Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

(((( मूढ़ से महाकवि ))))
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द्वार के सामने निकलती पशुओं की कतार को देखकर वह चिल्लाया… उट् उट्
भीतर से पति की वाणी सुनकर गृहिणी निकली। उसके कानों मे ये शब्द बरबस प्रवेश पा गए।
व्याकरण की महापण्डिता, दर्शन की मर्मज्ञा नागरी और देवभाषा की यह विचित्र खिचड़ी देखकर सन्न रह गयी।
आज विवाह हुए आठवाँ दिन था। यद्यपि इस एक सप्ताह मे बहुत कुछ उजागर हो चुका था…
मालूम पड़ने लगा था कि जिसे परम विद्वान बताकर दाम्पत्य बन्धन मे बाँधा गया था, वह परम मूर्ख है।
आज ऊंट को संस्कृत मे बोलने के दाम्भिक प्रयास ने अनुमान पर प्रामाणिकता की मुहर लगा दी।
उफ !… इतना बड़ा छल !… ऐसा धोखा !
वह व्यथित हो गयी, व्यथा को पीने के प्रयास मे उसने निचले होंठ के दाहिने सिरे को दाँतों से दबाया।
ओह !… नारी कितना सहेगी तू ? कितनी घुटन है तेरे भाग्य मे?
कब तक गीला होता रहेगा तेरा आँचल आंसुओं की निर्झरिणी से।
सोचते सोचते उसे ख्याल आया कि वह उन्हें भोजन हेतु बुलाने आयी थी।
चिन्तन को एक ओर झटककर उसने पति के कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा, “आर्य भोजन तैयार है।”
“अच्छा।” कहकर वह चल पड़ा।
भोजन करते समय तक दोनों निःशब्द रहे। हाथ धुलवाने के पश्चात् गृहिणी ने ही पहल की.. “स्वामी”।
“कहो” स्वर मे अधिकार था।
“यदि आप आज्ञा दे तो मैं आपकी ज्ञानवृद्धि मे सहायक बन सकती हूँ।”
“तुम ज्ञान वृद्धि में “ ? .. आश्चर्य से पुरुष ने आंखें उसकी ओर उठाई।”
स्वर को अत्यधिक विनम्र बनाते हुए उसने कहा, “अज्ञान अपने सहज रूप मे उतना अधिक खतरनाक नहीं होता, जितना कि तब, जब कि वह ज्ञान का छद्म आवरण ओढ़ लेता है।”
“तो… तो मैं अज्ञानी हूँ।” … अटकते हुए शब्दों मे भेद खुल जाने की सकपकाहट झलक रही थी।
“नहीं नहीं आप अज्ञानी नहीं हैं।” स्वर को सम्मानसूचक बनाते हुए वह बोली,
“पर ज्ञान अनन्त है और मैं चाहती हूँ कि आप मे ज्ञान के प्रति अभीप्सा जगे।
फिर आयु से इसका कोई बन्धन भी नहीं। अपने यहाँ आर्य परम्परा मे तो वानप्रस्थ और संन्यास मे भी विद्या प्राप्ति का विधान है।
कितने ही ऋषियों ने, आप्त पुरुषों ने जीवन का एक दीर्घ खण्ड बीत जाने के बाद पारंगतता प्राप्त की।
“सो तो ठीक है पर ………….।”
पति की मानसिकता मे परिवर्तन को लक्ष्य कर उसका उल्लासपूर्ण स्वर फूटा.. “मैं आपकी सहायिका बनूँगी।”
“तुम मेरी शिक्षिका बनोगी? पत्नी और गुरु।”
कहकर वह अट्टहास करके हंस पड़ा। हंसी मे मूर्खता और दम्भ के सिवा और क्या था ?
पति के इस कथन को सुनकर उसके मन मे उत्साह का ज्वार जैसे चन्द्र पर लगते ग्रहण को देख थम गया।
वह सोचने लगी आह ! … पुरुष का दम्भ।
नारी नीची है, जो जन्म देती है वह नीची है, जो पालती है वह नीची हैं,
जिसने पुरुष को बोलना चलना, तौर तरीके सिखाए वह नीची है, और पुरुष क्यों ऊंचा है ?
क्यों करता है, सृष्टि के इस आदि गुरु की अवहेलना?
क्योंकि उसे भोगी होने का अहंकार है। नारी की सृजन शक्ति की मान्यता और गरिमा से अनभिज्ञ है।
क्या सोचने लगी ? पति ने पूछा।
अपने को सम्हालते हुए उसने कहा, “कुछ खास नहीं।
फिर कहने से लाभ भी क्या ? “
“नहीं कहो तो ?” स्वर मे आग्रह था।
सुनकर एक बार फिर समझाने का प्रयास करते हुए कहा… “हम लोग विवाहित है।
दाम्पत्य की गरिमा परस्पर के दुःख सुख, हानि लाभ, वैभव-सुविधाएं, धन यश को मिल जुलकर उपयोग करने मे है।
पति पत्नी मे से कोई अकेला सुख लूटे, दूसरा व्यथा की धारा मे पड़ा सिसकता रहे, क्या यह उचित है ?”
“नहीं तो।” पति कुछ समझने का प्रयास करते हुए बोला।
“तो आप इससे सहमत है कि दाम्पत्य की सफलता का रहस्य स्नेह की उस संवहन प्रक्रिया मे है जिसके द्वारा एक के गुणों की उर्जस्विता दूसरे को प्राप्त होती है।
दूसरे का विवेक पहले के दोषों का निष्कासन, परिमार्जन करता है।”
“ठीक कहती हो।”
नारी की उन्नत गरिमा के सामने पुरुष का दम्भ घुटने टेक रहा था।
“तो फिर विद्या भी धन है, शक्ति है, ऊर्जा है, जीवन का सौंदर्य है। क्यों न हम इसका मिल बाँट कर उपयोग करें ?”
“हाँ यह सही है।”
“तब आपको मेरे सहायिका बनने में क्या आपत्ति है ?”
“कुछ नहीं।” .. स्वर ढीला था।
शायद नारी की सृजन शक्ति के सामने पुरुष का अहं पराजित हो चुका था।
“तो शुभस्य शीध्रं।”… और वह पढ़ाने लगी अपने पति को।
पहला पाठ अक्षर ज्ञान से शुरू हुआ।
प्रारंभ मे कुछ अरुचि थी, पर प्रेम के माधुर्य के सामने इसकी कड़वाहट नहीं ठहरी।
क्रमशः व्याकरण, छन्द शास्त्र, निरुक्त, ज्योतिष आदि छहों वेदाँग, षड्दर्शन, ज्ञान की सरिता उमड़ती जा रही थी।
दूसरे के अन्तर की अभीप्सा का महासागर उसे निःसंकोच धारण कर रहा था।
वर्षों के अनवरत प्रयास के पश्चात् पति अब विद्वान हो गया था।
ज्ञान की गरिमा के साथ वह नतमस्तक था, उस सृजनशिल्पी के सामने, जो नारी के रूप मे उसके सामने खड़ी थी।
सरस्वती की अनवरत उपासना उसके अन्तर मे कवित्व की अनुपमेय शक्ति के रूप मे प्रस्फुटित हो उठी थी।
वह कभी का मूढ़ अब महाकवि हो गया।
देश देशान्तर सभी उसे आश्चर्य से देखते, सराहते और शिक्षण लेने का प्रयास करते।
वह सभी से एक ही स्वानुभूत तथ्य कहता…
“पहचानो, नारी की गरिमा, उस कुशल शिल्पी की सृजनशक्ति, जो आदि से अब तक मनुष्य को पशुता से मुक्त कर सुसंस्कारों की निधि सौंपती आयी है।”
महाराज विक्रमादित्य ने उन्हें अपने दरबार मे रखा।
अब वे विद्वत कुलरत्न थे।
दाम्पत्य का रहस्य सूत्र उन्हें वह सब कुछ दे रहा था, जो एक सच्चे इनसान को प्राप्त होना चाहिए।
स्वयं के जीवन से लोकजीवन को दिशा देने वाले ये दंपत्ति थे “महाविदुषी विद्योत्तमा और कविकुल चूड़ामणि कालिदास।”
साभार :- अज्ञात

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“सम्मान की ललक “

“बड़ी अम्मा,अब तो मोहन भइया के पास तू शहर चली जा.. जीवन भर अपाहिज पति की ख़ातिर गाँव में रही..सब्ज़ी बेचकर पति,बच्चों को पालती रही.. अब तुम्हारे आराम के समय हैं.. जेठू तो चला गया, अकेली जान , तेरा क्या है.. मोहन भइया की शहर में सरकारी नौकरी है, भौजाई भी अच्छी है.. फिर तू क्यों सब्ज़ी बेच कर अपना जीवन खपा रही है?” सब्ज़ी बेचते हुए देखकर अम्मा के देवर का लड़का शिवपूजन ने कहा।
“नहीं बेटे.. तू तो जानता है,तेरा जेठू कैसा सिर फिरा था..गाँव छोड़कर कभी जाना नहीं चाहा..उसकी वजह से मैं यहीं रहकर उसे कमा कर जीवन भर ख़िलाती रही..फिर भी न जाने उसे कैसी खुन्नस थी मुझसे..मुझे देखते ही मेरे लिए उसकी नफ़रतों में उबाल आने लगती.. बहाने खोज खोज कर बूढ़ा मुझे अपनी बैसाखी दिखाता..पास होती तो लगा भी देता..जीवन भर अपमान सह कर उसे पालती रही.. उसकी नफ़रत झेलती रही, मानो मैंने ही उसके पैर कटवा दिए हों! अब तो हमारे सम्मान से जीने के समय आए हैं..खुद इज़्ज़त से कमाती खाती हूँ.. जब तक शरीर साथ देता है! बाद में जो भी हो.. मोहन चाहे जैसे रक्खे! अभी से क्यूँ अपने सम्मान को गिरवी रखने का उपाय करूँ?कौन जाने मोहन भी बाप जैसा ही हो!” डबडबायी आँखों में विश्वास की चमक के साथ अम्मा ने कहा
बड़ी अम्मा ‘सम्मान की ललक’ में खुद के कर्मों से अर्जित सम्मान को जीना चाहती हैं…खुद को खुद की नज़रों में उठाना चाहती है!
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स्वरचित
रंजना बरियार

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हिसाब_बराबर / लघुकथा

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“काकी!.आप सौदा पूरा तौलने के बाद दो-चार टमाटर हर ग्राहकों के थैले में यूँही मुफ्त में क्यों डाल देती हो?”
रोज वहीं बगल में भुट्टे की दुकान लगा पाँच का बीस बनाने वाला आखिर आज उससे पूछ बैठा।
“बेटा!.बस उतने से ही अपना हिसाब बराबर हो जाता है।”
“कैसा हिसाब?”
“ये मेरी तराजू बहुत पुरानी है और वजन रखने वाला पलड़ा थोड़ा ज्यादा घिस गया है।” काकी ने घिसकर छेद हो चुके तराजू का वह पलड़ा पलट कर उसे दिखाया।
“उससे क्या हुआ?”
“बेटा!.ग्राहकों को कम तो नहीं तौल सकती ना!”
“इसलिए दो-चार किलो टमाटर यूँही मुफ्त में बांट देती हो!” काकी की बेवकूफी पर उसे हंसी आई ।
“अरे!.मुफ्त में कहां?.उनके हक का ही तो उन्हें देती हूँ।”
“काकी जितना आप सोचती हो ना!.उतना कोई गौर नहीं करता।”
“वह सब गौर करता है बेटा!”
“कौन?”
उम्र के अंतिम पड़ाव पर भी अपने कर्म में ईमानदारी बरतने की भरसक कोशिश करती काकी ने पूरे विश्वास के साथ श्रद्धा भाव से हाथ जोड़ ऊपर आसमान की ओर देखा।
“वो ऊपर वाला।”

पुष्पा कुमारी “पुष्प”
पुणे (महाराष्ट्र)
02/03/2021

Posted in कहावतें और मुहावरे

कुतका लकड़ी की खूँटी को कहा जाता है जो घर के बाहर लगी रहती थी उस पर गंदे कपड़े लटकाए जाते थे।

धोबी उस कुतके से गंदे कपड़े उठाकर घाट पर ले जाता और कपड़े धोने के बाद घुले कपड़े उसी कुतके पर टाँगकर चला जाता।
इसलिए यह कहावत बनी की धोबी का #कुतका ना घर का ना घाट का।

पता नहीं क्यों ,,,, लोगों ने कुतके को कुत्ते में बदल दिया और कहने लगे धोबी का कुत्ता ना घर का ना घाट का ?

जबकि बेचारे कुत्ते का इसमें कोई रोल ही नहीं है, वो तो धोबी के साथ घर में भी रहता है और घाट पर भी जाता है।
सत्य प्रकाश त्यागी
Gajendra Sahu
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सुप्रभातम

एक बोध कथा

बहुत समय पहले की बात है, एक राजा जंगल में शिकार खेलने गया, संयोगवश वह रास्ता भूलकर घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि हो गई और वर्षा होने लगी। राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा।

कुछ दूरी पर उसे एक दीपक जलता हुआ दिखाई दिया। वहाँ पहुँचकर उसने एक बहेलिये की झोंपड़ी देखी। वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था, अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था।

वह झोंपड़ी बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त थी। उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहरने देने के लिए प्रार्थना की।

बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी – कभी यहाँ आ भटकते हैं। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं।
उन्हें इस झोंपड़ी की गंध ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश/ज़िद करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ, इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता। मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।

राजा ने प्रतिज्ञा की, कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, उसे तो सिर्फ एक रात ही तो काटनी है।

तब बहेलिये ने राजा को वहाँ ठहरने की अनुमति दे दी, लेकिन सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली करने की शर्त को दोहरा दिया। राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा।

सोने में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह जब उठा तो वही सबसे परम प्रिय लगने लगा। राजा जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास करने की बात सोचने लगा। और बहेलिये से वहीं ठहरने की प्रार्थना करने लगा।

इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा।

राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो गया।

यह कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने राजा “परीक्षित” से पूछा, “परीक्षित” बताओ कि उस राजा का उस स्थान पर सदा के लिए रहने के लिए झंझट करना उचित था?

परीक्षित ने उत्तर दिया, भगवन् ! वह राजा कौन था, उसका नाम तो बताइये? मुझे वह तो मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक वहाँ रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है।

श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा, हे राजा परीक्षित! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं।

इस मल-मूत्र की गठरी “देह(शरीर)” में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप मरना नहीं चाहते। क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है ?” राजा परीक्षित का ज्ञान जाग गया और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए।

“वस्तुतः यही सत्य है।”

जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि, हे भगवन् ! मुझे यहाँ (इस कोख) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा। और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो (उस राजा की तरह हैरान होकर) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया (और पैदा होते ही रोने लगता है)

फिर धीरे धीरे उसे उस गंध भरी झोंपड़ी की तरह यहाँ की खुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता है। यही कथा मेरी भी है

जय जय सियाराम

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एक सेठ बड़ा धार्मिक था संपन्न भी था। एक बार उसने अपने घर पर पूजा पाठ रखी और पूरे शहर को न्यौता दिया। पूजा पाठ के लिए बनारस से एक विद्वान शास्त्री जी को बुलाया गया और खान पान की व्यवस्था के लिए शुद्ध घी के भोजन की व्यवस्था की गई। जिसके बनाने के लिए एक महिला जो पास के गांव में रहती थी को सुपुर्द कर दिया गया। शास्त्री जी कथा आरंभ करते हैं, गायत्री मंत्र का जाप करते हैं और उसकी महिमा बताते हैं उसके हवन पाठ इत्यादि होता है लोग बाग आने लगे और अंत में सब भोजन का आनंद लेते घर वापस हो जाते हैं। ये सिलसिला रोज़ चलता है।भोज्य प्रसाद बनाने वाली महिला बड़ी कुशल थी वो अपना काम करके बीच बीच में कथा आदि सुन लिया करती थी।

रोज की तरह एक दिन शास्त्री जी ने गायत्री मंत्र का जाप किया और उसकी महिमा का बखान करते हुए बोले कि इस महामंत्र को पूरे मन से एकाग्रचित होकर किया जाए तो इस भव सागर से पार जाया जाएगा सकता है। इंसान जन्म मरण के झंझटों से मुक्त हो सकता है।

खैर करते करते कथा का अंतिम दिन आ गया। वह महिला उस दिन समय से पहले आ गई और शास्त्री जी के पास पहुंची, उन्हें प्रणाम किया और बोली कि शास्त्री जी आपसे एक निवेदन है। शास्त्री उसे पहचानते थे उन्होंने उसे चौके में खाना बनाते हुए देखा था।वो बोले कहो क्या कहना चाहती हो ? वो थोड़ा सकुचाते हुए बोली शास्त्री जी मैं एक गरीब महिला हूँ और पड़ोस के गांव में रहती हूँ। मेरी इच्छा है कि आज का भोजन आप मेरी झोपड़ी में करें। सेठ जी भी वहीं थे, वो थोड़ा क्रोधित हुए लेकिन शास्त्री जी ने बीच में उन्हें रोकते हुए उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया और बोले आप तो अन्नपूर्णा हैं। आप ने इतने दिनों तक स्वादिष्ट भोजन करवाया, मैं आपके साथ कथा के बाद चलूंगा। वो महिला प्रसन्न हो गई और काम में व्यस्त हो गई। कथा खत्म हुई और वो शास्त्री जी के समक्ष पहुंच गई, वायदे के अनुसार वो चल पड़े गांव की सीमा पर पहुंच गए देखा तो सामने नदी है।

शास्त्री जी ठिठक कर रुक गए बारिश का मौसम होने के कारण नदी उफान पर थी कहीं कोई नाव भी नहीं दिख रही थी। शास्त्री जी को रुकता देख महिला ने अपने वस्त्रों को ठीक से अपने शरीर पर लपेट लिया व इससे पहले की शास्त्रीजी कुछ समझते उसने शास्त्री जी का हाथ थाम कर नदी में छलांग लगा दी और जोर जोर से ऊँ भूर्भुवः स्वः ….. ऊँ भूर्भुवः स्वः बोलने लगी और एक हाथ से तैरते हुए कुछ ही क्षणों में उफनती नदी की तेज़ धारा को पार कर दूसरे किनारे पहुंच गई। शास्त्री जी पूरे भीग गए और क्रोध में बोले मूर्ख औरत ये क्या पागलपन था अगर डूब जाते तो…?

महिला बड़े आत्मविश्वास से बोली शास्त्री जी डूब कैसे जाते ? आप का बताया मंत्र जो साथ था। मैं तो पिछले दस दिनों से इसी तरह नदी पार करके आती और जाती हूँ। शास्त्री जी बोले क्या मतलब ??

महिला बोली की आप ही ने तो कहा था कि इस मंत्र से भव सागर पार किया जा सकता है। लेकिन इसके कठिन शब्द मुझसे याद नहीं हुए बस मुझे ऊँ भूर्भुवः स्वः याद रह गया तो मैंने सोचा “भव सागर” तो निश्चय ही बहुत विशाल होगा जिसे इस मंत्र से पार किया जा सकता है तो क्या आधा मंत्र से छोटी सी नदी पार नहीं होगी और मैंने पूरी एकाग्रता से इसका जाप करते हुए नदी सही सलामत पार कर ली। बस फिर क्या था मैंने रोज के 20 पैसे इसी तरह बचाए और आपके लिए अपने घर आज की रसोई तैयार की। शास्त्री जी का क्रोध व झुंझलाहट अब तक समाप्त हो चुकी थी। किंकर्तव्यविमूढ़ उसकी बात सुन कर उनकी आँखों में आंसू आ गए और बोले माँ मैंने अनगिनत बार इस मंत्र का जाप किया, पाठ किया और इसकी महिमा बतलाई पर तेरे विश्वास के आगे सब बेसबब रहा।

इस मंत्र का जाप जितनी श्रद्धा से तूने किया उसके आगे मैं नतमस्तक हूं। तू धन्य है कह कर उन्होंने उस महिला के चरण स्पर्श किए। उस महिला को कुछ समझ नहीं आ रहा था वो खड़ी की खड़ी रह गई। शास्त्री भाव विभोर से आगे बढ़ गए वो पीछे मुड़ कर बोले मां चलो भोजन नहीं कराओगी बहुत भूख लगी है।

श्रद्धा और विश्वास ही है जो पत्थर को भी भगवान बनाता है।