सुंदर संदेशपरक कथा है।
कानून बना देने मात्र से समाज में सुधार नही होजाता।
मानवीय भावनायें व्यक्ति की मानसिकता बदलने पर ही बदलती हैं।
एक पौराणिक प्रसंग है।
बहुत प्राचीन काल में एक बार भीषण अकाल पड़ा।
ऐसे में तुम एक साधु जीवन रक्षा के लिये तपोवन छोड़कर ग्राम में आने को विवश होगये।
भूख से प्राण निकले जारहे थे तब एक द्वार पर भिक्षा की गुहार लगाई।
गृहस्थ ने अपनी थाली में से उबाले गये उड़द के दाने साधु जी को अर्पित कर दिए।
साधु जी की क्षुधा शान्त हुई तो गृहस्थ ने जल के लिए पूछा तो गृहस्थ की जाति सुनते ही बोले – तू नीच जाति का है, तेरे हाथ का छुआ जल मैं नहीं पीऊंगा।
गृहस्थ ने थोड़ी देर पहले ही उन्हे दिये खाद्य की याद दिलाई तो साधु बोले- भोजन के बिना मेरे प्राण निकल रहे थे, प्राण रक्षा प्रथम धर्म था और तब से ही यह उक्ति –
आपत्ति काले मर्यादा नास्ति।
प्रचलित हुई प्रतीत होती है।
यहां इस सन्दर्भ को प्रस्तुत करने का कारण रह है कि जिस दिन पंडित जी को साधु जैसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा , जाति का अंतर करना तोड़ देंगे।