Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

परम सिध्द सन्त रामदास जी जब प्रार्थना करते थे तो कभी उनके होंठ नही हिलते थे !
शिष्यों ने पूछा – हम प्रार्थना करते हैं, तो होंठ हिलते हैं।
आपके होंठ नहीं हिलते ? आप पत्थर की मूर्ति की तरह खडे़ हो जाते हैं। आप कहते क्या है अन्दर से ?
क्योंकि अगर आप अन्दर से भी कुछ कहेंगे, तो होंठो पर थोड़ा कंपन आ ही जाता है। चहेरे पर बोलने का भाव आ जाता है।लेकिन वह भाव भी नहीं आता !

सन्त रामदास जी ने कहा – मैं एक बार राजधानी से गुजरा और राजमहल के सामने द्वार पर मैंने सम्राट को खडे़ देखा, और एक भिखारी को भी खडे़ देखा !

वह भिखारी बस खड़ा था। फटे–चीथडे़ थे शरीर पर। जीर्ण – जर्जर देह थी, जैसे बहुत दिनो से भोजन न मिला हो !

शरीर सूख कर कांटा हो गया। बस आंखें ही दीयों की तरह जगमगा रही थी। बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो !
वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था। लगता था अब गिरा -तब गिरा !
सम्राट उससे बोला – बोलो क्या चाहते हो ?
उस भिखारी ने कहा – अगर मेरे आपके द्वार पर खडे़ होने से, मेरी मांग का पता नहीं चलता, तो कहने की कोई जरूरत नहीं !
क्या कहना है और ? मै द्वार पर खड़ा हूं, मुझे देख लो। मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है। “
सन्त रामदास जी ने कहा -उसी दिन से मैंने प्रार्थना बंद कर दी। मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूं। वह देख लेगें ।
मैं क्या कहूं ?
अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती, तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे ?
अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकते, तो मेरे शब्दों को क्या समझेंगे ?
अतः भाव व दृढ विश्वास ही सच्ची भक्ति के लक्षण है यहाँ कुछ मांगना शेष नही रहता !
आपका प्रार्थना में होना ही पर्याप्त है !!

नव नंदन प्रसाद

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक, भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

દેશ જે દિવસે “આઝાદ” થયો ત્યારે પહેલી “સહી” “ભાવનગરના મહારાજા”એ કરી. ગાંધીજી પણ એક “ક્ષણ” માટે “સ્તબ્ધ” થઈ ગયેલા. “૧૮૦૦ પાદર – ગામ” “સૌથી પહેલા આપનારા” એ “ભાવનગરના “મહારાજા કૃષ્ણકુમારસિંહજી.”

“ભાવનગર મહારાજે” વલ્લભભાઈ પટેલને પૂછ્યું , વલ્લભભાઈ મને “પાંચ મિનીટ”નો સમય આપશો?

“વલ્લભભાઈ”એ “મહારાજા”ને કહ્યું કે, “પાંચ મિનીટ” નહીં “બાપુ”, તમે કહો એટલો સમય આપું.

ભાવનગર “મહારાજે” વલ્લભભાઈને વાત કરી કે, આ “રાજ” તો “મારા બાપ”નું છે, “મારું” છે. “સહી” કરું એટલી વાર છે. દેશ આઝાદ થઈ જશે, પણ “મહારાણી”નો જે “કરિયાવર” આવ્યો છે એનો “હું માલિક” નથી. મારે “મહારાણી”ને પુછાવવું છે કે એ “સંપત્તિ”નું શું કરવું?
એક માણસ “મહારાણી”ને પૂછવા ગયો.

માણસે “મહારાણી”ને કહ્યું કે, “મહારાજ” સાહેબે પૂછાવ્યું છે કે પોતે સહી કરે એટલી વાર છે, “રજવાડાં” ખતમ થશે, “દેશ આઝાદ” થશે, પણ તમારા “દાયજા”નું શું કરવું ?
ત્યારે “ગોહિલવાડ”ની આ “રાણી” એ જવાબ આપ્યો કે, “મહારાજ”ને કહી દો કે આખો “હાથી” જતો હોય ત્યારે એનો “શણગાર” ઉતારવાનો “ના” હોય, “હાથી “શણગાર” સમેત આપો તો જ સારો લાગે.

આરપાર : દેશ આઝાદ થઈ ગયો પછી મહારાજા “કૃષ્ણકુમારસિંહજી” એ મદ્રાસનું “ગવર્નર” પદ શોભાવ્યું, અને એ પણ “૧” રૂપિયાના “માનદ વેતન”ની શરતે.”

ઘણી વખત વિચાર આવે છે કે કેવા લોકો પાસે થી આપણે સત્તા, સંપતિ છોડાવી અને કેવા લોકો ના હાથ માં સોપી દીધી…!!!!

Proud for such nationalists.

नीलेश दवे

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एक बार एक व्यक्ति नाई की दुकान पर अपने बाल कटवाने गया| नाई और उस व्यक्ति के बीच में ऐसे ही बातें शुरू हो गई और वे लोग बातें करते-करते “भगवान” के विषय पर बातें करने लगे|

तभी नाई ने कहा – “मैं भगवान के अस्तित्व को नहीं मानता और इसीलिए तुम मुझे नास्तिक भी कह सकते हो”

“तुम ऐसा क्यों कह रहे हो” व्यक्ति ने पूछा|

नाई ने कहा – “बाहर जब तुम सड़क पर जाओगे तो तुम समझ जाओगे कि भगवान का अस्तित्व नहीं है| अगर भगवान होते, तो क्या इतने सारे लोग भूखे मरते? क्या इतने सारे लोग बीमार होते? क्या दुनिया में इतनी हिंसा होती? क्या कष्ट या पीड़ा होती? मैं ऐसे निर्दयी ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकता जो इन सब की अनुमति दे”

व्यक्ति ने थोड़ा सोचा लेकिन वह वाद-विवाद नहीं करना चाहता था इसलिए चुप रहा और नाई की बातें सुनता रहा|

नाई ने अपना काम खत्म किया और वह व्यक्ति नाई को पैसे देकर दुकान से बाहर आ गया| वह जैसे ही नाई की दुकान से निकला, उसने सड़क पर एक लम्बे-घने बालों वाले एक व्यक्ति को देखा जिसकी दाढ़ी भी बढ़ी हुई थी और ऐसा लगता था शायद उसने कई महीनों तक अपने बाल नहीं कटवाए थे|

वह व्यक्ति वापस मुड़कर नाई की दुकान में दुबारा घुसा और उसने नाई से कहा – “क्या तुम्हें पता है? नाइयों का अस्तित्व नहीं होता”

नाई ने कहा – “तुम कैसी बेकार बातें कर रहे हो? क्या तुम्हे मैं दिखाई नहीं दे रहा? मैं यहाँ हूँ और मैं एक नाई हूँ| और मैंने अभी अभी तुम्हारे बाल काटे है|”

व्यक्ति ने कहा – “नहीं ! नाई नहीं होते हैं| अगर होते तो क्या बाहर उस व्यक्ति के जैसे कोई भी लम्बे बाल व बढ़ी हुई दाढ़ी वाला होता?”

नाई ने कहा – “अगर वह व्यक्ति किसी नाई के पास बाल कटवाने जाएगा ही नहीं तो नाई कैसे उसके बाल काटेगा?”

व्यक्ति ने कहा – “तुम बिल्कुल सही कह रहे हो, यही बात है| भगवान भी होते है लेकिन कुछ लोग भगवान पर विश्वास ही नहीं करते तो भगवान उनकी मदद कैसे करेंगे| अधूरा विश्वास करते हैं और कर्म भी नहीं करते तो कैसे कृपा मिलेगी।
सुप्रभात मित्रों
शुभ सोमवार
ॐ नमः शिवाय
हर हर महादेव
ॐ गौरी शंकराय नमः
ॐ उमा महेश्वराय नाम
ॐ नमो भगवते रूद्राय ।
ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुव: स्व:

देवी सिंग तोमर

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कथा- सर्वनिंदक गुणी महाराज-
एक थे सर्वनिंदक महाराज। काम-धाम कुछ आता नहीं था पर निंदा गजब की करते थे।हमेशा औरों के काम में टाँग फँसाते थे।
अगर कोई व्यक्ति मेहनत करके सुस्ताने भी बैठता तो कहते, ‘मूर्ख एक नम्बर का कामचोर है। अगर कोई काम करते हुए मिलता तो कहते, ‘मूर्ख गधा है, जिंदगी भर काम करते हुए मर जायेगा।’
कोई पूजा-पाठ में रुचि दिखाता तो कहते, ‘पूजा के नाम पर समय नष्ट कर रहा है। ये पूजा के नाम पर मस्ती करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता।’ अगर कोई व्यक्ति पूजा-पाठ नहीं करता तो कहते, ‘मूर्ख नास्तिक है! भगवान से कोई मतलब ही नहीं है। मरने के बाद पक्का नर्क में जायेगा।’
माने निंदा के इतने पक्के खिलाड़ी बन गये कि आखिरकार नारदजी ने अपने स्वभाव अनुसार.. विष्णु जी के पास इसकी खबर पहुँचा ही दी। विष्णु जी ने कहा ‘उन्हें विष्णु लोक में भोजन पर आमंत्रित कीजिए।’
नारद तुरंत भगवान का न्योता लेकर सर्वनिंदक महाराज के पास पहुँचे और बिना कोई जोखिम लिए हुए उन्हें अपने साथ ही विष्णु लोक लेकर पहुँच गये कि पता नहीं कब महाराज पलटी मार दे।
उधर लक्ष्मी जी ने नाना प्रकार के व्यंजन अपने हाथों से तैयार कर सर्वनिंदक जी को परोसा।
सर्वनिंदक जी ने जमकर आनन्दपूर्वक भोजन किया। वे बड़े प्रसन्न दिख रहे थे। विष्णु जी को पूरा विश्वास हो गया कि सर्वनिंदक जी लक्ष्मी जी के बनाये भोजन की निंदा कर ही नहीं सकते। फिर भी नारद जी को संतुष्ट करने के लिए पूछ लिया, ‘और महाराज भोजन कैसा लगा?’
सर्वनिंदक जी बोले, ‘महाराज भोजन का तो पूछिए मत, आत्मा तृप्त हो गयी। लेकिन… भोजन इतना भी अच्छा नहीं बनना चाहिए कि आदमी खाते-खाते प्राण ही त्याग दे।’
विष्णु जी ने माथा पीट लिया और बोले, ‘हे वत्स, निंदा के प्रति आपका समर्पण देखकर मैं प्रसन्न हुआ। आपने तो लक्ष्मी जी को भी नहीं छोडा, वर माँगो।’
सर्वनिंदक जी ने शर्माते हुए कहा — ‘हे प्रभु मेरे वंश में वृध्दि होनी चाहिए।’
तभी से ऐसे निरर्थक सर्वनिंदक बहुतायत में पाए जाने लगे।
हम चाहे कुछ भी कर लें.. इन सर्वनिंदकों की प्रजाति को संतुष्ट नहीं कर सकते अतः ऐसे लोगों की परवाह किये बिना अपने कर्तव्य पथ पर हमें अग्रसर रहना चाहिए।
🙏 जय श्री गोविन्दम्🙏

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(एक अरबी कहानी)
आदतें नस्लों का पता देती हैं…

एक बादशाह के दरबार मे एक अजनबी नौकरी की तलब के लिए हाज़िर हुआ ।
क़ाबलियत पूछी गई, कहा, “सियासी हूँ ।” ( अरबी में सियासी अक्ल ओ तदब्बुर से मसला हल करने वाले मामला फ़हम को कहते हैं ।)
बादशाह के पास सियासतदानों की भरमार थी, उसे खास “घोड़ों के अस्तबल का इंचार्ज” बना लिया।
चंद दिनों बाद बादशाह ने उस से अपने सब से महंगे और अज़ीज़ घोड़े के मुताल्लिक़ पूछा,
उसने कहा, “नस्ली नही हैं ।”
बादशाह को ताज्जुब हुआ, उसने जंगल से साईस को बुला कर दरियाफ्त किया..
उसने बताया, घोड़ा नस्ली हैं, लेकिन इसकी पैदायश पर इसकी मां मर गई थी, ये एक गाय का दूध पी कर उसके साथ पला है।
बादशाह ने अपने मसूल को बुलाया और पूछा तुम को कैसे पता चला के घोड़ा नस्ली नहीं हैं ?”

“”उसने कहा “जब ये घास खाता है तो गायों की तरह सर नीचे करके, जबकि नस्ली घोड़ा घास मुह में लेकर सर उठा लेता हैं ।”””

बादशाह उसकी फरासत से बहुत मुतास्सिर हुआ, उसने मसूल के घर अनाज ,घी, भुने दुंबे, और परिंदों का आला गोश्त बतौर इनाम भिजवाया।

और उसे मलिका के महल में तैनात कर दिया।
चंद दिनो बाद , बादशाह ने उस से बेगम के बारे में राय मांगी, उसने कहा, “तौर तरीके तो मलिका जैसे हैं लेकिन शहज़ादी नहीं हैं ।”

बादशाह के पैरों तले जमीन निकल गई, हवास दुरुस्त हुए तो अपनी सास को बुलाया, मामला उसको बताया, सास ने कहा “हक़ीक़त ये हैं, कि आपके वालिद ने मेरे खाविंद से हमारी बेटी की पैदायश पर ही रिश्ता मांग लिया था, लेकिन हमारी बेटी 6 माह में ही मर गई थी, लिहाज़ा हम ने आपकी बादशाहत से करीबी ताल्लुक़ात क़ायम करने के लिए किसी और कि बच्ची को अपनी बेटी बना लिया।”

बादशाह ने अपने मुसाहिब से पूछा “तुम को कैसे इल्म हुआ ?”

“”उसने कहा, “उसका खादिमों के साथ सुलूक जाहिलों से भी बदतर हैं । एक खानदानी इंसान का दूसरों से व्यवहार करने का एक मुलाहजा एक अदब होता हैं, जो शहजादी में बिल्कुल नहीं । “””

बादशाह फिर उसकी फरासत से खुश हुआ और बहुत से अनाज , भेड़ बकरियां बतौर इनाम दीं साथ ही उसे अपने दरबार मे मुतय्यन कर दिया।

कुछ वक्त गुज़रा, मुसाहिब को बुलाया,अपने बारे में दरियाफ्त किया ।
मुसाहिब ने कहा “जान की अमान ।”

बादशाह ने वादा किया । उसने कहा, “न तो आप बादशाह ज़ादे हो न आपका चलन बादशाहों वाला है।”

बादशाह को ताव आया, मगर जान की अमान दे चुका था, सीधा अपनी वालिदा के महल पहुंचा ।

वालिदा ने कहा, “ये सच है, तुम एक चरवाहे के बेटे हो, हमारी औलाद नहीं थी तो तुम्हे लेकर हम ने पाला ।”

बादशाह ने मुसाहिब को बुलाया और पूछा , बता, “तुझे कैसे इल्म हुआ ????”

उसने कहा “बादशाह जब किसी को “इनाम ओ इकराम” दिया करते हैं, तो हीरे मोती जवाहरात की शक्ल में देते हैं….लेकिन आप भेड़, बकरियां, खाने पीने की चीजें इनायत करते हैं…ये असलूब बादशाह ज़ादे का नही, किसी चरवाहे के बेटे का ही हो सकता है।”

किसी इंसान के पास कितनी धन दौलत, सुख समृद्धि, रुतबा, इल्म, बाहुबल हैं ये सब बाहरी मुल्लम्मा हैं ।
इंसान की असलियत, उस के खून की किस्म उसके व्यवहार, उसकी नीयत से होती हैं ।

एक इंसान बहुत आर्थिक, शारीरिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से बहुत शक्तिशाली होने के उपरांत भी अगर वह छोटी छोटी चीजों के लिए नियत खराब कर लेता हैं, इंसाफ और सच की कदर नहीं करता, अपने पर उपकार और विश्वास करने वालों के साथ दगाबाजी कर देता हैं, या अपने तुच्छ फायदे और स्वार्थ पूर्ति के लिए दूसरे इंसान को बड़ा नुकसान पहुंचाने की लिए तैयार हो जाता हैं, तो समझ लीजिए, खून में बहुत बड़ी खराबी हैं । बाकी सब तो पीतल पर चढ़ा हुआ सोने का मुलम्मा हैं.

मनीष कुमार सोलंकी

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प्रेम किया है पण्डित
संग कैसे छोड़ दूँगी ?__

(कहानी बड़ी जरूर है पर आपके चक्षु खोल देगी)


*"पण्डितराज -बनारस की एक सत्य अमर प्रेम कथा"*

सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध था, दूर दक्षिण में गोदावरी तट के एक छोटे राज्य की राज्यसभा में एक विद्वान ब्राह्मण सम्मान पाता था, नाम था जगन्नाथ शास्त्री। साहित्य के प्रकांड विद्वान, दर्शन के अद्भुत ज्ञाता। इस छोटे से राज्य के महाराज चन्द्रदेव के लिए जगन्नाथ शास्त्री सबसे बड़े गर्व थे। कारण यह, कि जगन्नाथ शास्त्री कभी किसी से शास्त्रार्थ में पराजित नहीं होते थे। दूर दूर के विद्वान आये और पराजित हो कर जगन्नाथ शास्त्री की विद्वता का ध्वज लिए चले गए।
पण्डित जगन्नाथ शास्त्री की चर्चा धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में होने लगी थी। उस समय दिल्ली पर मुगल शासक शाहजहाँ का शासन था। शाहजहाँ मुगल था, सो भारत की प्रत्येक सुन्दर वस्तु पर अपना अधिकार समझना उसे जन्म से सिखाया गया था। पण्डित जगन्नाथ की चर्चा जब शाहजहाँ के कानों तक पहुँची तो जैसे उसके घमण्ड को चोट लगी। “मुगलों के युग में एक तुच्छ ब्राह्मण अपराजेय हो, यह कैसे सम्भव है?”, शाह ने अपने दरबार के सबसे बड़े मौलवियों को बुलवाया और जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को शास्त्रार्थ में पराजित करने के आदेश के साथ महाराज चन्द्रदेव के राज्य में भेजा। ” जगन्नाथ को पराजित कर उसकी शिखा काट कर मेरे कदमों में डालो….” शाहजहाँ का यह आदेश उन चालीस मौलवियों के कानों में स्थायी रूप से बस गया था।
सप्ताह भर पश्चात मौलवियों का दल महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में पण्डित जगन्नाथ को शास्त्रार्थ की चुनौती दे रहा था। गोदावरी तट का ब्राह्मण और अरबी मौलवियों के साथ शास्त्रार्थ, पण्डित जगन्नाथ नें मुस्कुरा कर सहमति दे दी। मौलवी दल ने अब अपनी शर्त रखी, “पराजित होने पर शिखा देनी होगी…”। पण्डित की मुस्कराहट और बढ़ गयी, “स्वीकार है, पर अब मेरी भी शर्त है। आप सब पराजित हुए तो मैं आपकी दाढ़ी उतरवा लूंगा।”
मुगल दरबार में “जहाँ पेंड़ न खूंट वहाँ रेंड़ परधान” की भांति विद्वान कहलाने वाले मौलवी विजय निश्चित समझ रहे थे, सो उन्हें इस शर्त पर कोई आपत्ति नहीं हुई।
शास्त्रार्थ क्या था; खेल था। अरबों के पास इतनी आध्यात्मिक पूँजी कहाँ जो वे भारत के समक्ष खड़े भी हो सकें। पण्डित जगन्नाथ विजयी हुए, मौलवी दल अपनी दाढ़ी दे कर दिल्ली वापस चला गया…
दो माह बाद महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में दिल्ली दरबार का प्रतिनिधिमंडल याचक बन कर खड़ा था, “महाराज से निवेदन है कि हम उनकी राज्य सभा के सबसे अनमोल रत्न पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को दिल्ली की राजसभा में सम्मानित करना चाहते हैं, यदि वे दिल्ली पर यह कृपा करते हैं तो हम सदैव आभारी रहेंगे”।
मुगल सल्तनत ने प्रथम बार किसी से याचना की थी। महाराज चन्द्रदेव अस्वीकार न कर सके। पण्डित जगन्नाथ शास्त्री दिल्ली के हुए, शाहजहाँ नें उन्हें नया नाम दिया “पण्डितराज”।
दिल्ली में शाहजहाँ उनकी अद्भुत काव्यकला का दीवाना था, तो युवराज दारा शिकोह उनके दर्शन ज्ञान का भक्त। दारा शिकोह के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव पण्डितराज का ही रहा, और यही कारण था कि मुगल वंश का होने के बाद भी दारा मनुष्य बन गया।
मुगल दरबार में अब पण्डितराज के अलंकृत संस्कृत छंद गूंजने लगे थे। उनकी काव्यशक्ति विरोधियों के मुह से भी वाह-वाह की ध्वनि निकलवा लेती। यूँ ही एक दिन पण्डितराज के एक छंद से प्रभावित हो कर शाहजहाँ ने कहा- अहा! आज तो कुछ मांग ही लीजिये पंडितजी, आज आपको कुछ भी दे सकता हूँ।
पण्डितराज ने आँख उठा कर देखा, दरबार के कोने में एक हाथ माथे पर और दूसरा हाथ कमर पर रखे खड़ी एक अद्भुत सुंदरी पण्डितराज को एकटक निहार रही थी। अद्भुत सौंदर्य, जैसे कालिदास की समस्त उपमाएं स्त्री रूप में खड़ी हो गयी हों। पण्डितराज ने एक क्षण को उस रूपसी की आँखों मे देखा, मस्तक पर त्रिपुंड लगाए शिव की तरह विशाल काया वाला पण्डितराज उसकी आँख की पुतलियों में झलक रहा था। पण्डित ने मौन के स्वरों से ही पूछा- चलोगी?
लवंगी की पुतलियों ने उत्तर दिया- अविश्वास न करो पण्डित! प्रेम किया है….
पण्डितराज जानते थे यह एक नर्तकी के गर्भ से जन्मी शाहजहाँ की पुत्री ‘लवंगी’ थी। एक क्षण को पण्डित ने कुछ सोचा, फिर ठसक के साथ मुस्कुरा कर कहा-
न याचे गजालीम् न वा वजीराजम्
न वित्तेषु चित्तम् मदीयम् कदाचित।
इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तकुम्भा,
लवंगी कुरंगी दृगंगी करोतु।।
शाहजहाँ मुस्कुरा उठा! कहा- लवंगी तुम्हारी हुई पण्डितराज। यह भारतीय इतिहास की “एकमात्र घटना” है जब किसी मुगल ने किसी हिन्दू को बेटी दी थी। लवंगी अब पण्डित राज की पत्नी थी।
युग बीत रहा था। पण्डितराज दारा शिकोह के गुरु और परम् मित्र के रूप में ख्यात थे। समय की अपनी गति है। शाहजहाँ के पराभव, औरंगजेब के उदय और दारा शिकोह की निर्मम हत्या के पश्चात पण्डितराज के लिए दिल्ली में कोई स्थान नहीं रहा। पण्डित राज दिल्ली से बनारस आ गए, साथ थी उनकी प्रेयसी लवंगी।


बनारस तो बनारस है, वह अपने ही ताव के साथ जीता है। बनारस किसी को इतनी सहजता से स्वीकार नहीं कर लेता। और यही कारण है कि बनारस आज भी बनारस है, नहीं तो अरब की तलवार जहाँ भी पहुँची वहाँ की सभ्यता-संस्कृति को खा गई। यूनान, मिश्र, फारस, इन्हें सौ वर्ष भी नहीं लगे समाप्त होने में, बनारस हजार वर्षों तक प्रहार सहने के बाद भी “ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा….” गा रहा है। बनारस ने एक स्वर से पण्डितराज को अस्वीकार कर दिया। कहा- लवंगी आपके विद्वता को खा चुकी, आप सम्मान के योग्य नहीं।
तब बनारस के विद्वानों में पण्डित अप्पय दीक्षित और पण्डित भट्टोजि दीक्षित का नाम सबसे प्रमुख था, पण्डितराज का विद्वत समाज से बहिष्कार इन्होंने ही कराया।
पर पण्डितराज भी पण्डितराज थे, और लवंगी उनकी प्रेयसी। जब कोई कवि प्रेम करता है तो कमाल करता है। पण्डितराज ने कहा- लवंगी के साथ रह कर ही बनारस की मेधा को अपनी सामर्थ्य दिखाऊंगा।
पण्डितराज ने अपनी विद्वता दिखाई भी, पंडित भट्टोजि दीक्षित द्वारा रचित काव्य “प्रौढ़ मनोरमा” का खंडन करते हुए उन्होंने ” प्रौढ़ मनोरमा कुचमर्दनम” नामक ग्रन्थ लिखा। बनारस में धूम मच गई, पर पण्डितराज को बनारस ने स्वीकार नहीं किया।
पण्डितराज नें पुनः लेखनी चलाई, पण्डित अप्पय दीक्षित द्वारा रचित “चित्रमीमांसा” का खंडन करते हुए ” चित्रमीमांसाखंडन” नामक ग्रन्थ रच डाला।
बनारस अब भी नहीं पिघला, बनारस के पंडितों ने अब भी स्वीकार नहीं किया पण्डितराज को।
पण्डितराज दुखी थे, बनारस का तिरस्कार उन्हें तोड़ रहा था।
असाढ़ की सन्ध्या थी। गंगा तट पर बैठे उदास पण्डितराज ने अनायास ही लवंगी से कहा- गोदावरी चलोगी लवंगी? वह मेरी मिट्टी है, वह हमारा तिरस्कार नहीं करेगी।
लवंगी ने कुछ सोच कर कहा- गोदावरी ही क्यों, बनारस क्यों नहीं? स्वीकार तो बनारस से ही करवाइए पंडीजी।
पण्डितराज ने थके स्वर में कहा- अब किससे कहूँ, सब कर के तो हार गया…
लवंगी मुस्कुरा उठी, “जिससे कहना चाहिए उससे तो कहा ही नहीं। गंगा से कहो, वह किसी का तिरस्कार नहीं करती। गंगा ने स्वीकार किया तो समझो शिव ने स्वीकार किया।”
पण्डितराज की आँखे चमक उठीं। उन्होंने एकबार पुनः झाँका लवंगी की आँखों में, उसमें अब भी वही बीस वर्ष पुराना उत्तर था-“प्रेम किया है पण्डित! संग कैसे छोड़ दूंगी?”
पण्डितराज उसी क्षण चले, और काशी के विद्वत समाज को चुनौती दी-” आओ कल गंगा के तट पर, तल में बह रही गंगा को सबसे ऊँचे स्थान पर बुला कर न दिखाया, तो पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग अपनी शिखा काट कर उसी गंगा में प्रवाहित कर देगा……”
पल भर को हिल गया बनारस, पण्डितराज पर अविश्वास करना किसी के लिए सम्भव नहीं था। जिन्होंने पण्डितराज का तिरस्कार किया था, वे भी उनकी सामर्थ्य जानते थे।
अगले दिन बनारस का समस्त विद्वत समाज दशाश्वमेघ घाट पर एकत्र था।
पण्डितराज घाट की सबसे ऊपर की सीढ़ी पर बैठ गए, और गंगलहरी का पाठ प्रारम्भ किया। लवंगी उनके निकट बैठी थी।
गंगा बावन सीढ़ी नीचे बह रही थी। पण्डितराज ज्यों ज्यों श्लोक पढ़ते, गंगा एक एक सीढ़ी ऊपर आती। बनारस की विद्वता आँख फाड़े निहार रही थी।
गंगलहरी के इक्यावन श्लोक पूरे हुए, गंगा इक्यावन सीढ़ी चढ़ कर पण्डितराज के निकट आ गयी थी। पण्डितराज ने पुनः देखा लवंगी की आँखों में, अबकी लवंगी बोल पड़ी- क्यों अविश्वास करते हो पण्डित? प्रेम किया है तुमसे…
पण्डितराज ने मुस्कुरा कर बावनवाँ श्लोक पढ़ा। गंगा ऊपरी सीढ़ी पर चढ़ी और पण्डितराज-लवंगी को गोद में लिए उतर गई।
बनारस स्तब्ध खड़ा था, पर गंगा ने पण्डितराज को स्वीकार कर लिया था।
तट पर खड़े पण्डित अप्पाजी दीक्षित ने मुह में ही बुदबुदा कर कहा- क्षमा करना मित्र, तुम्हें हृदय से लगा पाता तो स्वयं को सौभाग्यशाली समझता, पर धर्म के लिए तुम्हारा बलिदान आवश्यक था। बनारस झुकने लगे तो सनातन नहीं बचेगा।

युगों बीत गए। बनारस है, सनातन है, गंगा है, तो उसकी लहरों में पण्डितराज भी हैं।

पूनम सोनी मा

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(((( सत्संग से संस्कार ))))
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एक संत के पास बहरा आदमी सत्संग सुनने आता था। उसे कान तो थे पर वे नाड़ियों से जुड़े नहीं थे।
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एकदम बहरा, एक शब्द भी सुन नहीं सकता था। किसी ने संतश्री से कहाः
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बाबा जी ! वे जो वृद्ध बैठे हैं, वे कथा सुनते-सुनते हँसते तो हैं पर वे बहरे हैं।”
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बहरे मुख्यतः दो बार हँसते हैं – एक तो कथा सुनते-सुनते जब सभी हँसते हैं तब और दूसरा, अनुमान करके बात समझते हैं तब अकेले हँसते हैं।
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बाबा जी ने कहाः “जब बहरा है तो कथा सुनने क्यों आता है ? रोज एकदम समय पर पहुँच जाता है।
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चालू कथा से उठकर चला जाय ऐसा भी नहीं है, घंटों बैठा रहता है।”
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बाबाजी सोचने लगे, “बहरा होगा तो कथा सुनता नहीं होगा और कथा नहीं सुनता होगा तो रस नहीं आता होगा।
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रस नहीं आता होगा तो यहाँ बैठना भी नहीं चाहिए, उठकर चले जाना चाहिए। यह जाता भी नहीं है !”
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बाबाजी ने उस वृद्ध को बुलाया और उसके कान के पास ऊँची आवाज में कहाः “कथा सुनाई पड़ती है ?”
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उसने कहाः “क्या बोले महाराज ?”
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बाबाजी ने आवाज और ऊँची करके पूछाः “मैं जो कहता हूँ, क्या वह सुनाई पड़ता है ?”
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उसने कहाः “क्या बोले महाराज ?”
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बाबाजी समझ गये कि यह नितांत बहरा है। बाबाजी ने सेवक से कागज कलम मँगाया और लिखकर पूछा।
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वृद्ध ने कहाः “मेरे कान पूरी तरह से खराब हैं। मैं एक भी शब्द नहीं सुन सकता हूँ।”
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कागज कलम से प्रश्नोत्तर शुरू हो गया।
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“फिर तुम सत्संग में क्यों आते हो ?”
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“बाबाजी ! सुन तो नहीं सकता हूँ लेकिन यह तो समझता हूँ कि ईश्वरप्राप्त महापुरुष जब बोलते हैं तो पहले परमात्मा में डुबकी मारते हैं।
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संसारी आदमी बोलता है तो उसकी वाणी मन व बुद्धि को छूकर आती है…
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लेकिन ब्रह्मज्ञानी संत जब बोलते हैं तो उनकी वाणी आत्मा को छूकर आती हैं।
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मैं आपकी अमृतवाणी तो नहीं सुन पाता हूँ पर उसके आंदोलन मेरे शरीर को स्पर्श करते हैं।
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दूसरी बात, आपकी अमृतवाणी सुनने के लिए जो पुण्यात्मा लोग आते हैं उनके बीच बैठने का पुण्य भी मुझे प्राप्त होता है।”
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बाबा जी ने देखा कि ये तो ऊँची समझ के धनी हैं।
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उन्होंने कहाः “आप दो बार हँसना, आपको अधिकार है किंतु मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप रोज सत्संग में समय पर पहुँच जाते हैं और आगे बैठते हैं, ऐसा क्यों ?”
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“मैं परिवार में सबसे बड़ा हूँ। बड़े जैसा करते हैं वैसा ही छोटे भी करते हैं।
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मैं सत्संग में आने लगा तो मेरा बड़ा लड़का भी इधर आने लगा। शुरुआत में कभी-कभी मैं बहाना बना के उसे ले आता था।
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मैं उसे ले आया तो वह अपनी पत्नी को यहाँ ले आया, पत्नी बच्चों को ले आयी – सारा कुटुम्ब सत्संग में आने लगा, कुटुम्ब को संस्कार मिल गये।”
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ब्रह्मचर्चा, आत्मज्ञान का सत्संग ऐसा है कि यह समझ में नहीं आये तो क्या…
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सुनाई नहीं देता हो तो भी इसमें शामिल होने मात्र से इतना पुण्य होता है कि व्यक्ति के जन्मों-जन्मों के पाप-ताप मिटने एवं एकाग्रतापूर्वक सुनकर इसका मनन-निदिध्यासन करे उसके परम कल्याण में संशय ही क्या ! ((((((( जय जय श्री राधे )))))))

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

મારા નાના ગામડા ગામમાં મારો Audi ગાડી માં બેસી…
પ્રવેશ થયો…સાથે હું વિચારી રહ્યો હતો જીવન એ કર્મ ની ખેતી છે..જેવું વાવો તેવું લણો..

ગામમાં એક ટેકરી હતી જ્યાં એક ઘટાદાર ઝાડ અને ઝાડ નીચે બેચાર બાંકડા અને તેની બાજુ માં એક ગોળ ઓટલા ઉપર ભગવાની નાની દેરી..ત્યાં એક ચા અને નાસ્તા ની લારી ઉભી રહેતી…..

હું કાર માંથી નીચે ઉતર્યો…. ગામડા ની માટી ને માથે ચઢાવી…અમારા તૂટેલા ઝૂંપડા જેવા મકાન સામે જોઈ ભીની આંખે મારા ભૂતકાળ ની દુઃખદ ક્ષણો હું યાદ કરી રહ્યો હતો..થોડી વાર પછી મેં અમારા ખેતર સામે જોયું…
ખેતર ની વચ્ચે એક ઝાડ…અને એ ઝાડ ની નીચે મારા બાપ સાથે ગાળેલ આનંદ ની ક્ષણો પણ હું યાદ કરવા લાગ્યો….આ એ ઝાડ છે જ્યાં મારા બાપે ખેતીમાં દેવું વધી જવાથી ગળે ફાંસો ખાઈ આત્મહત્યા કરી હતી…માઁ નો પ્રેમ તો મેં જોયો જ ન હતો મારા જન્મ ની સાથે તેની કાયમી વિદાય …
કોટ ના ખિસ્સા માંથી રૂમાલ.કાઢી મેં આંખ લૂછી…

મેં ટેકરી નીચે ઉભા રહી ઉપર નજર કરી…એજ બે ચાર બાંકડા, ચા નાસ્તા ની લારી ઉભી હતી..

હું ધીરા પગલે ટેકરી ચઢવા લાગ્યો..એક એક ડગલે ..હું મારા ભૂતકાળ માં જઈ રહ્યો હતો..

પપ્પા ની અચાનક વિદાય થી હું હિંમત હારી ગયો હતો.. ન આર્થિક સપોર્ટ ન માનસિક..મારે જવું ક્યાં…? એ મારા માટે મોટો સવાલ હતો…
આ ટેકરી ઉપર આવનાર ઘણા લોકો મને કપડાં અને મારા દેખાવ ઉપર થી પાગલ ગણતા હતા..લગભગ આ ટેકરી એ મારુ જીવન અને આશ્રય બની ગયું…હતું..કોઈ વખત રાત્રે બાંકડા ઉપર જ સુઈ જતો…આંસુ પણ ખૂટી ગયા હતા..પેટ ને પણ ભુખ્યા રહેવાની આદત ધીરે ધીરે પડી ગઈ હતી..
ભગવાન ની દેરી સામે જોઈ હું કહેતો સજા કરવા પણ પ્રભુ તને હું જ મળ્યો..એટલી કસોટી પણ ન કરતો કે તારા માંથી મને શ્રદ્ધા ઉઠી જાય..

આવા વિપરીત સંજોગો માં કોઈ આપણને સમજે કે લાગણી આપે એ વ્યક્તિ દેવદૂત થી કમ હોતા નથી..
આ ટેકરી ઉપર રોજ ગોપાલકાકા ચા પીવા આવતા..તેને ચા નાસ્તાની લારી વાળા ને કીધું હતું….આ છોકરા ને દિવસ માં બે વખત ચા અને બે વખત નાસ્તો આપવો…
રૂપિયા નો હિસાબ મારી સાથે કરી લેવો..

આજે આ ગોપલકાકા નું ઋણ ઉતારવા હું 17 વર્ષ પછી મારા ગામ માં આવ્યો છું…

હું ધીરે પગલે ટેકરી ચઢી…દેરી માં બેઠેલા ભગવાન ને બે હાથ જોડી માથું ટેકવી કીધું..ભગવાન તારો જીગલો….

પછી હું બાંકડે બેઠો.. ફરીથી દૂર દૂર નજર કરી પપ્પા અને મારા ખેતર ને યાદ કરતો હતો..ત્યાં ચા ની લારી ઉપર થી છોટુ નો અવાજ આવ્યો સાહેબ ચા કે કોફી….છોટુ પણ ઉમ્મર માં મોટો થઈ ગયો હતો.. એ મને ઓળખી ન શક્યો
પણ હું તેને ઓળખતો હતો…

મેં કીધું છોટુ…એક ચા અને નાસ્તો…રૂપિયા ગોપલકાકા ના હિસાબ માં લખી લેજે…છોટુ એ ઝીણી નજર થી મારી સામે જોયું…તે વિચારવા લાગ્યો આ અજાણી વ્યક્તિ મારુ અને ગોપલ કાકા નું નામ કેવી રીતે જાણે ?

એ દોડતો આવી મારા પગ પાસે બેસી ગયો અરે જીગાભાઈ તમે? તમે તો ઓળખાતા નથી..બહુ મોટા સાહેબ બની ગયા લાગો છો

મેં ભીની આંખે કીધું અરે છોટુ મારે ક્યાં સાહેબ બનવું હતું મારે તો ખેતર ખેડવું હતું….સંજોગો એ મને ખેડૂત માંથી બિઝનેસમેંન બનાવી દીધો…

છોટુ ની પણ આંખો ભીની થઇ ગઇ….તમારી તકલીફો, એકલતા..અને આંસુઓ નો હું સાક્ષી છું….બહુ કપરા દિવસો તમે પસાર કર્યા હતા…

છોટુ..ગોપલકાકા ગામ માં ક્યાંય દેખાતા નથી…ઘરે તાળું છે…તેમનું ઋણ ઉતારવા અહીં હું આવ્યો છું…
છોટુ બોલ્યો..ગોપલદાદા તો બહુ દુઃખી છે….દીકરા ને રૂપિયા ખર્ચી ભણાવ્યો..નોકરી સારી મળી ગઈ પછી .
નથી રૂપિયા મોકલતો નથી કદી બાપ ને મળવા આવતો..

ભગવાને તમને યોગ્ય સમયે મોકલ્યા છે…આપણા ગામ ના મંદિર માં એક ઓરડી ગામવાળા એ દયા રાખી તેમને આપી છે…

મેં ઉભા થતા છોટુ ના હાથ માં એક બંધ કવર મૂક્યું…અને કીધું છોટુ..ઉપકાર કે પ્રેમ ની કિમત આંકવા માટે નથી મારી
લાયકાત કે નથી મારી હેસિયત કે નથી.મારી પાસે શબ્દો
તે પણ મારા ખરાબ સમય માં મને ઘણી તારાથી થતી મદદ કરેલ છે..એક વખત તો હું ઠંડી ની સીઝન માં બાંકડા ઉપર સૂતો હતો ત્યારે ગરમ ધાબળો તેં મને ઓઢાડ્યો હતો… એ હજુ ભુલ્યો નથી….દોસ્ત….આ મારું કાર્ડ તારી પાસે રાખ..મુસીબત વખતે વિના સંકોચે મને ફોન કરજે….ચાલ જયશ્રી કૃષ્ણ ..

ફરીથી દેરી ના ભગવાન ને પગે લાગી કીધું..
હું તને ભુલ્યો..નથી હવે અહીં દેરી નહિ અહીં તારું મોટું મંદિર બનશે..મારી શ્રદ્ધા ડગી જાય તે પહેલાં તેં મારા જીવન નું સુકાન સંભાળી લીધું

હું ગામ ના મંદિર તરફ આગળ વધ્યો….મંદિર ના ખૂણા માં ઓરડી ની અંદર જ્યારે મેં પ્રેવેશ કર્યો..ત્યારે ગોપાલ કાકા ખાટલામાં બેઠા હતા…વર્ષો પહેલા ની મારી દશા જેવી દશા તેમની હતી ગોપલકાકા ના ચ્હેરા ઉપર ઘડપણ દેખાતું હતું…આંખે કાળા કુંડાળા..ગાલ માં ખાડાપડી ગયા હતા… મેં કીધું જય શ્રી ક્રિષ્ન ગોપલકાકા

એ બોલ્યા આવ બેટા… મેં તને ઓળખ્યો નહિ…હું તેમને પગે લાગ્યો…મેં કીધું ઓળખી ને શું કરશો કાકા ? માણસ ને સમજવામાં માં મજા છે. એ ઓળખવા માં નથી ..

મેં કીધું કાકા…હું તમારું ઋણ ઉતારવા આવ્યો છું…હું જીગલો….જીગર

અરે બેટા આવડો મોટો થઈ ગયો….અચાનક ગામ તરફ ભુલા પડવા નું કારણ…

કાકા ઋણાનુબંધ જે જગ્યા અને જે વ્યક્તિ સાથે લખ્યું હોય ત્યાં આપણે ખેંચાવું જ પડે… તમારા આ ઓરડી માં રહેવા ના દીવસો હવે પુરા થયા..હવે તમારે મારી સાથે મારા ઘરે આવવા નું છે…

બેટા એવું કેવી રીતે બને…?

મેં ભીની આંખે કીધું.. એક દીકરા એ હાથ અને સાથ છોડ્યો…તો બીજા દીકરા એ પકડ્યો….એવું સમજી લ્યો…કરેલા સ્તકર્મ કદી નકામા જતા નથી..તમારા સ્તકર્મ ની યાદી ભલે તમે ન રાખો પણ પ્રભુ એ હંમેશા યાદ રાખે છે….કાકા તમે મારા ભુખ્યા પેટ માં વગર કોઈ અપેક્ષાએ અન્ન નાખવાનું પુણ્ય નું કાર્ય એ વખતે કર્યું હતું…

કાકા બોલ્યા બેટા જે સંતાનો માટે જાત ઘસી નાખી…તેને ભણાવવા રૂપિયા ખર્ચી નાખ્યા તે ઉપકાર ભૂલી ગયા અને મેં તારી મુસીબત ના સમય માં ફક્ત બે વખત તને ચા નાસ્તો કરાવ્યો એ ઉપકાર તેં આજ ના દિવસ સુધી યાદ રાખ્યો…ધન્ય છે બેટા

મેં કીધું.. ગોપલકાકા તમારો છોકરો ક્યાં નોકરી કરે છે…

ગોપાલ કાકા એ ગાદલા નીચે થી કાર્ડ કાઢી મને આપ્યું… બેટા અહીં નોકરી કરે છે..એવું આપણા ગામ ના એક છોકરા એ મને કીધુ હતું…

હું કાર્ડ જોઈ હસી પડ્યો..પણ હું કંઈ બોલ્યો નહિ..

હું અને ગોપાલકાકા કાર માં બેઠા…રસ્તા માં ગોપલકાકા કહે બેટા તું આવડો મોટો વ્યક્તિ કેવી રીતે બની ગયો..

કાકા એક રાત્રે આપણી ટેકરી ઉપર હું બાંકડે સૂતો હતો..
વહેલી સવારે ભગવાન ની દેરી પાસે પોટલું જોયું..મેં તે ખોલ્યું…તો અંદર પુષ્કળ સોનાના ઘરેણાં..હતા…મેં ભગવાન સામે જોયું..પોલીસ ને આપું કે હું રાખી લઉં એ ગડમથલ માં એક ઘરેણાં ની ડબ્બી માંથી બિલ નીકળ્યું તેમાં મોબાઈલ નંબર હતો અને ખરીદનાર નું નામ પણ હતું..આ પોટલાં નો સાચો માલિક મને મળી ગયો..ગરીબી હતી પણ ઈમાનદારી લોહી માં હતી… મેં એ મોબાઈલ લગાવી વિગતે વાત કરી ત્યારે ખબર પડી….તેમના ઘરે ચોરી થઈ હતી….હું સમજી ગયો ચોર ની પાછળ પોલીસ પડી હશે એટલે ચોર પોટલું મૂકી ભાગી ગયો હશે..

બીજે દિવસે જ્યારે પોટલાં ના માલિક ના ઘરે હું ગયો ત્યારે…તેમનું હવેલી જેવડુ ઘર જોઈ મને ચક્કર આવી ગયા… તેમણેે મને આવકાર્યો અને કીધું તમારા ચહેરા ઉપર થી તમે દુઃખી અને જરૂરિયાત વાળા લાગો છો…છતાં પણ તમારા ચહેરા ઉપર સ્વમાન અને ઈમાનદારી નું તેજ દેખાય છે….આ ઘરેણાં ની કિંમત કરોડ રૂપિયા ઉપર થાય છે..

બેટા…તારું નામ

જીગર…

મારી.કંપની માં તારા જેવા યુવાન ની જરૂર છે..નોકરી કરીશ….

મેં હા પાડી…

મારા ઋણાનુબંધ એ પરિવાર સાથે જોડાયા હશે..તેમને કોઈ સંતાન ન હતું..તેથી ધીરે ધીરે તેમની કંપની માં મને પાર્ટનર બનાવ્યો .આજે મેં મહેનત ઈમાનદારી ઉપર .કરોડો રૂપિયા નું સામ્રાજ્ય ઉભું કર્યું છે…અને ગોપાલ કાકા
કુદરત ની કમાલ તો જોવો..આ પરિવાર નિઃસંતાન હોવાથી તેમની ગેરહાજરી માં તેમની તમામ મિલ્કતો નો હકદાર તેમણે મને બનાવ્યો છે..

ગોપલકાકા બોલ્યા..બેટા જન્મ આપે જનેતા અને ભાગ્ય લખે કોઈ….ભગવાને તારી જીંદગી માં ટર્નીગપોઇન્ટ લાવવા ચોર ને તો માત્ર નિમિત બનાવ્યો….

વાત સાચી કાકા .
પણ તમે જે કાર્ડ મને બતાવ્યું..એ મારી કંપની નું છે..મતલબ તમારો છોકરો મારી કંપની માં નોકરી કરે છે..તમે કહેતા હોંતો તેને કાલ થી કાઢી મેલું…

ના બેટા દરેક વ્યક્તિ ને તેના કર્મ ની સજા અથવા પુણ્ય નું ફળ મળે છે..એ મેં તારા કિસ્સા ઉપર થી જોઈ લીધું..

હુ એક નિસ્વાર્થ બાપ સામે જોતો રહ્યો..એટલે જ કીધું છે…પુત્ર કપુત્ર થાય પણ માંવતાર કમાવતર કદી ન થાય.

અજ્ઞાત…

ભરતસિંહ પરમાર