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एक था पागल…


एक था पागल…

जब मैं ऋषि उद्यान अजमेर गुरुकुल में अध्ययन करता था तब उस समय गुरुकुल के लिए बाहर से सामान लाने की मेरी ही पर्याय थी…क्योंकि अन्य ब्रह्मचारियों को चार पहिया वाहन चलाना नहीं आता था‌।

एक दिन मैं गाड़ी से आ रहा था तो आना सागर के किनारे मैंने एक विक्षिप्त दशा के व्यक्ति को लोहे की जंजीरों से जकडा हुआ देखा, दिखने में वह ऐसा ही था जैसा मैं दिख रहा हूँ अभी, उसके सारे वस्त्र फटे हुए थे और वह मार्ग में पडे केले के छिलके खा रहा था और एकदम पसीने से लथपथ,,

मैंने गाडी रोकी और उसे गौर से देखा, तो उसने भी मुझे गौर से देखा,,

मैंने गाडी का गियर बदलते हुए आगे थोडी सी गाडी बढाई और बढाते बढाते स्वयं को जोर से बोलकर कहा कि..

काश ! यह पागल न होता तो आज यह जंजीरों में न जकडा होता और इसकी यह स्थिति न होती….हे प्रभु

यह उसने सुन लिया तो वह जोर से बोला अरे रुक रुक गाड़ी रोक; मैंने सोचा कि कहीं बुरा तो नहीं मान गया यदि बुरा मान गया होगा तो कहीं गाड़ी को पत्थर न मार दे..लेकिन लेकिन मैंने फिर भी गाड़ी रोक दी उसने कहा कि गाड़ी पीछे लो मैंने गाड़ी पीछे ले ली,

फिर उसने जो कहा वह मुझे आज तक विस्मृत नहीं हुआ

उसने कहा कि मैं तो मात्र लोहे की जंजीर से बँधा हूँ यह कुछ दिन में खुल ही जाएगी..किन्तु तू जिस जंजीर से बँधा है उससे तू कभी मुक्त नहीं हो पाएगा और तुझे नहीं पता हो तो बता देता हूँ… अहंकार और मोह की जो जंजीर है उसे काटना बहुत कठिन हैं तुम जैसे लोगों के लिए …

उन महाशय के अमृत वचन सुनकर मस्तिष्क में झन्नाटेदार विद्युत का प्रवेश हुआ ..और गाडी का टाँप गियर लगाया और सीधे भागकर “अपना सा मुँह” लेकर गुरुकुल लौट लिए ।

और फिर सोचा कि आज के पश्चात् कभी भी किसी के बाह्य आवरण से उसका आँकलन नहीं करूँगा…

आप भी मत करना..

वास्तव में हमें पता ही नहीं कि हम अदृश्य जंजीरों के बंधन में कैद हैं..जब तक यह पता नहीं चलेगा तब तक हम इनसे मुक्त होने का प्रयत्न क्यों करेंगे..?

उन महाशय को तो किसी और ने बाँधा होगा किंतु हमने तो स्वयं ने ही बांध रखा है।

और मजे की की बात तो यह है कि हम इन बंधनों को अहंकार के कारण आभूषण समझते हैं ।

वह व्यक्ति यदि अपना संतुलन खो बैठे तो भी वह अपने स्थान पर बधाँ हुआ अपने वस्त्र ही फाड सकता है बस,, इससे अधिक कुछ नहीं

लेकिन जब एक शांतिदूत अपना मानसिक संतुलन खो बैठे तो वह किसी बड़े शहर को भी बम से फाड सकता है

एक चिकित्सक पागल हो जाए तो वह कितने लोगों की किडनियाँ बेच सकता है…अभी आप देख रहे हैं

एक नेता पागल हो जाए तो दंगे कराकर कितने लोगों की जान ले सकता है ..सोचो

सत्य तो यही है कि हम उस व्यक्ति से लाखों गुना अधिक पागल हैं..और हम कहते उसको पागल हैं क्योंकि हम स्वयं को पागल मानते ही नहीं क्योंकि हर पागल को यही लगता है कि मैं पागल नहीं हूँ…

मेरे विचार से वह जंजीरें हमारे जैसे लोगों के हाथ पैरों में होनी चाहिए ..उसके में नहीं।

वैसे भी ! आयुर्वेद में कहा है कि जब तक व्यक्ति की समाधि नहीं लग जाती तब तक वह मानसिक रूप से पागल ही रहता है उसको जितना जितना स्वबोध होता जाता है उतना पागलपन उसका न्यून होता जाता है।

सब अपने अपने स्तर के पागल हैं..मात्र भेद इतना हैं कि वह अपने ही वस्त्र फाडता था और हम औरों के फाडते हैं यानि कि जेब काटते हैं कानून से, ताकत से, बेबकूफ बनाकर और किसी का बलात्कार करते समय सारे के सारे ही …..आदि आदि

यदि हम वस्त्रों से किसी का आँकलन करेंगे तो हम कभी भी उपनिषद के रैंक्व ऋषि (गाडीवान) जैसी विभूतियों को नहीं सुन सकते..जो धूप से बचने के लिए एक बैलगाडी के नीचे बैठकर दाद खुजाते रहते थे, जिनको भारत के बडे बडे सम्राट सुनते थे ।

किस वेशभूषा में कौन कब कहाँ मिल जाए कुछ कह नहीं सकते…इसीलिए अपने थोथे ज्ञान की अकड अपने खीसे में ही रखें तो अच्छा होगा हमारे लिए ..नहीं तो ऐसे ही अपमानित होओगे जैसे मैं हुआ ।

आत्मावलोकन करते रहें…

दार्शनिक_विचार 🙏🙏

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