लघुकथा- प्रभुत्व
सुबह से ही उठकर जल्दी-जल्दी मैं घर के काम में जुट गई। घड़ी की ओर देखा, अभी वक्त बाकी था। आज मुझे महिला दिवस के उपलक्ष्य में किसी सामाजिक संस्था में स्पीच देने जो जाना था।
नाश्ता-पानी हो चुका था और घर की सफाई भी…। मैंने फटाफट गंदे कपड़े वाॅशिंग मशीन में डाले और नहाने के लिए बाथरूम में घुस गई।
नहाकर आई तो बड़ी जोर की भूख लग आई थी। किचन में जाकर मैंने गरमागरम एक कप चाय बनाई और आलू का पराठा प्लेट में धर, कमरे में लेकर चली आई। गस्सा तोड़कर मुँह में डाला है था कि रोमेश कमरे में आ गया और कमरे की खिड़की खोलकर चला गया। खिड़की से आती ठंडी हवा मेरे बदन को सुरसुरा गई, जबकि मैंने हल्की-सी ऊनी कोटी भी पहन रखी थी।
किसी तरह गस्से को गले से नीचे उतार, लगभग चीखने की कोशिश करते हुए मैंने आवाज लगाई, “रोमेश रोमेश!”
उधर से आवाज आई, “क्या है? बोलो …।”
मैंने फिर आवाज लगाई, मगर इस बार खुद को संयत करते हुए, “पहले तुम इधर तो आओ।”
वह दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया। मैंने पूछा, ये बताओ रोमेश, तुम्हें अभी इस वक्त कमरे में बैठना है क्या?”
उसने बड़ी ही मासूमियत से “ना” में गर्दन हिलाई।
“तो फिर तुमने खिड़की खोली ही क्यों? मैं देख रही हूँ, तुम्हारा ये सब बढ़ता ही जा रहा है।”
उसने घूरकर मेरी ओर देखा।
“इस तरह क्या देख रहो जी। मैं कुछ बोलती नहीं तो इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम अपनी मनमर्जियाँ मुझपर लादते जाओ। रोज तुम आकर इसी तरह कभी खिड़की खोल जाते हो तो कभी रात में किताब पढ़ते वक्त बड़ी लाइट बंद करके छोटी लाइट जला जाते हो? आखिर तुम चाहते क्या है? आज तो मैं जानकर ही रहूँगी। बोलो रोमेश, बोलो आखिर क्यों?”
रोमेश ने आँखें तरेरी और तीर-सा कमरे से बाहर निकल गया।
मैंने भी झट मोबाइल उठाकर नम्बर मिला दिया।
उधर से आवाज आई, “हैलो!”
मैं बोल पड़ी, “हैलो मीता जी नमस्ते, आई एम वेरी साॅरी!” आज मैं स्पीच देने नहीं आ पाऊँगी। अभी तो वक्त बाकी है, आप मेरी जगह किसी अन्य सदस्या को तैयार कर लीजिएगा, प्लीज़।”
उधर से फिर आवाज आई, “वो तो कोई न कोई सदस्या तैयार हो ही जाएगी, लेकिन आप नहीं आएँगी …। आखिर क्यों?”
फोन डिस्कनेक्ट करते हुए, मैं बुदबुदा पड़ी, “दरअसल आज की स्पीच तो पहले मुझे अपने घर में ही देनी होगी ना।”
मौलिक एवं स्वरचित
प्रेरणा गुप्ता – कानपुर
8 – 3 – 2021