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शिवोहम


शिवोहम
(मैं ही शिव हूँ।)
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एक था भिखारी ! रेल सफ़र में भीख़ माँगने के दौरान एक सूट बूट पहने सेठ जी उसे दिखे।

उसने सोचा कि यह व्यक्ति बहुत अमीर लगता है, इससे भीख़ माँगने पर यह मुझे जरूर अच्छे पैसे देगा। वह उस सेठ से भीख़ माँगने लगा।
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भिख़ारी को देखकर उस सेठ ने कहा, “तुम हमेशा मांगते ही हो, क्या कभी किसी को कुछ देते भी हो ?”
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भिख़ारी बोला, “साहब मैं तो भिख़ारी हूँ, हमेशा लोगों से मांगता ही रहता हूँ, मेरी इतनी औकात कहाँ कि किसी को कुछ दे सकूँ ?”
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सेठ:- “जब किसी को कुछ दे नहीं सकते तो तुम्हें मांगने का भी कोई हक़ नहीं है। मैं एक व्यापारी हूँ और लेन-देन में ही विश्वास करता हूँ, अगर तुम्हारे पास मुझे कुछ देने को हो तभी मैं तुम्हे बदले में कुछ दे सकता हूँ।”
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तभी वह स्टेशन आ गया जहाँ पर उस सेठ को उतरना था, वह ट्रेन से उतरा और चला गया।
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इधर भिख़ारी सेठ की कही गई बात के बारे में सोचने लगा। सेठ के द्वारा कही गयीं बात उस भिख़ारी के दिल में उतर गई।

वह सोचने लगा कि शायद मुझे भीख में अधिक पैसा इसीलिए नहीं मिलता क्योकि मैं उसके बदले में किसी को कुछ दे नहीं पाता हूँ।

लेकिन मैं तो भिखारी हूँ, किसी को कुछ देने लायक भी नहीं हूँ। लेकिन कब तक मैं लोगों को बिना कुछ दिए केवल मांगता ही रहूँगा।

बहुत सोचने के बाद भिख़ारी ने निर्णय किया कि जो भी व्यक्ति उसे भीख देगा तो उसके बदले मे वह भी उस व्यक्ति को कुछ जरूर देगा।

लेकिन अब उसके दिमाग में यह प्रश्न चल रहा था कि वह खुद भिख़ारी है तो भीख के बदले में वह दूसरों को क्या दे सकता है ?

इस बात को सोचते हुए दिनभर गुजरा लेकिन उसे अपने प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिला।

दुसरे दिन जब वह स्टेशन के पास बैठा हुआ था तभी उसकी नजर कुछ फूलों पर पड़ी जो स्टेशन के आस-पास के पौधों पर खिल रहे थे, उसने सोचा, क्यों न मैं लोगों को भीख़ के बदले कुछ फूल दे दिया करूँ।

उसको अपना यह विचार अच्छा लगा और उसने वहां से कुछ फूल तोड़ लिए। वह ट्रेन में भीख मांगने पहुंचा।

जब भी कोई उसे भीख देता तो उसके बदले में वह भीख देने वाले को कुछ फूल दे देता। उन फूलों को लोग खुश होकर अपने पास रख लेते थे।

अब भिख़ारी रोज फूल तोड़ता और भीख के बदले में उन फूलों को लोगों में बांट देता था।

कुछ ही दिनों में उसने महसूस किया कि अब उसे बहुत अधिक लोग भीख देने लगे हैं। वह स्टेशन के पास के सभी फूलों को तोड़ लाता था। जब तक उसके पास फूल रहते थे तब तक उसे बहुत से लोग भीख देते थे।

लेकिन जब फूल बांटते बांटते ख़त्म हो जाते तो उसे भीख भी नहीं मिलती थी,अब रोज ऐसा ही चलता रहा ।

एक दिन जब वह भीख मांग रहा था तो उसने देखा कि वही सेठ ट्रेन में बैठे है जिसकी वजह से उसे भीख के बदले फूल देने की प्रेरणा मिली थी।

वह तुरंत उस व्यक्ति के पास पहुंच गया और भीख मांगते हुए बोला, “आज मेरे पास आपको देने के लिए कुछ फूल हैं, आप मुझे भीख दीजिये बदले में मैं आपको कुछ फूल दूंगा।”
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सेठ ने उसे भीख के रूप में कुछ पैसे दे दिए और भिख़ारी ने कुछ फूल उसे दे दिए। उस सेठ को यह बात बहुत पसंद आयी।
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सेठ:- “वाह क्या बात है..? आज तुम भी मेरी तरह एक व्यापारी बन गए हो” इतना कहकर फूल लेकर वह सेठ स्टेशन पर उतर गया।

लेकिन उस सेठ द्वारा कही गई बात एक बार फिर से उस भिख़ारी के दिल में उतर गई। वह बार-बार उस सेठ के द्वारा कही गई बात के बारे में सोचने लगा और बहुत खुश होने लगा।
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उसकी आँखे अब चमकने लगीं, उसे लगने लगा कि अब उसके हाथ सफलता की वह चाबी लग गई है जिसके द्वारा वह अपने जीवन को बदल सकता है।

वह तुरंत ट्रेन से नीचे उतरा और उत्साहित होकर बहुत तेज आवाज में ऊपर आसमान की ओर देखकर बोला, “मैं भिखारी नहीं हूँ, मैं तो एक व्यापारी हूँ.. मैं भी उस सेठ जैसा बन सकता हूँ.. मैं भी अमीर बन सकता हूँ !

लोगों ने उसे देखा तो सोचा कि शायद यह भिख़ारी पागल हो गया है, अगले दिन से वह भिख़ारी उस स्टेशन पर फिर कभी नहीं दिखा।

एक वर्ष बाद इसी स्टेशन पर दो व्यक्ति सूट बूट पहने हुए यात्रा कर रहे थे। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उनमे से एक ने दूसरे को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा,
“क्या आपने मुझे पहचाना ?”
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सेठ:- “नहीं तो ! शायद हम लोग पहली बार मिल रहे हैं।”
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भिखारी:- “सेठ जी.. आप याद कीजिए, हम पहली बार नहीं बल्कि तीसरी बार मिल रहे हैं”।
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सेठ:- “मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे हम पहले दो बार कब मिले थे ?”
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अब पहला व्यक्ति मुस्कुराया और बोला: हम पहले भी दो बार इसी ट्रेन में मिले थे मैं वही भिख़ारी हूँ जिसको आपने पहली मुलाकात में बताया कि मुझे जीवन में क्या करना चाहिए और दूसरी मुलाकात में बताया कि मैं वास्तव में कौन हूँ।

नतीजा यह निकला कि आज मैं फूलों का एक बहुत बड़ा व्यापारी हूँ और इसी व्यापार के काम से दूसरे शहर जा रहा हूँ।

आपने मुझे पहली मुलाकात में प्रकृति का नियम बताया था… जिसके अनुसार हमें तभी कुछ मिलता है, जब हम कुछ देते हैं।

लेन देन का यह नियम वास्तव में काम करता है, मैंने यह बहुत अच्छी तरह महसूस किया है, लेकिन मैं खुद को हमेशा भिख़ारी ही समझता रहा, इससे ऊपर उठकर मैंने कभी सोचा ही नहीं था और.. जब आपसे मेरी दूसरी मुलाकात हुई तब आपने मुझे बताया कि मैं एक व्यापारी बन चुका हूँ। अब मैं समझ चुका था कि मैं वास्तव में एक भिखारी नहीं बल्कि व्यापारी बन चुका हूँ।

भारतीय मनीषियों ने संभवतः इसीलिए स्वयं को जानने पर सबसे अधिक जोर दिया और फिर कहा – सोऽहं शिवोहम !! समझ की ही तो बात है…
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भिखारी ने स्वयं को जब तक भिखारी समझा, वह भिखारी रहा। उसने स्वयं को व्यापारी मान लिया, व्यापारी बन गया।
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इसी प्रकार जिस दिन हम समझ लेंगे कि मैं तो वही हूँ, फिर जानने समझने को रह ही क्या जाएगा

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ऋणानुबंध


ऋणानुबंध !!


वनवास के दौरान माता सीताजी को प्यास लगी, तभी श्रीरामजी ने चारों ओर देखा, तो उनको दूर-दूर तक जंगल ही जंगल दिख रहा था। कुदरत से प्रार्थना की, हे वन देवता! आसपास जहाँ कहीं पानी हो, वहाँ जाने का मार्ग कृपा कर सुझाईये।

तभी वहाँ एक मयूर ने आकर श्रीरामजी से कहा कि आगे थोड़ी दूर पर एक जलाशय है। चलिए मैं आपका मार्ग पथ प्रदर्शक बनता हूँ, किंतु मार्ग में हमारी भूल चूक होने की संभावना है।

श्रीरामजी ने पूछा: वह क्यों?
तब मयूर ने उत्तर दिया कि, मैं उड़ता हुआ जाऊंगा और आप चलते हुए आएंगे, इसलिए मार्ग मे, मैं अपना एक-एक पंख बिखेरता हुआ जाऊंगा। उस के सहारे आप जलाशय तक पहुँच ही जाओगे।

यहां पर एक बात स्पष्ट कर दूं कि मयूर के पंख, एक विशेष समय एवं एक विशेष ऋतु में ही बिखरते हैं। अगर वह अपनी इच्छा विरुद्ध पंखों को बिखेरेगा, तो उसकी मृत्यु हो जाती है।

और वही हुआ, अंत में जब मयूर अपनी अंतिम सांस ले रहा होता है, तब उसने मन में ही कहा कि वह कितना भाग्यशाली है, कि जो जगत की प्यास बुझाते हैं, ऐसे प्रभु की प्यास बुझाने का उसे सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरा जीवन धन्य हो गया। अब मेरी कोई भी इच्छा शेष नहीं रही।

तभी भगवान श्रीराम ने मयूर से कहा कि मेरे लिए तुमने जो मयूर पंख बिखेरकर, अपने जीवन का त्यागकर मुझ पर जो ऋणानुबंध चढ़ाया है, मैं उस ऋण को अगले जन्म में जरूर चुकाऊंगा।

तुम्हारे पंख अपने सिर पर धारण करके!

तत्पश्चात अगले जन्म में श्री कृष्ण अवतार में उन्होंने अपने मुकुट पर मयूर पंख को धारण कर वचन अनुसार उस मयूर का ऋण उतारा था।

मित्रों, इसका तात्पर्य यही है कि अगर भगवान को ऋण उतारने के लिए पुनः जन्म लेना पड़ता है, तो हम तो मानव हैं। न जाने हम कितने ही ऋणानुबंध से बंधे हैं। उसे उतारने के लिए हमें तो कई जन्म भी कम पड़ जाएंगे।

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घर की नीव बहुएं


घर की नीव बहुएं

दीपा और नीता दोनों जेठानी-देवरानी। दीपा नौकरी करती थी और नीता घर संभालती थी। भरा-पूरा परिवार था, सास-ससुर, दोनों के दो बच्चे कुल १० लोगों का परिवार। कई सालों बाद दोनों की बुआ सास कुछ दिन अपने भाई के पास रहने आई। सुबह उठते ही बुआ जी ने देखा दीपा जल्दी-जल्दी अपने काम निपटा रही थी। नीता ने सब का नाश्ता, टिफिन बनाया जिसे दीपा ने सब को परोसा, टिफिन पैक किया और चली गई ऑफिस। नीता ने फिर दोपहर का खाना बनाया और बैठ गयी थोड़ा सास और बुआ सास के पास।

बुआ जी से रहा नहीं गया बोली “छोटी बहू तेरी जेठानी तो अच्छा हुकुम चलाती है तुझ पर, सुबह से देख रही हूं रसोई घर में तू लगी है और वो महारानी दिखावा करने के लिए सबको नाश्ता परोस रही थी जैसे उसी ने बनाया हो।”

नीता और सास ने एक दूसरे को देखा, नीता बोली “नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है बुआ जी।”

बुआ जी बोली “तू भोली है, पर मैं सब समझती हूं।”

नीता से अब रहा नहीं गया और बोली “बुआ जी आपको दीपा दीदी का बाकी सबको नाश्ता परोसना दिखा, शायद ये नहीं दिखा कि उन्होंने मुझे भी सबके साथ नाश्ता करवाया। मुझे डांट कर पहले चाय पिलाई, नहीं तो सबको खिलाकर और टिफिन पैक करने में मेरा नाश्ता तो ठंडा हो चुका रहता या मैं खाती ही नहीं। दीदी सुबह उठकर मंदिर की सफाई करके फूल सजाकर रखती हैं तो मम्मी जी का पूजा करने में अच्छा लगता है। मैं तो नहा कर आते ही रसोई में घुस जाती हूं। शाम को आते हुए दीदी सब्जियां भी लेकर आती हैं क्योंकि आपके भतीजों को रात लेट हो जाती है, तब ताजी सब्जियां नहीं मिलती। ऑफिस में कितनी मेहनत करनी पड़ती है, फिर ऑफिस में काम करके आकर रात को खाना बनाने में मेरी मदद करती हैं। वो मेरी जेठानी नहीं मेरी बड़ी बहन हैं, मैं नहीं समझूंगी तो कौन समझेगा?”

बुआ जी चुप हो गई। शाम को दीपा सब्जी की थैली नीता को पकड़ाते हुए बोली “इसमें तुम्हारी फेवरेट लेखक की किताब है निकाल लेना।”

नीता खुश हो गई और बोली “थैंक्स दीदी।” नीता सब्जी की थैली किचन में रखी और किताब रखने अपने कमरे में चली गई। बुआ जी ने दीपा को आवाज दी “बड़ी बहू, यहां आना।”

दीपा बोली “जी बुआ जी?”

बुआ जी बोली “तुम इतनी मेहनत करके कमाती हो और ऐसे फालतू किताबों में पैसे व्यर्थ करती हो, वो भी अपनी देवरानी के लिए। वो तो वैसे भी घर में करती ही क्या है? तुम दिन भर मेहनत करती हो और वो घर पर आराम।”

दीपा मुस्कुराई बोली “आराम? नीता को तो जबरदस्ती आराम करवाना पड़ता है।सुबह से बेचारी लगी रहती है किचन में सबकी अलग-अलग पसंद, चार बच्चों का टिफिन, सब बनाती है वो भी प्यार से। सुबह की चाय पीने का भी सुध नहीं रहता उसे, दोपहर को जब बच्चे आते हैं फिर उनका खाना, उनकी पढ़ाई सब वही देखती है। वो है इसलिए मुझे ऑफिस में बच्चों की चिंता नहीं रहती। मैं अपना पूरा ध्यान ऑफिस में लगा पाती हूं। कुछ दिन पहले ही प्रमोशन मिला है।

मम्मी पापा की दवाई कब खत्म हुई, कब लानी है उसे पता होता है। रिश्तेदारों के यहां कब फंक्शन है क्या देना है सब ध्यान रहता है उसे। घर संभालना कोई छोटी बात नहीं है। मेहमानों की आवभगत बिना किसी शिकायत के करती है। उसे बस पढ़ने का शौक है, फिर मैं अपनी छोटी बहन की छोटी सी इच्छा पूरी नहीं करुंगी तो कौन करेगा?” बुआ जी की बोलती फिर बंद हो गई

दीपा वहां से उठ कर चली गई। ये सारी बात सास पूजा करते हुए सुन रही थी। बुआ जी के पास आकर बोली “जीजी ये दोनों देवरानी जेठानी सगी बहन जैसी हैं और एक दूसरे का अधूरापन पूरा करती हैं। मेरे घर की मजबूत नींव है ये दोनों जिसे हिलाना नामुमकिन है। ऐसी बातें तो कई लोगों ने दोनों को पढ़ाना चाही, पर मजाल है दोनों ने सामने वाले की बोलती बंद ना की हो?” और सास मुस्कुरा दी। बुआ जी की बोलती अब पूरी तरह बंद हैं।घर को स्वर्ग बनाने के लिये आवश्यक है आपस में प्रेम, स्नेह, आत्मीयता, एक दूसरे को समझने की भावना,कर्तव्य परायणता ये सब आत्म गुणो से घर का गुलदस्ता सजा रहेंगा तो दुनियाँ की कोई ताकत नहीं हमारे घर को नर्क बना दे🙏

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भक्त और भगवान की लीला


भक्त और भगवान की लीला 🎊

एक बड़े बूढ़े से बाबा थे मथुरा में। चिकित्सक ,7 वर्ष के थे , तभी से अपने दादा जी के साथ गिरिराज जी की परिक्रमा करते ऐसे करते 72 साल के हो गये।

एक बार अपने नियम से वो रात में परिक्रमा जाने लगे। उस दिन मौसम थोड़ा खराब था सबने मना कियापर वो माने नही। सोचा कल चिकित्सालय बन्द करना नही पड़ेगा। रात में ही परिक्रमा कर लूँगा।

तो निकल गये परिक्रमा के लियेजिस मार्ग से जाते थे वो कच्चा था। पर उन्होंने तो मन बना ही लिया थाकि आज तो जाऊंगा हीमार्ग में वर्षा आरंभ हो गयी।

अब एक जगह गड्ढे में फंस गये बाबा। जितना पैर आगे निकालते उतना और धँस जाते उस कीचड़ में। वे बाबा जी अक्सर एक पंक्ति को गाकर भगवान को खूब याद करते थे। जान चुके थे कि दलदल में फंस गया हूँ, बचूँगा तो नही अब। रात बहुत है कोई सहायता को भी नही आयेगा ।

अब उन्होंने जोर जोर ऊँची आवाज़ से भगवान को याद करना आरंभ किया,-कहते,

श्री राधाकृष्ण के गह चरण,श्री गिरिवरधरण की ले शरण”*

बीच बीच मे आर्तनाद भी करते, हे गोपाल, बंशीलाल अपने चरणों मे स्थान देना

एक नन्हे बालक की आवाज़ बाबा के कान में पड़ी – ‘ को है ?’

बाबा बोले- मैं परिकम्मा जात्री अरे लाला, कल कोई पूछे तो बता देना डॉक्टर साहब तो दलदल में लीन है गये। कृपा करियो मो पै, घर वाले परेसान होंगे ।

बालक बोला- अभी तो डाक्टरी करनी तोय, ले पकड़ लकुटिया और बाहर आ बाबा ।

बाबा ने सोचा- ये छोटा बालक कहाँ मेरा बोझ सह पायेगा। तो बोले- नाय नाय लाला, तू मेरो संदेशो दे दियो मथुरा । मेरे बोझ से तू भी दलदल में फंस गयो, तो बड़ो पाप लगेगो मोकू

बालक बोला- मेरी चिंता छोड़ , लकुटिया पकड़ बाबा। मैं निकाल लूँगो तोय।

अब बाबा क्या करते, थाम ली बालक की लाठी, और उसदलदल से ऐसे बाहर निकल आये जैसे कोई तिनका , बाहर आ कर देखते हैं एक सुंदर सा बालक धीरे धीरे मुस्कुरा रहा है।

ऐसे भारी अंधेरे और बरसात में बालक को देख बाबा बोले क्यो रे, तोय डर वर है कि नाये , इत्ती रात कू बाहर का कर रहयो है।माना तेरी मैय्या ने लाड़ में तोय बंसी देय दी, माथे मोरपंख लगा दई।पर यासे तू कृष्ण थोड़े बन जायेगो।
चल घर अपने मैं छोड़ि आऊं।

बालक हँसकर बोला मेरी चिंता छोड़ ! तोकू जा दगरे (मार्ग) ते पार कराय दूँ फिर जाऊंगो घर।

बाबा बोले- अरे तू तो बड़ो हठी बालक है। का काम करै है?

बालक बोला- कछु नाय। बस या गिरिराज पे डोलू। गैय्या चराऊँ और कभी कभी तेरे जैसे दलदल में फंसे लोगों की मदद करूँ बाबा।

बाबा बोले- तेरी मैय्या बड़ी भागबान है, तेरे जैसो संस्कारी बालक जो पाया है। बड़ी कृपा है तेरे परिवार में गिर्राज की।

लाला खिलखिला कर हंस दिया और बोला- अरे बाबरे तोपे कृपा नाय का ?

बाबा कहते- कहां मेरी ऐसी किस्मत ?

तभी बालक बोल उठा- अच्छा बाबा, अब ठीक मारग आय गयो है। अपना जपकर,परिकम्मा लगा, मैं चलो । देर है गयी, आज मैय्या मारेगी मोहे।बालक कह कर थोड़ा पीछे रह गया

बाबा आगे चलते हुए आशीष देते जाते है “सुन, अपनी मैय्या को राम राम कहियो। तोहे आशीष।'” और जैसे ही पीछे मुड़कर देखते है, मार्ग सुनसान, अब उनका विवेक जाग्रत हुआ, अरे स्वयं प्रभु आये थे

अब बाबा कभी इधर ढूंढते कभी उधर, रज में खूब लोट लगाते, अपनी मूर्खता पर रोते और भाग्य पर हँसते। उसके बाद उन्होंने प्रण लिया कि जब तक वो रहेंगे, तब तक भगवान की शरण मे रह गिरिराज जी की परिक्रमा लगाते रहेंगे..!!

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एक बार मध्यप्रदेश के इन्दौर नगर में एक रास्ते से ‘महारानी देवी अहिल्यावाई होल्कर


एक बार मध्यप्रदेश के इन्दौर नगर में एक रास्ते से ‘महारानी देवी अहिल्यावाई होल्कर के पुत्र मालोजीराव’ का रथ निकला तो उनके रास्ते में हाल ही की जनी गाय का एक बछड़ा सामने आ गया।

गाय अपने बछड़े को बचाने दौड़ी तब तक मालोरावजी का ‘रथ गाय के बछड़े को कुचलता’ हुआ आगे बढ़ गया।

किसी ने उस बछड़े की परवाह नहीं की। गाय बछड़े के निधन से स्तब्ध व आहत होकर बछड़े के पास ही सड़क पर बैठ गई।

थोड़ी देर बाद अहिल्यावाई वहाँ से गुजरीं। अहिल्यावाई ने गाय को और उसके पास पड़े मृत बछड़े को देखकर घटनाक्रम के बारे में पता किया।

सारा घटनाक्रम जानने पर अहिल्याबाई ने दरबार में मालोजी की पत्नी मेनावाई से पूछा-

यदि कोई व्यक्ति किसी माँ के सामने ही उसके बेटे की हत्या कर दे, तो उसे क्या दंड मिलना चाहिए?

मालोजी की पत्नी ने जवाब दिया- उसे प्राण दंड मिलना चाहिए।

देवी अहिल्यावाई ने मालोराव को हाथ-पैर बाँध कर मार्ग पर डालने के लिए कहा और फिर उन्होंने आदेश दिया मालोजी को मृत्यु दंड रथ से टकराकर दिया जाए। यह कार्य कोई भी सारथी करने को तैयार न था।

देवी अहिल्याबाई न्यायप्रिय थी। अत: वे स्वयं ही माँ होते हुए भी इस कार्य को करने के लिए भी रथ पर सवार हो गईं।

वे रथ को लेकर आगे बढ़ी ही थीं कि तभी एक अप्रत्याशित घटना घटी।

वही गाय फिर रथ के सामने आकर खड़ी हो गई, उसे जितनी बार हटाया जाता उतनी बार पुन: अहिल्याबाई के रथ के सामने आकर खड़ी हो जाती।

यह दृश्य देखकर मंत्री परिषद् ने देवी अहिल्यावाई से मालोजी को क्षमा करने की प्रार्थना की, जिसका आधार उस गाय का व्यवहार बना।

उस तरह गाय ने स्वयं पीड़ित होते हुए भी मालोजी को द्रौपदी की तरह क्षमा करके उनके जीवन की रक्षा की।

इन्दौर में जिस जगह यह घटना घटी थी, वह स्थान आज भी गाय के आड़ा होने के कारण ‘आड़ा बाजार’ के नाम से जाना जाता है।

उसी स्थान पर गाय ने अड़कर दूसरे की रक्षा की थी। ‘अक्रोध से क्रोध को, प्रेम से घृणा का और क्षमा से प्रतिशोध की भावना का शमन होता है’।

भारतीय ऋषियों ने यूँ ही गाय को माँ नहीं कहा है, बल्कि इसके पीछे गाय का ममत्वपूर्ण व्यवहार, मानव जीवन में, कृषि में गाय की उपयोगिता बड़ा आधारभूत कारण है।

गौसंवर्धन करना हर भारतीय का संवैधानिक कर्तव्य भी है