[ श्री आद्यशङ्कराचार्य जी ]
सर्वप्रथम श्री श्री आद्य जगद्गुरु भगवत्पाद शङ्कराचार्य जी की पावन जन्म जयञ्ती तिथि अवसर पर सप्रेम अर्चन वन्दन। सभी शाङ्कर परम्परानुयायियों व स्नेहीजनों को मङ्गलमय शुभ-कामनायें……
बन्धुओं! आदि शङ्कराचार्य जी अद्वैत वेदांत दर्शन के प्रणेता, मूर्तिपूजा के पुरस्कर्ता, पञ्चायतन पूजा के प्रवर्तक है। आदि शङ्कराचार्य जी के अद्वैत दर्शन के अनुसार ब्रह्म और जीव या आत्त्मा और परमात्मा एकरुप हैं। किंतु ज्ञान के अभाव में ही दोनों अलग-अलग दिखाई देते हैं। आदि शङ्कराचार्य ने परमात्मा के साकार और निराकार दोनों ही रुपों को मान्यता दी। उन्होनें सगुण धारा की मूर्तिपूजा और निर्गुण धारा के ईश्वर दर्शन की अपने ज्ञान और तर्क के माध्यम से सार्थकता सिद्ध की। इस प्रकार सनातन धर्म के संरक्षण के प्रयासों को देखकर ही जनसामान्य ने उनको भगवान शङ्कर का ही अवतार माना। यही कारण है कि उनके नाम के साथ भगवान शब्द जोड़ा गया और वह भगवान आदि शङ्कराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।
उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी भाष्य बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है। इन्होंने भारतवर्ष में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिनके प्रबंधक तथा गद्दी के अधिकारी ‘शङ्कराचार्य’ कहे जाते हैं।
वे चारों स्थान ये हैं — (१) बदरिकाश्रम, (२) शृंगेरी पीठ, (३) द्वारिका पीठ और (४) शारदा पीठ। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है।
आदिगुरु शङ्कराचार्य — जन्म- ५०७ ई०पू०,
जन्मस्थान – कलाड़ी, चेर साम्राज्य वर्तमान में केरल, भारत,
मृत्यु- ४७५ ई०पू० (उम्र ३२)
केदारनाथ, पाल साम्राज्य वर्तमान में उत्तराखंड, भारत
गुरु/शिक्षक- गोविंद भगवत्पाद जी
दर्शन- अद्वैत वेदांत
सम्मान- शिवावतार, आदिगुरु, श्रीमज्जगदगुरु, धर्मचक्रप्रवर्तक
धर्म- हिन्दू
उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शङ्कराचार्य जी को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्धमतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, शृंगेरी एवं द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना की।
कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञानविज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्गमय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट ख्यापित करने वाले चतुराम्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरुप भगवत्पाद शङ्कराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है।
कलियुग की अपेक्षा त्रेता में तथा त्रेता की अपेक्षा द्वापर में , द्वापर की अपेक्षा कलि में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्ति एवं धर्म औेर आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है। यही कारण है कि कृतयुग में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किया। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु औऱ शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवं ब्रह्मसूत्रों की संरचनाकर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षितकर धर्म तथा अध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शङ्कराचार्य ने भाष्य , प्रकरण तथा स्तोत्रग्रन्थों की संरचना कर , विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ , परकायप्रवेशकर , नारदकुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकटकर तथा प्रस्थापित कर , सुधन्वा सार्वभौम को राजसिंहासन समर्पित कर एवं चतुराम्नाय – चतुष्पीठों की स्थापना कर अहर्निश अथक परिश्रम के द्वारा धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया।
व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्यों को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र , कुलाचार तथा श्रौत-स्मार्त कर्म , उपासना तथा ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार-प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिये व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भावपूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामंजस्य बनाये रखने की प्रेरणा प्रदान की। ब्रह्मतेज तथा क्षात्रबल के साहचर्य से सर्वसुमङ्गल कालयोग की सिद्धि को सुनिश्चित मानकर कालगर्भित तथा कालातीतदर्शी आचार्य शङ्कर ने व्यासपीठ तथा राजपीठ का शोधनकर दोनों में सैद्धान्तिक सामंजस्य साधा।
आचार्य शङ्कर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि सर्वमान्य है। महाराज सुधन्वा चौहान, जो कि शङ्कर के समकालीन थे, उनके ताम्रपत्र अभिलेख में शङ्कर का जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई०पू०) है। इसके प्रमाण सभी शाङ्कर मठों में मिलते हैं। जन्म केरल में कालाडि अथवा ‘काषल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। बहुत दिन तक सपत्नीक शिव को आराधना करने के अनंतर शिवगुरु ने पुत्ररत्न पाया था। अत: उसका नाम शङ्कर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकाण्ड पण्डित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदीकिनारे एक मगरमच्छ ने शङ्कराचार्यजी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते शङ्कराचार्य जी ने अपने माँ से कहा ” माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नहीं तो ये मगरमच्छ मुझे खा जायेगी “, इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की ; और आश्चर्य की बात है की, जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे तुरन्त मगरमच्छ ने शङ्कराचार्य जी का पैर छोड़ दिया और इन्होंने गोविन्द स्वामी जी से संन्यास ग्रहण किया।
पहले ये कुछ दिनों तक काशी में रहे, और तब विजिलबिंदु के तालवन में शङ्कराचार्य जी का सामना महान मीमांसक विद्वान मंडन मिश्र से हुआ। शङ्कराचार्य जी ने उन्हें इस बात पर सहमत कर लिया कि कर्म मार्ग की तुलना में ज्ञान मार्ग श्रेष्ठ है। लेकिन इसी दौरान, मंडन मिश्र की पत्नी भारती ने बड़ी चतुराई से शङ्कराचार्य जी के सामने कामशास्त्र के ज्ञान के बारे में सवाल दाग दिया। इसके जवाब में जब शङ्कराचार्य ने अनभिज्ञता जताई तो वह बोली,- ‘आपने एंद्रिक आनंद और भावनात्मक निकटता को महसूस नहीं किया। उसके बारे में आपको जानकारी नहीं है, तो आप कैसे दुनिया को जानने-समझने का दावा कर सकते हैं.’। इस घटना के बाद क्या हुआ, यह रहस्य है बल्कि बाद में शुद्धतावादियों ने इस जानकारी को भी संपादित कर दिया।
वैसे कहा जाता है कि शङ्कराचार्य जी अपनी योगशक्ति के बल पर कश्मीर के राजा आमरू की मृत देह में समा गए थे। इस तरह उस देह को चेतन कर उन्होंने उसमें रहते हुए लंबे समय तक सभी तरह के दैहिक सुखों का भोग किया। उन्होंने अपने कामोत्तेजक प्रेमकाव्य ‘आमरू-शतक’ में इन अनुभवों का वर्णन भी किया है। पुनः इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया तथा वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया।
शङ्कराचार्य जी का आविर्भावादि शास्त्रीय प्रमाण –
सर्गे प्राथमिके प्रयाति विरतिं मार्गे स्थिते दौर्गते
स्वर्गे दुर्गमतामुपेयुषि भृशं दुर्गेऽपवर्गे सति।
वर्गे देहभृतां निसर्ग मलिने जातोपसर्गेऽखिले
सर्गे विश्वसृजस्तदीयवपुषा भर्गोऽवतीर्णो भुवि।।
अर्थ:- ” सनातन संस्कृति के पुरोधा सनकादि महर्षियों का प्राथमिक सर्ग जब उपरति को प्राप्त हो गया , अभ्युदय तथा नि:श्रेयसप्रद वैदिक सन्मार्ग की दुर्गति होने लगी , फलस्वरुप स्वर्ग दुर्गम होने लगा ,अपवर्ग अगम हो गया , तब इस भूतल पर भगवान भर्ग ( शिव ) शङ्कर रूप से अवतीर्ण हुऐ। “
भगवान शिव द्वारा द्वारा कलियुग के प्रथम चरण में अपने चार शिष्यों के साथ जगदगुरु आचार्य शङ्कर के रूप में अवतार लेने का वर्णन पुराणशास्त्र में भी वर्णित हैं जो इस प्रकार हैं –
कल्यब्दे द्विसहस्त्रान्ते लोकानुग्रहकाम्यया।
चतुर्भि: सह शिष्यैस्तु शंकरोऽवतरिष्यति।।
— ( भविष्योत्तर पुराण ३६ )
अर्थ :- ” कलि के दो सहस्त्र वर्ष व्यतीत होने के पश्चात लोक अनुग्रह की कामना से श्री सर्वेश्वर शिव अपने चार शिष्यों के साथ अवतार धारण कर अवतरित होते हैं। “
निन्दन्ति वेदविद्यांच द्विजा: कर्माणि वै कलौ।
कलौ देवो महादेव: शंकरो नीललोहित:।।
प्रकाशते प्रतिष्ठार्थं धर्मस्य विकृताकृति:।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनापि शंकरम्।।
कलिदोषान्विनिर्जित्य प्रयान्ति परमं पदम्।
— (लिङ्गपुराण ४०. २०-२१.१/२)
अर्थ:- ” कलि में ब्राह्मण वेदविद्या और वैदिक कर्मों की जब निन्दा करने लगते हैं ; रुद्र संज्ञक विकटरुप नीललोहित महादेव धर्म की प्रतिष्ठा के लिये अवतीर्ण होते हैं। जो ब्राह्मणादि जिस किसी उपाय से उनका आस्था सहित अनुसरण सेवन करते हैं ; वे परमगति को प्राप्त होते हैं। “
कलौ रुद्रो महादेवो लोकानामीश्वर: पर:।
न देवता भवेन्नृणां देवतानांच दैवतम्। ।
करिष्यत्यवताराणि शंकरो नीललोहित:।
श्रौतस्मार्त्तप्रतिष्ठार्थं भक्तानां हितकाम्यया। ।
उपदेक्ष्यति तज्ज्ञानं शिष्याणां ब्रह्मासंज्ञितम।
सर्ववेदान्तसार हि धर्मान वेदनदिर्शितान। ।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनोपचारत:।
विजित्य कलिजान दोषान यान्ति ते परमं पदम। ।
— ( कूर्मपुराण १.२८.३२-३४)
अर्थ:- ” कलि में देवों के देव महादेव लोकों के परमेश्वर रुद्र शिव मनुष्यों के उद्धार के लिये उन भक्तों की हित की कामना से श्रौत-स्मार्त -प्रतिपादित धर्म की प्रतिष्ठा के लिये विविध अवतारों को ग्रहण करेंगें। वे शिष्यों को वेदप्रतिपादित सर्ववेदान्तसार ब्रह्मज्ञानरुप मोक्ष धर्मों का उपदेश करेंगें। जो ब्राह्मण जिस किसी भी प्रकार उनका सेवन करते हैं ; वे कलिप्रभव दोषों को जीतकर परमपद को प्राप्त करते हैं। “
व्याकुर्वन् व्याससूत्रार्थं श्रुतेरर्थं यथोचिवान्।
श्रुतेर्न्याय: स एवार्थ: शंकर: सवितानन:।।
— ( शिवपुराण-रुद्रखण्ड ७.१)
अर्थ:- “सूर्यसदृश प्रतापी श्री शिवावतार आचार्य शङ्कर श्री बादरायण – वेदव्यासविरचित ब्रह्मसूत्रों पर श्रुतिसम्मत युक्तियुक्त भाष्य संरचना करते हैं। “
४७५ ई०पू० ३२ वर्ष की अल्प आयु में केदारनाथ के समीप शिवलोक गमन किए थे।
पुनश्च श्री श्री आद्य जगद्गुरु भगवत्पाद शङ्कराचार्य जी की पावन जन्म जयञ्ती तिथि अवसर पर सप्रेम अर्चन वन्दन। सभी परम्परानुयायियों व स्नेहीजनों को मङ्गलमय शुभ-कामनायें……
“””” वंदे गुरुपरम्पराम्””””
— ज्योतिर्विद पं॰ मनीष तिवारी
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