हरिवंशराय बच्चन अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि बीएचयू में मधुशाला का पाठ बहुत पसन्द किया गया। खूब धूम मची। लोग झूमते-गाते मधुशाला की पंक्तियाँ दुहराते घर लौटे।
बच्चन का मन गद्गद, प्रफुल्लित था। उन्होंने उसे किताब रूप में छपवाने का निर्णय लिया। जब पुस्तक छप गयी तो वे प्रकाशक के यहाँ से अपने किसी रिश्तेदार के साथ पुस्तकों के बंडल को ख़ुद ही लिए आ रहे थे
कि उनके एक गुरु तुल्य व्यक्ति जो उनके फ्रेंड-फिलॉस्फर-गाइड थे मिल गए, उन्होंने पुस्तक की एक प्रति ले ली और पैसे देने लगे तो बच्चन ने लेने से मना कर दिया। कहा ‘मैं अपनी पहली प्रति आपको भेंट करना चाहता हूँ।’
इसपर उन सज्जन ने कहा ‘नहीं। मैं तुम्हारी पहली पुस्तक की बोहनी ख़राब नहीं करना चाहता। पहला ही ग्राहक मुफ़्त में ले तो अपशगुन होगा।'(हूबहू याद नहीं लेकिन भाव ऐसा ही कुछ था।)
कहने का आशय है कि वाल्मीकि,वेदव्यास,कालिदास,तुलसीदास के देश में लेखकों को ऋषि कहा जाता रहा है, वैसे देश में आज लेखकों की जो दशा है वह किसी से छुपी नहीं है।
प्रकाशक तो ख़ैर रॉयल्टी में कितनी पारदर्शिता रखते हैं यह लेखक ही जानते हैं लेकिन भारत में पाठकों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ है जो परले दर्ज़े का मुफ़्ती है।
उसे या तो मुफ़्त में किताबें चाहिए या पीडीएफ या कि लेखक उसे पुस्तक की एक प्रति भेंट कर दे। यह प्रवृत्ति हिंदी में ज़्यादा है।
हिंदी के लेखकों के फटीचर हाल के पीछे ऐसा ही पाठक वर्ग है। जब किताबें खरीदी ही नहीं जाएंगी तो लेखक क्या ख़ाक पैसे कमाएगा।
हिंदी के लेखकों से लेखनी माँगते वक्त प्रकाशक या सम्पादक भी ठलुआभाव में रहते हैं। मानो लेख या पुस्तक छापकर वे एहसान कर रहे हों।
जगदीश्वर जी गोपीचंद नारंग के बारे में एक कथा सुनाते थे कि वे दोस्त प्रोफेसरों के यहां भी वक्तव्य देने जाते तो 500 रुपए ही लेते लेकिन लेते ज़रूर। वे मुफ़्त में कहीं भी न वक्तव्य देते, न लेख लिखते।
हिंदी में लेखक-प्रकाशक-पाठक के इकोसिस्टम में सबसे दयनीय लेखक है। उसे ऐसे ट्रीट किया जाता है मानो वह लिखकर पाप कर रहा हो और बाकी के दो उसके लेखन को लेकर उसपर एहसान कर रहे हों।
इस मामले में हिंदी और अंग्रेज़ी के अख़बारों की तुलना करने पर और नंगे सत्य सामने आते हैं। इलाहाबाद में कुंभ के मेले को कवर करने गए कुलदीप कुमार वहां किसी थ्री स्टार होटल में ठहर गए तो अखबार ने उन्हें भुगतान करने से यह कहकर मना कर दिया कि उन्होंने अख़बार के स्टैंडर्ड के अनुरूप काम नहीं किया। उन्हें किसी फाइव स्टार होटल में ठहरना चाहिए था।
जबकि हिंदी के सम्पादक अपने संवाददाताओं को अंग्रेज़ी के अख़बार पढ़कर या टीवी देखकर न्यूज़ बनाने को कहते हैं। ज़्यादातर हिंदी अख़बारों का कोई फील्डवर्क नहीं होता।
कुलमिलाकर न गुणवत्ता का ध्यान रखा जाता है और न सुविधाओं का। हिंदी के लेखक की तुलना अंग्रेज़ी या किसी और भाषा के लेखक से करने से पहले यह ज़रूर सोच लीजिएगा कि आप साल में किताबों पर कितना ख़र्च करते हैं।
इस नए वर्ष में इस समस्या के आलोक में ज़रूर सोचिएगा क्योंकि आप जबतक अपनी ज़ेब हल्की नहीं करेंगे हिंदी लेखन का इकोसिस्टम ठीक नहीं होगा।
अपनी कमाई से कुछ रुपए हर महीने किताबों के लिए नियत कर आप हिंदी की ही नहीं समाज की और साथ ही अपनी भी सेवा करेंगे क्योंकि किताबों सा कोई दूसरा साथी नहीं होता। किताबें आपके मस्तिष्क की खुराक तो हैं ही लेकिन परिष्कृत समाज के निर्माण की सबसे ज़रूरी कुंजी भी हैं।
नया साल पुस्तकों के प्रति सदाशय होकर बीते इसी कामना के साथ शुभकामनाएं प्रेषित करना चाहूंगा।