Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

राणा अजयसिंग गौर

गौर राजा दरियावचंद्र ने अपनी बहादुरी से पूरी अंग्रेजी फौज को गंगापार खदेड दिया। दहशतजदा अंग्रेज बौखला गये और घात लगाकर राजा को पकडकर फांसी पर लटका दिया।

कानपुर देहात-आज आज़ादी का दिन है, लोग जश्नों में डूबे हैं। हर तरफ खुशियों का माहौल है।स्कूलों, सरकारी दफ्तरों व निजी संस्थानों में लोग हर्षोउल्लास कर मिष्ठान वितरण कर रहे हैं लेकिन उस ग़दर में शहादत को सुपर्द हुए उन वीर सपूतों की पीढ़ी गुजरने के बाद आज भी उनके घरों में सिसकारियां निकल जाती हैं। आज भी उन दरकती गुम्बदों व जर्जर ऊंची दीवारों को देख उनकी आंखों के सामने वह मंजर गुजर जाता है। शायद उन्होंने इस आज़ादी के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था। फिर चाहे वो रियासत हो या कई जिंदगियां। ऐसी ही एक रियासत गौर राजा दरियावचंद्र की थी। जनपद के उत्तरी छोर पर नार कहिंजरी में स्थित वह ध्वस्त किला और उसकी चाहरदीवारी को छूती रिन्द नदी की लहरें आज भी उस बर्बरता की दास्तां कह जाती हैं।

राजा ने अंग्रेजों को गंगा पार खदेड़ दिया

ररसूलाबाद क्षेत्र में रिन्द नदी किनारे तक्षशिला के राजा नार ऋषिदेव ने इस किले का निर्माण कराया था। इसके बाद यहां नार कालिंजर नगर बसाया था। जिसे आज लोग नार कहिंजरी के नाम से जानते हैं। इस किले में गौर राजा अपनी रियासत के लोगों की समस्याओं का निराकरण करते थे। 1857 का दौर आया और जंग-ए-आज़ादी का ऐलान हो गया। रणबांकुरे घरों से निकलकर अंग्रेजों से मुकाबले में डट गए। दरियावचंद्र गौर वंशी थे, उन्होंने भी आज़ादी की जंग में शंखनाद कर दिया। इधर अंग्रेजी सेना उनकी रियासत को लूटने की फिराक में थी। राजा ने अपने इसी किले में बैठकर अंग्रेजों से लोहा लेने की रणनीति बनाई। फिर उन्होंने अपनी सेना के साथ बहादुरी के साथ अंग्रेजी फौज को गंगा पार तक खदेड़ दिया था। इसके बाद उन्होंने तहसील का सरकारी खजाना लूट लिया था।

राजा के कौशल को देख अंग्रेज भयभीत हुए

गौर राजा दरियाव चंद्र के इस हमले के बाद अंग्रेजी अफसर दहशत में आ गए और अपनी हार को देख बुरी तरह बौखला गए। अब अंग्रेज अफसरों के लिए राजा एक निशाना बने हुए थे। अफसरों ने नए तरीके से रणनीति तैयार की और फिर घात लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद उन्हें ले जाकर रसूलाबाद के धर्मगढ़ परिसर में खड़े नीम के पेड़ से लटका कर फांसी पर लटका दिया। जिसके बाद अंग्रेजी फौज ने उनके किले पर हमला बोला दिया। किले की ऊंची व मोटी दीवारें ढहाने में सेना लगी रही लेकिन पूरी तरह किले को ध्वस्त नहीं कर सके। धीरे धीरे समय गुजरता गया और उनकी रियासत जमींदार पहलवान सिंह को सौंप दी गयी।

शहीद हुए थे सैंकड़ों क्रांतिकारी

राजा की गिरफ्तारी के लिए षणयंत्र बनाने के बाद अंग्रेजी सेना जब राजा की गिरफ्तारी के लिए पहुंची तो भयावह जंग छिड़ गई, जमकर युद्ध हुआ। जेहन में आज़ादी का जुनून पाले आक्रोशित क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सेना को लगभग परास्त कर ही दिया था कि तभी धोखेबाज गोरों ने अपनी फितरती चाल से राजा को गिरफ्तार कर लिया गया। लंबी चले इस रण में बड़ी तादाद में देश के वीर सपूत शहीद हुए थे। आज उन दरकते पत्थरों में जंग की वो इबारत लिखी हुई है।

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This King Had Overthrown Angrej They Fear Kanpur Dehat

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शंकरो शंकर साक्षात्


शंकरो शंकर साक्षात्

Smita Singh

                    शंकरो शंकर साक्षात् दक्षिण भारत में स्थित केरल राज्य का कालड़ी गांव…जहां सन् 788ईं में एक ऐसी दिव्य आत्मा अवतरित हुई… जिसके ज्ञान रूपी दिव्य प्रकाश ने पूरे भारत से अज्ञानता के अंधकार को हमेशा-हमेशा के लिए दूर कर दिया…कहा जाता है कि इस महाज्ञानी शक्तिपुंज के रूप में स्वयं भगवान शंकर इस धरती पर प्रकट हुए थे…
शिवगुरू नामपुद्रि के यहां विवाह के कईं साल बाद भी कोई संतान नहीं हुई…भगवान भोलेनाथ शिवगुरू के ईष्ट गुरू थे.. इसलिए उसने पुत्र प्राप्ति की कामना के लिए अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ कईं सालों तक भगवान शंकर की कठोर आराधना की…
शिवगुरू और विशिष्टादेवी की भक्ति से प्रसन्न होकर देवाधिदेव महादेव ने शिवगुरू को स्वप्न में दर्शन दिए और वर मांगने को कहा…शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरू से वरदान स्वरूप एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र मांगा…लेकिन भगवान शंकर ने उन्हें कहा कि… वत्स दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा…बोलो तुम कौन सा पुत्र चाहते हो…तब धर्मप्राण शिवगुरू ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की…औघड़दानी भगवान शिव ने कहा कि वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी…और मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहां जन्म लूंगा…
 वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन मध्यकाल में विशिष्टादेवी की कोख से परम प्रकाशरूप, अति सुंदर बालक का जन्म हुआ…देवज्ञ ब्राह्मणों ने बालक के मस्तक पर चक्र, ललाट पर नेत्र और स्कंध पर शूल परिलक्षित कर उसे शिवावतार घोषित कर दिया…और बालक का नाम शंकर रख दिया…
जिस समय जगदगुरू शंकराचार्य का जन्म हुआ उस समय भारत में वैदिक धर्म पतन की ओर जा रहा था… मानवता नाम की कोई चीज़ समाज में नहीं थी…ऐसे में आचार्य शंकर मानव धर्म के लिए प्रकाश स्तंभ बनकर उभरे…
शंकराचार्य की शिक्षा
अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित्षोडशे कृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात् अर्थात…आठ वर्ष की आयु में चारो वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत ,सोलह साल की आयु में शांकरभाष्य और 32 वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया…
भगवान शंकर के अवतार आदिगुरू शंकराचार्य बचपन से पढ़ाई में काफी तेज़ थे… तीन साल की आयु में ही बालक शंकर ने मलयालम सीख चुके थे..पर पिता शिवगुरू चाहते थे कि शंकर संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें…लेकिन पिता की अकाल मृत्यु से बालक शंकर के सिर से बचपन में ही पिता की छत्रछाया उठ गई और सारा बोझ उनकी माता विशिष्टादेवी के कंधों पर आ गया…पांच वर्ष की आयु में बालक शंकर को यज्ञोपवीत संस्कार करवाकर वेद अध्ययन के लिए गुरुकुल भेज दिया गया…असीमित प्रतिभा के धनी बालक शंकर को महज दो साल के समय में ही वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण और महाभारत जैसे सभी ग्रंथ कठस्थ हो गए…गुरू का आशीर्वाद पाकर बालक शंकर घर लौट आए और माता की सेवा करने लगे…कुछ समय बाद इनकी माता ने इनका विवाह करने की सोची… लेकिन बालक शंकर गृहस्थी के झंझट से दूर रहना चाहते थे…इसी बीच एक ज्योतिषी से जब बालक शंकर को ये पता चला कि अल्पायु में ही इनकी मृत्यु का योग है तो उनके मन में संन्यास लेकर लोक-सेवा की भावना और ज्यादा प्रबल हो गई…और मां से हठ कर शंकर महज 7 वर्ष की आयु में संन्यासी बन गए…
शंकराचार्य का भारत भ्रमणसंन्यासी बनने के बाद बालक शंकर ने सबसे पहला काम भारत भ्रमण का किया.. मां से आशीर्वाद लेकर घर से निकले बालक शंकर ने केरल से अपनी यात्रा की शुरुआत की.. और उनका सबसे पहला पड़ाव था नर्मदा नदी के तट पर स्थित ओंकारनाथ….यहां बालक शंकर ने गुरू गोविंदपाद के सानिध्य में योग शिक्षा और अद्वैत ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया…तीन साल तक आचार्य शंकर अद्वैत तत्व की कठिन साधना करते रहे…इसके बाद गुरू का आशीर्वाद पाकर आदिगुरू शंकराचार्य काशी विश्वनाथ के दर्शन के लिए निकल पड़े…इस यात्रा के दौरान आचार्य शंकर ने अपने अलग-अलग स्थानों पर अपने दिव्य ज्ञान से बड़े-बड़े ज्ञानी पंडितों को भी शास्त्रार्थ में हरा दिया…और गुरू पद पर प्रतिष्ठित हुए… शंकराचार्य का दर्शनदेश भ्रमण के दौरान प्राप्त हुए ज्ञान के बाद आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए… जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद और निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार की भक्ति की धाराएं हिलोरें लेने लगी..उन्होंने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है..उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुंचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना… ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर ये भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है…आचार्य शंकर ने…

ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या का उद्घोष किया यानि ब्रह्मं ही सत्य है और ये संपूर्ण जग महज एक भ्रम है…यही नहीं आदि गुरू शंकराचार्य ने शिव, पार्वती,गणेश और भगवान विष्णु के भक्तिरस स्तोत्र की रचना भी की…इन रचनाओं में ग्राफिक्स इन-सौन्दर्य लहरी और विवेक चूड़ामणि जैसे श्रेष्ट ग्रंथ में शामिल थे…ये आदिगुरू शंकराचार्य ही थे जिन्होंने अपने अकाट्य तर्कों से शैव-शाक्त और वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त कर दिया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया..
चार मठों की स्थापनासमस्त ज्ञान अर्जन और उसके दर्शन के बाद अब बारी थी संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोने का…मूर्ति पूजा जैसी कुरीतियों से समाज को छुटकारा दिलाने का…आदिगुरू शंकराचार्य ने ऐसा ही किया… उन्होंने चार मठों की स्थापना कर पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक और भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया।इन चार मठों में से सबसे पहला मठ था श्रंगेरी मठ… श्रंगेरी मठआदिगुरू ने सनातन संस्कृति के सामाजिक विकास के लिए जिस तंत्र की स्थापना की उसमें सबसे पहला मठ है… श्रृंगेरी पीठ…जगतगुरूशंकराचार्य ने दक्षिण भारत के कर्नाटकराज्यमें मंगलौर से 104 किलोमीटर दूर श्रृंगेरी में इस मठ को स्थापित किया… श्रृंगेरी तुंगभद्रा नदी के तट परसह्या पर्वत की तलहटी में बसा है… श्रृंगेरी सात पुरियों में से एक है…उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी में स्थित दूसरा मठ था…सनातन संस्कृति में वैदिक दर्शन के सूत्रधार हैं आदिगुरू इसीलिए श्रृंगेरी मठ की शाखा यजुर्वेद है… साथ ही इस मठ का सूत्र वाक्य है अहं ब्रह्मास्मि…अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूं… आदिदेव शंकरऔर आदि वाराह इस मठ के देवता माने जाते हैं… देवी कामाक्षी को इस मठ की आदि देवी माना जाता है… मठ के गुरू अद्वैत दर्शन को मानते हैं..गोवर्धन मठकहते हैं भारत भ्रमण पर जब जगतगुरू निकले तो आध्यात्मिक विजय के लिए शंकराचार्य पुरी भी पहुंचे…आदिगुरू का तो बस एक ही सिंद्धांत था कि परमात्मा तो हर रूप में मिलता है….और जीवन को प्रकाश वेद के सूत्रों से मिलता है….वैदिक ज्ञान ही आपके जीवन को सदगति प्रदान करता है….वैदिक ज्ञान से ही आदि अगोचर ब्रह्म को जाना जा सकता है और मोक्ष के लिए रास्ते बनाए जा सकते हैं…अपनी इस विचार धारा से शंकराचार्य ने पुरी के बौद्ध मठाधीशों को भी प्रभावित किया और उनको सनातन संस्कृति को अपनाने के लिए प्रेरित किया…इसी धार्मिक प्रचार को आगे बढ़ाने के लिए शंकराचार्य ने पुरी में गोवर्धन पीठ का स्थापना की…आदि शंकराचार्य के चार शिष्यों में से पहले शिष्य पद्मपाद इस मठ के पहले मठाधीश बने…इस मठ की शाखा ऋग्वेद है तथा सूत्र वाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म है…इसलिए इसे पूर्वमन्या श्री गोवर्धन भोगवर्धन पीठम भी कहते हैं…इस मठ का संबंध संन्यासियों के आरण्य सम्प्रदाय से है…इस पीठ के देवता भगवान जगन्नाथ और बलभद्र जी हैं साथ ही इस मठ की देवी विमला (लक्ष्मी जी) हैं…कहते हैं कि ये स्थान 51 शक्ति पीठों में से एक है यहां मां सती का नवल भाग गिरा था…शारदा मठपूर्व में पुरी के बाद जगतगुरू का अगला पड़ाव पश्चिम में था गुजरात प्रदेश…राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए पश्चिम में एक धार्मिक स्तंभ का होना आवश्यक था…लिहाजा आदिगुरू शंकराचार्य ने शारदा पीठ की स्थापना की….गुजरात के द्वारका में है शारदा पीठ…सनातन धर्म के चार धामों में से एक द्वारका धाम भी यहीं पर है….इस पीठ का संबंध साधु और संन्यासियों के तीर्थ और आश्रम संप्रदाय से है। इस पीठ की शाखा सामवेद है और इस पीठ का सूत्र वाक्य तत्त्वमसि है….तत्वमसि का अर्थ है…तुम वही हो…अर्थात सभी जीवों में ब्रह्म का वास है…ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी को इस मठ का देवता माना जाता है…शिवजी को ही सिद्धेश्वरदेवता कहा जाता है….देवा भद्र काली एक मठ की आदिदेवी मानी गई है…शारदा मठ के प्रथम पीठाधीश हस्तामलक (पृथ्वीधर) बने…हस्तामलक का नाम भगवान शंकराचार्य के मुख्य चार शिष्यों में लिया जाता है…ज्योर्तिमठदेवों की नगरी देवभूमि है उत्तराखंड…आदिगुरू शंकराचार्य ने सनातन संस्कृति के विकास और संधान के लिए जो सबसे आखिरी ठिकाना चुना वो था बद्रिकाश्रम… आदिगुरू ने यहां ज्योर्तिमठ की स्थापना की…इस मठ का संबंध साधु-संन्यासियों के गिरि, पर्वत और सागर पंथ से है…इस पीठ का सूत्रवाक्य अयमात्मा ब्रह्म है…इस पीठ का संबंध अथर्ववेद शाखा से है…इस मठ के पहले पीठाधीश आचार्य तोटक बने…ज्योर्तिमठ के देवता नर-नारायण माने गए हैं…साथ ही इस पीठ की आदिदेवी देवी पुन्नगिरी (पुण्य गिरि) को माना गया है…अलकनन्दा नदी को इसपीठ का मुख्य तीर्थ कहा जाता है….जो मुक्ति मोक्ष का क्षेत्र मानी जाती है…इस पीठ के संबंध जिस सम्प्रदाय से है उसे आनन्दवार कहते है…योगियों का वह सम्प्रदाय, जिसनेभोगों तथा विलासों का परित्याग कर दिया है,’आनन्दवार सम्प्रदाय’ कहलाता है..
आदिगुरू ने ना सिर्फ इन चार मठों की स्थापना कर धार्मिक सौहार्द का संदेश दिया… बल्कि संपूर्ण मानव जाति को जीवन मुक्ति का सिर्फ एक सूत्र दिया… और वो सूत्र था…‘दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥’अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें।शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे। उन्हें हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है।शंकर के मायावाद पर महायान बौद्ध चिंतन का प्रभाव माना जाता है…इसीलिए उन्हें प्रछन्न बुद्ध भी कहा जाता है…
अपने अद्वैत चिंतन से सनातन हिंदू धर्म के दार्शनिक आधार में जान फूंकने के बाद इस दिव्यात्मा ने महज 34 साल की अल्पायु में पवित्र केदारनाथ धाम में अपने प्राण त्याग दिये…लेकिन छोटी सी उम्र में बालक शंकर से आदि गुरू शंकराचार्य बनने तक के जीवन सफर में उन्होंने जिस जीवन दर्शन की व्याख्या की… वो आज भी सनातन धर्म को मज़बूती प्रदान कर रहा है…उनको याद करते हुए सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है…श्रुतिस्मृतिपुराणानामालयं करुणालयम् ।नमामि भगवत्पादं शंकरं लोकशंकरम् ।।अर्थात… श्रुतियों, स्मृतियों और पुराणों में जिनका वास है वो करुणा के सागर हैं औसे भगवान शंकर को जो समस्त संसार का कल्याण करते हैं उनके पादपंकज को मैं प्रणाम करता हूं….

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सूर्यदेव के 21 नामों की महिमा -Lord Sun


सूर्यदेव के 21 नामों की महिमा -Lord Sun

Smita Singh
भगवान सूर्य इस प्रकृति में एक मात्र साक्षात् प्रकट देव हैं…जो संसार को ऊर्जा प्रकाश के साथ साथ गति भी प्रदान करते हैं….शास्त्रों में सूर्य स्तोत्र से सूर्य आराधना का विधान बताया गया है जो साधक को विशेष फल की प्राप्ति कराता है….भगवान सूर्य की पूजा उपासना आरोग्यदाता को वरदान दिलाती है….
18 पुराणों में से एक ब्रह्म पुराण में बताये गये सूर्य स्तोत्र के 21 शुभ और

surya dev

गोपनीय मानों का जिक्र मिलता है…कहते हैं भगवान आदित्य के इन नामों का जाप करना भर से मानव के सारे रोग और सारे पाप कट जाते हैं साथ ही मानव को परमगति की प्राप्ति होती है….ब्रह्म पुराण में बताया गया है….

विवर्तनो विविस्वाश्च मार्तंडो भास्करो रविःलोक प्रकाशकः श्री माँल्लोक चक्षुर्मुहेश्वरःलोकसाक्षी त्रिलोकेशः कर्ता हर्ता तमिश्रहातपनस्तापनश्चैव शुचिः सप्ताश्ववाहनःगभस्तिहस्तो ब्रह्मा च सर्वदेवनमस्कृतःएकविंशतिरित्येष स्तव ईष्टः सदा रवे
यानी ब्रह्म पुराण में भगवान सूर्य के जो 21 नाम बताए गए हैं वो हैं
विवर्तनविवस्वानमार्तंडभास्कररविलोकप्रकाशकश्रीमानलोकचक्षुमहेश्वलोकसाक्षी त्रिलोकेशकर्ता हर्ता तमिस्राहातपन तापन सप्तवाहन शुचि गभस्तिहस्त ब्रह्मा सूर्यदेव
कहते हैं सूर्य देव को उनके 21 नामों का ये स्तोत्र सदैव अतिप्रिय रहा है…इस सूर्य स्तोत्र का नियमित सूर्योदय औऱ सूर्यास्त के समय पाठ करने से साधक सब पापों से न केवल मुक्त हो जाता है बल्कि उसका शरीर निरोगी हो जाता है….ये सूर्य स्तोत्र साधक के धन में बढ़ोत्तरी तो करता ही है साथ ही इससे व्यक्ति का यश चारों ओर फैलता है…इस स्तोत्र को स्तोत्रराज भी कहते हैं….कहते हैं संपूर्ण प्राण प्रतिष्ठित सूर्ययंत्र को पूजा स्थान में स्थापित करके नित्य यंत्र को धूप दीप करने से विशेष लाभ मिलता है..रविवार को मिलेगी विशेष अनुकंपा
सूर्य देव करेंगे चमत्कार
बस 21 नामों का जाप
मिटा देगा सारे पाप
भगवान सूर्य इस प्रकृति में एक मात्र साक्षात् प्रकट देव हैं…जो संसार को ऊर्जा प्रकाश के साथ साथ गति भी प्रदान करते हैं….शास्त्रों में सूर्य स्तोत्र से सूर्य आराधना का विधान बताया गया है जो साधक को विशेष फल की प्राप्ति कराता है….भगवान सूर्य की पूजा उपासना आरोग्यदाता को वरदान दिलाती है….
18 पुराणों में से एक ब्रह्म पुराण में बताये गये सूर्य स्तोत्र में सूर्यदेव के 21 पवित्र शुभ और गोपनीय मानों का जिक्र मिलता है…कहते हैं भगवान आदित्य के इन नामों का जाप करना भर से मानव के सारे रोग और सारे पाप कट जाते हैं साथ ही मानव को परमगति की प्राप्ति होती है….ब्रह्म पुराण में बताया गया है….
विवर्तनो विविस्वाश्च मार्तंडो भास्करो रविःलोक प्रकाशकः श्री माँल्लोक चक्षुर्मुहेश्वरःलोकसाक्षी त्रिलोकेशः कर्ता हर्ता तमिश्रहातपनस्तापनश्चैव शुचिः सप्ताश्ववाहनःगभस्तिहस्तो ब्रह्मा च सर्वदेवनमस्कृतःएकविंशतिरित्येष स्तव ईष्टः सदा रवे
यानी ब्रह्म पुराण में भगवान सूर्य के जो 21 नाम बताए गए हैं वो हैं
विवर्तनविवस्वानमार्तंडभास्कररविलोकप्रकाशक श्रीमानलोकचक्षुमहेश्वलोकसाक्षी त्रिलोकेशकर्ता हर्ता तमिस्राहातपन तापन सप्तवाहन शुचि गभस्तिहस्त ब्रह्मा सूर्यदेव

कहते हैं सूर्य देव को उनके 21 नामों का ये स्तोत्र सदैव अतिप्रिय रहा है…इस सूर्य स्तोत्र का नियमित सूर्योदय औऱ सूर्यास्त के समय पाठ करने से साधक सब पापों से न केवल मुक्त हो जाता है बल्कि उसका शरीर निरोगी हो जाता है….ये सूर्य स्तोत्र साधक के धन में बढ़ोत्तरी तो करता ही है साथ ही इससे व्यक्ति का यश चारों ओर फैलता है…इस स्तोत्र को स्तोत्रराज भी कहते हैं….कहते हैं संपूर्ण प्राण प्रतिष्ठित सूर्ययंत्र को पूजा स्थान में स्थापित करके नित्य यंत्र को धूप दीप करने से विशेष लाभ मिलता है…

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आदि शकराचार्य


ओम प्रकाश त्रेहन

आदि शंकराचार्य जी के पिता शिव गुरु जी तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे । उनके विवाह के कई वर्ष बाद भी उनकी से सन्तान नहीं हुई । उन्होंने अपनी पत्नी के साथ से संतान प्राप्ति के लिए कठोर साधना की। अंततः भगवान शंकर ने उन्हें दर्शन दिए और कहा , ” वर मांगो “
शिव गुरु ने एक दीघ्र आयु वाला सर्वज्ञ पुत्र मांगा ।

भगवान शंकर ने कहा, दीघ्र आयु वाला सर्वज्ञ नही होगा और सर्वज्ञ दीघ्र आयु का नही होगा ।
तब धर्म प्रेमी शिव गुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की प्रार्थना की ।
भगवान शिवने पुनः कहा कि मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहां अवतीर्ण होऊंगा ।
वैशाख शुक्ल पक्ष पंचमी के दिन मध्यकाल में दिव्य प्रकाश रूप , अति सुंदर , दिव्य , कान्तियुक्त बालक ने जन्म लिया आदि शकराचार्य जी ने 3 वर्ष की आयु में संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया । पिता के असमय निधन होने पर भी मां ने अपने उत्तरदायित्व के निर्वाह में कोई कमी नही आने दी । 5 वर्ष की आयु में यज्ञोपावित के बाद गुरुकुल भेज दिया गया । 2 वर्ष के कम समय मे कई शास्त्र कंठस्त कर लिए ।
गुरु घर मे एक बार वह परंपरानुसार भिक्षा मांगने एक ब्राह्मण के घर गए , वहां खाने के लिए एक दाना भी नहीं था ब्राह्मण की पत्नी ने शंकर के हाथ मे एक आंवला रख कर अपनी गरीबी के बारे में बताया । इसकी ऐसी स्थिति देख कर शंकर का मन द्रवित हो उठा , तब द्रवित मन से उन्हों ने मां लक्ष्मी का स्तोत्र रच निर्धन ब्राह्मण की निर्धनता दूर कर ने की प्रार्थना की । उसकी प्रार्थना से घर सोने के आंवलो की वर्षा हुई
इनके बारे में एक विस्मयपूर्ण कथा आती है कि इनकी मां स्नान के लिए दूर पूर्णा नदी जाना पड़ता था लेकिन वह मार्ग बदल कर इनके घर के पास बहने लगी ।
बालक शंकर वैदिक ज्ञान की संपदा से कंठस्थ हो अब 7 वर्ष के हो गए , उन्होंने मां से सन्यास के लिए आज्ञा मांगी । मां द्वारा मना करने पर उदास हो गए । एक दिन वह गांव के तालाब में नहा रहे थे कि एक मगरमच्छ की पकड़ में आ गए। बालक शंकर चिल्लाए और कहने लगे मां मेरा जीवन समाप्त होने वाला है, में बच सकता हूँ अगर शेष जीवन के लिए सन्यास में जाने की मुझे अनुमति दे दो ।
अब मां के पास कोई भी अन्य विकल्प था। मां ने कहा कि तुम्हारे पिता जी नहीं रहे , मेरी मृत्य पर मुझे अग्नि कौन देगा । बालक शंकर ने मां को आश्वस्त किया कि मां में जहां भी हूंगा लेकिन ऐसे समय तुम्हारे पास ही होगा ।
मां की अनुमति मिलने पर बालक शंकर ने 7 वर्ष की आयु में सन्यास ग्रहण कर घर छोड़ दिया ।
सात वर्षीय सन्यासी बालक शंकर ने अपने भारत के सदूर दक्षिण के केरल गांव कलाड़ी से भारत की विलुप्त होती सनातन धर्म की बहती धारा को पुनः प्रवाह देने के लिए अपनी आध्यात्मिक यात्रा के लिए पैदल निकल पड़े और नर्मदा नदी के तट पर ओंकारनाथ पहुंचे। वहां तीन वर्ष गुरु गोविंद पाद से योग शिक्षा और अद्वेत ज्ञान प्राप्त करने लगे । तत्पश्चात वह गुरु आज्ञा से वह कांशी विश्वनाथ के दर्शन के लिए निकल पड़े ।
जब वह कांशी जा रहे थे कि एक चांडाल मार्ग में आ गया, उन्होंने चंडाल को मार्ग से हटने को कहा। चांडाल ने उत्तर दिया कि मेरे अंदर भी वही परमात्मा है जो तुम्हारे अंदर है , फिर तुम किसे हटने को कह रहे हो ?
शंकर पीछे हटे और साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और कहा कि आपने जो मुझे ज्ञान दिया है, उससे आप मेरे गुरु हुए । शंकर की आध्यत्मिक चेतना से उन्हें शिव और चार देवो के दर्शन हुए ।
ब्रह्म और जीव मूल् में एक ही है इसमें जो अन्तर दिखाई देता है वह हमारा अज्ञान है । ज्ञान का यह अनुभव और उसकी अनुभूति शंकर को एक चांडाल से मिली ।
आदि शंकराचार्य के जीवन के एक महत्वपूर्ण घटना मंडन मिश्र से शास्त्रर्थ है । मंडन मिश्र की विद्वता की चर्चा सर्वत्र थी , यहां तक पिंजरे मे बन्द पालतू मैना भी संस्कृत बोलती थी । शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ , आदि शंकराचार्य ने अपने तर्कों से पराजित कर ही दिया था तभी उनकी पत्नी भारती देवी बोली कि अभी आप की आधी विजय है , क्योंकि अभी आप ने आधे ही अंग को ही जीता है , मुझे हरा कर दिखाओ।
मंडन मिश्र की पत्नी ने ब्रह्मचारी आदिशंकराचार्य से कामशास्त्र पर प्रश्न पूछने आरम्भ कर दिए । वह भला कैसे उत्तर देते । आचार्य शंकर ने उत्तर देने की लिए समय मांगा ।
आचार्य ने तब एक मृत काया में प्रवेश किया और सारी अपेक्षित जानकारी के साथ अपने शरीर मे पुनः प्रवेश किया और मंडन मिश्र की पत्नी को उत्तर दिया और उन्हें पराजित किया । आचार्य शंकर ने सनातन धर्म की पुनः स्थापना के लिए अनेक शास्त्रार्थ और सम्पूर्ण भारत मे सनातन धर्म को शास्त्र सम्मत स्वरूप दिया ।
महर्षि वेदव्यास जानते थे कि कलयुग में लोगों के लिए स्मृति (स्मरण रखना) और श्रुति ( सुनना ) बहुत कठिन होगा इसीलिए सभी धर्म ग्रंथों को लिपिबद्ध किया ।
कलयुग के 2500 वर्ष बाद बुद्ध मत और जैन मत के प्रादुर्भाव से सनातन धर्म और उसके ग्रंथ लुप्त हो गए ।
तब आदि शंकराचार्य जी ने सम्पूर्ण भारत के बौद्धमत और जैन मत के धर्मचारियों को सनातन धर्म के तर्कों और तथ्यों से परास्त कर पुनः सनातन धर्म को स्थापित किया ।
भारत को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार कोनों में चार वेदों के लिए चार मठ स्थापित किया । हर मठ को एक वेद वाक्य के उदघोष से जोड़ा गया ।
भारत की आध्यात्मिक एकता का आधार है चार वेदों पर चार मठ।
आगे का विवरण अगली बार

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आदि शंकराचार्य


वैदिक सनातन धर्म के आचार्य

सनातन वैदिक हिन्दू दर्शन
वैदिक सनातन हिन्दू धर्म विश्व में सबसे प्राचीन है .विभिन्न आचार्यों ने पतंजलि ऋषि प्रणीत वेदान्त दर्शन अर्थात ब्रह्मसूत्र के भाष्यों के आधार पर धर्म की व्याख्या की है .और अपने संप्रदाय की स्थापना की है . जो करीब 1500 वर्षों से आज तक चली आ रही है .इन आचार्यों के नाम और उनके नाम इस प्रकार हैं .
1- आदि शंकराचार्य -इनका जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी युधिष्ठिर संवत 2631 तदनुसार ई .पू .507 को केरल के एर्नाकुलम जिले के कालडी ग्राम में हुआ था . इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम विशिष्टा था .आपने केवल 32 साल की आयु पाई थी .और इतने थोड़े समय में ही पूरे भारत के चारों कोने में चार धामों और कई मठों की स्थापना कर दी थी .यही नहीं उपनिषदों , गीता ब्रह्मसूत्र पर भाष्य भी किया .इन्होने अनेकों नास्तिकों को अपने तर्कों से शाश्त्रार्थ में पराजित किया . और भगवान बुद्ध को विष्णु के नौवें अवतार के रूप में मान्यता प्रदान की थी
इन्होने ब्रह्मसूत्र का जो भाष्य किया था उसका नाम “शारीरिक भाष्य है . और सिद्धांत का नाम “अद्वैत सिद्धांत ” है .

इनके बारे में कहा गया है ,
“अष्ट वर्षे चतुर्वेदी ,द्वादशे सर्व शाश्त्रविद
षोडशे कृतवान भाष्यं .द्वात्रिन्शे मुनिरागतम “
अर्थात आठ साल की आयु में चारों वेद पढ़े , और बारह साल की आयु में सभी शाश्त्र पढ़ लिए .और सोलह साल की आयु में भाष्य लिखा . और बत्तीस साल की आयु में भारत का भ्रमण किया और सन्यासी होकर ब्रह्मलीन हो गए .इनके प्रथम शिष्य का नाम “पद्मपादाचार्य ” था जो ई .पू .549 से 439 तक रहे .और तब से आचार्य की परंपरा आज तक चल रही है , वर्तमान में 145 वें शंकराचार्य “श्री निश्चलानंद जी है .आदि शंकराचार्य ने धर्म की रक्षा के लिए सन्यासियों को भी शश्त्र धारण का आदेश दिया था .जिनको अखाड़े कहा जाता है . हिन्दू सन्यासियों के अखाड़े इस प्रकार हैं
1-महानिर्वाणी
2-अटल अखाडा
3-निरंजनी अखाडा
4-आनंद अखाडा
5-जुना अखाडा
6- आवाहन अखाडा
7- अग्नि अखाडा
अन्य आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं
2-रामानुजाचार्य -श्रीभाष्य -सिद्धांत “विशिष्टाद्वैत ‘ संवत 1073 –
3-मध्वाचार्य –पूर्ण प्रज्ञ भाष्य -सिद्धांत -द्वैत
4-वल्लभाचार्य -अणुभाष्य -सिद्धांत शुद्धाद्वैत
5-निम्बार्काचार्य -वेदांत पारिजात -सिद्धांत द्वैताद्वैत

इन सभी में आत्मा ,ब्रह्म , कर्म , मोक्ष और भक्ति के बारे में विशद ज्ञान भंडार मौजूद है और इस ज्ञान के आगे दुनिया के सभी धर्म धुल के कण के बराबर हैं .लेकिन बिना परिश्रम यह ज्ञान नहीं मिल सकता .हमारा यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि हमारे पास सबकुछ होते हुए हम इस्लाम और ईसाई मत को हिन्दू धर्म के बराबर समझते हैं
सत्य सनातन वैदिक धर्म की जय
वेद ही प्रमाण है वेद ही सत्य है

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श्री आद्यशङ्कराचार्य जी


[ श्री आद्यशङ्कराचार्य जी ]

सर्वप्रथम श्री श्री आद्य जगद्गुरु भगवत्पाद शङ्कराचार्य जी की पावन जन्म जयञ्ती तिथि अवसर पर सप्रेम अर्चन वन्दन। सभी शाङ्कर परम्परानुयायियों व स्नेहीजनों को मङ्गलमय शुभ-कामनायें……

बन्धुओं! आदि शङ्कराचार्य जी अद्वैत वेदांत दर्शन के प्रणेता, मूर्तिपूजा के पुरस्कर्ता, पञ्चायतन पूजा के प्रवर्तक है। आदि शङ्कराचार्य जी के अद्वैत दर्शन के अनुसार ब्रह्म और जीव या आत्त्मा और परमात्मा एकरुप हैं। किंतु ज्ञान के अभाव में ही दोनों अलग-अलग दिखाई देते हैं। आदि शङ्कराचार्य ने परमात्मा के साकार और निराकार दोनों ही रुपों को मान्यता दी। उन्होनें सगुण धारा की मूर्तिपूजा और निर्गुण धारा के ईश्वर दर्शन की अपने ज्ञान और तर्क के माध्यम से सार्थकता सिद्ध की। इस प्रकार सनातन धर्म के संरक्षण के प्रयासों को देखकर ही जनसामान्य ने उनको भगवान शङ्कर का ही अवतार माना। यही कारण है कि उनके नाम के साथ भगवान शब्द जोड़ा गया और वह भगवान आदि शङ्कराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।
उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी भाष्य बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है। इन्होंने भारतवर्ष में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिनके प्रबंधक तथा गद्दी के अधिकारी ‘शङ्कराचार्य’ कहे जाते हैं।

वे चारों स्थान ये हैं — (१) बदरिकाश्रम, (२) शृंगेरी पीठ, (३) द्वारिका पीठ और (४) शारदा पीठ। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है।

आदिगुरु शङ्कराचार्य — जन्म- ५०७ ई०पू०,
जन्मस्थान – कलाड़ी, चेर साम्राज्य वर्तमान में केरल, भारत,
मृत्यु- ४७५ ई०पू० (उम्र ३२)
केदारनाथ, पाल साम्राज्य वर्तमान में उत्तराखंड, भारत
गुरु/शिक्षक- गोविंद भगवत्पाद जी
दर्शन- अद्वैत वेदांत
सम्मान- शिवावतार, आदिगुरु, श्रीमज्जगदगुरु, धर्मचक्रप्रवर्तक
धर्म- हिन्दू

उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शङ्कराचार्य जी को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्धमतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, शृंगेरी एवं द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना की।

कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञानविज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्गमय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट ख्यापित करने वाले चतुराम्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरुप भगवत्पाद शङ्कराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है।

कलियुग की अपेक्षा त्रेता में तथा त्रेता की अपेक्षा द्वापर में , द्वापर की अपेक्षा कलि में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्ति एवं धर्म औेर आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है। यही कारण है कि कृतयुग में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किय‍ा। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु औऱ शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवं ब्रह्मसूत्रों की संरचनाकर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षितकर धर्म तथा अध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शङ्कराचार्य ने भाष्य , प्रकरण तथा स्तोत्रग्रन्थों की संरचना कर , विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ , परकायप्रवेशकर , नारदकुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकटकर तथा प्रस्थापित कर , सुधन्वा सार्वभौम को राजसिंहासन समर्पित कर एवं चतुराम्नाय – चतुष्पीठों की स्थापना कर अहर्निश अथक परिश्रम के द्वारा धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया।

व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्यों को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र , कुलाचार तथा श्रौत-स्मार्त कर्म , उपासना तथा ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार-प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिये व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भावपूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामंजस्य बनाये रखने की प्रेरणा प्रदान की। ब्रह्मतेज तथा क्षात्रबल के साहचर्य से सर्वसुमङ्गल कालयोग की सिद्धि को सुनिश्चित मानकर कालगर्भित तथा कालातीतदर्शी आचार्य शङ्कर ने व्यासपीठ तथा राजपीठ का शोधनकर दोनों में सैद्धान्तिक सामंजस्य साधा।

आचार्य शङ्कर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि सर्वमान्य है। महाराज सुधन्वा चौहान, जो कि शङ्कर के समकालीन थे, उनके ताम्रपत्र अभिलेख में शङ्कर का जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई०पू०) है। इसके प्रमाण सभी शाङ्कर मठों में मिलते हैं। जन्म केरल में कालाडि अथवा ‘काषल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। बहुत दिन तक सपत्नीक शिव को आराधना करने के अनंतर शिवगुरु ने पुत्ररत्न पाया था। अत: उसका नाम शङ्कर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकाण्ड पण्डित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदीकिनारे एक मगरमच्छ ने शङ्कराचार्यजी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते शङ्कराचार्य जी ने अपने माँ से कहा ” माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नहीं तो ये मगरमच्छ मुझे खा जायेगी “, इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की ; और आश्चर्य की बात है की, जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे तुरन्त मगरमच्छ ने शङ्कराचार्य जी का पैर छोड़ दिया और इन्होंने गोविन्द स्वामी जी से संन्यास ग्रहण किया।

पहले ये कुछ दिनों तक काशी में रहे, और तब विजिलबिंदु के तालवन में शङ्कराचार्य जी का सामना महान मीमांसक विद्वान मंडन मिश्र से हुआ। शङ्कराचार्य जी ने उन्हें इस बात पर सहमत कर लिया कि कर्म मार्ग की तुलना में ज्ञान मार्ग श्रेष्ठ है। लेकिन इसी दौरान, मंडन मिश्र की पत्नी भारती ने बड़ी चतुराई से शङ्कराचार्य जी के सामने कामशास्त्र के ज्ञान के बारे में सवाल दाग दिया। इसके जवाब में जब शङ्कराचार्य ने अनभिज्ञता जताई तो वह बोली,- ‘आपने एंद्रिक आनंद और भावनात्मक निकटता को महसूस नहीं किया। उसके बारे में आपको जानकारी नहीं है, तो आप कैसे दुनिया को जानने-समझने का दावा कर सकते हैं.’। इस घटना के बाद क्या हुआ, यह रहस्य है बल्कि बाद में शुद्धतावादियों ने इस जानकारी को भी संपादित कर दिया।

वैसे कहा जाता है कि शङ्कराचार्य जी अपनी योगशक्ति के बल पर कश्मीर के राजा आमरू की मृत देह में समा गए थे। इस तरह उस देह को चेतन कर उन्होंने उसमें रहते हुए लंबे समय तक सभी तरह के दैहिक सुखों का भोग किया। उन्होंने अपने कामोत्तेजक प्रेमकाव्य ‘आमरू-शतक’ में इन अनुभवों का वर्णन भी किया है। पुनः इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया तथा वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया।

शङ्कराचार्य जी का आविर्भावादि शास्त्रीय प्रमाण –

सर्गे प्राथमिके प्रयाति विरतिं मार्गे स्थिते दौर्गते
स्वर्गे दुर्गमतामुपेयुषि भृशं दुर्गेऽपवर्गे सति।
वर्गे देहभृतां निसर्ग मलिने जातोपसर्गेऽखिले
सर्गे विश्वसृजस्तदीयवपुषा भर्गोऽवतीर्णो भुवि।।

अर्थ:- ” सनातन संस्कृति के पुरोधा सनकादि महर्षियों का प्राथमिक सर्ग जब उपरति को प्राप्त हो गया , अभ्युदय तथा नि:श्रेयसप्रद वैदिक सन्मार्ग की दुर्गति होने लगी , फलस्वरुप स्वर्ग दुर्गम होने लगा ,अपवर्ग अगम हो गया , तब इस भूतल पर भगवान भर्ग ( शिव ) शङ्कर रूप से अवतीर्ण हुऐ। “

भगवान शिव द्वारा द्वारा कलियुग के प्रथम चरण में अपने चार शिष्यों के साथ जगदगुरु आचार्य शङ्कर के रूप में अवतार लेने का वर्णन पुराणशास्त्र में भी वर्णित हैं जो इस प्रकार हैं –

कल्यब्दे द्विसहस्त्रान्ते लोकानुग्रहकाम्यया।
चतुर्भि: सह शिष्यैस्तु शंकरोऽवतरिष्यति।।
— ( भविष्योत्तर पुराण ३६ )

अर्थ :- ” कलि के दो सहस्त्र वर्ष व्यतीत होने के पश्चात लोक अनुग्रह की कामना से श्री सर्वेश्वर शिव अपने चार शिष्यों के साथ अवतार धारण कर अवतरित होते हैं। “

निन्दन्ति वेदविद्यांच द्विजा: कर्माणि वै कलौ।
कलौ देवो महादेव: शंकरो नीललोहित:।।
प्रकाशते प्रतिष्ठार्थं धर्मस्य विकृताकृति:।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनापि शंकरम्।।
कलिदोषान्विनिर्जित्य प्रयान्ति परमं पदम्।
— (लिङ्गपुराण ४०. २०-२१.१/२)

अर्थ:- ” कलि में ब्राह्मण वेदविद्या और वैदिक कर्मों की जब निन्दा करने लगते हैं ; रुद्र संज्ञक विकटरुप नीललोहित महादेव धर्म की प्रतिष्ठा के लिये अवतीर्ण होते हैं। जो ब्राह्मणादि जिस किसी उपाय से उनका आस्था सहित अनुसरण सेवन करते हैं ; वे परमगति को प्राप्त होते हैं। “

कलौ रुद्रो महादेवो लोकानामीश्वर: पर:।
न देवता भवेन्नृणां देवतानांच दैवतम्। ।
करिष्यत्यवताराणि शंकरो नीललोहित:।
श्रौतस्मार्त्तप्रतिष्ठार्थं भक्तानां हितकाम्यया। ।
उपदेक्ष्यति तज्ज्ञानं शिष्याणां ब्रह्मासंज्ञितम।
सर्ववेदान्तसार हि धर्मान वेदनदिर्शितान। ।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनोपचारत:।
विजित्य कलिजान दोषान यान्ति ते परमं पदम। ।
— ( कूर्मपुराण १.२८.३२-३४)

अर्थ:- ” कलि में देवों के देव महादेव लोकों के परमेश्वर रुद्र शिव मनुष्यों के उद्धार के लिये उन भक्तों की हित की कामना से श्रौत-स्मार्त -प्रतिपादित धर्म की प्रतिष्ठा के लिये विविध अवतारों को ग्रहण करेंगें। वे शिष्यों को वेदप्रतिपादित सर्ववेदान्तसार ब्रह्मज्ञानरुप मोक्ष धर्मों का उपदेश करेंगें। जो ब्राह्मण जिस किसी भी प्रकार उनक‍ा सेवन करते हैं ; वे कलिप्रभव दोषों को जीतकर परमपद को प्राप्त करते हैं। “

व्याकुर्वन् व्याससूत्रार्थं श्रुतेरर्थं यथोचिवान्।
श्रुतेर्न्याय: स एवार्थ: शंकर: सवितानन:।।
— ( शिवपुराण-रुद्रखण्ड ७.१)

अर्थ:- “सूर्यसदृश प्रतापी श्री शिवावतार आचार्य शङ्कर श्री बादरायण – वेदव्यासविरचित ब्रह्मसूत्रों पर श्रुतिसम्मत युक्तियुक्त भाष्य संरचना करते हैं। “
४७५ ई०पू० ३२ वर्ष की अल्प आयु में केदारनाथ के समीप शिवलोक गमन किए थे।

पुनश्च श्री श्री आद्य जगद्गुरु भगवत्पाद शङ्कराचार्य जी की पावन जन्म जयञ्ती तिथि अवसर पर सप्रेम अर्चन वन्दन। सभी परम्परानुयायियों व स्नेहीजनों को मङ्गलमय शुभ-कामनायें……

“””” वंदे गुरुपरम्पराम्””””
— ज्योतिर्विद पं॰ मनीष तिवारी