भगवत् कृपा के चमत्कार
हनुमान भक्ति की प्रेरणा ६ वर्ष की आयु में (१९५८) में मिली जब एक बरात में गया था। जब अन्य लोग नाच देखने में मग्न थे तो मैं एक साधक से हनुमान जी के चमत्कार के बारे में सुन रहा था। अन्य दो श्रोता बूढ़े थे। साधक का पुत्र एक बार बीमार था तो डाक्टर ने कहा कि उसका बचना असम्भव है। वे क्रोध में गांव के हनुमान मन्दिर गये तथा हनुमान जी को बहुत धिक्कारा कि वर्षों तक उनकी पूजा से क्या लाभ हुआ? हनुमान जी ने उनको थप्पड़ मारा और कहा कि मेरे पास बच्चे को क्यों नहीं लाये थे? देखा कि किसी स्थिति में मरना ही है तो उसे ले आये। आधे घण्टे के भीतर उसका ज्वर उतर गया। फिर शिकायत की कि थप्पड क्यों मारा था? कृपा करहु गुरुदेव की नाईं, गुरु भूल होने पर डांटते भी हैं।
मैंने कहा कि मैं भी हनुमान पूजा करूंगा। उन्होंने अपनी प्रति देकर कहा कि इसको दैनिक पढ़ना है तथा अन्य कोई पूजा की जरूरत नहीं है-और देवता चित्त न धरई, हनुमत सेइ सर्व सुख करई। साधक से मैंने पूछा, कि अब वे कैसे पूजा करेंगे? कुछ सोच कर उन्होंने मेरी तरफ से १ लाख हनुमान चालीसा बांटने का संकल्प लिया। सम्भवतः पूरा कर दिया था।
८ वर्ष की आयु में कक्षा ६ से विद्यालय पढ़ाई आरम्भ की तो क्रियायोग साधक से सम्पर्क हुआ। उनके पास स्वामी निगमानन्द की पुस्तक ज्ञानी गुरु पढ़ी। उसमें वर्णित प्राणायाम आदि से सिद्धि की चेष्टा कर रहा था। सिद्धि नहीं मिली किन्तु स्वप्न में पूर्व जन्म के दृश्य देखता था तथा उड़ता था। प्रायः ४० वर्ष बाद एक अन्य साधक ने कहा कि मेरे तीन पूर्व जन्म क्या थे। उन्ही का दृश्य देखता था। क्रिया योगी ने कहा कि गुरु से ही साधना होती है, पुस्तक से नहीं तथा किसी सिद्धि की चेष्टा नहीं करें। गुरु को भी खोजने की चिन्ता नहीं करनी है। गुरु स्वयं शिष्य खोजने के लिए अधिक चिन्तित रहता है, जिससे उसके ज्ञान का लोप नहीं हो। जब जैसी जरूरत होगी, वैसा गुरु मिल जायेगा।
उसी समय एक छोटी घटना हुई जो सामान्यतः असम्भव था। एक नाटक के रोल का अभ्यास करना था तो रविवार के समय अपने पात्र के संवाद पढ़ने बैठा। अचानक जोर की हवा आयी तथा कागज उड़ गया। चिन्ता हुई कि अगले दिन स्कूल जा कर फिर नकल कर लाना होगा। हनुमान जी के फोटो पर क्रोध में कहा कि क्यों कागज उड़ाया, वापस लाओ। प्रायः ६ घण्टे बाद अचानक उल्टी हवा चली तथा कागज ठीक उसी टेबुल पर गिरा जहां से उड़ा था। इसके बाद अपने ऊपर लज्जा हुई कि इतने छोटे काम के लिए भगवान को कष्ट दिया। उसके बाद हर पूजा में लगता है कि मांगना उचित नहीं है, भगवान स्वयं जरूरत अनुसार देंगे। उनको ठीक पता है कि मुझे क्या चाहिए।
प्रायः १० वर्ष की आयु में एक बड़ी नहर में नहा रहा था, जिस स्थान से शाखा नहर निकलने के लिए ४ गेट थे। हठात् मेरा पैर फिसल गया तथा गेट से निकलती धारा ने मुझे खींच लिया। उसमें अच्छा तैराक भी नहीं बचता। २-३ मिनट बाद मेरे शरीर के १० टुकड़े गेट के बहाव के साथ निकलते। उसी समय जंगल से प्रायः ५० लट्ठे बन्ध कर नहर से ला रहे थे। अचानक उसमें से एक लट्ठा खुला तथा गेट की तरफ खिंच गया। गेट से टकरा कर पीछे आ गया तथा मुझे भी दूर फेंक दिया। १० सेकण्ड की भी देरी होती तो बचना असम्भव था।
इस प्रकार कई बार चमत्कार से रक्षा हुई है। सिद्धान्त दर्पण की व्याख्या के समय प्रायः १०० बार दैवी प्रेरणा से अपना विचार बदलना पड़ा तथा कई बार अज्ञात स्रोत से सन्दर्भ ग्रन्थ भी आ गये।
हनुमान मनुष्य रूप में केवल राम दूत नहीं हैं। वह परब्रह्म हैं जिनके तीन रूप गायत्री मन्त्र के तीन पादों के अनुसार समझे जा सकते हैं। तुरीय अदर्शित पाद के अनुसार अव्यक्त रूप भी है। गायत्री मन्त्र का प्रथम पाद हनुमान का स्रष्टा रूप वृषाकपि है। इसके दो भाग हैं। मूल विश्व रस रूप था। उसके घना होने से बड़े में जैसी रचना हुई जिनसे वर्षा की बून्द जैसे ब्रह्माण्ड निकले। ब्रह्माण्ड अपेक्षाकृत घना में था जिससे विन्दु रूप सूर्यों की वर्षा हुई। इन विन्दुओं को द्रप्स (drops) भी कहा गया है। मूल मेघ से निकलने के कारण इनको स्कन्द भी कहा है। मूल स्रोत से सृष्टि की वर्षा करने वाला वृषा है। पिछले बार जैसी सृष्टि हुई थी वैसी ही अगली सृष्टि होती है-सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् (ऋक्, १०/१९०/३)। पूर्व सृष्टि के क = जल को पी कर नयी सृष्टि करने वाला कपि है। अतः अनुकरण करने वाले पशु को भी कपि (copy) कहते हैं।
गायत्री मन्त्र का द्वितीय पाद गति रूप मारुति तथा तृतीय पाद अन्तः प्रेरणा रूप मनोजव है।
मनोजवं मारुततुल्य रूपम्।
गायत्री का तुरीय पाद है-‘दर्शतं पदं परोरजा’ है (बृहदारण्यक उपनिषद्, अध्याय ५)। परब्रह्म राम का हमारे पास दूत रूप में जो दर्शन होता है, वही हनुमान हैं।
अरुण कुमार उपाध्याय