Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

बन्दरोंकीज़िद

एक बार कुछ वैज्ञानिकों ने एक बड़ा ही रोचक प्रयोग किया। उन्होंने 5 बन्दरों को एक बड़े से पिंजरे में बन्द कर दिया और बीचो-बीच एक सीढ़ी लगा दी जिसके ऊपर पके केले लटक रहे थे। जैसा कि अनुमान था, एक बन्दर की नज़र केलों पर पड़ी, वह उन्हें खाने के लिए दौड़ा, पर जैसे ही उसने कुछ सीढ़ियां चढ़ी उस पर ठण्डे पानी की तेज धार डाल दी गयी और उसे उतर कर भागना पड़ा।

पर वैज्ञानिक यहीं नहीं रुके, उन्होंने एक बन्दर के किये गए प्रयास की सजा बाकी बन्दरों को भी दे डाली और सभी को ठण्डे पानी से भिगो दिया।

बेचारे बन्दर हक्के-बक्के एक कोने में दुबक कर बैठ गए, पर वे कब तक बैठे रहते, कुछ समय बाद एक दूसरे बन्दर को केले खाने का मन किया.और वो उछलता कूदता सीढ़ी की तरफ दौड़ा। अभी उसने चढ़ना शुरू ही किया था कि पानी की तेज धार से उसे नीचे गिरा दिया गया। और इस बार भी इस बन्दर की गलती की सज़ा बाकी बन्दरों को भी दी गयी यानि सबको फिर ठंडे पानी से भिगाया गया। एक बार फिर बेचारे बन्दर सहमे हुए एक जगह बैठ गए। थोड़ी देर बाद जब तीसरा बन्दर केलों को खाने के लिए लपका तो एक अजीब घटना हुई। बाकी के बन्दर उस पर टूट पड़े और उसे केले खाने से रोक दिया, ताकि एक बार फिर उन्हें ठण्डे पानी की सज़ा ना भुगतनी पड़े। अब प्रयोगकारों ने एक और मजेदार चीज़ की। अन्दर बन्द बन्दरों में से एक को बाहर निकाल दिया और एक नया बन्दर अन्दर डाल दिया। नया बन्दर वहां के नियम क्या जाने। वह तुरन्त ही केलों की तरफ लपका। पर बाकी बन्दरों ने झट से उसकी पिटाई कर दी। उसे समझ नहीं आया कि आख़िर क्यों ये बन्दर ख़ुद भी केले नहीं खा रहे और उसे भी नहीं खाने दे रहे। ख़ैर उसे भी समझ आ गया कि केले सिर्फ देखने के लिए हैं, खाने के लिए नहीं। इसके बाद प्रयोगकारों ने एक और पुराने बन्दर को निकाला और एक और नया अन्दर कर दिया। इस बार भी वही हुआ नया बन्दर केलों की तरफ लपका पर बाकी के बन्दरों ने उसकी धुनाई कर दी।

इस बार मज़ेदार बात यह हुई कि पिछली बार आया नया बन्दर भी धुनाई करने में शामिल था, जबकि उसके ऊपर एक बार भी ठण्डा पानी नहीं डाला गया था। प्रयोग के अन्त में सभी पुराने बन्दर बाहर जा चुके थे और नए बन्दर अन्दर थे जिनके ऊपर एक बार भी ठण्डा पानी नहीं डाला गया था पर उनका स्वभाव भी पुराने बन्दरों की तरह ही था। वे भी किसी नए बन्दर को केलों को नहीं छूने देते। हमारे हिन्दू समाज में भी यही स्वभाव देखा जा सकता है। मुसलमानों के शासन काल में मार खा खाकर हमारे देश में भी हिन्दुओं की एक ऐसी प्रजाति विकसित हो गई है जो किसी भी कीमत पर अपने अन्दर के स्वाभिमान को जागृत नहीं होने देना चाहती और अगर कोई भी ऐसा प्रयास करता है उसे मूर्ख साबित करने में सारे उन्हीं बंदरों की तरह लग जाते हैं।

इस मनोवैज्ञानिक प्रयोग का, गांधी के तीन बन्दरों से सीधा सीधा लेना देना है!
बन्दर बने हुए सभी हिन्दुओं से निवेदन है कि, आत्म चिन्तन कर सकें तो शीघ्र करें।
Baljeet Singh Kharbanda जी की वॉल से

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🔴”बोले हुए शब्द वापस नहीं आते”🔴

एक बार एक किसान ने अपने पडोसी को भला बुरा कह दिया, पर जब बाद में उसे अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह एक संत के पास गया.उसने संत से अपने शब्द वापस लेने का उपाय पूछा.

संत ने किसान से कहा , ” तुम खूब सारे पंख इकठ्ठा कर लो , और उन्हें शहर के बीचो-बीच जाकर रख दो .” किसान ने ऐसा ही किया और फिर संत के पास पहुंच गया.

तब संत ने कहा , ” अब जाओ और उन पंखों को इकठ्ठा कर के वापस ले आओ”

किसान वापस गया पर तब तक सारे पंख हवा से इधर-उधर उड़ चुके थे. और किसान खाली हाथ संत के पास पहुंचा. तब संत ने उससे कहा कि ठीक ऐसा ही तुम्हारे द्वारा कहे गए शब्दों के साथ होता है,तुम आसानी से इन्हें अपने मुख से निकाल तो सकते हो पर चाह कर भी वापस नहीं ले सकते.

⭕️’इस कहानी से क्या सीख मिलती है !!

कुछ कड़वा बोलने से पहले ये याद रखें कि भला-बुरा कहने के बाद कुछ भी कर के अपने शब्द वापस नहीं लिए जा सकते. हाँ, आप उस व्यक्ति से जाकर क्षमा ज़रूर मांग सकते हैं, और मांगनी भी चाहिए, पर human nature कुछ ऐसा होता है की कुछ भी कर लीजिये इंसान कहीं ना कहीं hurt हो ही जाता है.

जब आप किसी को बुरा कहते हैं तो वह उसे कष्ट पहुंचाने के लिए होता है पर बाद में वो आप ही को अधिक कष्ट देता है. खुद को कष्ट देने से क्या लाभ, इससे अच्छा तो है की चुप रहा जाए.

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Posted in जीवन चरित्र

एक सच

“बहुत दिनों का बोझ था, अम्मा आज सब कुछ बता देंगे” –शास्त्री जी की पत्नी को यह कह कर शास्त्री जी के नौकर रहे रामनाथ, दिल्ली में मोतीलाल नेहरू के घर से संसद में शास्त्री जी की मृत्यु के सम्बन्ध में 1977 में जनता सरकार द्वारा बैठाई गई #रामनारायणइन्क्वायरी के समक्ष बयान देने के लिए घर से निकले। एक गाड़ी ने उन्हें टक्कर मारी, जिसमें वो बुरी तरह से घायल हुए। उनकी दोनों टांगें काटनी पड़ गयीं और उनकी याद्दाश्त चली गई।
इसी दिन मास्को दौरे पर शास्त्री जी के साथ गये उनके व्यक्तिगत चिकित्सक आर एन चुग अपना ब्यान देने दिल्ली आ रहे थे।अजीब संयोग था कि उनकी गाड़ी की भी दुर्घटनाग्रस्त हुई जिसमें उनकी, उनकी पत्नी और दो बेटोंकी मृत्यु हो गई। एक पुत्री बच गई परन्तु बहुत गम्भीर रुप से घायल हो गई।
शास्त्री जी देश को परमाणु शक्ति बनाना चाहते थे। 1966 में ही परमाणु वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा की संदेहास्पद मृत्यु हो गई।अंतरिक्ष एवं परमाणु वैज्ञानिक डॉ विक्रम साराभाई की संदेहास्पद मृत्यु हो गई । लेकिन इस कांग्रेस ने कोई जेपीसी या सीबीआई इनक्वायरी नहीं करवाई।
दूसरे परिदृश्य में यही कांग्रेस उग्रवादियों के साथ की मुठभेड़ों और बाटला हाउस पर रोती है और उनकी न्यायिक जांच चाहती है।
21दिसम्बर को सीबीआई जज ने सोहराबुद्दीन और प्रजापति की एंकाउंटर को पोलिटिकली मोटिवेटेड बताते हुए कहा कि अपराधी पहले तय कर लिए गये थे फिर जांच की गयी। अपने मित्रों के बीच हृदयाघात से शांत हुए जज लोया की कांग्रेस हाई लेवल कमेटी से जांच कराना चाहती है। भ्रष्ट सीबीआई के डायरेक्टर के पीछे अपनी पूरी ताकत लगा कर कांग्रेस खड़ी है । समझ में नहीं आता ये सब कुछ सार्वजनिक होने के बाद भी लोग कांग्रेस को वोट कैसे देते हैं????
आज 11जनवरी को शास्त्री जी की पुण्यतिथि पर बहुत सी ऐसी घटनाएं यूं हीं दिमाग में घूम गयीं।
शास्त्री जी को हमारा शत शत नमन।🙏🙏🙏🙏

विपिन खुराना

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दर्द को समझना सीखे हिंदी प्रेरक कहानी !

मानवता की झलक शिक्षाप्रद कहानी –✍️

हमारे जीवन में कई बार ऐसे मौके आते है जब हमें मानवता की झलक हमारे सामने ही दिख जाती है. मानवता सिर्फ यह नहीं होती की हम सब मनुष्य है तो मनुष्य का ही उपकार करे. बल्कि मानवता तो वह है जब हम किसी भी प्राणी या जानवर के मुसीबत में होने पर उसकी सहायता कर सके और उसकी सेवा कर सके.

ईश्वर ने मानवता का गुण डालकर मनुष्य को बहुत श्रेष्ठ बनाया है. आइये इस कहानी के माध्यम से इस बात को अच्छी तरह से समझते है.

पढ़िए….. _👌❤️

एक किसान के पास बहुत कुत्ते के बच्चें थे तो वह कुछ बच्चों को बेचना चाहता था. उसने घर के बाहर बिक्री का बोर्ड लगा दिया. एक दिन दस साल का बच्चा किसान के दरवाजे पर आया और बोला, ” मैं एक कुत्ते के बच्चें खरीदना चाहता हूँ. आप एक कुत्ते के बच्चें कितने रूपये में देंगे ?

किसान ने कहा, ” एक कुत्ते के बच्चें दौ सौ रूपये का है.

यह सुनकर वह लड़का बोला, ” मेरे पास अभी तो केवल सौ रूपये है. बाकी कीमत मैं आपको हर महीने 25 रूपये देकर चुकाऊंगा. क्या आप मुझे कुत्ते के बच्चें देंगे ?

किसान ने सौ रूपये लिए और कुत्ते के बच्चों को बुलाने के लिए सीटी बजायी. चार छोटे-छोटे कुत्ते के बच्चें बाहर आ गये. बच्चे ने एक कुत्ते के बच्चें को सहलाया. अचानक उसकी नजर पांचवे कुत्ते के बच्चें पर पड़ी. वह लंगडाकर चल रहा था.

मुझे वह कुत्ते के बच्चें चाहिए, ” बच्चे ने कहा. लेकिन वह तो तुम्हारे साथ खेल भी नहीं पायेगा. इसका तो एक पैर ख़राब है. कोई बात नहीं. मुझे वही कुत्ते के बच्चें पसंद है. मुझे इसी की जरुरत है,” बच्चा बोला.

तब तुम इसे ले जाओ. इसके दाम देने की आवश्यकता नहीं है – किसान बोला

नहीं यह कुत्ते के बच्चें भी उतना ही महत्वपूर्ण है और मैं आपको इसकी पूरी कीमत दूंगा,” बच्चा बोला.

लेकिन तुम्हे यह कुत्ते के बच्चें क्यों चाहिए ? जबकि इतने सारे और कुत्ते के बच्चें भी है- किसान बोला

ताकि उसका दर्द समझने और बांटने वाला भी कोई हो. ताकि वो दुनिया में खुद को अकेला न समझे. कहकर बच्चे ने कुत्ते के बच्चें उठाया और वापस चल दिया.

जब वह लड़का जाने लगा तब किसान ने देखा, वह बच्चा भी एक पैर में विशेष जूता पहने था. किसान सोचने लगा की एक ‘ घायल की गति घायल ही जान सकता है’.

दोस्तों ! इस कहानी में लड़के ने उस लंगड़े कुत्ते के बच्चें को इसलिए ख़रीदा क्योंकि वह उस पिल्ले के दुःख को जानता था. वह लड़का स्वयं भी एक पैर से लंगड़ा था. इसलिए उसने स्वस्थ और खुबसूरत पिल्ले लेने के बजाय लंगड़े हुए पिल्ले को चुना. दुःख तो हमारे जीवन का सबसे बड़ा रस है.

❤️__

जिसे जीवन में दुःख नहीं मिला उसे सुख की अनुभूति भला क्या होगी. जो स्वयं दुःख का अनुभव करता है वही दूसरे के दुःख को पहचान पाता है. यही मानवता का सबसे बड़ा गुण है. हमें जब कभी भी किसी दुखी और असहाय प्राणी या जीव – जंतु की सेवा का अवसर मिले तो उसे सच्चे मन से निभाना चाहिए. तभी हम मानव कहलाने के असली हकदार होंगे.

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क्षमा कीजिए
. पिताश्री !
=== ☆ ===
एक बार गणेशजी ने भगवान शिवजी से कहा कि
पिताजी ! आप यह चिताभस्म ,लगाकर, मुण्डमाला धारणकर अच्छे नहीं लगते, मेरी माता गौरी अपूर्व सुंदरी और आप उनके साथ इस भयंकर रूप में !
पिताजी ! आप एक बार कृपा करके अपने सुंदर रूप में माता के सम्मुख आएं, जिससे हम आपका असली स्वरूप देख सकें !
भगवान शिवजी मुस्कुराये और गणेशजी की बात मान ली !
कुछ समय बाद जब शिवजी स्नान करके लौटे तो उनके शरीर पर भस्म नहीं थी , बिखरी जटाएं सँवरी हुई, मुण्डमाला उतरी हुई थी !
सभी देवता, यक्ष, गंधर्व, शिवगण उन्हें अपलक देखते रह गये,
वो ऐसा रूप था कि मोहिनी अवतार रूप भी फीका पड़ जाये !
भगवान शिव ने अपना यह रूप कभी भी प्रकट नहीं किया था !
शिवजी का ऐसा अतुलनीय रूप कि करोड़ों कामदेव को भी मलिन कर रहा था !
गणेशजी अपने पिता की इस मनमोहक छवि को देखकर स्तब्ध रह गए और
मस्तक झुकाकर बोले –
मुझे क्षमा करें पिताजी !, परन्तु अब आप अपने पूर्व स्वरूप को धारण कर लीजिए !
. भगवान शिव मुस्कुराये और पूछा – क्यों पुत्र अभी तो तुमने ही मुझे इस रूप में देखने की इच्छा प्रकट की थी,
अब पुनः पूर्व स्वरूप में आने की बात क्यों ?
गणेशजी ने मस्तक झुकाये
. हुए ही कहा –
क्षमा करें पिताश्री ! . मेरी माता से सुंदर कोई और दिखे मैं ऐसा कदापि नहीं चाहता !
और शिवजी हँसे और अपने पुराने स्वरूप में लौट आये !
पौराणिक ऋषि
. इस प्रसंग का सार स्पष्ट करते हुए कहते हैं……
आज भी ऐसा ही होता है पिता रुद्र रूप में रहता है क्योंकि उसके ऊपर परिवार की जिम्मेदारियों अपने परिवार का रक्षण ,उनके मान सम्मान का ख्याल रखना होता है तो थोड़ा कठोर रहता है…
और माँ सौम्य,प्यार लाड़,स्नेह उनसे बातचीत करके प्यार देकर उस कठोरता का बैलेंस बनाती है ।। इसलिए सुंदर होता है माँ का स्वरूप . .

. प्रेम से बोलिए
. हर हर महादेव
पिता के ऊपर से भी जिम्मेदारियों का बोझ हट जाए तो वो भी बहुत सुंदर दिखता है ।

जय श्री गणेश

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(((( सिद्ध संत के शब्दो का प्रभाव ))))
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मुरैना क्षेत्र मध्य प्रदेश में एक निम्बार्क सम्प्रदाय के संत रहते थे जिनका नाम था श्री चतुर्दास जी।
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बाबा बड़े सिद्ध नाम जापक संत थे। अपना अधिकतम समय भगवान् के नाम् का जप करने में लगाते थे।
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निम्बार्क सम्प्रदाय मे यद्यपि श्री राधा कृष्ण नाम जपने की साधना परंपरा है परंतु बाबा की श्री राम नाम मे भी अद्भुत श्रद्धा थी।
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बाबा अधिक पढ़े लिखे भी नही थे, केवल हिंदी भाषांतर वाली गीता जी और श्री रामचरित मानस पढ़ लेते थे।
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वही पास मे एक गुफा थी जहां बाबा साधना करते थे।
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एक दिन उन्होंने एक अरब रामनाम करने का निश्चय किया। पूरा समय श्री राम नाम लेने में व्यस्त रहते थे, स्नान भोजन आदि बहुत शीघ्रता से कर लेते और शेष समय गुफा में बैठकर श्रीराम नाम करते रहते थे।
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रात्रि में बहुत कम समय विश्राम करते थे। विश्राम करने समय भी उनका कंठ हिलता रहता था।
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एक अरब राम नाम का जप पूरा होने पर बाबा बाहर आये। अब तो उनका एक एक क्षण श्रीराम नाम मे बीतने लाग, चलते फिरते, खाते पीते, विश्राम के समय भी राम नाम् चलता ही रहता।
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वाणी में अद्भुत सिद्धि प्रकट हो गयी।
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एक दिन बाबा बैठ कर नामजप कर रहे थे कि वहां से एक भेड़ बकरी चराने वाला गुजर रहा था।
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बाबा ने उससे कहा, सुनो ! ये भेड़ बकरी चराना तो तुम्हारा काम है परंतु कभी राम राम भी किया करो।
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बस इतना कहा कि वह बकरी चराने वाला राम नाम जप मे लग गया। वह संख्या पूर्वक लाखो की संख्या में राम नाम जपने लग गया।
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जिस किसी को बात बात मे भी बाबा यदि कह देते कि राम राम कह दिया करो। वे सभी लोग श्रीराम नाम के जप मे लग जाते।
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बैलगाड़ी वालो को, राह चलते लोगो को, बालको को, जिससे कह देते उसके जीवन मे नाम् जप प्रारम्भ हो जाता।
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चाहे कोई भक्त हो, अभक्त हो, दुष्ट हो बाबा जिससे राम राम बोलने को कह देते वह निष्ठा पूर्वक राम नाम मे अपना जीवन व्यतीत करता।
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ऐसे महान सिद्ध नामजपक हुए श्री चतुर्दास बाबा।
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साभार :- श्री भक्तमाल कथा ((((((( जय जय श्री राधे )))))))

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एक निर्धन ब्राह्मण यात्रा करते-करते किसी नगर से गुजर रहा था, बड़े-बड़े महल एवं अट्टालिकाओं को देखकर ब्राह्मण भिक्षा माँगने गया, किन्तु उस नगर मे किसी ने भी उसे दो मुट्ठी अन्न नहीं दिया।

आखिर दोपहर हो गयी ,तो ब्राह्मण दुःखी होकर अपने भाग्य को कोसता हुआ जा रहा था, सोच रहा था “कैसा मेरा दुर्भाग्य है इतने बड़े नगर में मुझे खाने के लिए दो मुट्ठी अन्न तक नहीं मिला ? रोटी बना कर खाने के लिए दो मुट्ठी आटा तक नहीं मिला ?

इतने में एक सिद्ध संत की निगाह उस ब्राहम्ण पर पड़ी ,उन्होंने ब्राह्मण की बड़बड़ाहट सुन ली, वे बड़े पहुँचे हुए संत थे ,उन्होंने कहाः “हे दरिद्र ब्राह्मण तुम मनुष्य से भिक्षा माँगो, पशु क्या जानें भिक्षा देना ?”

यह सुनकर ब्राह्मण दंग रह गया और कहने लगाः “हे महात्मन् आप क्या कह रहे हैं ? बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में रहने वाले मनुष्यों से ही मैंने भिक्षा माँगी है”

महात्मा बोले, “नहीं ब्राह्मण मनुष्य शरीर में दिखने वाले वे लोग भीतर से मनुष्य नहीं हैं ,अभी भी वे पिछले जन्म के हिसाब से ही जी रहे हैं। कोई शेर की योनी से आया है तो कोई कुत्ते की योनी से आया है, कोई हिरण की योनी से आया है तो कोई गाय या भैंस की योनी से आया है ,उन की आकृति मानव-शरीर की जरूर है, किन्तु अभी तक उन में मनुष्यत्व निखरा नहीं है ,और जब तक मनुष्यत्व नहीं निखरता, तब तक दूसरे मनुष्य की पीड़ा का पता नहीं चलता। “दूसरे में भी मेरा प्रभु ही है” यह ज्ञान नहीं होता। तुम ने मनुष्यों से नहीं, पशुओं से भिक्षा माँगी है”।

ब्राह्मण का चेहरा दुःख व निराशा से भरा था। सिद्धपुरुष तो दूरदृष्टि के धनी होते हैं उन्होंने कहाः “देख ब्राह्मण, मैं तुझे यह चश्मा देता हूँ इस चश्मे को पहन कर जा और कोई भी मनुष्य दिखे, उस से भिक्षा माँग फिर देख, क्या होता है”

वह दरिद्र ब्राह्मण जहाँ पहले गया था, वहीं पुनः गया और योगसिद्ध कला वाला चश्मा पहनकर गौर से देखाः

‘ओहोऽऽऽऽ….वाकई कोई कुत्ता है कोई बिल्ली है तो कोई बघेरा है। आकृति तो मनुष्य की है ,लेकिन संस्कार पशुओं के हैं, मनुष्य होने पर भी मनुष्यत्व के संस्कार नहीं हैं’। घूमते-घूमते वह ब्राह्मण थोड़ा सा आगे गया तो देखा कि एक मोची जूते सिल रहा है, ब्राह्मण ने उसे गौर से देखा तो उस में मनुष्यत्व का निखार पाया।

ब्राह्मण ने उस के पास जाकर कहाः “भाई तेरा धंधा तो बहुत हल्का है ,औऱ मैं हूँ ब्राह्मण रीति रिवाज एवं कर्मकाण्ड को बड़ी चुस्ती से पालता हूँ ,मुझे बड़ी भूख लगी है ,इसीलिए मैं तुझसे माँगता हूँ ,क्योंकि मुझे तुझमें मनुष्यत्व दिखा है”

उस मोची की आँखों से टप-टप आँसू बरसने लगे वह बोलाः “हे प्रभु, आप भूखे हैं ? हे मेरे भग्वन आप भूखे हैं ? इतनी देर आप कहाँ थे ?”

यह कहकर मोची उठा एवं जूते सिलकर टका, आना-दो आना वगैरह जो इकट्ठे किये थे, उस चिल्लर (रेज़गारी) को लेकर हलवाई की दुकान पर पहुँचा और बोलाः “हलवाई भाई, मेरे इन भूखे भगवान की सेवा कर लो ये चिल्लर यहाँ रखता हूँ जो कुछ भी सब्जी-पराँठे-पूरी आदि दे सकते हो, वह इन्हें दे दो मैं अभी जाता हूँ”

यह कहकर मोची भागा,और घर जाकर अपने हाथ से बनाई हुई एक जोड़ी जूती ले आया, एवं चौराहे पर उसे बेचने के लिए खड़ा हो गया।

उस राज्य का राजा जूतियों का बड़ा शौकीन था, उस दिन भी उस ने कई तरह की जूतियाँ पहनीं, किंतु किसी की बनावट उसे पसंद नहीं आयी तो किसी का नाप नहीं आया, दो-पाँच बार प्रयत्न करने पर भी राजा को कोई पसंद नहीं आयी तो राजा मंत्री से क्रुद्ध होकर बोलाः

“अगर इस बार ढंग की जूती लाया तो जूती वाले को इनाम दूँगा ,और ठीक नहीं लाया तो मंत्री के बच्चे तेरी खबर ले लूँगा।”

दैव योग से मंत्री की नज़र इस मोची के रूप में खड़े असली मानव पर पड़ गयी जिस में मानवता खिली थी, जिस की आँखों में कुछ प्रेम के भाव थे, चित्त में दया-करूणा थी, ब्राह्मण के संग का थोड़ा रंग लगा था। मंत्री ने मोची से जूती ले ली एवं राजा के पास ले गया। राजा को वह जूती एकदम ‘फिट’ आ गयी, मानो वह जूती राजा के नाप की ही बनी थी। राजा ने कहाः “ऐसी जूती तो मैंने पहली बार ही पहन रहा हूँ ,किस मोची ने बनाई है यह जूती ?”

मंत्री बोला “हुजूर यह मोची बाहर ही खड़ा है”
मोची को बुलाया गया। उस को देखकर राजा की भी मानवता थोड़ी खिली। राजा ने कहाः

“जूती के तो पाँच रूपये होते हैं किन्तु यह पाँच रूपयों वाली नहीं है,पाँच सौ रूपयों वाली जूती है। जूती बनाने वाले को पाँच सौ और जूती के पाँच सौ, कुल एक हजार रूपये इसको दे दो!”

मोची बोलाः “राजा जी, तनिक ठहरिये, यह जूती मेरी नहीं है, जिसकी है उसे मैं अभी ले आताहूँ”मोची जाकर विनयपूर्वक उस ब्राह्मण को राजा के पास ले आया एवं राजा से बोलाः “राजा जी, यह जूती इन्हीं की है।

”राजा को आश्चर्य हुआ वह बोलाः “यह तो ब्राह्मण है इस की जूती कैसे ?”राजा ने ब्राह्मण से पूछा तो ब्राह्मण ने कहा मैं तो ब्राह्मण हूँ, यात्रा करने निकला हूँ”

राजाः “मोची जूती तो तुम बेच रहे थे इस ब्राह्मण ने जूती कब खरीदी और बेची ?”

मोची ने कहाः “राजन् मैंने मन में ही संकल्प कर लिया था कि जूती की जो रकम आयेगी वह इन ब्राह्मण देव की होगी। जब रकम इन की है तो मैं इन रूपयों को कैसे ले सकता हूँ ? इसीलिए मैं इन्हें ले आया हूँ। न जाने किसी जन्म में मैंने दान करने का संकल्प किया होगा और मुकर गया होऊँगा तभी तो यह मोची का चोला मिला है अब भी यदि मुकर जाऊँ तो तो न जाने मेरी कैसी दुर्गति हो ?

इसीलिए राजन् ये रूपये मेरे नहीं हुए। मेरे मन में आ गया था कि इस जूती की रकम इनके लिए होगी फिर पाँच रूपये मिलते तो भी इनके होते और एक हजार मिल रहे हैं तो भी इनके ही हैं। हो सकता है मेरा मन बेईमान हो जाता इसीलिए मैंने रूपयों को नहीं छुआ और असली अधिकारी को ले आया!”

राजा ने आश्चर्य चकित होकर ब्राह्मण से पूछाः “ब्राह्मण मोची से तुम्हारा परिचय कैसे हुआ ?

”ब्राह्मण ने सारी आप बीती सुनाते हुए सिद्ध पुरुष के चश्मे वाली बात बताई, और कहा कि राजन्, आप के राज्य में पशुओं के दर्शन तो बहुत हुए लेकिन मनुष्यत्व का अंश इन मोची भाई में ही नज़र आया।

”राजा ने कौतूहलवश कहाः “लाओ, वह चश्मा जरा हम भी देखें।”राजा ने चश्मा लगाकर देखा तो दरबारियों में उसे भी कोई सियार दिखा तो कोई हिरण, कोई बंदर दिखा तो कोई रीछ। राजा दंग रह गया कि यह तो पशुओं का दरबार भरा पड़ा है उसे हुआ कि ये सब पशु हैं तो मैं कौन हूँ ? उस ने आईना मँगवाया एवं उसमें अपना चेहरा देखा तो शेर! उस के आश्चर्य की सीमा न रही, ‘ये सारे जंगल के प्राणी और मैं जंगल का राजा शेर यहाँ भी इनका राजा बना बैठा हूँ।’ राजा ने कहाः “ब्राह्मणदेव योगी महाराज का यह चश्मा तो बड़ा गज़ब का है, वे योगी महाराज कहाँ होंगे ?”

ब्राह्मणः “वे तो कहीं चले गये ऐसे महापुरुष कभी-कभी ही और बड़ी कठिनाई से मिलते हैं।”श्रद्धावान ही ऐसे महापुरुषों से लाभ उठा पाते हैं, बाकी तो जो मनुष्य के चोले में पशु के समान हैं वे महापुरुष के निकट रहकर भी अपनी पशुता नहीं छोड़ पाते।

ब्राह्मण ने आगे कहाः “राजन् अब तो बिना चश्मे के भी मनुष्यत्व को परखा जा सकता है। व्यक्ति के व्यवहार को देखकर ही पता चल सकता है कि वह किस योनि से आया है।

एक मेहनत करे और दूसरा उस पर हक जताये तो समझ लो कि वह सर्प योनि से आया है क्योंकि बिल खोदने की मेहनत तो चूहा करता है ,लेकिन सर्प उस को मारकर बल पर अपना अधिकार जमा बैठता है।”
अब इस चश्मे के बिना भी विवेक का चश्मा काम कर सकता है और दूसरे को देखें उसकी अपेक्षा स्वयं को ही देखें कि हम सर्पयोनि से आये हैं कि शेर की योनि से आये हैं या सचमुच में हममें मनुष्यता खिली है ? यदि पशुता बाकी है तो वह भी मनुष्यता में बदल सकती है कैसे ?

गोस्वामी तुलसीदाज जी ने कहा हैः

बिगड़ी जनम अनेक की, सुधरे अब और आजु।
तुलसी होई राम को, रामभजि तजि कुसमाजु।।

कुसंस्कारों को छोड़ दें… बस अपने कुसंस्कार आप निकालेंगे तो ही निकलेंगे। अपने भीतर छिपे हुए पशुत्व को आप निकालेंगे तो ही निकलेगा। यह भी तब संभव होगा जब आप अपने समय की कीमत समझेंगे मनुष्यत्व आये तो एक-एक पल को सार्थक किये बिना आप चुप नहीं बैठेंगे। पशु अपना समय ऐसे ही गँवाता है। पशुत्व के संस्कार पड़े रहेंगे तो आपका समय बिगड़ेगा अतः पशुत्व के संस्कारों को आप बाहर निकालिये एवं मनुष्यत्व के संस्कारों को उभारिये फिर सिद्धपुरुष का चश्मा नहीं, वरन् अपने विवेक का चश्मा ही कार्य करेगा और इस विवेक के चश्मे को पाने की युक्ति मिलती है हरि नाम संकीर्तन व सत्संग से। तो हे आत्म जनों! मानवता से जो पूर्ण हो, वही मनुष्य कहलाता है। बिन मानवता के मानव भी, पशुतुल्य रह जाता है……

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“कथा-मार्कण्डेय ऋषि तथा अप्सरा का संवाद”

एक समय बंगाल की खाड़ी में मार्कण्डेय ऋषि तप कर रहा था। इन्द्र के पद पर विराजमान को यह शर्त होती है कि यदि तेरे शासनकाल में 72 चौकड़ी युग के दौरान यदि पृथ्वी पर कोई व्यक्ति इन्द्र पद प्राप्त करने योग्य तप या धर्मयज्ञ कर लेता है

और उसकी क्रिया में कोई बाधा नहीं आती है तो उस साधक को इन्द्र का पद दे दिया जाता है और वर्तमान इन्द्र से वह पद छीन लिया जाता है। इसलिए जहाँ तक संभव होता है, इन्द्र अपने शासनकाल में किसी साधक का तप या धर्मयज्ञ पूर्ण नहीं होने देता। उसकी साधना भंग करा देता है, चाहे कुछ भी करना पड़े।

जब इन्द्र को उसके दूतों ने बताया कि बंगाल की खाड़ी में मार्कण्डेय नामक ऋषि तप कर रहे हैं। इन्द्र ने मार्कण्डेय ऋषि का तप भंग करने के लिए उर्वसी (इन्द्र की पत्नी) भेजी। सर्व श्रंगार करके देवपरी मार्कण्डेय ऋषि के सामने नाचने-गाने लगी।

अपनी सिद्धि से उस स्थान पर बसंत ऋतु जैसा वातावरण बना दिया। मार्कण्डेय ऋषि ने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई। उर्वसी ने कमर-नाड़ा तोड़ दिया, निःवस्त्र हो गई। तब मार्कण्डेय ऋषि बोले, हे बेटी!, हे बहन! हे माई! आप यह क्या कर रही हो?

आप यहाँ गहरे जंगल में अकेली किसलिए आई? उर्वसी ने कहा कि ऋषि जी मेरे रूप को देखकर इस आरण्य खण्ड (बन-खण्ड) के सर्व साधक अपना संतुलन खो गए परंतु आप डगमग नहीं हुए, न जाने आपकी समाधि कहाँ थी? कृप्या आप मेरे साथ इन्द्रलोक में चलो, नहीं तो मुझे सजा मिलेगी कि तू हार कर आ गई।

मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि मेरी समाधि ब्रह्मलोक में गई थी, जहाँ पर मैं उन उर्वसियों का नाच देख रहा था जो इतनी सुंदर हैं कि तेरे जैसी तो उनकी 7-7 बांदियाँ अर्थात् नौकरानियाँ हैं ।

इसलिए मैं तेरे को क्या देखता, तेरे पर क्या आसक्त होता? यदि तेरे से कोई सुंदर हो तो उसे ले आ। तब देवपरी ने कहा कि इन्द्र की पटरानी अर्थात् मुख्य रानी मैं ही हूँ । मुझसे सुन्दर स्वर्ग में कोई औरत नहीं है। तब मार्कण्डेय ऋषि ने पूछा कि इन्द्र की मृत्यु होगी, तब तू क्या करेगी?

उर्वसी ने उत्तर दिया कि मैं 14 इन्द्र भोगूंगी। भावार्थ है कि श्री ब्रह्मा जी के एक दिन में 1008 चतुर्युग होते हैं जिसमें 72-72 चतुर्युग का शासनकाल पूरा करके 14 इन्द्र मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।

इन्द्र की रानी वाली आत्मा ने किसी मानव जन्म में इतने अत्यधिक पुण्य किए थे। जिस कारण से वह 14 इन्द्रों की पटरानी बनकर स्वर्ग सुख तथा पुरूष सुख को भोगेगी। मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि वे 14 इन्द्र भी मरेंगे, तब तू क्या करेगी?

उर्वसी ने कहा कि फिर मैं मृत्यु लोक (पृथ्वी लोक को मनुष्य लोक अर्थात् मर्त्यः लोक कहते हैं) में गधी बनाई जाऊँगी और जितने इन्द्र मेरे पति होंगे, वे भी पृथ्वी पर गधे की योनि प्राप्त करेंगे। मार्कण्डेय ऋषि बोले कि फिर मुझे ऐसे लोक में क्यों ले जा रही थी जिसका राजा गधा बनेगा और रानी गधी की योनि प्राप्त करेगी?

उर्वसी बोली कि अपनी इज्जत रखने के लिए, नहीं तो वे कहेंगे कि तू हारकर आई है। मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि गधियों की कैसी इज्जत? तू वर्तमान में भी गधी है क्योंकि तू चौदह खसम करेगी और मृत्यु उपरांत तू स्वयं स्वीकार रही है कि मैं गधी बनूंगी। गधी की कैसी इज्जत? इतने में वहीं पर इन्द्र आ गया।

विधानानुसार अपना इन्द्र का राज्य मार्कण्डेय ऋषि को देने के लिए । कहा कि ऋषि जी हम हारे और आप जीते। आप इन्द्र की पदवी स्वीकार करें। मार्कण्डेय ऋषि बोले अरे अरे इन्द्र! इन्द्र की पदवी मेरे किसी काम की नहीं। मेरे लिए तो काग (कौवे) की बीट के समान है।

मार्कण्डेय ऋषि ने इन्द्र से फिर कहा कि तू मेरे बताए अनुसार साधना कर, तेरे को ब्रह्मलोक ले चलूँगा। इस इन्द्र के राज्य को छोड़ दे। इन्द्र ने कहा कि हे ऋषि जी अब तो मुझे मौज-मस्ती करने दो। फिर कभी देखेंगा।

पाठकजनो! विचार करो :- इन्द्र को पता है कि मृत्यु के उपरांत गधे का जीवन मिलेगा, फिर भी उस क्षणिक सुख को त्यागना नहीं चाहता। कहा कि फिर कभी देखूगा। फिर कब देखेगा? गधा बनने के पश्चात् तो कुम्हार देखेगा। कितना वजन गधे की कमर पर रखना है?
कहाँ-सी डण्डा मारना है?

ठीक इसी प्रकार इस पृथ्वी पर कोई छोटे-से टुकड़े का प्रधानमंत्री मंत्री, मुख्यमंत्री या राज्य में मंत्री बना है या किसी पद पर सरकारी अधिकारी या कर्मचारी बना है या धनी है । उसको कहा जाता है कि आप भक्ति करो नहीं तो गधे बनोगे ।

वे या तो नाराज हो जाते हैं कि क्यों बनेंगे गधे? फिर से मत कहना। कुछ सभ्य होते हैं, वे कहते हैं कि किसने देखा है, गधे बनते हैं? फिर उनको बताया जाता है कि सब संत तथा ग्रन्थ बताते हैं। तो अधिकतर कहते हैं कि देखा जाएगा इसलिए अपने जीवन में भक्ति जरूर अपनाएं …

https://youtu.be/Js5RJc8e-RY (सत्संग लिंक )
परिपूर्ण आध्यात्मिक सत्संग

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