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एक शिष्य अपने गुरु का बहुत आदर-सम्मान किया करता था |


एक शिष्य अपने गुरु का बहुत आदर-सम्मान किया करता था |गुरु भी अपने इस शिष्य से बहुत स्नेह करते थे लेकिन वह शिष्य अपने अध्ययन के प्रति आलसी और स्वभाव से दीर्घसूत्री था | सदा स्वाध्याय से दूर भागने की कोशिश करता तथा आज के काम को कल के लिए छोड़ दिया करता था |

अब गुरूजी कुछ चिंतित रहने लगे कि कहीं उनका यह शिष्य जीवन-संग्राम में पराजित न हो जाये| आलस्य में व्यक्ति को अकर्मण्य बनाने की पूरी सामर्थ्य होती है | ऐसा व्यक्ति बिना परिश्रम के ही फलोपभोग की कामना करता है| वह शीघ्र निर्णय नहीं ले सकता और यदि ले भी लेता है,तो उसे कार्यान्वित नहीं कर पाता| यहाँ तक कि अपने पर्यावरण के प्रति भी सजग नहीं रहता है और न भाग्य द्वारा प्रदत्त सुअवसरों का लाभ उठाने की कला में ही प्रवीण हो पता है |

उन्होंने मन ही मन अपने शिष्य के कल्याण के लिए एक योजना बना ली | एक दिन एक काले पत्थर का एक टुकड़ा उसके हाथ में देते हुए गुरु जी ने कहा –‘मैं तुम्हें यह जादुई पत्थर का टुकड़ा, दो दिन के लिए दे कर, कहीं दूसरे गाँव जा रहा हूँ| जिस भी लोहे की वस्तु को तुम इससे स्पर्श करोगे, वह स्वर्ण में परिवर्तित हो जायेगी| पर याद रहे कि दूसरे दिन सूर्यास्त के पश्चात मैं इसे तुमसे वापस ले लूँगा|’

शिष्य इस सुअवसर को पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ लेकिन आलसी होने के कारण उसने अपना पहला दिन यह कल्पना करते-करते बिता दिया कि जब उसके पास बहुत सारा स्वर्ण होगा तब वह कितना प्रसन्न, सुखी,समृद्ध और संतुष्ट रहेगा, इतने नौकर-चाकर होंगे कि उसे पानी पीने के लिए भी नहीं उठाना पड़ेगा |

फिर दूसरे दिन जब वह प्रातःकाल जागा,उसे अच्छी तरह से स्मरण था कि आज स्वर्ण पाने का दूसरा और अंतिम दिन है |उसने मन में पक्का विचार किया कि आज वह गुरूजी द्वारा दिए गये काले पत्थर का लाभ ज़रूर उठाएगा | उसने निश्चय किया कि वो बाज़ार से लोहे के बड़े-बड़े सामान खरीद कर लायेगा और उन्हें स्वर्ण में परिवर्तित कर देगा. दिन बीतता गया, पर वह इसी सोच में बैठा रहा की अभी तो बहुत समय है, कभी भी बाज़ार जाकर सामान लेता आएगा.

उसने सोचा कि अब तो दोपहर का भोजन करने के पश्चात ही सामान लेने निकलूंगा.पर भोजन करने के बाद उसे विश्राम करने की आदत थी , और उसने बजाये उठ के मेहनत करने के थोड़ी देर आराम करना उचित समझा. पर आलस्य से परिपूर्ण उसका शरीर नीद की गहराइयों में खो गया, और जब वो उठा तो सूर्यास्त होने को था. अब वह जल्दी-जल्दी बाज़ार की तरफ भागने लगा, पर रास्ते में ही उसे गुरूजी मिल गए उनको देखते ही वह उनके चरणों पर गिरकर, उस जादुई पत्थर को एक दिन और अपने पास रखने के लिए याचना करने लगा लेकिन गुरूजी नहीं माने और उस शिष्य का धनी होने का सपना चूर-चूर हो गया |

पर इस घटना की वजह से शिष्य को एक बहुत बड़ी सीख मिल गयी: उसे अपने आलस्य पर पछतावा होने लगा, वह समझ गया कि आलस्य उसके जीवन के लिए एक अभिशाप है और उसने प्रण किया कि अब वो कभी भी काम से जी नहीं चुराएगा और एक कर्मठ, सजग और सक्रिय व्यक्ति बन कर दिखायेगा.

मित्रों, जीवन में हर किसी को एक से बढ़कर एक अवसर मिलते हैं , पर कई लोग इन्हें बस अपने आलस्य के कारण गवां देते हैं. इसलिए मैं यही कहना चाहता हूँ कि यदि आप सफल, सुखी, भाग्यशाली, धनी अथवा महान बनना चाहते हैं तो आलस्य और दीर्घसूत्रता को त्यागकर, अपने अंदर विवेक, कष्टसाध्य श्रम,और सतत् जागरूकता जैसे गुणों को विकसित कीजिये और जब कभी आपके मन में किसी आवश्यक काम को टालने का विचार आये तो स्वयं से एक प्रश्न कीजिये – “आज ही क्यों नहीं ?”

शुभरात्रि
जय श्री कृष्णा
😊🙏🏻😊

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वासु भाई और वीणा बेन, दोनों यात्रा की तैयारी कर रहे थे।


रामचंद्र आर्य.

वासु भाई और वीणा बेन, दोनों यात्रा की तैयारी कर रहे थे। 3 दिन का अवकाश था ।वे पेशे से चिकित्सक थे ।लंबा अवकाश नहीं ले सकते थे ।परंतु जब भी दो-तीन दिन का अवकाश मिलता ,छोटी यात्रा पर कहीं चले जाते हैं । आज उनका इंदौर उज्जैन जाने का विचार था ।दोनों साथ-साथ मेडिकल कॉलेज में पढ़ते थे ।वहीं पर प्रेम अंकुरित हुआ ,और बढ़ते बढ़ते वृक्ष बना। । दोनों ने परिवार की स्वीकृति से विवाह किया । 2 साल हो गए ,संतान कोई थी नहीं ,इसलिए यात्रा का आनंद लेते रहते थे । विवाह के बाद दोनों ने अपना निजी अस्पताल खोलने का फैसला किया , बैंक से लोन लिया ।वीणा बेन स्त्री रोग विशेषज्ञ और वासु भाई डाक्टर आफ मेडिसिन थे ।इसलिए दोनों की कुशलता के कारण अस्पताल अच्छा चल निकला था । आज इंदौर जाने का कार्यक्रम बनाया था । जब मेडिकल कॉलेज में पढ़ते थे, पप्पू भाई ने इंदौर के बारे में बहुत सुना था। वे नई नई रेसिपी खाने के शौकीन थे। इंदौर के सराफा बाजार और 56 दुकान पर मिलने वाली मिठाईयां, नमकीन के बारे में उनसे सुना था। साथ ही महाकाली के दर्शन करने की इच्छा थी, इसलिए उन्होंने इस बार इंदौर उज्जैन की यात्रा करने का विचार किया। यात्रा पर रवाना हुए ,आकाश में बादल घुमड़ रहे थे । मध्य प्रदेश की सीमा लगभग 200 किलोमीटर दूर थी । बारिश होने लगी थी।म, प्र, सीमा से 40 किलोमीटर पहले छोटा शहर पार करने में समय लगा। कीचड़ और भारी यातायात में बड़ी कठिनाई से दोनों ने रास्ता पार किया। भोजन तो मध्यप्रदेश में जाकर करने का विचार था परंतु चाय का समय हो गया था ।उस छोटे शहर से चार 5 किलोमीटर आगे निकले ।सड़क के किनारे एक छोटा सा मकान दिखाई दिया ।जिसके आगे वेफर्स के पैकेट लटक रहे थे ।उन्होंने विचार किया कि यह कोई होटल है वासु भाई ने वहां पर गाड़ी रोकी, दुकान पर गए , कोई नहीं था ।आवाज लगाई , अंदर से एक महिला निकल कर के आई। उसने पूछा क्या चाहिए ,भाई । वासु भाई ने दो पैकेट वेफर्स के लिए ,और कहा बेन दो कप चाय बना देना ।थोड़ी जल्दी बना देना , हमको दूर जाना है । पैकेट लेकर के गाड़ी में गए ।वीणा बेन और दोनों ने पैकेट के वैफर्स का नाश्ता किया । चाय अभी तक आई नहीं थी । दोनों निकल कर के दुकान में रखी हुई कुर्सियों पर बैठे ।वासु भाई ने फिर आवाज लगाई । थोड़ी देर में वह महिला अंदर से आई ।बोले भाई बाड़े में तुलसी लेने गई थी , तुलसी के पत्ते लेने में देर हो गई ,अब चाय बन रही है ।थोड़ी देर बाद एक प्लेट में दो मेले से कप। ले करके वह गरमा गरम चाय लाई। मेले कप को देखकर वासु भाई एकदम से अपसेट हो गए ,और कुछ बोलना चाहते थे ।परंतु वीणाबेन। ने हाथ पकड़कर उनको रोक दिया । चाय के कप उठाए ।उसमें से अदरक और तुलसी की सुगंध निकल रही थी ।दोनों ने चाय का एक सिप लिया । ऐसी स्वादिष्ट और सुगंधित चाय जीवन में पहली बार उन्होंने पी ।उनके मन की हिचकिचाहट दूर हो गई ।उन्होंने महिला को चाय पीने के बाद पूछा कितने पैसे महिला ने कहा बीस रुपये वासु भाई ने सो का नोट दिया । महिला ने कहा कि भाई छुट्टा नहीं है ।₹20 छुट्टा दे दो ।वासुभाई ने बीस रु का नोट दिया। महिला ने सो का नोट वापस किया। वासु भाई ने कहा कि हमने तो वैफर्स के पैकेट भी लिए हैं महिला बोली यह पैसे उसी के हैं ।चाय के पैसे नहीं लिए ।अरे चाय के पैसे क्यों क्यों नहीं लिए ।जवाब मिला ,हम चाय नहीं बेंचते हैं। यह होटल नहीं है ।फिर आपने चाय क्यों बना दी । अतिथि आए ,आपने चाय मांगी ,हमारे पास दूध भी नहीं था पर यह बच्चे के लिए दूध रखा था ,परंतु आपको मना कैसे करते । इसलिए इसके दूध की चाय बना दी ।अभी बच्चे को क्या पिलाओगे ।एक दिन दूध नहीं पिएगा तो मर नहीं जाएगा । इसके पापा बीमार हैं वह शहर जा करके दूध ले आते ,पर उनको कल से बुखार है ।आज अगर। ठीक हो जाएगा तो कल सुबह जाकर दूध ले आएंगे। वासु भाई उसकी बात सुनकर सन्न रह गये। इस महिला ने होटल ना होते हुए भी अपने बच्चे के दूध से चाय बना दी और वह भी केवल इसलिए कि मैंने कहा था ,अतिथि रूप में आकर के । संस्कार और सभ्यता में महिला मुझसे बहुत आगे हैं । उन्होंने कहा कि हम दोनों डॉक्टर हैं ,आपके पति कहां हैं बताएं ।हमको महिला भीतर ले गई । अंदर गरीबी पसरी हुई थी ।एक खटिया पर सज्जन सोए हुए थे बहुत दुबले पतले थे । वसु भाई ने जाकर उनका मस्तक संभाला ।माथा और हाथ गर्म हो रहे थे ,और कांप रहे थे वासु भाई वापस गाड़ी में , गए दवाई का अपना बैग लेकर के आए । उनको दो-तीन टेबलेट निकालकर के दी , खिलाई ।फिर कहा कि इन। गोलियों से इनका रोग ठीक नहीं होगा । मैं पीछे शहर में जा कर के और इंजेक्शन और इनके लिए बोतल ले आता हूं ।वीणा बेन को उन्होंने मरीज के पास बैठने का कहा । गाड़ी लेकर के गए ,आधे घंटे में शहर से बोतल ,इंजेक्शन ,ले कर के आए और साथ में दूध की थैलीयां भी लेकरआययै। मरीज को इंजेक्शन लगाया ,बोतल चढ़ाई ,और जब तक बोतल लगी दोनों वहीं ही बैठे रहे ।एक बार और तुलसी और अदरक की चाय बनी ।दोनों ने चाय पी और उसकी तारीफ की। जब मरीज 2 घंटे में थोड़े ठीक हुए, तब वह दोनों वहां से आगे बढ़े। 3 दिन इंदौर उज्जैन में रहकर , जब लौटे तो उनके बच्चे के लिए बहुत सारे खिलौने ,और दूध की थैली लेकर के आए । वापस उस दुकान के सामने रुके ,महिला को आवाज लगाई , तो दोनों बाहर निकल कर उनको देख कर बहुत खुश हो गये। उन्होंने कहा कि आप की दवाई से दूसरे दिन ही बिल्कुल स्वस्थ हो गया ।वसु भाई ने बच्चे को खिलोने दिए ।दूध के पैकेट दिए ।फिर से चाय बनी ,बातचीत हुई ,अपनापन स्थापित हुआ ।वसु भाई ने अपना एड्रेस कार्ड दिया ।कहा, जब भी आओ जरूर मिले ,और दोनों वहां से अपने शहर की ओर ,लौट गये शहर पहुंचकर वसु भाई ने उस महिला की बात याद रखी। फिर एक फैसला लिया। अपने अस्पताल में रिसेप्शन पर बैठे हुए व्यक्ति से कहा कि ,अब आगे से आप जो भी मरीज आयें, केवल उसका नाम लिखेंगे ,फीस नहीं लेंगे ।फीस मैं खुद लूंगा। और जब मरीज आते तो अगर वह गरीब मरीज होते तो उन्होंने उनसे फीस लेना बंद कर दिया ।केवल संपन्न मरीज देखते तो ही उनसे फीस लेते । धीरे धीरे शहर में उनकी प्रसिद्धि फैल गई । दूसरे डाक्टरों ने सुना ।उन्हें लगा कि इस कारण से हमारी प्रैक्टिस कम पड़ेगी ,और लोग हमारी निंदा करेंगे ,।उन्होंने एसोसिएशन के अध्यक्ष से कहा । एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ बसु भाई से मिलने आए ,उन्होंने कहा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हो । तब वासु भाई ने जो जवाब दिया उसको सुनकर उनका मन भी उद्वेलित हो गए ।वासु भाई ने कहा मेरे जीवन में हर परीक्षा में मेरिट में पहली पोजीशन पर आता रहा ।एमबीबीएस में भी ,एमडी में भी गोल्ड मेडलिस्ट बना ,परंतु सभ्यता संस्कार और अतिथि सेवा में वह गांव की महिला जो बहुत गरीब है ,वह मुझसे आगे निकल गयी। तो मैं अब पीछे कैसे रहूं ।इसलिए मैं अतिथि सेवा में मानव सेवा में भी गोल्ड मेडलिस्ट बनूंगा । इसलिए मैंने यह सेवा प्रारंभ की । और मैं यह कहता हूं कि हमारा व्यवसाय मानव सेवा का है। सारे चिकित्सकों से भी मेरी अपील है कि वह सेवा भावना से काम करें ।गरीबों की निशुल्क सेवा करें ,उपचार करें ।यह् व्यवसाय धन कमाने का नहीं ।परमात्मा ने मानव सेवा का अवसर प्रदान किया है , एसोसिएशन के अध्यक्ष ने वासु भाई को प्रणाम किया और धन्यवाद देकर उन्होंने कहा कि मैं भी आगे से ऐसी ही भावना रखकर के चिकित्सकिय सेवा करुंगा।

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आज की कहानी पढ़िए की स्त्री घर को स्वर्ग बनाती है,


लक्ष्मीकांत वार्ष्णेय विजयगढ़िया

आज की कहानी पढ़िए की स्त्री घर को स्वर्ग बनाती है, कितना भी दुख की स्थिति क्यों ना हो वो हर स्थिति से निकलना और अपनों को निकालना बखूबी जानती है, पढ़िए सभी की कैसे एक गरीब घर मै ब्याही नवयुवती ने अपने ससुराल की स्थिति को देखते हुए अपना धर्म निभाया और सुंदर से सुंदर बनाया सभी पढ़े और शिक्षा लेेएक गांव में एक जमींदार था। उसके कई नौकरों में जग्गू भी था। गांव से लगी बस्ती में, बाकी मजदूरों के साथ जग्गू भी अपने पांच लड़कों के साथ रहता था। जग्गू की पत्नी बहुत पहले गुजर गई थी। एक झोंपड़े में वह बच्चों को पाल रहा था। बच्चे बड़े होते गये और जमींदार के घर नौकरी में लगते गये।सब मजदूरों को शाम को मजूरी मिलती। जग्गू और उसके लड़के चना और गुड़ लेते थे। चना भून कर गुड़ के साथ खा लेते थे।बस्ती वालों ने जग्गू को बड़े लड़के की शादी कर देने की सलाह दी। उसकी शादी हो गई और कुछ दिन बाद गौना भी आ गया। उस दिन जग्गू की झोंपड़ी के सामने बड़ी बमचक मची। बहुत लोग इकठ्ठा हुये नई बहू देखने को। फिर धीरे धीरे भीड़ छंटी। आदमी काम पर चले गये। औरतें अपने अपने घर। जाते जाते एक बुढ़िया बहू से कहती गई – पास ही घर है। किसी चीज की जरूरत हो तो संकोच मत करना, आ जाना लेने। सबके जाने के बाद बहू ने घूंघट उठा कर अपनी ससुराल को देखा तो उसका कलेजा मुंह को आ गया। जर्जर सी झोंपड़ी, खूंटी पर टंगी कुछ पोटलियां और झोंपड़ी के बाहर बने छ चूल्हे (जग्गू और उसके सभी बच्चे अलग अलग चना भूनते थे)। बहू का मन हुआ कि उठे और सरपट अपने गांव भाग चले। पर अचानक उसे सोच कर धचका लगा – वहां कौन से नूर गड़े हैं। मां है नहीं। भाई भौजाई के राज में नौकरानी जैसी जिंदगी ही तो गुजारनी होगी। यह सोचते हुये वह बुक्का फाड़ रोने लगी। रोते रोते थक कर शान्त हुई। मन में कुछ सोचा। पड़ोसन के घर जा कर पूछा – अम्मां एक झाड़ू मिलेगा? बुढ़िया अम्मा ने झाड़ू, गोबर और मिट्टी दी। साथ में अपनी पोती को भेज दिया। जग्गू और उसके लड़के जब लौटे तो एक ही चूल्हा देख भड़क गये। चिल्लाने लगे कि इसने तो आते ही सत्यानास कर दिया। अपने आदमी का छोड़ बाकी सब का चूल्हा फोड़ दिया। झगड़े की आवाज सुन बहू झोंपड़ी से निकली। बोली – आप लोग हाथ मुंह धो कर बैठिये, मैं खाना निकालती हूं। सब अचकचा गये! हाथ मुंह धो कर बैठे। बहू ने पत्तल पर खाना परोसा – रोटी, साग, चटनी। मुद्दत बाद उन्हें ऐसा खाना मिला था। खा कर अपनी अपनी कथरी ले वे सोने चले गये।सुबह काम पर जाते समय बहू ने उन्हें एक एक रोटी और गुड़ दिया। चलते समय जग्गू से उसने पूछा – बाबूजी, मालिक आप लोगों को चना और गुड़ ही देता है क्या? जग्गू ने बताया कि मिलता तो सभी अन्न है पर वे चना-गुड़ ही लेते हैं। आसान रहता है खाने में। बहू ने समझाया कि सब अलग अलग प्रकार का अनाज लिया करें। देवर ने बताया कि उसका काम लकड़ी चीरना है। बहू ने उसे घर के ईंधन के लिये भी कुछ लकड़ी लाने को कहा।बहू सब की मजूरी के अनाज से एक एक मुठ्ठी अन्न अलग रखती। उससे बनिये की दुकान से बाकी जरूरत की चीजें लाती। जग्गू की गृहस्थी धड़ल्ले से चल पड़ी। एक दिन सभी भाइयों और बाप ने तालाब की मिट्टी से झोंपड़ी के आगे बाड़ बनाया। बहू के गुण गांव में चर्चित होने लगे।जमींदार तक यह बात पंहुची। वह कभी कभी बस्ती में आया करता था। आज वह जग्गू के घर उसकी बहू को आशीर्वाद देने आया। बहू ने पैर छू प्रणाम किया तो जमींदार ने उसे एक हार दिया। हार माथे से लगा बहू ने कहा कि मालिक यह हमारे किस काम आयेगा। इससे अच्छा होता कि मालिक हमें चार लाठी जमीन दिये होते झोंपड़ी के दायें बायें, तो एक कोठरी बन जाती। बहू की चतुराई पर जमींदार हंस पड़ा। बोला – ठीक, जमीन तो जग्गू को मिलेगी ही। यह हार तो तुम्हारा हुआ। तो मेरे प्यारे औरत चाहे घर को स्वर्ग बना दे, चाहे नर्क! मुझे लगता है कि देश, समाज, और आदमी को औरत ही गढ़ती है स्त्री ही वास्तविकता मै संबंधो की नींव रखती है।

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एक बार एक शिष्य ने अपने गुरुदेव से कहा कि


बोध कथा*_●

एक बार एक शिष्य ने अपने गुरुदेव से कहा कि – हॆ गुरुदेव एक डर मुझे हमेशा सताता रहता है कि – *”ये माया बड़ी ठगनी है!”* विश्वामित्र जी का तप एक अप्सरा के आकर्षण में चला गया… राजा भरत जैसै महान संत एक हिरण के मोह में ऐसे फँसे कि उन्हें हिरण की योनि में जन्म लेना पड़ा! और तो और, देवर्षि नारद तक को माया ने आकर्षित कर लिया और वो भी बच न पाए! हॆ नाथ बस यही डर हमेशा बना रहता है कि कहीं कामदेव की प्रबल सेना मुझे भी आप से अलग न कर दे! हॆ नाथ आप ही बताओ कि इससे बचने के लिए मैं क्या करूँ?***__● गुरुदेव कुछ देर मौन रहे! फिर बोले – हॆ वत्स चलो मेरे साथ। बिल्कुल सावधान होकर चलना, और सबकुछ ध्यानपूर्वक देखते जाना। गुरु अपने शिष्य को लेकर एक नगर पहुँचे और एक घर में गए, जहाँ एक माँ की गोद में एक नन्हा सा शिशु बैठा था***__● गुरुदेव ने उस बच्चे के आगे कुछ स्वर्ण मुद्राएँ डालीं, पर बच्चा गोद से न उतरा! अब गुरुदेव ने उसके सामने आकर्षक खिलौने रखे! वह फिर भी गोद से न उतरा! फिर गुरुदेव ने बच्चे को अपनी गोद में लिया! तो बच्चा जोर-जोर से रोने लगा! फिर ऋषिवर ने उस बच्चे को वापिस उसकी माँ की गोद में बिठाया! तो बच्चा अपनी माँ से चिपक कर शाँत और चुप हो गया।***__● आगे बढ़े। आगे फिर एक माँ की गोद में एक बालक बैठा नज़र आया। गुरुदेव ने उस बच्चे के सामने स्वर्ण मुद्राएँ और खिलौने डाले। बच्चा खिलौने की तरफ़ बढ़ा और खिलौनों को अपने हाथों में ले लिया। पर जैसै ही उसकी माँ उठकर जाने लगी, तो खिलौनों को वहीं छोड़कर वह अपनी माँ की तरफ़ भागा! माँ ने उसे अपनी गोद में उठा लिया।***__● फिर गुरुदेव आश्रम पहुँचे और शिष्य से कहने लगे – हॆ वत्स जब तक बच्चा अबोध है, तब तक वह न तो खिलौनों को महत्व देता है और न ही स्वर्ण मुद्रा को! बस अपनी माँ की गोद में ही रहना चाहता है!***__● दूसरा – जिस बच्चे ने खिलौने ले लिए थे, जैसै ही उसे, तनिक सा आभास हुआ कि उसकी माँ जा रही है, तो उसने उन खिलौनों का त्याग कर दिया और अपनी माँ के पास चला गया!***__● इसलिए हॆ वत्स ध्यान रखो – माँ और गुरु के सामने सदैव अबोध बने रहना और जीवन में सदैव त्यागी बनना! हॆ वत्स – दरअसल होता क्या है, जब तक बच्चा अबोध होता है, तब तक वह माँ से दूर नहीं होना चाहता! फिर जैसै-जैसै बड़ा होता जाता है, पहले वह खिलौनों के आकर्षण में आता है, फिर रिश्तों के आकर्षण में, और बाद में फिर वह दौलत आदि के आकर्षण में चला जाता है! इस प्रकार उसके आकर्षण बदलते रहते हैं, कभी किसी के प्रति, तो कभी किसी के प्रति! इसी तरह धीरे-धीरे मनुष्य आकर्षण के दलदल में फँसता चला जाता है!!***__● शिष्य ने गुरुदेव से पूछा – हॆ गुरुदेव! इससे कैसे बचें ? गुरुदेव ने कहा – हॆ वत्स, इसका एकमात्र उपाय है कि माँ और गुरु के सामने अबोध बनो! उनके प्रति सिर्फ़ त्यागी और प्रेमी बनो! हॆ वत्स – गुरु के चरणों में जब प्रीति बढ़ती है तो ‘आकर्षण’ अपने ‘इष्टदेव’ के प्रति आ जाता है! और जो सदगुरु होते हैं वे अपने शिष्य के जीवन में, ईश्वर के अलावा अन्य किसी भी प्रकार के आकर्षण को टिकने नहीं देते हैं!***__● ‘आकर्षण’ अल्पकालीन होता है और नित बदलता रहता है जबकि ‘प्रेम’ सदैव अजर और अमर रहता है। ‘आकर्षण’ सहज होता है और ‘प्रेम’ मुश्किल तथा निःस्वार्थ होता है! निष्काम और निष्कपट प्रेम बहुत दुर्लभ है! क्योंकि ‘प्रेम’ त्याग माँगता है! ‘देने’ का नाम प्रेम है और ‘लेने’ का नाम स्वार्थ! जहाँ स्वार्थ हावी हो जाता है, वहाँ से प्रेम चला जाता है!***__● आकर्षण किसी के भी प्रति आ सकता है! आकर्षण से मोह, और मोह से आसक्ति का उदय होता है! ‘आसक्ति’ किसी के भी, प्रति आ सकती है, लेकिन एक बात अच्छी तरह से याद रखना कि इष्टदेव के सिवा, अपने अंदर, अन्य किसी के भी प्रति, आसक्ति मत आने देना! नहीं तो, परिणाम बड़े दर्दनाक होंगे!***__● जब ‘आकर्षण’ आने लगे तो अपने गुरु के दरबार में चले जाना और इष्ट में एकनिष्ठ हो जाना!***__● एक बात हमेशा याद रखना कि ‘प्रेम गली’ बहुत सँकरी है, जहाँ दो के लिये जगह नहीं है! जैसे एक म्यान में दो तलवारें एक साथ नहीं आ सकती हैं, ठीक वैसे ही एक जीवन में दो से प्रेम नहीं हो सकता! हाँ चयन के लिये तुम पूरी तरह से स्वतंत्र हो! चाहो तो ‘अजर-अमर’ को चुन लो और चाहो तो नश्वर को चुनो! चुनना तुम्हें ही है!***__● हॆ वत्स ये कभी न भूलना कि सारे मिट्टी के खिलौने नश्वर है। केवल श्री हरि ही नित्य हैं। अतः श्री हरि और सदगुरु के दरबार में सदैव अबोध बने रहना, वहाँ अगर ज्ञानी बने तो अहम, मोह और अन्य दुर्गुणों को आने में तनिक भी समय न लगेगा!*_

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साभार…~योगिअंश रमेश चन्द्र भार्गव

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एक बार एक हंस और हंसिनी हरिद्वार के सुरम्य वातावरण


रामचंद्र आर्य.

एक बार एक हंस और हंसिनी हरिद्वार के सुरम्य वातावरण से भटकते हुए, उजड़े वीरान और रेगिस्तान के इलाके में आ गये!हंसिनी ने हंस को कहा कि ये किस उजड़े इलाके में आ गये हैं ?? यहाँ न तो जल है, न जंगल और न ही ठंडी हवाएं हैं यहाँ तो हमारा जीना मुश्किल हो जायेगा !भटकते-भटकते शाम हो गयी तो हंस ने हंसिनी से कहा कि किसी तरह आज की रात बीता लो, सुबह हम लोग हरिद्वार लौट चलेंगे !रात हुई तो जिस पेड़ के नीचे हंस और हंसिनी रुके थे, उस पर एक उल्लू बैठा था।वह जोर से चिल्लाने लगा।हंसिनी ने हंस से कहा- अरे यहाँ तो रात में सो भी नहीं सकते।ये उल्लू चिल्ला रहा है। हंस ने फिर हंसिनी को समझाया कि किसी तरह रात काट लो, मुझे अब समझ में आ गया है कि ये इलाका वीरान क्यूँ है ??ऐसे उल्लू जिस इलाके में रहेंगे वो तो वीरान और उजड़ा रहेगा ही।पेड़ पर बैठा उल्लू दोनों की बातें सुन रहा था।सुबह हुई, उल्लू नीचे आया और उसने कहा कि हंस भाई, मेरी वजह से आपको रात में तकलीफ हुई, मुझे माफ़ करदो।हंस ने कहा- कोई बात नही भैया, आपका धन्यवाद! यह कहकर जैसे ही हंस अपनी हंसिनी को लेकर आगे बढ़ा पीछे से उल्लू चिल्लाया, अरे हंस मेरी पत्नी को लेकर कहाँ जा रहे हो।हंस चौंका- उसने कहा, आपकी पत्नी ??अरे भाई, यह हंसिनी है, मेरी पत्नी है,मेरे साथ आई थी, मेरे साथ जा रही है!उल्लू ने कहा- खामोश रहो, ये मेरी पत्नी है।दोनों के बीच विवाद बढ़ गया। पूरे इलाके के लोग एकत्र हो गये। कई गावों की जनता बैठी। पंचायत बुलाई गयी। पंचलोग भी आ गये!बोले- भाई किस बात का विवाद है ??लोगों ने बताया कि उल्लू कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है और हंस कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है!लम्बी बैठक और पंचायत के बाद पंच लोग किनारे हो गये और कहा कि भाई बात तो यह सही है कि हंसिनी हंस की ही पत्नी है, लेकिन ये हंस और हंसिनी तो अभी थोड़ी देर में इस गाँव से चले जायेंगे।हमारे बीच में तो उल्लू को ही रहना है। इसलिए फैसला उल्लू के ही हक़ में ही सुनाना चाहिए! फिर पंचों ने अपना फैसला सुनाया और कहा कि सारे तथ्यों और सबूतों की जाँच करने के बाद यह पंचायत इस नतीजे पर पहुंची है कि हंसिनी उल्लू की ही पत्नी है और हंस को तत्काल गाँव छोड़ने का हुक्म दिया जाता है!यह सुनते ही हंस हैरान हो गया और रोने, चीखने और चिल्लाने लगा कि पंचायत ने गलत फैसला सुनाया। उल्लू ने मेरी पत्नी ले ली!रोते- चीखते जब वह आगे बढ़ने लगा तो उल्लू ने आवाज लगाई – ऐ मित्र हंस, रुको!हंस ने रोते हुए कहा कि भैया, अब क्या करोगे ?? पत्नी तो तुमने ले ही ली, अब जान भी लोगे ?उल्लू ने कहा- नहीं मित्र, ये हंसिनी आपकी पत्नी थी, है और रहेगी! लेकिन कल रात जब मैं चिल्ला रहा था तो आपने अपनी पत्नी से कहा था कि यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ उल्लू रहता है! मित्र, ये इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए नहीं है कि यहाँ उल्लू रहता है।यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ पर ऐसे पंच रहते हैं जो उल्लुओं के हक़ में फैसला सुनाते हैं!शायद इतने साल की आजादी के बाद भी हमारे देश की दुर्दशा का मूल कारण यही है कि हमने उम्मीदवार की योग्यता व गुण आदि न देखते हुए, हमेशा , ये हमारी बिरादरी का है, ये हमारी पार्टी का है, ये हमारे एरिया का है, के आधार पर हमेशा अपना फैसला उल्लुओं के ही पक्ष में सुनाया है, देश क़ी बदहाली और दुर्दशा के लिए कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैँ!

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आत्मबोधमेरे पतिदेव अपने व्यवसाय की एक आवश्यक मीटिंग


रामचन्द्र आर्य

आत्मबोधमेरे पतिदेव अपने व्यवसाय की एक आवश्यक मीटिंग में बिजी थे इसलिए मेरे 5 साल के बेटे को स्कूल से लाने के लिए मुझे टू-व्हीलर पर जाना पड़ा।जब मैं टू व्हीलर से घर की ओर वापस आ रही थी, तब अचानक रास्ते में मेरा बैलेंस बिगड़ा और मैं एवं मेरा बेटा हम दोनों गाड़ी सहित नीचे गिर गए।मेरे शरीर पर कई खरोंच आए लेकिन प्रभु की कृपा से मेरे बेटे को कहीं खरोंच तक नहीं आई ।हमें नीचे गिरा देखकर आसपास के कुछ लोग इकट्ठे हो गए और उन्होंने हमारी मदद करनी चाही। तभी मेरी कामवाली बाई राधा ने मुझे दूर से ही देख लिया और वह दौड़ी चली आई ।उसने मुझे सहारा देकर खड़ा किया, और अपने एक परिचित से मेरी गाड़ी एक दुकान पर खड़ी करवा दी।वह मुझे कंधे का सहारा देकर अपने घर ले गई जो पास में ही था। जैसे ही हम घर पहुंचे वैसे ही राधा के दोनों बच्चे हमारे पास आ गए। राधा ने अपने पल्लू से बंधा हुआ 50 का नोट निकाला और अपने बेटे राजू को दूध, बैंडेज एवं एंटीसेप्टिक क्रीम लेने के लिए भेजा तथा अपनी बेटी रानी को पानी गर्म करने को बोला। उसने मुझे कुर्सी पर बिठाया तथा मटके का ठंडा जल पिलाया। इतने में पानी गर्म हो गया था। वह मुझे लेकर बाथरूम में गई और वहां पर उसने मेरे सारे जख्मों को गर्म पानी से अच्छी तरह से धोकर साफ किए और बाद में वह उठकर बाहर गई । वहां से वह एक नया टावेल और एक नया गाउन मेरे लिए लेकर आई। उसने टावेल से मेरा पूरा बदन पोंछा तथा जहां आवश्यक था वहां बैंडेज लगाई। साथ ही जहां मामूली चोट थी वहां पर एंटीसेप्टिक क्रीम लगाया।अब मुझे कुछ राहत महसूस हो रही थी। उसने मुझे पहनने के लिए नया गाउन दिया वह बोली “यह गाउन मैंने कुछ दिन पहले ही खरीदा था लेकिन आज तक नहीं पहना मैडम आप यही पहन लीजिए तथा थोड़ी देर आप रेस्ट कर लीजिए।””आपके कपड़े बहुत गंदे हो रहे हैं हम इन्हें धो कर सुखा देंगे फिर आप अपने कपड़े बदल लेना।”मेरे पास कोई चॉइस नहीं थी । मैं गाउन पहनकर बाथरुम से बाहर आई। उसने झटपट अलमारी में से एक नया चद्दर निकाल और पलंग पर बिछाकर बोली आप थोड़ी देर यहीं आराम कीजिए।इतने मैं बिटिया ने दूध भी गर्म कर दिया था।राधा ने दूध में दो चम्मच हल्दी मिलाई और मुझे पीने को दिया और बड़े विश्वास से कहा मैडम आप यह दूध पी लीजिए आपके सारे जख्म भर जाएंगे।लेकिन अब मेरा ध्यान तन पर था ही नहीं बल्कि मेरे अपने मन पर था। मेरे मन के सारे जख्म एक एक कर के हरे हो रहे थे।।मैं सोच रही थी “कहां मैं और कहां यह राधा?”जिस राधा को मैं फटे पुराने कपड़े देती थी, उसने आज मुझे नया टावेल दिया, नया गाउन दिया और मेरे लिए नई बेडशीट लगाई। धन्य है यह राधा।एक तरफ मेरे दिमाग में यह सब चल रहा था तब दूसरी तरफ राधा गरम गरम चपाती और आलू की सब्जी बना रही थी।थोड़ी देर मे वह थाली लगाकर ले आई। वह बोली “आप और बेटा दोनों खाना खा लीजिए।”राधा को मालूम था कि मेरा बेटा आलू की सब्जी ही पसंद करता है और उसे गरम गरम रोटी चाहिए। इसलिए उसने रानी से तैयार करवा दी थी।रानी बड़े प्यार से मेरे बेटे को आलू की सब्जी और रोटी खिला रही थी और मैं इधर प्रायश्चित की आग में जल रही थी ।सोच रही थी कि जब भी इसका बेटा राजू मेरे घर आता था मैं उसे एक तरफ बिठा देती थी, उसको नफरत से देखती थी और इन लोगों के मन में हमारे प्रति कितना प्रेम है ।यह सब सोच सोच कर मैं आत्मग्लानि से भरी जा रही थी। मेरा मन दुख और पश्चाताप से भर गया था।तभी मेरी नज़र राजू के पैरों पर गई जो लंगड़ा कर चल रहा था। मैंने राधा से पूछा “राधा इसके पैर को क्या हो गया तुमने इलाज नहीं करवाया ?”राधा ने बड़े दुख भरे शब्दों में कहा “मैडम इसके पैर का ऑपरेशन करवाना है जिसका खर्च करीबन ₹ 10000 रुपए है।””मैंने और राजू के पापा ने रात दिन मेहनत कर के ₹5000 तो जोड़ लिए हैं ₹5000 की और आवश्यकता है। हमने बहुत कोशिश की लेकिन कहीं से मिल नहीं सके ।””ठीक है, भगवान का भरोसा है, जब आएंगे तब इलाज हो जाएगा। फिर हम लोग कर ही क्या सकते हैं?”तभी मुझे ख्याल आया कि राधा ने एक बार मुझसे ₹5000 अग्रिम मांगे थे और मैंने बहाना बनाकर मना कर दिया था।आज वही राधा अपने पल्लू में बंधे सारे रुपए हम पर खर्च कर के खुश थी और हम उसको, पैसे होते हुए भी मुकर गए थे और सोच रहे थे कि बला टली।आज मुझे पता चला कि उस वक्त इन लोगों को पैसों की कितनी सख्त आवश्यकता थी।मैं अपनी ही नजरों में गिरती ही चली जा रही थी। अब मुझे अपने शारीरिक जख्मों की चिंता बिल्कुल नहीं थी बल्कि उन जख्मों की चिंता थी जो मेरी आत्मा को मैंने ही लगाए थे। मैंने दृढ़ निश्चय किया कि जो हुआ सो हुआ लेकिन आगे जो होगा वह सर्वश्रेष्ठ ही होगा।मैंने उसी वक्त राधा के घर में जिन जिन चीजों का अभाव था उसकी एक लिस्ट अपने दिमाग में तैयार की। थोड़ी देर में मैं लगभग ठीक हो गई।मैंने अपने कपड़े चेंज किए लेकिन वह गाउन मैंने अपने पास ही रखा और राधा को बोला “यह गाऊन अब तुम्हें कभी भी नहीं दूंगी यह गाऊन मेरी जिंदगी का सबसे अमूल्य तोहफा है।”राधा बोली “मैडम यह तो बहुत हल्की रेंज का है।”राधा की बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं घर आ गई लेकिन रात भर सो नहीं पाई ।मैंने अपनी सहेली के मिस्टर, जो की हड्डी रोग विशेषज्ञ थे, उनसे राजू के लिए अगले दिन का अपॉइंटमेंट लिया। दूसरे दिन मेरी किटी पार्टी भी थी । लेकिन मैंने वह पार्टी कैंसिल कर दी और राधा की जरूरत का सारा सामान खरीदा और वह सामान लेकर में राधा के घर पहुंच गई।राधा समझ ही नहीं पा रही थी कि इतना सारा सामान एक साथ में उसके घर में क्यों लेकर गई।मैंने धीरे से उसको पास में बिठाया और बोला “मुझे मैडम मत कहो मुझे अपनी बहन ही समझो और हां कल सुबह 7:00 बजे राजू को दिखाने चलना है उसका ऑपरेशन जल्द से जल्द करवा लेंगे और तब राजू भी ठीक हो जाएगा”खुशी से राधा रो पड़ी लेकिन यह भी कहती रही कि “मैडम यह सब आप क्यों कर रहे हो? हम बहुत छोटे लोग हैं हमारे यहां तो यह सब चलता ही रहता है।”वह मेरे पैरों में झुकने लगी। यह सब सुनकर और देखकर मेरा मन भी द्रवित हो उठा और मेरी आंखों से भी आंसू के झरने फूट पड़े। मैंने उसको दोनों हाथों से ऊपर उठाया और गले लगा लिया मैंने बोला “बहन रोने की जरूरत नहीं है अब इस घर की सारी जवाबदारी मेरी है।”मैंने मन ही मन कहा राधा तुम क्या जानती हो कि मैं कितनी छोटी हूं और तुम कितनी बड़ी हो आज तुम लोगों के कारण मेरी आंखे खुल सकीं। मेरे पास इतना सब कुछ होते हुए भी मैं भगवान से और अधिक की भीख मांगती रही मैंने कभी संतोष का अनुभव नहीं किया।लेकिन आज मैंने जाना कि असली खुशी पाने में नहीं देने में है

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शिकंजी का स्वाद


शिकंजी का स्वाद.

एक प्रोफ़ेसर क्लास ले रहे थे, क्लास के सभी छात्र बड़ी ही रूचि से उनके लेक्चर को सुन रहे थे। .उनके पूछे गये सवालों के जवाब दे रहे थे. लेकिन उन छात्रों के बीच कक्षा में एक छात्र ऐसा भी था, जो चुपचाप और गुमसुम बैठा हुआ था।.प्रोफ़ेसर ने पहले ही दिन उस छात्र को नोटिस कर लिया, लेकिन कुछ नहीं बोले. .लेकिन जब ४-५ दिन तक ऐसा ही चला, तो उन्होंने उस छात्र को क्लास के बाद अपने केबिन में बुलवाया और पूछा… .तुम हर समय उदास रहते हो। क्लास में अकेले और चुपचाप बैठे रहते हो, लेक्चर पर भी ध्यान नहीं देते, क्या बात है? कुछ परेशानी है क्या?.सर, वो…..” छात्र कुछ हिचकिचाते हुए बोला, “….मेरे अतीत में कुछ ऐसा हुआ है, जिसकी वजह से मैं परेशान रहता हूँ। समझ नहीं आता क्या करूं?”.प्रोफ़ेसर भले व्यक्ति थे. उन्होंने उस छात्र को शाम को अपने घर पर बुलवाया।.शाम को जब छात्र प्रोफ़ेसर के घर पहुँचा, तो प्रोफ़ेसर ने उसे अंदर बुलाकर बैठाया। फिर स्वयं किचन में चले गये और शिकंजी बनाने लगे. .उन्होंने जानबूझकर शिकंजी में ज्यादा नमक डाल दिया। .फिर किचन से बाहर आकर शिकंजी का गिलास छात्र को देकर कहा, “ये लो, शिकंजी पियो।”.छात्र ने गिलास हाथ में लेकर जैसे ही एक घूंट लिया, अधिक नमक के स्वाद के कारण उसका मुँह अजीब सा बन गया।.यह देख प्रोफ़ेसर ने पूछा, “क्या हुआ? शिकंजी पसंद नहीं आई?”.“नहीं सर, ऐसी बात नहीं है. बस शिकंजी में नमक थोड़ा ज्यादा है.” छात्र बोला।.“अरे, अब तो ये बेकार हो गया, लाओ गिलास मुझे दो, मैं इसे फेंक देता हूँ।” .प्रोफ़ेसर ने छात्र से गिलास लेने के लिए अपना हाथ बढ़ाया. लेकिन छात्र ने मना करते हुए कहा….“नहीं सर, बस नमक ही तो ज्यादा है. थोड़ी चीनी और मिलायेंगे, तो स्वाद ठीक हो जायेगा..”यह बात सुन प्रोफ़ेसर गंभीर हो गए और बोले, “सही कहा तुमने. अब इसे समझ भी जाओ. .ये शिकंजी तुम्हारी जिंदगी है. इसमें घुला अधिक नमक तुम्हारे अतीत के बुरे अनुभव है. .जैसे नमक को शिकंजी से बाहर नहीं निकाल सकते, वैसे ही उन बुरे अनुभवों को भी जीवन से अलग नहीं कर सकते. वे बुरे अनुभव भी जीवन का हिस्सा ही हैं. .लेकिन जिस तरह हम चीनी घोलकर शिकंजी का स्वाद बदल सकते हैं. वैसे ही बुरे अनुभवों को भूलने के लिए जीवन में मिठास तो घोलनी पड़ेगी ना. .इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम अब अपने जीवन में मिठास घोलो. प्रोफ़ेसर की बात छात्र को समझ आ गयी थी.साभार :- WordPress.ऐसी ही छोटी-छोटी कथा कहानियां हमारे जीवन को बदल सकती है। इसलिए अपने बच्चों, अपने मित्रों तथा शुभचिंतकों को इस पेज से ज्यादा से ज्यादा जोड़े, ताकि उनके जीवन में भी यदि कुछ कमी है तो वह भी इन कथा कहानियों को पढ़कर, मोटिवेट हो सके तथा उनका जीवन भी ठीक रास्ते पर चल सके। इसके लिए आप सबको इस पेज की कथा कहानियां को ज्यादा से ज्यादा शेयर करना पड़ेगा, धन्यवाद..Bhakti Kathayen भक्ति कथायें~~~~~~~~~~~~~~~~~ ((((((( जय जय श्री राधे )))))))

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एक सज्जन फिजीशियन के यहां हेल्थ चेकअप करवाने पहुंचे।


रामचंद्र आर्य.

एक सज्जन फिजीशियन के यहां हेल्थ चेकअप करवाने पहुंचे। नम्बर आया तो डॉक्टर ने अन्दर बुलवाया। फिर प्रोफेशनल अंदाज में सवाल किया- हाँ बताइये! क्या समस्या है? “डॉ साब, कई दिन से तबियत कुछ ठीक नही रहती है। कई डॉक्टरों को दिखाया लेकिन कुछ फायदा नही हो रहा है।” “भूख लगती है?” “भूख तो लगती है डॉ साब।” “फीवर वगैरह तो नही होता?””बुखार…. परसों थोड़ा बुखार था जरूर लेकिन साढ़े छह सौ एम जी कालपाल दो खुराक लिये… उतर गया!” “अच्छा। ब्लड टेस्ट लिख देता हूँ, करवा लीजिये!” “होल बॉडी चेकअप करवाये हैं सोमवार को…. हीमोग्लोबिन 12 से थोड़ा कम निकला है… आयरन की गोली ले रहे हैं।” “अच्छा! वायरल वगैरह तो नही हुआ इस बीच?” “हुआ था पिछले महीने। 5 दिन अजिथ्रोमाइसिन 500 लिए, ठीक हो गया।” “गले में खराश वगैरह है क्या अभी? जीभ निकालिये!” “आsss (जीभ निकालकर) … खराश थी लेकिन montair lc ले लिए तीन दिन, सही हो गयी।” डॉ- “अच्छा” (टार्च बन्द कर के)- “थोड़ा टहला कीजिये।” “रोज सुबह तीन किमी की मॉर्निंग वॉक करते हैं। फिर लौटकर आधे घण्टे योग-प्राणायाम, तत्पश्चात दलिया, स्प्रोउट का हल्का नाश्ता करते हैं। लन्च में तीन चार चपाती और दाल, शाम में हल्का स्नैक और रात में दो रोटी और दही या हरी सब्जी।” “हम्म!!!”- फिर डॉक्टर पर्चे पर कुछ लिखने लगे। मरीज- “कोई दवा लिख रहे हैं क्या? क्या दिक्कत है डाक साब??” डॉक्टर- “दवा नही लिख रहे हैं। हमको आजकल पीठ में बहुत दर्द हो रहा है। सारा लक्षण पर्चे पर लिख दिया है, पढ़ लीजिये। आप तो अपना आला वगैरह लाये नही होंगे….. लेकिन अनुभव है आपको! थोड़ा मेरी पीठ के दर्द के लिये दवा बता दीजिए, बड़ी मेहरबानी होगी!”

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सबसे_अनमोल


Naw Nandan Prasad 

सबसे_अनमोल

अशोक जी अपनी पत्नी के साथ अपनी रिटायर्ड जिंदगी बहुत हँसी खुशी गुजा़र रहे थे…उनके तीनों बेटे अलग अलग शहरों में अपने अपने परिवारों के साथ थे…उन्होनें नियम बना रखा था….दीपावली पर तीनों बेटे सपरिवार उनके पास आते थे…वो एक सप्ताह कैसे मस्ती में बीत जाता था…कुछ पता ही नही चलता था।कैसे क्या हुआ…उनकी खुशियों को जैसे नज़र ही लग गई… अचानक शीला जी को दिल का दौरा पड़ा …एक झटके में उनकी सारी खुशियाँ बिखर गईं।तीनों बेटे दुखद समाचार पाकर दौड़े आए…उनके सब क्रिया कर्म के बाद सब शाम को एकत्रित हो गए…बड़ी बहू ने बात उठाई,”बाबूजी, अब आप यहाँ अकेले कैसे रह पाऐंगे… आप हमारे साथ चलिऐ।””नही बहू, अभी यही रहने दो…यहाँ अपनापन लगता है… बच्चों की गृहस्थी में…।”कहते कहते वो चुप से हो गए… बड़ा पोता कुछ बोलने को हुआ…उन्होंने हाथ के इशारे से उसे चुप कर दिया…”बच्चों, अब तुम लोगों की माँ हम सबको छोड़ कर जा चुकी हैं… उनकी कुछ चीजें हैं… वो तुम लोग आपस में बांट लो…हमसे अब उनकी साजसम्हाल नही हो पाऐगी।” कहते हुए अल्मारी से कुछ निकाल कर लाए….मखमल के थैले में बहुत सुंदर चाँदी का श्रंगारदान था…एक बहुत सुंदर सोने के पट्टे वाली पुरानी रिस्टवाच थी…सब इतनी खूबसूरत चीजों पर लपक से पड़े।छोटा बेटा जोश में बोला,”अरे ये घड़ी तो अम्मा सरिता को देना चाहती थी।”अशोकजी धीरे से बोले,”और सब तो मैं तुम लोगों को बराबर से दे ही चुका हूँ…इन दो चीजों से उन्हें बहुत लगाव था…बेहद चाव से कभी कभी निकाल कर देखती थीं…लेकिन अब कैसे उनकी दो चीजों को तुम तीनों में बांटू?”सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे…तभी मंझला बेटा बड़े संकोच से बोला,”ये श्रंगारदान वो मीरा को देने की बात करती थी।”पर समस्या तो बनी ही थी…वो मन में सोच रहे थे…बड़ी बहू को क्या दूँ….उनके मन के भाव शायद उसने पढ़ लिए,”बाबू जी, आप शायद मेरे विषय में सोच रहे हैं… आप श्रंगारदान मीरा को …और रिस्टवाच सरिता को दे दीजिए… अम्मा भी तो यही चाहती थी।””पर नन्दिनी, तुझे क्या दूँ…समझ में नही आ रहा।””आपके पास एक और अनमोल चीज़ है …और वो अम्माजी मुझे ही देना चाहती थीं।” सबके मुँह हैरानी से खुले रह गए… दोनों बहुऐं तो बहुत हैरान परेशान हो गईं…अब कौन सा पिटारा खुलेगा…सबकी हैरानी और परेशानी को भाँप कर बड़ी बहू मुस्कुरा कर बोली,”वो सबसे अनमोल तो आप स्वयं हैं बाबूजी…. पिछली बार अम्माजी ने मुझसे कह दिया था…मेरे बाद बाबूजी की देखरेख तेरे जिम्मे…बस अब आप उनकी इच्छा का पालन करें और हमारे साथ चलें।”

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मेरी मां गलती से असली बाबा के पास चली गई.


लक्ष्मीकांत वार्ष्णेय विजयगढ़िया

मेरी मां गलती से असली बाबा के पास चली गई. मेरी बीवी की शिकायत करने लगी. कहा – बहू ने बेटे को बस में कर रखा है, कुछ खिला-पिला दिया है, इल्म जानती है, उसकी काट चाहिए.असली बाबा ने कहा – माताजी आप बूढ़ी हो गई हैं. भगवान के भजन कीजिए. बेटा जिंदगी भर आपके पल्लू से बंधा रहा. अब उसे जो चाहिए, वो कुदरतन उसकी बीवी के पास है. आपकी बहू कोई इल्म नहीं जानती. अगर आपको बेटे से वाकई मुहब्बत है, तो जो औरत उसे खुश रख रही है, उससे आप भी खुश रहिए.मेरी मां आकर उस असली बाबा को कोस रही है क्योंकि उसने हकीकत बयान कर दी. मेरी मां चाहती थी कि बाबा कहे हां तुम्हारी बहू टोना टोटका जानती है. फिर बाबा उसे टोना तोड़ने का उपाय बताते और पैसा लेते. मेरी मां पैसा लेकर गई थी, मगर बाबा ने पैसा नहीं लिया.कहा – तुम्हारी बहू को कुछ बनवा दो इससे.मेरी मां और जल-भुन गई. मेरी मां को नकली बाबा चाहिए, असली नहीं.मेरी बीवी भी असली बाबा के पास चली गई. कहने लगी – सास ने ऐसा कुछ कर रखा है कि मेरा पति मुझसे ज्यादा अपनी मां की सुनता है.असली बाबा ने कहा – बेटी तुम तो कल की आई हुई हो,अगर तुम्हारा पति मां की इज्जत करता है, मां की बात मानता है, तो फख्र करो कि तुम श्रेष्ठ पुरुष की बीवी हो. तुम पतिदेव से ज्यादा सेवा अपनी सास की किया करो, तुमसे भी भगवान खुश होगा.मेरी बीवी भी उस असली बाबा को कोस रही है. वो चाहती थी कि बाबा उसे कोई ताबीज दें, या कोई मन्त्र लिख कर दे दें, जिसे वो मुझे घोलकर पिला दे. मगर असली बाबा ने उसे ही नसीहत दे डाली. उसे भी असली नहीं, नकली बाबा चाहिए.मेरे एक रिश्तेदार कंजूस हैं. उन्हें केंसर हुआ और वे भी असली बाबा के पास पहुंच गए. असली बाबा से केंसर का इलाज पूछने लगे.बाबा ने उसे डांट कर कहा – भाई इलाज कराओ, भभूत से भी कहीं कोई बीमारी अच्छी होती है. हम रूहानी बीमारियों का इलाज करते हैं, कंजूसी भी एक रूहानी बीमारी है. जाओ अस्पताल जाओ, यहां मत आना.उन्हें भी उस असली सन्त से चिढ़ हुई. कहने लगे – नकली है साला, कुछ जानता-वानता नहीं.एक और रिश्तेदार चले गए असल सन्त के पास,पूछने लगे – धंधे में घाटा जा रहा है, कुछ दुआ कर दो.सन्त ने कहा – दुआ से क्या होगा धंधे पर ध्यान दो. बाबा फकीरों के पास बैठने की बजाय दुकान पर बैठो, बाजार का जायजा लो कि क्या चल रहा है.वे भी आकर खूब चिढ़े. वे चाह रहे थे कि बाबा कोई दुआ पढ़ दें. मगर असली सन्त इस तरह लोगों को झूठे दिलासे नहीं देते. इसीलिए लोगों को असली बाबा,असली संत, ईश्वर के असल बंदे नहीं चाहिए.कबीर को, नानक को, रैदास को इसीलिए तकलीफें उठानी पड़ीं कि ये लोग सच बात कहते थे. किसी का लिहाज नहीं करते थे.नकली फकीरों, और साधु संतों की चल-हल इसीलिए संसार में ज्यादा है, क्योंकि लोग झूठ सुनना चाहते हैं, झूठ पर यकीन करना चाहते हैं, झूठे दिलासों में जीना चाहते हैं. सो लाख कह दिया जाए फलाँ फर्जी है, मगर लोगों फर्जी संत चाहिए.*इस कठोर दुनिया में झूठ और झूठे दिलासे ही उनका सहारा हैं. सो जैसी डिमांड वैसी सप्लाई*####