“रामायण” वास्तव मे क्या है… ?
अगर कभी पढ़ो और समझो तो अपने आँसुओ पर काबू रखना….
रामायण मे एक छोटा सा वृतांत है, उसी से शायद कुछ समझा सकूँ… 😊
एक रात की बात हैं…
माता कौशल्या जी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी ।
नींद खुल गई, पूछा कौन हैं…?
मालूम पड़ा, श्रुतकीर्ति जी हैं (सबसे छोटी बहु, शत्रुघ्नजी की पत्नी) ।
माता कौशल्या जी ने उन्हें नीचे बुलाया |
श्रुतकीर्ति जी आयी, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं…
माता कौशल्या जी ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो बेटी… ?
क्या, नींद नहीं आ रही… ?
शत्रुघ्न कहाँ है… ?
श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आयी, माँ की छाती से चिपटी,
गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें देखे हुए तो तेरह वर्ष हो गए ।
उफ… !
कौशल्या जी का हृदय काँप कर मानो लड़खड़ा गया ।
तुरंत आवाज लगाई, सेवक दौड़े आए ।
आधी रात को ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी, माँ साथ चली ।
आपको मालूम है, शत्रुघ्न जी कहाँ मिले…?
नगरी अयोध्या जी के जिस दरवाजे के बाहर भरत जी नंदीग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले !!
माँ उनके सिरहाने बैठ गईं,
बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी ने आँखें खोलीं,
देखा तो सामने
“माँ” !
उठे, चरणों में गिरे, माँ !
आपने क्यों कष्ट किया… ?
मुझे बुलवा लिया होता ।
माँ ने कहा,
शत्रुघ्न ! यहाँ क्यों ?”
शत्रुघ्न जी की रुलाई फूट पड़ी, बोले- माँ ! भैया राम जी पिताजी की आज्ञा से वन चले गए,
भैया लक्ष्मण जी उनके पीछे चले गए, भैया भरत जी भी नंदीग्राम में हैं,
क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, ठाठ बाट विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं…?
माता कौशल्या जी निरुत्तर रह गईं… ।
देखिये, क्या है ये रामायण कथा…
यह भोग की नहीं….!
त्याग की कथा हैं….!!
यहाँ तो त्याग की मानो प्रतियोगिता ही चल रही हैं और सभी प्रथम हैं, कोई पीछे नहीं रहना चाहता…
चारो भाइयों का प्रेम और त्याग एक दूसरे के प्रति अद्भुत-अभिनव और अलौकिक हैं ।
“रामायण” जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देती हैं ।
भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी सीता मईया ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया…!!
परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण जी कैसे राम जी से दूर हो जाते !
अपनी माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की…
परन्तु जब पत्नी “उर्मिला” के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी,
परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा…??
क्या बोलूँगा उनसे…?
यहीं सोच विचार करके लक्ष्मण जी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी आरती का थाल लेकर खड़ी थीं, बोली-
आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु श्रीराम की सेवा में वन को जाओ…
“मैं आपको नहीं रोकूँगीं । मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी” ।
लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था….!!
परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया….!!
वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है..
पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे…!!
लक्ष्मण जी तो चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया….!!
वन में “प्रभु श्री राम-माता सीता” की सेवा में लक्ष्मण जी कभी सोये ही नहीं, परन्तु उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया….!!
मेघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मण जी को “शक्ति” लग जाती है और हनुमान जी उनके लिये संजीवनी पर्वत लेकर लौट रहे थे, तो बीच रास्ते में जब हनुमान जी अयोध्या के ऊपर से गुजर रहे तो भरत जी ने उन्हें राक्षस समझकर बाण मारते हैं और हनुमान जी गिर जाते हैं….!!
तब हनुमान जी भरत जी को सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि सीता जी को रावण अपहरण कर ले गया, युद्ध मे लक्ष्मण जी मूर्छित हो गए हैं…
यह सुनते ही कौशल्याजी कहती हैं कि राम को कहना कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना तब राम वन में ही रहे…!!
लक्ष्मण की माताजी “सुमित्रा” कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं….
अभी शत्रुघ्न है मेरे पास…!!
मैं उसे वहां भिजवा दूंगी….
मेरे दोनों पुत्र “राम की सेवा” के लिये ही जन्मे हैं….!!
माताओं का प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिला जी को देखा तो सोचने लगे कि, यह क्यों एकदम शांत शांत और प्रसन्न खड़ी हैं…?
क्या इन्हें, अपने पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं…?
हनुमान जी पूछते हैं – देवी जी !
आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है ?
आपके पति के प्राण संकट में हैं…
सुर्य उदय होते ही सुर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा।
उर्मिला का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किये बिना नहीं रह सकता..!
उर्मिला बोलीं-
“मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता…!!”
रही सुर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता…!!
आपने कहा कि प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं…!
जो मनुष्य “योगेश्वर प्रभु श्री राम” की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता…!!
यह तो वो दोनों ही लीला कर रहे हैं…!
मेरे पति जब से वन गये हैं, तबसे सोये ही नहीं हैं…
उन्होंने न सोने का प्रण लिया हुआ है…
इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं…
और जब भगवान की गोद ही मिल गयी है तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया…
वे अभी उठ जायेंगे…!!
और “शक्ति” मेरे पति को तो लगी ही नहीं, शक्ति तो प्रभु श्री राम जी को लगी है…!!
मेरे पति की श्वास श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में सिर्फ राम ही हैं तो वो शक्ति राम जी को ही लगी होगी, दर्द भी राम जी को ही हो रहा होगा…!!
इसलिये हनुमान जी, आप निश्चिन्त होकर जाएँ…
“सुर्य उदित नहीं होगा”।
रामराज्य की नींव राजा जनक जी की बेटियां ही थीं…
कभी “सीता” तो…
कभी “उर्मिला”…!!
भगवान राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया था….
परन्तु वास्तव में रामराज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण और बलिदान से ही आया….!!
जिस मनुष्य में प्रेम, त्याग, समर्पण की भावना हो उस मनुष्य में ही राम बसता है…
कभी समय मिले तो अपने वेद, पुराण, गीता, रामायण को पढ़ने और समझने का प्रयास कीजिएगा…
जीवन को एक अलग नज़रिए से देखने और जीने का सऊर/सलीका मिलेगा…!!
“लक्ष्मण सा भाई हो, कौशल्या माई हो”,
“स्वामी तुम जैसा, मेरा रघुराई हो”…
“नगरी हो अयोध्या सी, रघुकुल सा घराना हो”,
“चरण हो राघव के, जहाँ मेरा ठिकाना हो…”
“हो त्याग भरत जैसा, सीता सी नारी हो…”,
“लव कुश के जैसी, संतान हमारी हो…”
“श्रद्धा हो श्रवण जैसी, सबरी सी भक्ति हो…”,
“हनुमंत के जैसी, निष्ठा, समर्पण और शक्ति हो…”
“ये रामायण है, पुण्य कथा श्री राम की”।
!! जय जय श्री राम !!