो मृत्यु दंड मिल ही चुका हैं इसलिए मैंने ही अन्य दो मूर्तियों को तोड़कर उन दो व्यक्तियों की जान बचा ली

यह सुनकर राजा की आँखे खुली की खुली रह गई उसे अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने सेवक को सजा से मुक्त कर दिया।

सेवक ने उन्हें साँसों का मूल्य सिखाया, साथ ही सिखाया की न्यायाधीश के आसन पर बैठकर अपने निजी प्रेम के चलते छोटे से अपराध के लिए मृत्युदंड देना उस आसन का अपमान हैं। एक उच्च आसन पर बैठकर हमेशा उसका आदर करना चाहिये। राजा हो या कोई भी अगर उसे न्याय करने के लिए चुना गया हैं तो उसे न्याय के महत्व को समझना चाहिये।

मूर्ति से राजा को प्रेम था लेकिन उसके लिए सेवक को मृत्युदंड देना न्याय के विरुद्ध था। न्याय की कुर्सी पर बैठकर किसी को भी अपनी भावनाओं से दूर हट कर फैसला देना चाहिये।

राजा को समझ आ गया कि मुझसे कई गुना अच्छा तो वो यह सेवक था जिसने मृत्यु के इतना समीप होते हुए भी परहित का सोचा..!!

राजा ने सेवक से पूछा कि अकारण मृत्यु को सामने पाकर भी तुमने ईश्वर को नही कोसा, तुम निडर रहे, इस संयम, समस्वस्भाव तथा दूरदृष्टि के गुणों के वहन की युक्ति क्या है।

सेवक ने बताया कि आपके यहाँ काम करने से पहले मैं एक अमीर सेठ के यहां नौकर था। मेरा सेठ मुझसे तो बहुत खुश था लेकिन जब भी कोई कटु अनुभव होता तो वह ईश्वर को बहुत गालियाँ देता था ।

एक दिन सेठ ककड़ी खा रहा था । संयोग से वह ककड़ी कड़वी थी । सेठ ने वह ककड़ी मुझे दे दी । मैंने उसे बड़े चाव से खाया जैसे वह बहुत स्वादिष्ट हो ।

सेठ ने पूछा – “ ककड़ी तो बहुत कड़वी थी । भला तुम ऐसे कैसे खा गये ?”

तो मैने कहा – “ सेठ जी आप मेरे मालिक है । रोज ही स्वादिष्ट भोजन देते है । अगर एक दिन कुछ कड़वा भी दे दिए तो उसे स्वीकार करने में क्या हर्ज है।”

राजा जी इसी प्रकार अगर ईश्वर ने इतनी सुख–सम्पदाएँ दी है, और कभी कोई कटु अनुदान दे भी दे तो उसकी सद्भावना पर संदेह करना ठीक नहीं ।जन्म,जीवनयापन तथा मृत्यु सब उसी की देन है।

असल में यदि हम समझ सके तो जीवन में जो कुछ भी होता है, सब ईश्वर की दया ही है । ईश्वर जो करता है अच्छे के लिए ही करता है..!! यदि सुख दुख को ईश्वर का प्रसाद समझकर संयम से ग्रहण करें तथा हर समय परिहित का चिंतन करे
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इटली में कोरोना संक्रमण से एक 93 साल का बूढ़ा व्यक्ति ठीक हुआ और जब वह अस्पताल से डिस्चार्ज होने लगा तब उसे उस अस्पताल के स्टॉफ ने एक दिन के वेंटिलेटर के इस्तेमाल करने का बिल 500 यूरो थमा दिया जो किसी कारणवश छूट गया था।
जिसे देखकर वह बूढ़ा व्यक्ति ज़ोर ज़ोर से रोने लगा।
उसे रोते देख के डॉक्टर ने उस बूढ़े व्यक्ति को कहा आप रोइए मत, यदि आप यह बिल नहीं भर सकते हैं तो जाने दीजिए।
तब उस बूढ़े व्यक्ति ने एक ऐसी बात कही जिसे सुनकर सारा स्टॉफ रोने लग गया।
उसने कहा कि मैं बिल की रकम पर नहीं रो रहा और न ही मैं इसे चुकाने में असमर्थ हूँ, मैं यह बिल भर सकता हूँ।
मैं तो इसीलिये रो रहा हूँ कि मैं 93 साल से ये सांसें ले रहा हूँ किन्तु मैंने कभी भी उसकी पेमेंट नहीं की। यदि एक दिन के सांस लेने की कीमत 500 यूरो है तो आपको पता है कि मुझे परमेश्वर को कितनी रकम चुकानी है ? इसके लिए मैंने कभी भी परमेश्वर का धन्यवाद नहीं किया। परमेश्वर का बनाया हुआ यह संसार, यह शरीर, ये सांसे अनमोल हैं जिनकी पेमेंट हम उसका धन्यवाद, उसकी स्तुति, महिमा और उपासना करके कर सकते हैं ।।
हर क्षण परमेश्वर का धन्यवाद कहो, बख्शी गई हर एक सांस के लिए……🙌

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“गजेन्द्र मोक्ष कथा”

अति प्राचीन काल की बात है। द्रविड़ देश में एक पाण्ड्यवंशी राजा राज्य करते थे। उनका नाम था इंद्रद्युम्न। वे भगवान की आराधना में ही अपना अधिक समय व्यतीत करते थे। यद्यपि उनके राज्य में सर्वत्र सुख-शांति थी। प्रजा प्रत्येक रीति से संतुष्ट थी, तथापि राजा इंद्रद्युम्न अपना समय राजकार्य में कम ही दे पाते थे। वे कहते थे कि भगवान विष्णु ही मेरे राज्य की व्यवस्था करते हैं। अतः वे अपने इष्ट परम प्रभु की उपासना में ही दत्तचित्त रहते थे।
राजा इंद्रद्युम्न के मन में आराध्य-आराधना की लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। इस कारण वे राज्य को त्याग कर मलय-पर्वत पर रहने लगे। उनका वेश तपस्वियों जैसा था। सिर के बाल बढ़कर जटा के रूप में हो गए थे। वे निरंतर परमब्रह्म परमात्मा की आराधना में तल्लीन रहते। उनके मन और प्राण भी श्री हरि के चरण-कमलों में मधुकर बने रहते। इसके अतिरिक्त उन्हें जगत की कोई वस्तु नहीं सुहाती। उन्हें राज्य, कोष, प्रजा तथा पत्नी आदि किसी प्राणी या पदार्थ की स्मृति ही नहीं होती थी।
एक बार की बात है, राजा इन्द्रद्युम्न प्रतिदिन की भांति स्नानादि से निवृत होकर सर्वसमर्थ प्रभु की उपासना में तल्लीन थे। उन्हें बाह्य जगत का तनिक भी ध्यान नहीं था। संयोग वश उसी समय महर्षि अगस्त्य अपने समस्त शिष्यों के साथ वहाँ पहुँच गए। लेकिन न पाद्ध, न अघ्य और न स्वागत। मौनव्रती राजा इंद्रद्युम्न परम प्रभु के ध्यान में निमग्न थे। इससे महर्षि अगस्त्य कुपित हो गए। उन्होंने इंद्रद्युम्न को शाप दे दिया- “इस राजा ने गुरुजनों से शिक्षा नहीं ग्रहण की है और अभिमानवश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणों का अपमान करने वाला यह राजा हाथी के समान जड़बुद्धि है, इसलिए इसे घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो।”
महर्षि अगत्स्य भगवदभक्त इंद्रद्युम्न को यह शाप देकर चले गए। राजा इन्द्रद्युम्न ने इसे श्री भगवान का मंगलमय विधान समझकर प्रभु के चरणों में सिर रख दिया। क्षीराब्धि में दस सहस्त्र योजन लम्बा, चौड़ा और ऊंचा त्रिकुट नामक पर्वत था। वह पर्वत अत्यंत सुन्दर एवं श्रेष्ठ था। उस पर्वतराज त्रिकुट की तराई में ऋतुमान नामक भगवान वरुण का क्रीड़ा-कानन था। उसके चारों ओर दिव्य वृक्ष सुशोभित थे। वे वृक्ष सदा पुष्पों और फूलों से लदे रहते थे। उसी क्रीड़ा-कानन ऋतुमान के समीप पर्वतश्रेष्ठ त्रिकुट के गहन वन में हथनियों के साथ अत्यंत शक्तिशाली और अमित पराक्रमी गजेन्द्र रहता था।
एक बार की बात है। गजेन्द्र अपने साथियों सहित तृषाधिक्य (प्यास की तीव्रता) से व्याकुल हो गया। वह कमल की गंध से सुगंधित वायु को सूंघकर एक चित्ताकर्षक विशाल सरोवर के तट पर जा पहुँचा। गजेन्द्र ने उस सरोवर के निर्मल, शीतल और मीठे जल में प्रवेश किया। पहले तो उसने जल पीकर अपनी तृषा बुझाई, फिर जल में स्नान कर अपना श्रम दूर किया। तत्पश्चात उसने जलक्रीडा आरम्भ कर दी। वह अपनी सुंड में जल भरकर उसकी फुहारों से हथिनियों को स्नान कराने लगा। तभी अचानक गजेन्द्र ने सूंड उठाकर चीत्कार की। पता नहीं किधर से एक मगर ने आकर उसका पैर पकड़ लिया था। गजेन्द्र ने अपना पैर छुड़ाने के लिए पूरी शक्ति लगाई परन्तु उसका वश नहीं चला, पैर नहीं छूटा। अपने स्वामी गजेन्द्र को ग्राहग्रस्त देखकर हथिनियां, कलभ और अन्य गज अत्यंत व्याकुल हो गए। वे सूंड उठाकर चिंघाड़ने और गजेन्द्र को बचाने के लिए सरोवर के भीतर-बाहर दौड़ने लगे। उन्होंने पूरी चेष्टा की लेकिन सफल नहीं हुए।
वस्तुतः महर्षि अगत्स्य के शाप से राजा इंद्रद्युम्न ही गजेन्द्र हो गए थे और गन्धर्वश्रेष्ठ हूहू महर्षि देवल के शाप से ग्राह हो गए थे। वे भी अत्यंत पराक्रमी थे। संघर्ष चलता रहा। गजेन्द्र स्वयं को बाहर खींचता और ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींचता। सरोवर का निर्मल जल गंदला हो गया था। कमल-दल क्षत-विक्षत हो गए। जल-जंतु व्याकुल हो उठे। गजेन्द्र और ग्राह का संघर्ष एक सहस्त्र वर्ष तक चलता रहा। दोनों जीवित रहे। यह दृश्य देखकर देवगण चकित हो गए।
अंततः गजेन्द्र का शरीर शिथिल हो गया। उसके शरीर में शक्ति और मन में उत्साह नहीं रहा। परन्तु जलचर होने के कारण ग्राह की शक्ति में कोई कमी नहीं आई। उसकी शक्ति बढ़ गई। वह नवीन उत्साह से अधिक शक्ति लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा। असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में पड़ गए। उसकी शक्ति और पराक्रम का अहंकार चूर-चूर हो गया। वह पूर्णतया निराश हो गया। किन्तु पूर्व जन्म की निरंतर भगवद आराधना के फलस्वरूप उसे भगवत्स्मृति हो आई। उसने निश्चय किया कि मैं कराल काल के भय से चराचर प्राणियों के शरण्य सर्वसमर्थ प्रभु की शरण ग्रहण करता हूँ। इस निश्चय के साथ गजेन्द्र मन को एकाग्र कर पूर्वजन्म में सीखे श्रेष्ठ स्त्रोत द्वारा परम प्रभु की स्तुति करने लगा।
गजेन्द्र की स्तुति सुनकर सर्वात्मा सर्वदेव रूप भगवान विष्णु प्रकट हो गए। गजेन्द्र को पीड़ित देखकर भगवान विष्णु गरुड़ पर आरूढ़ होकर अत्यंत शीघ्रता से उक्त सरोवर के तट पर पहुंचे। जब जीवन से निराश तथा पीड़ा से छटपटाते गजेन्द्र ने हाथ में चक्र लिए गरुडारूढ़ भगवान विष्णु को तीव्रता से अपनी ओर आते देखा तो उसने कमल का एक सुन्दर पुष्प अपनी सूंड में लेकर ऊपर उठाया और बड़े कष्ट से कहा- “नारायण! जगद्गुरो! भगवान! आपको नमस्कार है।”
गजेन्द्र को अत्यंत पीड़ित देखकर भगवान विष्णु गरुड़ की पीठ से कूद पड़े और गजेन्द्र के साथ ग्राह को भी सरोवर से बाहर खींच लाए और तुरन्त अपने तीक्ष्ण चक्र से ग्राह का मुँह फाड़कर गजेन्द्र को मुक्त कर दिया।
ब्रह्मादि देवगण श्री हरि की प्रशंसा करते हुए उनके ऊपर स्वर्गिक सुमनों की वृष्टि करने लगे। सिद्ध और ऋषि-महर्षि परब्रह्म भगवान विष्णु का गुणगान करने लगे। ग्राह दिव्य शरीर-धारी हो गया। उसने विष्णु के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और भगवान विष्णु के गुणों की प्रशंसा करने लगा।
भगवान विष्णु के मंगलमय वरद हस्त के स्पर्श से पाप मुक्त होकर अभिशप्त हूँ गन्धर्व ने प्रभु की परिक्रमा की और उनके त्रैलोक्य वन्दित चरण-कमलों में प्रणाम कर अपने लोक चला गया। भगवान विष्णु ने गजेन्द्र का उद्धार कर उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध और देवगण उनकी लीला का गान करने लगे। गजेन्द्र की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने सबके समक्ष कहा- “प्यारे गजेन्द्र! जो लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठकर तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि का दान करूँगा।”
यह कहकर भगवान विष्णु ने पार्षद रूप में गजेन्द्र को साथ लिया और गरुडारुड़ होकर अपने दिव्य धाम को चले गए।
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“जय जय श्रीहरि”