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भयानक दैत्यगण के कारण अगस्त्य जी को पूरे समुद्र को पीना पड़ा
क्या आप जानते है हमारे सनातन धर्म में ऎसे-ऎसे ऋषि-मुनि हुए जिन्होंने अपने तप से अनेको अद्धभूत सिद्धियां प्राप्त की जिससे उन्होंने असम्भव कार्य को भी सम्भव बना दिया। ऎसे ही एक ऋषि हुए “ऋषि अगस्त्य” इन्होने अपनी शक्तियों से समुद्र का सम्पूर्ण जल पीकर उसे सूखा दिया था। “ऋषि अगस्त्य” अद्धभूत सिद्धियों के स्वामी थे उन्होंने देवताओ की सहयता के लिए अनेको अद्धभूत कार्य किये थे। एक बार उन्होंने समग्र समुद्र का जल पीकर उसे जल-विहीन कर दिया था।
आईये जानते है कि आखिर “अगस्त्य” मुनि ने ऐसा अद्धभूत कार्ये क्यों और किसके कहने पर किया-
सतयुग में एक दैत्य हुआ जिसका नाम “दैत्यराज वरतासुर” था। देवताओं से हुए एक भीषण युद्ध में वरतासुर मारा गया। उसके मरने के बाद दैत्यों के पास उनका कोई राजा नहीं था तब सारे दैत्य देवताओं के भय से समुद्र में छिप गए थे। समुद्र में छिपे सभी दैत्य हर समय यही विचार किया करते थे की किस प्रकार “देवराज इंद्र” का वध किया जाये। तब दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने दैत्यों को समझाया की देवताओं को अपनी सभी शक्तियाँ तप से ही मिलती है। इसलिए हमे सबसे पहले इस तप का ही नाश कर देना चाहिए तथा सभी ऋषियों-मुनियों का विनाश कर देना चाहिए। ऐसा करने से उन देवताओ के साथ सारा संसार स्वयं ही नष्ट हो
जायेगा।
ऐसा विचार करने के बाद उन दैत्यों ने रात के समय समुद्र से बहार निकलकर ऋषियो के आश्रमों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया तथा आश्रम में उपस्थित सभी ऋषि-मुनियों को मारकर खा जाते थे। और सूर्य निकलने से पहले ही पुनः समुद्र के भीतर जाकर छिप जाते थे। इस तरह दैत्यों के द्वारा ऋषियो का नाश होने लगा तथा यज्ञ, तप, आदि नष्ट होने लगे तो ऋषियो के साथ सभी देवताओं को भी चिंता सताने लगी। जब देवता ऋषियो की रक्षा करने में विफल हुए तो सभी देवताओं और सप्त ऋषियों ने जाकर भगवान् श्रीहरिविष्णु की शरण ली। देवताओ ने भगवान् श्रीहरिविष्णु को सारी स्थिति से अवगत कराया की किस प्रकार दैत्य रात्रि के समय समुद्र से बाहर निकलकर सभी ब्राह्मणो-ऋषियो तथा मुनियो का वध कर रहे है तथा दिन के समय समुद्र में जाकर छिप जाते है। सारी स्थिति से अवगत कराने के बाद सभी ने प्रभु से अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की। सभी की बात सुनकर भगवान् “श्रीहरिविष्णु” ने उनसे कहा की दैत्य जब तक समुद्र के भीतर है तब तक तुम उनका विनाश नहीं कर सकोगे इसलिए तुम्हे इस समुद्र को सुखाने का कोई उपाय करना चाहिए। भगवान विष्णु की यह बात सुनकर सभी देवता आश्चर्य में पड़ गए और बोले की प्रभु इतना विशाल समुद्र किस उपाय से सुखाया जा सकता है। तब भगवान “श्रीहरिविष्णु” ने देवताओ से कहा की इस समुद्र को सुखाने में अगस्त्य मुनि के अलावा और कोई समर्थ नहीं है इसलिए आप सभी इस कार्य के लिए अगस्त्य मुनि से प्रार्थना करे कि वे अपने तप कि शक्ति से समुद्र को सूखा दे। “श्रीहरिविष्णु” की यह बात सुनकर सभी देवता अगस्त्य मुनि जी के आश्रम में आये और उनसे प्रार्थना करने लगे। देवताओं के द्वारा अपनी स्तुति सुनकर अगस्त्य मुनि ने प्रसन्न होकर उनसे पूछा की किस कार्यवश आप सभी मेरे आश्रम में पधारे है। तब सभी ने अगस्त्य मुनि को सारी स्थिति कह सुनाई और “श्रीहरीविष्णु” के द्वारा दिखाए गए मार्ग के बारे में भी अगस्त्य मुनि को अवगत कराया और प्रार्थना की, कि प्रभु आप समग्र मनुष्य जाती कि रक्षा के लिए समुद्र के सम्पूर्ण जल को पीकर, उसे सूखा दे जिससे हम उसमे छुपे सभी दैत्यों का नाश कर सके।
देवताओ कि प्रार्थना से प्रसन्न होकर अगस्त्य मुनि सभी के साथ समुद्र के तट पर आ गए। सभी के देखते ही देखते सारे समुद्र का जल पी गए। समुद्र का जल सूखते ही सभी देवताओं ने मिलकर सभी दैत्यों का वध डाला। कुछ दैत्य जान बचाकर भाग खड़े हुए और जाकर पातळ-लोक में शरण ली। इस प्रकार दैत्यों का वध करने के बाद सभी देवता अगस्त्य मुनि जी के पास आये और उनसे विनती की, कि आप इस समुद्र को पुनः जल से भर दे। अगस्त्य मुनि ने उन देवताओं से कहा की जो जल मैंने पिया था वो पच गया है इसलिए अब मैं समुद्र को वापस जल से परिपूर्ण करने में असमर्थ हूँ। अतः अब समुद्र को पुनः जल से भरने के लिए आप लोग कोई दूसरा उपाय सोचे अगस्त्य मुनि की यह बात सुनकर देवताओ को बड़ा आश्चर्य हुआ और फिर वह सभी परमपिता ब्रम्हा जी के पास गए और उनसे समुद्र को पुनः जल से भरने की प्रार्थना की।
तब ब्रम्हा जी ने कहा की जब राजा भगीरथ गंगाजी को पृथ्वी पर उतारेंगे तभी ये समुद्र पुनः जल से भर पायेगा। तब तक आप सभी को प्रतीक्षा करनी होगी।

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पाखंड

एक बार मैंने सुबह टीवी खोला तो जगत गुरु शंकराचार्य कांची कामकोटि जी से प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम चल रहा था।

एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि हम भगवान को भोग क्यों लगाते हैं ?

हम जो कुछ भी भगवान को चढ़ाते हैं

उसमें से भगवान क्या खाते हैं?
क्या पीते हैं?
क्या हमारे चढ़ाए हुए पदार्थ के रुप रंग स्वाद या मात्रा में कोई परिवर्तन होता है?

यदि नहीं तो हम यह कर्म क्यों करते हैं। क्या यह पाखंड नहीं है?

यदि यह पाखंड है तो हम भोग लगाने का पाखंड क्यों करें ?

मेरी भी जिज्ञासा बढ़ गई थी कि शायद प्रश्नकर्ता ने आज जगद्गुरु शंकराचार्य जी को बुरी तरह घेर लिया है देखूं क्या उत्तर देते हैं।

किंतु जगद्गुरु शंकराचार्य जी तनिक भी विचलित नहीं हुए । बड़े ही शांत चित्त से उन्होंने उत्तर देना शुरू किया।

उन्होंने कहा यह समझने की बात है कि जब हम प्रभु को भोग लगाते हैं तो वह उसमें से क्या ग्रहण करते हैं।

मान लीजिए कि आप लड्डू लेकर भगवान को भोग चढ़ाने मंदिर जा रहे हैं और रास्ते में आपका जानने वाला कोई मिलता है और पूछता है यह क्या है तब आप उसे बताते हैं कि यह लड्डू है। फिर वह पूछता है कि किसका है?

तब आप कहते हैं कि यह मेरा है।

फिर जब आप वही मिष्ठान्न प्रभु के श्री चरणों में रख कर उन्हें समर्पित कर देते हैं और उसे लेकर घर को चलते हैं तब फिर आपको जानने वाला कोई दूसरा मिलता है और वह पूछता है कि यह क्या है ?

तब आप कहते हैं कि यह प्रसाद है फिर वह पूछता है कि किसका है तब आप कहते हैं कि यह हनुमान जी का है ।

अब समझने वाली बात यह है कि लड्डू वही है।

उसके रंग रूप स्वाद परिमाण में कोई अंतर नहीं पड़ता है तो प्रभु ने उसमें से क्या ग्रहण किया कि उसका नाम बदल गया । वास्तव में प्रभु ने मनुष्य के मम कार को हर लिया । यह मेरा है का जो भाव था , अहंकार था प्रभु के चरणों में समर्पित करते ही उसका हरण हो गया ।

प्रभु को भोग लगाने से मनुष्य विनीत स्वभाव का बनता है शीलवान होता है । अहंकार रहित स्वच्छ और निर्मल चित्त मन का बनता है ।

इसलिए इसे पाखंड नहीं कहा जा सकता है ।

यह मनो विज्ञान है । इतना सुन्दर उत्तर सुन कर मैं भाव विह्वल हो गया ।

कोटि-कोटि नमन है देश के संतों को जो हमें अज्ञानता से दूर ले जाते हैं और हमें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करते हैं

ॐ नमः शिवाय

सुनील अवस्थी-

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⚜🔅राजा भर्तृहरि की कथा🔅⚜
पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि। वे कवि भी थे। उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थीं। उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया। देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे। ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं, मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है। हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी। वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह फल उन्हें दे आया। राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया।

फिर मन ही मन सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं। वह ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया तो वह मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया।

लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। वह अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था। अमर फल उसको देते हुए रानी ने कहा कि इसे खा लेना, इससे तुम लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करोगे।

फल ले कर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन- दौलत के लिए झूठ-मूठ ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है। और यह फल खाकर मैं भी क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज नर्तकी को दे देता हूं।वह कभी मेरी कोई बात नहीं टालती। मैं उससे प्रेम भी करता हूं। और यदि वह सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। उसने वह फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया।

राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह अमर फल अपने पास रख लिया।कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन लंबा जीना चाहेगा।हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है, उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोच कर उसने किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस फल की महिमा सुना कर उसे राजा को दे दिया। और कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना।

राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक रह गया। पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो उसे वैराग्य हो गया और वह राज- पाट छोड़ कर जंगल में चला गया। वहीं उसने वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे जो कि वैराग्य शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं।

यही इस संसार की वास्तविकता है। एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह कि वह दूसरा व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है। इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण है सब में कुछ न कुछ कमी है। सिर्फ एक ईश्वर पूर्ण है। एक वही है जो हर जीव से उतना ही प्रेम करता है, जितना जीव उससे करता है बस हमीं उसे सच्चा प्रेम नहीं करते।

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लघुकथा


पक्के-इरादे

सुधा ने गाड़ी से उतरते उतरते मन ही मन कहा -“हे भगवान इस गांव के रास्ते कभी सुधरेंगे नहीं….।”सुधा चार-छह महीने में एक चक्कर अपने गाँव का लगा ही लेती हैं …. इस गाँव में उनकी जमीन और मन दोनों बसते हैं।
“ओहो…. लाली जिज्जी …..मज़ा आ गया आपका ये रूप देखकर।”
लाली जिज्जी पचास-पचपन की उम्र की निरक्षर पर बहुत होशियार और खुशदिल महिला …जो बरसो से खेत-खलिहान और घर से बाहर ही नही निकल पाई।बड़े प्यार से माँ ने ललिता नाम रखा पर…किसी ने ललिता पुकारा ही नही….लाली ही होकर रह गई।
आज उनका ये रूप देखा तो सुधा तो दंग रह गई ।
लाली जिज्जी तो बढिया सीधे पल्लू वाली डार्क रंग की साड़ी….पहन साइकिल चलाती हुई…कच्चे रास्ते से डगमग-डगमग चले जा रही थी…। सुधा को देखकर खट् से गाड़ी से उतर पड़ी।
“अरे सुधरिया…अब तो हम भी गाड़ी वाली हो गईं….।” कहकर खिलखिला कर हँस पड़ी।
“पर लाली जिज्जी जा कहाँ रही हो?” सुधा ने चकित होते हुये पूछा।
” देखो सुधरिया चालीस साल हो गये हमें ब्याह के आये हुये… बेटा-बेटी सब अपने-अपने घर के हो गए… हम तो ठहरे निरक्षर ,तो जैसे ही पता चला कि परले गाँव में एक मैडम हमारी उम्र वालों को अक्षर गिनती सिखा रही है तो.. हम भी पहुँच गए उनकी कक्षा में।”
“पर यह साइकिल से जाने का कैसे सोचा आपने?”
“हम शुरु दिन सत्तू के पापा के साथ मोटर साइकिल पर गये तो मैडम बोली-“तुम तरक्की भी दूसरों के कंधों पर सवार होकर करना चाहती हो।” बस यही बात हमको लग गई… और पुरानी साइकिल को ठीक करवा कर हफ्ते भर में गिरते-पड़ते हमने साइकिल सीख ही ली… अक्षर तो हो गए हमारे अब गिनती शुरू हो गई है ।… आते हुये मिलते हैं फिर से … ।” और उस कच्चे रास्ते से वो पक्के इरादे वाली महिला निकल पड़ी आगे और आगे।


रश्मि स्थापक
इदौर

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शीर्षक#

कर्म प्रधान...

औफिस से निकल कर नीरजा रोज ही शाम में इस फूल की दुकान से अपनी व्हील चेयर पर आश्रित बिटिया रिम्मी के लिए फूल खरीदना नहीं भूलती है ।
यों की नीरजा बहुत थकी हुयी होती है फिर भी उस दुकान में ताजे फूलों के बीच बैठी हुयी लड़की जिसकी उम्र १४ के करीब की होगी को कुशलतापूर्वक दुकान का संचालन करते देखना बेहद अच्छा लगता है ।
वह अपने छोटे भाई के साथ फूलों के बीच बैठी रहती है ।
उसकी मोहक ताजी मुस्कान नीरजा की दिन भर की थकान दूर कर उसे तरोताजा कर देते हैं।
रोजाना की तरह आज भी दुकान से थोड़ी दूर पहले ही गाड़ी रोक शीशे को नीचे कर नीरजा ने १०० रुपये के नोट बढ़ा दिये ।
अक्सर दुकान से लड़की का छोटा भाई दौड़ कर उसकी मनपंसद पीले फूलों का गुच्छा पकड़ा जाता है ।
लेकिन आज वह कंही नजर नहीं आ रहा है ।
थोड़े इन्तजार कर नीरजा ने कार के शीशे को थोड़ा और नीचे झुका लड़की जिसके चेहरे पर सलोनी मुस्कान खेल रही है ,
से मीठी आवाज में पूछा , ” आज गुड्डू नहीं आया है क्या ” ?
नहीं आंटी जी अब वो नहीं आएगा स्कूल जाने लगा है ना आप रुकें मैं अभी ला रही हूँ आपकी मनपसंद के फूल ” ।
नीरजा आराम से फोन देखने लगी ।
कुछ देर में ठक-ठक की आवाज से उसने सर उठा कर देखा तो चकित रह गई इतने सुंदर फूलों की दुकान सजाने वाली वह खुश दिल लड़की विकलांग है ।
आँखों के सामने रिम्मी का असहाय और असमर्थ चेहरा नाच गया जिसे अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए नीरजा ने लाचार बना रखा है ।
बड़े से गुलदस्ते को उठाये हुए एक पांव पर बैसाखी के सहारे कूद-कूद कर चलती हुई वह लड़की उसकी गाड़ी के समीप मुस्कुराती हुयी खड़ी हो गई ,
” यह लो आंटी जी अपनी मनपसंद का “
नीरजा उसकी जीवटता देख हक्की – बक्की है ।
उसकी पीठ प्यार से थपथपाती हुयी नीरजा एक पैर से लाचार होने के बावजूद जिजीविषा से लवरेज उसकी आत्मशक्ति
को मन ही मन नमस्कार कर रही है कि किस तरह वह इन ताजे फूलों वाले सुगंधित विचार से अपनी अपगंता को नकार कर कर्म साधती ना सिर्फ़ अपना जीवन उत्साह से भर रही वरन् उसे आगे भी बढ़ा रही है ।
प्रभावित नीरजा अब उसकी कर्म प्रधानता को अपने और रिम्मी के जीवन की चुनौती के रूप में स्वीकार कर उसका सामना करने की सोच रही है ।

स्वरचित / सीमा वर्मा
पटना

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लघुकथा——“कुलटा”

“शर्म नही आती औरत जात होकर भी आधी रात तक बाहर रहती है”
सुधा बुआ( मोहल्ले भर की बुआ थी) बोली ।
और क्या शर्म लिहाज तो है नही दो जवान बेटियों की माँ है।….बेचारा पति इसीलिए शराब के नशे में चूर रहता है।
“कुलटा कहीं की”
साथ वाली भाभी ने चलते तीर के साथ निशाना साध लिया।
“अरे, छोड़ो हमें क्या करना भाड़ में जाये, मंदिर में बैठे हम क्यों जुबान खराब करें।” श्रीमती वर्मा बोल पड़ी ।
हाँ, चलो भजन तो हो गए। ….फाग में “रास”न गाया तो कान्हा जी नाराज हो जाएंगे।…., हा हा हा हा हा
औऱ सभी खिलखिलाकर हँस पड़ी ।
“छोड़ो मुझे, नही जाना कहीं” अचानक आते स्वर की और हर कोई मुखर हुआ।
दामिनी और उसकी छोटी बेटी नयना नशेड़ी पति को शायद कहीं ले जाना चाहती थी। किन्तु वह दामिनी को भद्दी गलियों के साथ धक्का देकर दूर कर रहा था।
“अरे, नही जाना चाहता तो काहे जबजस्ती कर रही हो “
छोड़ो…. सुधा बुआ ने डाँटकर बोला।

बुआजी पापा को बुखार है।….,ये हॉस्पिटल भी नही जा रहे है। और माँ को गालियाँ बक रहे है। मासूम नयना अपनेपन से बोल उठी।

हाँ तो! सही तो बक रहा है। लच्छन ही ऐसे है तेरी मैया के।… तो का करे बेचारा ।
“बस कीजिये”… आपको पता भी है आप क्या कह रहीं है?….बहुत सुनी है आपकी उल जुलूल बकवास ।…यही भजन करती हैं आप मंदिर में बैठकर।”
घर को लॉक कर बाहर आती सुमि ने सबकुछ भाँप लिया और बरस पड़ी।
“सुमि प्लीज नही”
क्रोधावेशित सुमि को माँ ने रोकने का असफल प्रयास किया।
नही माँ अब चुप न रहूँगी मैं।
आपको पता है मेरी माँ क्या करती है?
“चलिये, और हाथ पकड़कर जबरन अपनी स्कूटी पर बैठाया बुआ को”
एक आलीशान मकान के आगे जाकर रुकी।
गेटकीपर ने गेट खोला अंदर गई।
सामने बेड पर एक वृद्ध महिला लेटी थी।…लकवा ग्रस्त ।

“देख लिया” अब सुनिये इनके पति स्वर्गवासी है । बेटी और बेटा विदेश जाकर बस गए। इनकी देखभाल करती है मेरी माँ ।

“मेरी कुलटा माँ यही रंगरेलिया मनाती है।…और इन्ही की बदौलत हमारा घर और मेरे नशेड़ी पिता की जरूरत पूरी होती है।”

सुधा बुआ अवाक थी। ……”निःशब्द “

फागुन की बयार से जैसे जेठ की तपती रेत पर नंगे पाँव खींच लिया हो किसी ने ।
कुसुम शर्मा नीमच

Posted in हास्यमेव जयते

एक स्कूल में शिक्षा विभाग से निरीक्षण के लिए अधिकारी आया। वह एक हिंदी की कक्षा में गया और हिंदी अध्यापिका से पूछने लगा अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना इस मुहावरे का वाक्य प्रयोग करके बताएं।
कुछ सोचकर अध्यापिका बड़े आत्मविश्वास से बोली-
“मैंने अपनी बेटी को दसवीं कक्षा में मोबाइल दिला कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली।“
निरीक्षक बोला “यह तो जानबूझ कर कुएं में कूदने जैसी बात हुई, पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाली नहीं। कोई और वाक्य प्रयोग बताओ।”
अध्यापिका कुछ क्षण सोचते हुए, “रमेश ने अपनी पत्नी को अपना क्रेडिट कार्ड देकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली।”
निरीक्षक फिर बोला- इसे तो ‘ मजबूरी का नाम महात्मा गांधी ’ कहेंगे । बीवी को क्रेडिट कार्ड देना पति की न टाली जा सकने वाली मजबूरी होती है, कोई सटीक वाक्य प्रयोग बताओ।

बहुत सोच विचार कर अध्यापिका को अपने पति की कही एक बात याद आई वह बोली- कल ही मेरे पति कह रहे थे कि तुम्हारी सुंदरता पर रीझकर मैं तुमसे शादी कर बैठा और अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मार ली।

निरीक्षक जोर जोर से हंसने लगा और बोला, “यह तो आंख का अंधा नाम नैनसुख का उदाहरण है।”

अब तो अध्यापिका का भी पारा चढ़ गया और वह गुस्से से बोली – “इस स्कूल में टीचर बनकर मैंने अपने पैरों पर कुल्हाडी मार ली।”

निरीक्षक फिर बोला “यह तो नाच न जाने आंगन टेढ़ा वाली बात हुई, इसमें कुल्हाडी कहाँ है?”

अब तो अध्यापिका का भी सिर घूम गया और वह गुस्से से फट पडी- “मेरे साथ ज्यादा तीन-पाँच मत करो वरना तुम्हारी राई का ऐसा पहाड़ बनाऊंगी कि दिन में तारे नज़र आ जाएंगे। चुपचाप यहां से नौ दो ग्यारह हो जाओ वरना आज…, अभी…, इसी जगह, सांप भी मरेगा और लाठी भी टूटेगी…।”

उसका रौद्ररूप देख निरीक्षक घबरा गया, “ओह, लगता है आज मैंने गलती से अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली और वह वहां से भाग गया।
😂😂😂😂😂

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💐भगवान राम के बाल्यकाल का एक प्रेरक प्रसंग!!
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कैकेयी वर्षों पुराने स्मृति कोष में चली गई, उन्हें वह दिन याद आ गया जब वे राम और भरत को बाण संधान की प्रारम्भिक शिक्षा दे रहीं थीं।
जब उन्होंने भरत से घने वृक्ष की डाल पर चुपचाप बैठे हुए एक कपोत पर लक्ष्य साधने के लिए कहा तो भरत ने भावुक होते हुए अपना धनुष नीचे रख दिया था और कैकेयी से कहा था — माँ ! किसी का जीवन लेने पर यदि मेरी दक्षता निर्भर है तो मुझे दक्ष नहीं होना। मैं इस निर्दोष पक्षी को अपना लक्ष्य नहीं बना सकता, उसने क्या बिगाड़ा है जो उसे मेरे लक्ष्य की प्रवीणता के लिए अपने प्राण गंवाने पड़ें ?

कैकेयी बालक भरत के हृदय में चल रहे भावों को बहुत अच्छे से समझ रहीं थीं। ये बालक बिल्कुल यथा नाम तथा गुण ही है। भावों से भरा हुआ , जिसके हृदय में प्रेम सदैव विद्यमान रहता है।

तब कैकेयी ने राम से कहा — पुत्र राम! उस कपोत पर अपना लक्ष्य साधो। राम ने क्षण भी नहीं लगाया और उस कपोत को भेद कर रख दिया था।

राम के सधे हुए निशाने से प्रसन्न कैकेयी ने राम से पूछा था — पुत्र! तुमने उचित-अनुचित का विचार नहीं किया? तुम्हें उस पक्षी पर तनिक भी दया न आयी ??

राम ने भोलेपन से कहा था — माँ ! मेरे लिए जीवन से अधिक महत्वपूर्ण मेरी माँ की आज्ञा है । उचित-अनुचित का विचार करना, ये माँ का काम है। माँ का संकल्प, उसकी इच्छा, उसके आदेश को पूरा करना ही मेरा लक्ष्य है । तुम मुझे सिखा भी रही हो और दिखा भी रही हो। तुम हमारी माँ ही नहीं गुरु भी हो, यह किसी भी पुत्र का, शिष्य का कर्तव्य होता है कि वह अपने गुरु, अपनी माँ के दिखाए और सिखाए गए मार्ग पर निर्विकार, निर्भीकता के साथ आगे बढ़े, अन्यथा गुरु का सिखाना और दिखाना सब व्यर्थ हो जायगा।

कैकेयी ने आह्लादित होते हुए राम को अपने अंक में भर लिया था, और दोनों बच्चों को लेकर राम के द्वारा गिराए गए कपोत के पास पहुँच गईं ।

भरत आश्चर्य से उस पक्षी को देख रहे थे, जिसे राम ने अपने पहले ही प्रयास में मार गिराया था। पक्षी के वक्ष में बाण घुसा होने के बाद भी उन्हें रक्त की एक बूंद भी दिखाई नहीं दे रही थी।

भरत ने उस पक्षी को हाथ में लेते हुए कहा– माँ ! यह क्या? ये तो खिलौना है। तुमने कितना सुंदर प्रतिरूप बनाया इस पक्षी का। मुझे ये सच का जीवित पक्षी प्रतीत हुआ था। तभी मैं इसके प्रति दया के भाव से भर गया था, माया के वशीभूत होकर मैंने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया, इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ।

तब कैकेयी ने बहुत ममता से कहा था — पुत्रो! मैं तुम्हारी माँ हूँ । मैं तुम्हें बाण का संधान सिखाना चाहती हूँ, वध का विधान नहीं । क्योंकि लक्ष्य भेद में प्रवीण होते ही व्यक्ति स्वयं जान जाता है कि किसका वध करना आवश्यक है और कौन अवध है।

किंतु स्मरण रखो, जो दिखाई देता है, आवश्यक नहीं कि वह वास्तविकता हो और ये भी आवश्यक नहीं कि जो वास्तविकता हो वह तुम्हें दिखाई दे।

कुछ जीवन, संसार की मृत्यु के कारण होते हैं, तो कुछ मृत्यु संसार के लिए जीवनदायी होती हैं।

तब भरत ने बहुत नेह से पूछा था– माँ ! तुम्हारे इस कथन का अर्थ समझ नहीं आया । हमें कैसे पता चलेगा कि इस जीवन के पीछे मृत्यु है या इस मृत्यु में जीवन छिपा हुआ है ???

वृक्ष के नीचे शिला पर बैठी हुई कैकेयी ने एक अन्वेषक दृष्टि राम और भरत पर डाली। उन्होंने देखा कि दोनों बच्चे धरती पर बैठे हुए बहुत धैर्य से उसके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। धैर्य विश्वासी चित्त का प्रमाण होता है और अधीरता अविश्वासी चित्त की चेतना। कैकेयी को आनंद मिला कि उसके बच्चे विश्वासी चित्त वाले हैं।

उन्होंने बताया था — असार में से सार को ढूंढना और सार में से असार को अलग कर देना ही संसार है । असार में सार देखना प्रेम दृष्टि है तो सार में से असार को अलग करना ज्ञान दृष्टि ।

पुत्र भरत ! तुम्हारा चित्त प्रेमी का चित्त है क्योंकि तुम्हें मृणमय भी चिन्मय दिखाई देता है और पुत्र राम! तुम्हारा चित्त ज्ञानी का चित्त है क्योंकि तुम चिन्मय में छिपे मृणमय को स्पष्ट देख लेते हो।

राम ने उत्सुकता से पूछा — माँ ! प्रेम और ज्ञान में क्या अंतर होता है ????

वही अंतर होता है पुत्र , जो कली और पुष्प में होता है । अविकसित ज्ञान प्रेम कहलाता है और पूर्ण विकसित प्रेम, ज्ञान कहलाता है ।

हर सदगृहस्थ अपने जीवन में ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और शक्ति चाहता है क्योंकि संतान माता-पिता की प्रवृति और निवृत्ति का आधार होते हैं। इसलिए वे अपनी संतानों के नाम उनमें व्याप्त गुणों के आधार पर रखते हैं। तुम्हारी तीनों माताओं और महाराज दशरथ को इस बात की प्रसन्नता है कि हमारे सभी पुत्र यथा नाम तथा गुण हैं।

भरत ! राम तुम सभी भाइयों में श्रेष्ठ है, ज्ञानस्वरूप है क्योंकि उसमें शक्ति, भक्ति, वैराग्य सभी के सुसंचालन की क्षमता है । इसलिए तुम सभी सदैव राम के मार्ग पर, उसके अनुसार, उसे धारण करते हुए चलना क्योंकि वह ज्ञान ही होता है जो हमारी प्रवृतियों का सदुपयोग करते हुए हमारी निवृत्ति का हेतु होता है।
!!जय रामजी की!!

सीतला दुबे

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मीठे रिश्ते

“बेटा, आज तुम्हें चौका छुलाई की रस्म करनी है, मैंने और महाराज ने बाकी सब खाना बना लिया है बस तुम्हें मीठे केसरिया चावल बनाने है ,शगुन के तौर पर” नवेली बहू से रागिनी ने कहा।
“जी मम्मीजी” सलोनी धीमे से बोली।
“आते हैं न बेटा” होस्टल मे पढ़ी सलोनी से रागिनी ने संशयपूर्ण स्वर में पूछा।
“ज..जी मम्मीजी” सलोनी ने संकोचवश हामी भर दी।
“चलो तुम बनाना शुरू करो, मैं पंडितजी को एक बार फिर याद दिलाकर आती हूँ कि वे समय से आ जाऐं, पास ही है मंदिर, बस अभी आती हूँ, और सुनो बेटा, पहली रसोई है,ज़रा अच्छे से बनाना, अम्माजी सबसे पहले चखेंगीं” रागिनी ने थोड़े चिंतित स्वर में कहा।
“जी मम्मीजी, मैं कर लूंगी” सलोनी धड़कते दिल से बोली।
“ठीक है बेटा”कहकर रागिनी किचन से निकल गई।सलोनी ने गहरी साँस भरी।
“का हुआ मोड़ी” अचानक अम्माजी की आवाज़ से सलोनी सिहर गई।
” चल जल्दी से चावल धोकर उबाल ले, मैं तुझे बहुत सरल तरीका बताती हूँ, मीठे स्वादिष्ट चावल बनाने का, इन धुले हुए चावलों को सादा उबाल लेना, उसके बाद कड़ाही मे घी तड़काकर लौंग, इलायची और केसरिया रंग का छौंक लगा देना, उसके बाद उबले चावल डालकर ,ऊपर से चीनी मिला देना, अच्छे से हिलाकर ,सूखे मेवों से सजा देना, समझ गई न, अब मैं चलती हूँ, पंडितजी आते ही होंगे” कहकर अम्माजी झट किचन से निकल गईं, सलोनी के चेहरे पर खुशी की लहर छा गई, अम्माजी कितने तरीके से उसे चावल बनाने की विधि बता गई थीं।
“वाह, खुशबू तो बहुत अच्छी आ रही है, अम्माजी तुझे पास कर ही देंगी, वाह, देखने में भी सुंदर लग रहे हैं” रागिनी संतुष्ट भाव से बोली।
“अम्माजी, ये लीजिए, बहू की पहली रसोई, मीठे चावल, खाकर बताईए कैसे बने हैं” रागिनी का दिल धकधक कर रहा था कि अम्माजी कोई कमी न निकाल दें।
“वाह, एक नंबर, मोड़ी ये ले नेग, बहुत ही स्वादिष्ट बनें हैं तेरे हाथ के मीठे चावल, खाओ..खाओ…सब खाओ भई, और बहुरिया को नेग देते जाओ”अम्माजी झूमती हुई बोलीं।
“शुक्र है अम्माजी को चावल पसंद आए” रागिनी मन ही मन सोचते हुए मुस्कुराई।सलोनी ने कृतज्ञ भाव और भरी आँखों से अम्माजी और रागिनी के पैर छुए।
“जीती रहो” दोनों के आशीर्वाद मे मीठे चावलों की मिठास घुल रही थी।

नम्रता सरन “सोना”

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0️⃣4️⃣❗0️⃣3️⃣❗2️⃣0️⃣2️⃣1️⃣ एक किसान था. वह एक बड़े से खेत में
खेती किया करता था. उस खेत के बीचो-बीच पत्थर
का एक हिस्सा ज़मीन से ऊपर निकला हुआ
था जिससे ठोकर खाकर वह कई बार गिर
चुका था और ना जाने कितनी ही बार उससे टकराकर
खेती के औजार भी टूट चुके थे.
रोजाना की तरह आज भी वह सुबह-सुबह खेती करने
पहुंचा पर जो सालों से होता आ रहा था एक
वही हुआ , एक बार फिर किसान का हल पत्थर से
टकराकर टूट गया.
.
किसान बिल्कुल क्रोधित हो उठा , और उसने मन
ही मन सोचा की आज जो भी हो जाए वह इस
चट्टान को ज़मीन से निकाल कर इस खेत के बाहर फ़ेंक
देगा.
वह तुरंत भागा और गाँव से ४-५
लोगों को बुला लाया और सभी को लेकर वह उस
पत्त्थर के पास पहुंचा .
” मित्रों “, किसान बोला , ” ये देखो ज़मीन से
निकले चट्टान के इस हिस्से ने मेरा बहुत नुक्सान
किया है, और आज हम सभी को मिलकर इसे जड़ से
निकालना है और खेत के बाहर फ़ेंक देना है.”
और ऐसा कहते ही वह फावड़े से पत्थर के किनार वार
करने लगा, पर ये क्या ! अभी उसने एक-दो बार
ही मारा था की पूरा-का पूरा पत्थर ज़मीन से बाहर
निकल आया. साथ खड़े लोग भी अचरज में पड़ गए और
उन्ही में से एक ने हँसते हुए पूछा ,” क्यों भाई , तुम
तो कहते थे कि तुम्हारे खेत के बीच में एक
बड़ी सी चट्टान दबी हुई है , पर ये तो एक
मामूली सा पत्थर निकला ??”
किसान भी आश्चर्य में पड़ गया सालों से जिसे वह
एक भारी-भरकम चट्टान समझ रहा था दरअसल वह बस
एक छोटा सा पत्थर था !! उसे पछतावा हुआ
कि काश उसने पहले ही इसे निकालने का प्रयास
किया होता तो ना उसे इतना नुक्सान
उठाना पड़ता और ना ही दोस्तों के सामने
उसका मज़ाक बनता .
मित्रो, इस किसान की तरह ही हम भी कई बार
ज़िन्दगी में आने वाली छोटी-छोटी बाधाओं
को बहुत बड़ा समझ लेते हैं और उनसे निपटने की बजाये
*तकलीफ उठाते रहते हैं. *ज़रुरत इस बात की है कि हम*
बिना समय गंवाएं उन मुसीबतों से लडें , और जब हम
ऐसा करेंगे तो कुछ ही समय में चट्टान सी दिखने
वाली समस्या एक छोटे से पत्थर के समान दिखनेलगेगी*
जिसे हम आसानी से ठोकर मार कर आगे बढ़ सकते हैं..!!
🙏🏼🙏🙏🏾जय जय श्री राधे🙏🏻🙏🏽🙏🏿