रोंगटे खड़े करने वाली दास्तान
दस्तावेज..
गोडवाड के किसी गाँव का गरीब मेड़तिया राठौर नौजवान पर आज वज्र टूट पड़ा, जब सुसराल से पत्र आया की एक हज़ार रूपए ले कर जेष्ठ शुक्ल दूज को लग्न करने आ जाना, यदि रूपए नहीं लाये और निश्चित तिथि को नहीं पहुँचे तो कन्या को किसी और योग्य वर से विवाह करा दिया जायेगा, कोई रास्ता ना देख पाली के बनिए के पास गया और मदद मांगी, बनिए ने पूछा “कुछ है गिरवी रखने को ?“वो ठहरा गरीब राजपूत कहाँ से लाता।
बनिए ने कागज़ में कुछ लिखा “लो भाई,इस पर हस्ताक्षर कर दो, कागज पढ़ नौजवान के हौश उड़ गए, कागज पर लिखा था “जब तक एक हज़ार रूपए अदा नहीं करू तब तक अपनी पत्नी को माँ –बहन समझूँगा !” मरता क्या नहीं करता अपने कलेजे पर पत्थर रखकर हस्ताक्षर किये और एक हज़ार रूपए अपने साफे में बांध सुसराल चल पड़ा।
जेष्ठ शुक्ल दूज को सूर्यादय के समय नवयुवक अपने सुसराल पपहुँचा। हज़ार रूपए की थैली अपने ससुर के सामने रखी,धूमधाम से लग्न हुआ, नवयुवक अपनी नयी दुल्हन को बैलगाड़ी पर बिठा कर अपने घर की ओर चल पड़ा।
बिन सास ससुर, देवर ननद का ये सुनसान झोपड़ा, कोई नयी दुल्हन का स्वागत करने वाला नहीं, नयी दुल्हन ने हाथ में झाड़ू थामा और लगी अपनी नयी दुनिया सँवारने। रात्रि को नई दुल्हन ने अपने हाथ से बनाया गरम भोजन अपने स्वामी को खिलाया, पीहर से लाये नरम रुई के गद्दे से सेज सजाई, कोने में तेल का दिया रखा, प्रीतम आया अपनी तलवार मयान से खैच कर,सेज के बीच में रखकर, करवट पलट कर सो गया !!
इस प्रकार एक के बाद एक अनेक राते बीतती गयी, क्षत्रानी को ये पहेली कुछ समझ नहीं आई, कोई नाराजगी है या मेरी परीक्षा ले रहे है, कुछ समझ में नहीं आ रहा था, उस रात जब ठाकुर घर आया तो हिम्मत कर पूछ ही लिया “ठाकुर आप क्या मेरे पीहर का बदला ले रहे हो ? आखिर क्या है इस तलवार का भेद ??
राजपूत ने बनिए द्वारा लिखा पत्र आगे कर दिया “लो ये खुद ही पढ़ लो” जैसे जैसे क्षत्रानी ने पत्र पढ़ा वैसे वैसे उसकी आँखों में चमक आने लगी बोली वाह रे राजपूत ! मेरा तुझ से ब्याहना सफल हो गया, धन्य हो मेरी सास जिसने आप को अपनी कोख से जनम दिया।
ये लो कहते हुए क्षत्रानी ने अपने सुहाग की चूड़ियाँ और अपने तन पर पहने गहने उतार कर अपने पति के सामने रख दिए।
बस इतना सा सब्र क्षत्रानी― राजपूत बोला। अपनी स्त्री के गहने से अपना वर्त छोड़ दूँ, ये नहीं हो सकता। उत्तेजित ना हो स्वामी, इस सोने को बेच कर दो बढ़िया घोड़ियाँ खरीदो, बढ़िया कपडे सिलवाओ और हथियार लो।
दूसरी घोड़ी किसके लिए और कपडे हथियार किसलिए ??
मेरे लिए, जब में छोटी थी तो मर्दाने वस्त्र पहन कई बार युद्ध में गयी थी, तलवार चलानी भी आती है, हम दोनों मेवाड़ राज्य चलते है, हम मित्र बन कर राणाजी के यहाँ काम करेगे और पैसे कमा कर बनिए का ऋण उतारेंगे !
ठाकुर तो क्षत्रानी का मुँह देखता ही रह गया।
वेश बदलकर दोनों घुड़सवार मेवाड़ की तरफ निकल पड़े, मेवाड़ पहुच, दरबार में हाज़िर हुए, राणाजी में पूछा “कौन हो, कहाँ से आ रहे हो, हम दोनों मित्र है और मारवाड़ के मेड़तिया राठौर है, आप की सेवा के आये है।
राणाजी ने दोनों को दरबार में नौकरी पर रख लिया। कुछ दिन बाद राणाजी शिकार पर निकले, दोनों क्षत्रय साथ में, हाथी पर बैठे राणाजी में शेर पर निशाना साधा, निशाना सही नहीं लगा, घायल शेर वापस मुडकर सीधा हाथी के हौदे की और लपका, दूसरे सिपाही समझ पाते उस से पहले ही क्षत्रानी ने अपने भाले से शेर को बींध डाला, राणाजी प्रसन्न हो पर उन दोनों को अपने शयनकक्ष का पहरा देने हेतु नियुक्त कर दिया,
वक़्त बीतता गया, सावन का महिना आया, हाथ में नंगी तलवार लिए पहरा देते दोनों राजपूत, कड़कड कड़ बिजली क्रोधी, गडगड कर बादल गरजे, हाथ में तलवार लिए पहेरा देती क्षत्रानी अपनी पति को निहार रही है, विरह की वेदना झेल रही क्षत्रानी के मुँह से अनायास दोहा निकल गया।
देश वीजा,पियु परदेशा ,पियु बंधवा रे वेश !
जे दी जासा देश में, (तौदी) बांधवापियु करेश !
महारानी झरोखी में बैठी सुन रही थी। सुबह हुई, महारानी के दिल में बात समां नहीं रही थी उसने राणाजी से कहा इन राजपूत पहरियो में कोई भेद है, रात ये बिछुड़ने की बात कर रहे थे हो ना हो इन में से एक पुरुष है और एक स्त्री है, राणाजी को विश्वास नहीं हुआ, ये बहादुरी और वो भी स्त्री की ? परीक्षा कर लो पता चल जायेगा !!
राणाजी ने दोनों को रानीवास में अन्दर बुलाया, महारानी ने दूध मंगवा कर आंगन के चुल्ले पर रख दिया और गर्म होने दिया, दूध में उफान आते ही क्षत्रानी चिल्ला पड़ी “अरे अरे दूध ..!!” ठाकुर ने अपनी कोहनी मार कर चेताया पर देर हो चुकी थी !
महारानी ने मुस्कुराते हुआ पुछा “बेटा, तुम कौन हो, सच्ची बात बताओ तुम्हारे सभी गुनाह माफ़ है। गदगद कंठ से राजपूत ने सारी बात विस्तार से बताई।
वाह राजपूत वाह ! तुम धन्य हो ! आज से तुम मेरे बेटे-बेटी ,तुम यही रहो तुम्हारे रहने की व्यवस्था महल में करवा देता हूँ, बनिए के कर्ज के पैसे में अपने आदमियों से भिजवा देता हूँ।
महारानी अन्दर से बढ़िया पौशाक व् गहने लाकर क्षत्रानी को दिए ! दोनों की आँखों में कृतयज्ञता के आँसू थे, हाथ जोड़ कर बोले “स्वामी ! हम अपने हाथो से बनिए का कर्ज चुका कर हमारे लिखे दस्तावेज अपनी हाथो से फाड़े तभी हमारा वर्त छूटेगा।
राणाजी ने श्रृंगार की हुई बैलगाडी से ,खुद सारा धन देकर उनको विदा किया घर पहुच कर ,पहले बनिए के पास जा कर अपना कर्ज चुकाया और अपनी जमीन कर मुक्त कराई।
(श्री नाहरसिंह जी जसोल की किताब से)
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