पुरानी गलियाँ
शुक्ला जी आज उन पुरानी गलियों की तरफ मुड़ गए जिन पर उनके कदम गाहे-बगाहे ही पड़ते थे। आज भी वह इधर का रुख नहीं करते अगर बेटे की बातों ने उनकी आँखों पर पड़ा हुआ दिखावटी शान-शौकत का पर्दा न हटा दिया होता।
बेटे सौरभ ने आई.आई.टी. से बी.टेक. पास किया था। तमाम जगहों से नौकरी के ऑफर आए थे। उन्होनें सौरभ को एक अमरीकी कम्पनी, जो उसे एक करोड़ का सालाना तनख्वाह ऑफर कर रही थी, को जॉइन करने कहा।
“नहीं पापा, मैं अपने देश में ही काम करना चाहता हूँ।”
“इतने अच्छे पैसे भारत के किसी कम्पनी में नहीं मिलेगा। सालों एड़ियाँ रगड़ोगे तो भी इसका पाँचवा हिस्सा भी नहीं कमा पाओगे।”
“मेहनत करूँगा तो यहाँ भी सफल होऊँगा, पापा।”
“पर तुम यह विदेश वाली कम्पनी क्यों नहीं जॉइन करना चाहते?”
“आपसे और माँ से दूर नहीं होना चाहता। नहीं चाहता कि पैसा इतना अहम हो जाए कि मैं अपनों को भूल जाऊँ। मैं अभी भी माँ की गोद में सिर रख कर सोना चाहता हूँ। जब भी कोई तकलीफ होती है, माँ का दुलार टॉनिक का काम करता है। रोज़ सुबह आपके साथ बैठ चाय पर चर्चा करना चाहता हूँ। माँ से छुप कर हम दोनों जो चाट पार्टी करते हैं उसका लुत्फ़ भी सारी उम्र लेना चाहता हूँ। अपने उन्हीं दोस्तों के साथ बूढ़ा होना चाहता हूँ जिनके साथ जवानी के सपने देखे हैं। नहीं पापा, कागज़ के चंद टुकड़ों के लिए मैं सुख का यह अथाह सागर छोड़ कर नहीं जा सकता।”
उसके आगे कुछ बोल नहीं पाए शुक्ला जी। बात तो बिल्कुल खरी कही थी उसने पर उन्हें कुछ चुभन सी महसूस हुई। वह कहाँ सोच पाए ऐसा? उन्होंने तो एक ही शहर में रहकर भी अच्छे रहन सहन व झूठी सामाजिक पद-प्रतिष्ठा के लालच में अलग गृहस्थी बसा ली थी। उसके बाद माँ-बाप से उनका रिश्ता कुछ खास नहीं रहा। हाँ, पत्नी अवश्य उनसे बातचीत करती रहती है, जाकर मिल भी आती है। वे स्वयं तो अक्सर होली दीवाली भी नहीं जाते!
बिना किसी वजह के उन्हें आया देख माँ बाप दोनों ही चौंक गए। खाना खाने बैठे ही थे वे।
“आज इधर कैसे आए बेटा? सब ठीक है ना? बहु बच्चे?”
“हाँ माँ। सब ठीक है। मैं ही भटक गया था। पर अब लौट आया हूँ। मेरी भी थाली लगा दो माँ!””
स्वरचित
प्रीति आनंद