एक लघुकथा
दूध
रामजी ने पत्नी को आवाज लगाई। “सुनती हो कालू की माँ! सक्रान्त का दूध और आटा निकाल दो । मैं जल्दी से पण्डित जी के यहाँ दे आऊँ। मजूरी पर भी जाना है। देर हो गयी तो सेठ बड़बड़ करेगा फिर।”
“दूध में बिल्ली मुंह मार गयी है। अभी ताजा दूध आएगा वह दे आना।” कालू की माँ ने अंदर से आवाज दी।
“अच्छा बिल्ली वाला दूध मुझे दे देना, मैं पी लूँगा। फेंकना मत।” रामजी ने कहा।
“बाबा, आप बिल्ली वाला दूध पी सकते हो तो वह पंडित जी को क्यो नही दे सकते।” कालू ने सवाल किया।
“बेटा, पंडित जी को पवित्र चीज भेंट की जाती है। बिल्ली के मुंह मारने से दूध अपवित्र हो गया है। मेरा कलुआ सवाल बहुत करता है आजकल।” रामजी ने कालू की गाल पर थपकी दी।
ताजा दूध और आटा लेकर रामजी पंडित जी के घर दे आया।
“सुनते हो! रामजी चमार दूध औऱ आटा दे गया है। क्या करना है इसका?” पंडिताइन ने पंडित जी से पूछा।
दूध किस बर्तन में लिया तुमने। पण्डित जी ने स्नानघर से आतुर सवाल फेंका।
“बर्तन तो अलग से रखा हुआ है मैंने। दूध का क्या करना है वह बताओ।”
“एक काम करो। आटा गाय को डाल दो और दूध बिल्ली को डाल दो।”
स्नानघर से श्लोक गाये जाने की आवाज देर तक आती रही।
वीरेंदर भाटिया