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स्वामी करपात्री जी महाराज का मूल नाम श्री हर नारायण ओझा था।
वे हिन्दू दसनामी परम्परा के भिक्षु थे। दीक्षा के उपरान्त उनका नाम हरीन्द्रनाथ सरस्वती था किन्तु वे “करपात्री” नाम से ही प्रसिद्ध थे, क्योंकि वे अपने अंजुली का उपयोग खाने के बर्तन की तरह करते थे।
वे ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती के शिष्य थे। स्वामी जी की स्मरण शक्ति ‘फोटोग्राफिक’ थी, यह इतनी तीव्र थी कि एक बार कोई चीज पढ़ लेने के वर्षों बाद भी बता देते थे कि ये अमुक पुस्तक के अमुक पृष्ठ पर अमुक रुप में लिखा हुआ है। धर्मशास्त्रों में इनकी अद्वितीय एवं अतुलनीय विद्वता को देखते हुए इन्हें ‘धर्मसम्राट’ की उपाधि प्रदान की गई।
“अखिल भारतीय राम राज्य परिषद” भारत की एक परम्परावादी हिन्दू पार्टी थी। इसकी स्थापना स्वामी करपात्री ने सन् 1948 में की थी। इस दल ने सन् 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थी। सन् 1952, 1957 एवम् 1962 के विधान सभा चुनावों में हिन्दी क्षेत्रों (मुख्यत: राजस्थान) में इस दल ने दर्जनों सीटें हासिल की थी।
जब इंदिरा गांधी वादे से मुकर गयी–
इंदिरा गांधी के लिये उस समय चुनाव जीतना बहुत मुश्किल था। करपात्री जी महाराज के आशीर्वाद से इंदिरा गांधी चुनाव जीती।
इंदिरा ग़ांधी ने उनसे वादा किया था चुनाव जीतने के बाद गाय के सारे कत्ल खाने बंद हो जायेगें जो अंग्रेजो के समय से चल रहे हैं। लेकिन इंदिरा गांधी मुसलमानों और कम्यूनिस्टों के दवाब में आकर अपने वादे से मुकर गयी थी।
गौ हत्या निषेध आंदोलन–
और जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संतों की इस मांग को ठुकरा दिया जिसमे सविधान में संशोधन करके देश में गौ वंश की हत्या पर पाबन्दी लगाने की मांग की गयी थी, तो संतों ने 7 नवम्बर 1966 को संसद भवन के सामने धरना शुरू कर दिया। हिन्दू पंचांग के अनुसार उस दिन विक्रमी संवत 2012 कार्तिक शुक्ल की अष्टमी थी, जिसे ”गोपाष्टमी” भी कहा जाता है।
इस धरने में मुख्य संतों के नाम इस प्रकार हैं- शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ, स्वामी करपात्री महाराज और रामचन्द्र वीर।
राम चन्द्र वीर तो आमरण अनशन पर बैठ गए थे, लेकिन इंदिरा गांधी ने उन निहत्ते और शांत संतों पर पुलिस के द्वारा गोली चलवा दी जिसमें कई साधू मारे गए।
इस ह्त्या कांड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री ”गुलजारी लाल नंदा” ने अपना त्याग पत्र दे दिया, और इस कांड के लिए खुद को सरकार को जिम्मेदार बताया था।
लेकिन संत ”राम चन्द्र वीर” अनशन पर डटे रहे जो 166 दिनों के बाद उनकी मौत के बाद ही समाप्त हुआ था। राम चन्द्र वीर के इस अद्वितीय और इतने लम्बे अनशन ने दुनिया के सभी रिकार्ड तोड़ दिए है। यह दुनिया की पहली ऎसी घटना थी जिसमे एक हिन्दू संत ने गौ माता की रक्षा के लिए 166 दिनों तक भूखे रह कर अपना बलिदान दिया था।
इंदिरा के वंश पर श्राप–
लेकिन खुद को निष्पक्ष बताने वाले किसी भी अखबार ने इंदिरा के डर से साधुओं पर गोली चलने और राम चंद्र वीर के बलिदान की खबर छापने की हिम्मत नहीं दिखायी, सिर्फ मासिक पत्रिका “आर्यावर्त” और “केसरी” ने इस खबर को छापा था। और कुछ दिन बाद गोरखपुर से छपने वाली मासिक पत्रिका “कल्याण” ने गौ अंक में एक विशेषांक प्रकाशित किया था, जिसमे विस्तार सहित यह घटना दी गयी थी।
और जब मीडिया वालों ने अपने मुहों पर ताले लगा लिए थे तो करपात्री जी ने कल्याण के उसी अंक में इंदिरा को सम्बोधित करके कहा था-
“यद्यपि तूने निर्दोष साधुओं की हत्या करवाई है, फिर भी मुझे इसका दुःख नही है। लेकिन तूने गौ हत्यारों को गायों की हत्या करने की छूट देकर जो पाप किया है, वह क्षमा के योग्य नहीं है। इसलिये मैं आज तुझे श्राप देता हूँ कि-
”गोपाष्टमी” के दिन ही तेरे वंश का नाश होगा”,
“आज मैं कहे देता हूँ कि गोपाष्टमी के दिन ही तेरे वंश का भी नाश होगा..!“
श्राप सच हो गया–
जब करपात्री जी ने यह श्राप दिया था तो वहाँ “प्रभुदत्त ब्रह्मचारी“ भी मौजूद थे। करपात्री जी ने जो भी कहा था वह आगे चल कर अक्षरशः सत्य हो गया।
इंदिरा के वंश का गोपाष्टमी के दिन ही नाश हो गया। सुबूत के लिए इन मौतों की तिथियों पर ध्यान दीजिये–
1- संजय गांधी की मौत आकाश में हुई, उस दिन हिन्दू पंचांग के अनुसार गोपाष्टमी थी।
2- इंदिरा की मौत घर में हुई, उस दिन भी गोपाष्टमी थी।
3- राजीव गांधी मद्रास में मरे, उस दिन भी गोपाष्टमी ही थी।
गोली चलने के दिन स्वामी करपात्री जी ने उपस्थित लोगों के सामने गरज कर कहा था कि-
“लोग भले इस घटना को भूल जाएँ, लेकिन मैं इसे कभी नहीं भूल सकता।
गौ हत्यारे के वंशज नहीं बचेंगे, चाहे वह आकाश में हो या पाताल में हों या चाहे घर में हो या बाहर हो, यह श्राप इंदिरा के वंशजों का पीछा करता रहेगा।”
फिर करपात्री जी ने राम चरित मानस की यह चौपाई लोगों को सुनायी–
“।। संत अवज्ञा करि फल ऐसा, जारहि नगर अनाथ करि जैसा ।।”

JusticeForHinduSadhus
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स्वामी करपात्री जी महाराज का मूल नाम श्री हर नारायण ओझा था।
वे हिन्दू दसनामी परम्परा के भिक्षु थे। दीक्षा के उपरान्त उनका नाम हरीन्द्रनाथ सरस्वती था किन्तु वे “करपात्री” नाम से ही प्रसिद्ध थे, क्योंकि वे अपने अंजुली का उपयोग खाने के बर्तन की तरह करते थे।
वे ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती के शिष्य थे। स्वामी जी की स्मरण शक्ति ‘फोटोग्राफिक’ थी, यह इतनी तीव्र थी कि एक बार कोई चीज पढ़ लेने के वर्षों बाद भी बता देते थे कि ये अमुक पुस्तक के अमुक पृष्ठ पर अमुक रुप में लिखा हुआ है। धर्मशास्त्रों में इनकी अद्वितीय एवं अतुलनीय विद्वता को देखते हुए इन्हें ‘धर्मसम्राट’ की उपाधि प्रदान की गई।
“अखिल भारतीय राम राज्य परिषद” भारत की एक परम्परावादी हिन्दू पार्टी थी। इसकी स्थापना स्वामी करपात्री ने सन् 1948 में की थी। इस दल ने सन् 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थी। सन् 1952, 1957 एवम् 1962 के विधान सभा चुनावों में हिन्दी क्षेत्रों (मुख्यत: राजस्थान) में इस दल ने दर्जनों सीटें हासिल की थी।
जब इंदिरा गांधी वादे से मुकर गयी–
इंदिरा गांधी के लिये उस समय चुनाव जीतना बहुत मुश्किल था। करपात्री जी महाराज के आशीर्वाद से इंदिरा गांधी चुनाव जीती।
इंदिरा ग़ांधी ने उनसे वादा किया था चुनाव जीतने के बाद गाय के सारे कत्ल खाने बंद हो जायेगें जो अंग्रेजो के समय से चल रहे हैं। लेकिन इंदिरा गांधी मुसलमानों और कम्यूनिस्टों के दवाब में आकर अपने वादे से मुकर गयी थी।
गौ हत्या निषेध आंदोलन–
और जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संतों की इस मांग को ठुकरा दिया जिसमे सविधान में संशोधन करके देश में गौ वंश की हत्या पर पाबन्दी लगाने की मांग की गयी थी, तो संतों ने 7 नवम्बर 1966 को संसद भवन के सामने धरना शुरू कर दिया। हिन्दू पंचांग के अनुसार उस दिन विक्रमी संवत 2012 कार्तिक शुक्ल की अष्टमी थी, जिसे ”गोपाष्टमी” भी कहा जाता है।
इस धरने में मुख्य संतों के नाम इस प्रकार हैं- शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ, स्वामी करपात्री महाराज और रामचन्द्र वीर।
राम चन्द्र वीर तो आमरण अनशन पर बैठ गए थे, लेकिन इंदिरा गांधी ने उन निहत्ते और शांत संतों पर पुलिस के द्वारा गोली चलवा दी जिसमें कई साधू मारे गए।
इस ह्त्या कांड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री ”गुलजारी लाल नंदा” ने अपना त्याग पत्र दे दिया, और इस कांड के लिए खुद को सरकार को जिम्मेदार बताया था।
लेकिन संत ”राम चन्द्र वीर” अनशन पर डटे रहे जो 166 दिनों के बाद उनकी मौत के बाद ही समाप्त हुआ था। राम चन्द्र वीर के इस अद्वितीय और इतने लम्बे अनशन ने दुनिया के सभी रिकार्ड तोड़ दिए है। यह दुनिया की पहली ऎसी घटना थी जिसमे एक हिन्दू संत ने गौ माता की रक्षा के लिए 166 दिनों तक भूखे रह कर अपना बलिदान दिया था।
इंदिरा के वंश पर श्राप–
लेकिन खुद को निष्पक्ष बताने वाले किसी भी अखबार ने इंदिरा के डर से साधुओं पर गोली चलने और राम चंद्र वीर के बलिदान की खबर छापने की हिम्मत नहीं दिखायी, सिर्फ मासिक पत्रिका “आर्यावर्त” और “केसरी” ने इस खबर को छापा था। और कुछ दिन बाद गोरखपुर से छपने वाली मासिक पत्रिका “कल्याण” ने गौ अंक में एक विशेषांक प्रकाशित किया था, जिसमे विस्तार सहित यह घटना दी गयी थी।
और जब मीडिया वालों ने अपने मुहों पर ताले लगा लिए थे तो करपात्री जी ने कल्याण के उसी अंक में इंदिरा को सम्बोधित करके कहा था-
“यद्यपि तूने निर्दोष साधुओं की हत्या करवाई है, फिर भी मुझे इसका दुःख नही है। लेकिन तूने गौ हत्यारों को गायों की हत्या करने की छूट देकर जो पाप किया है, वह क्षमा के योग्य नहीं है। इसलिये मैं आज तुझे श्राप देता हूँ कि-
”गोपाष्टमी” के दिन ही तेरे वंश का नाश होगा”,
“आज मैं कहे देता हूँ कि गोपाष्टमी के दिन ही तेरे वंश का भी नाश होगा..!“
श्राप सच हो गया–
जब करपात्री जी ने यह श्राप दिया था तो वहाँ “प्रभुदत्त ब्रह्मचारी“ भी मौजूद थे। करपात्री जी ने जो भी कहा था वह आगे चल कर अक्षरशः सत्य हो गया।
इंदिरा के वंश का गोपाष्टमी के दिन ही नाश हो गया। सुबूत के लिए इन मौतों की तिथियों पर ध्यान दीजिये–
1- संजय गांधी की मौत आकाश में हुई, उस दिन हिन्दू पंचांग के अनुसार गोपाष्टमी थी।
2- इंदिरा की मौत घर में हुई, उस दिन भी गोपाष्टमी थी।
3- राजीव गांधी मद्रास में मरे, उस दिन भी गोपाष्टमी ही थी।
गोली चलने के दिन स्वामी करपात्री जी ने उपस्थित लोगों के सामने गरज कर कहा था कि-
“लोग भले इस घटना को भूल जाएँ, लेकिन मैं इसे कभी नहीं भूल सकता।
गौ हत्यारे के वंशज नहीं बचेंगे, चाहे वह आकाश में हो या पाताल में हों या चाहे घर में हो या बाहर हो, यह श्राप इंदिरा के वंशजों का पीछा करता रहेगा।”
फिर करपात्री जी ने राम चरित मानस की यह चौपाई लोगों को सुनायी–
“।। संत अवज्ञा करि फल ऐसा, जारहि नगर अनाथ करि जैसा ।।”

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Posted in भारतीय उत्सव - Bhartiya Utsav, संस्कृत साहित्य

અક્ષયતૃતીયા ( અખાત્રીજ ) નું મહત્વ શુ છે ?વૈશાખ સુદ ત્રીજ અક્ષય તૃતીયા તરીકે ઓળખાય છે

.. ૧ અક્ષય તૃતીયા નાં દિવસેશ્રી આપણા વહાલા શ્રી મહાપ્રભુ વલ્લભાચાર્યજીએ શ્રી ગિરિરાજજી ઉપર શ્રીજીબાવાનું મંદિર સિદ્ધ કરાવી તેમાં શ્રીજીબાવાને પધરાવી સેવાક્રમ શરૂ કર્યો હતો.

.. ૨ અક્ષયતૃતીયાનાં શુભ દિવસે ભગવાન શ્રી કૃષ્ણે એક મુઠ્ઠી તાન્દુલના બદલામાં સુદામાને અખૂટ વૈભવ બક્ષેલો..

..૩ આજના દિવસે કરેલ કોઈ પણ કાર્ય અક્ષય રહે છે, તેથી આજે હોમ, તપ જપ દાન પિતૃ તર્પણ વિ વિ કરવું જોઈએ

..૪ અક્ષયતૃતીયાનાં દિવસે શ્રી વેદ્વ્યસ્જીએ ગણેશજી ની સહાય થી મહાભારત લખવાનું આરંભ કરેલ

.. ૫ અક્ષયતૃતીયાનાં દિવસે માં ગંગાજી ભૂતલ ઉપર પધારેલ

.. ૬ અક્ષયતૃતીયાનાં દિવસે સતયુગ અને તેત્રાયુગ નો આરંભ થયેલ..

.. ૭ અક્ષયતૃતીયાનાં દિવસે સૂર્ય દેવે “અક્ષય પાત્ર “ પાંડવોને વનવાસ દરમ્યાન આપેલ, જે અખૂટ ભોજન થી ભરપુર રહેતું.

.. ૮ અક્ષયતૃતીયાનાં દિવસે માં લક્ષ્મીજી એ કુબેરજીને (સ્વર્ગના ખજાનચી) અખૂટ સંપતિ બક્ષેલ.

..૯ અક્ષયતૃતીયાનાં દિવસે ભગવાન પરશુરામનો જન્મ ભૃગુ ઋષિના કુળમાં થયો હોઈ તેઓ “ભાર્ગવ” અને જમદગ્નિ ઋષિને ત્યાં થયો હોઈ તેઓ “જામદગ્નૈ” તરીકે ઓળખાતા

.. ૧૦ અક્ષયતૃતીયાનાં દિવસે એકજ વાર વૃંદાવન માં શ્રી બાંકેબિહારીજીના શ્રી ચરણો ના દર્શન થાય છે,

..૧૧ અક્ષય તૃતીયાનો ઉલ્લેખ અને મહિમા વિષ્ણુપુરાણ, નારદ પુરાણ, ભવિષ્ય પુરાણ, તૈત્તરીય ઉપનિષદ, વગેરે

..૧૨ અક્ષયતૃતીયાનાં દિવસે. લક્ષ્મીજી માતા યશોદાનાં કોઠારમાં બિરાજી રહ્યા

..૧૩ અક્ષયતૃતીયાનાં દિવસે શ્રી કૃષ્ણે દ્રૌપદી ના ચીર પૂરી રક્ષા કરેલ.

.. ૧૪ અક્ષયતૃતીયાનાં દિવસે મહાભારત ના યુદ્દ્ધ ની સમાપ્તિ થયેલ.

..૧૫ અક્ષયતૃતીયાનાં આ પાવન દિવસથી જ ઉત્તર ભારતસ્થિત બદરી કેદારનાથનાં મંદિરો અને હિમાલયમાં રહેલાં અન્ય મંદિરોનાં દ્વાર ખૂલે છે.

..૧૬ અક્ષયતૃતીયાનાં દિવસે જ હયગ્રીવ અવતાર, નરનારાયણ પ્રગટીકરણ, તેમજ માં અન્નપુર્ણ નો જન્મ થયેલ.

..17 બ્રહ્મા જી ના પુત્ર અક્ષય કુમાર નું આજે પ્રાકટ્ય થયેલ..

..૧૮ અક્ષયતૃતીયાનાં દિવસે જગન્નાથ પૂરી માં ભગવાન ના રથ નું નિર્માણ કાર્ય આજથી શરુ થાય છે,

સનાતન (હિન્દુ) ધર્મમાં અક્ષય તૃતીયા માંગલિક કાર્યો માટે શુભ અને અક્ષય મૂહુર્ત માનવામાં આવે છે. આ ઈશ્વરીય તિથિ પણ કહેવામાં આવે છે. વાસ્તવામાં, ‘અક્ષય’ શબ્દનો અર્થ છે – જેનો ક્ષય કે નાશ ન થાય. માટે આ દિવસે દાન પુણ્ય વિ. શુભ કાર્યો કરવા

Posted in सुभाषित - Subhasit

સનાતન ધર્મની સ્થાપનાની સાથે જ જીવનમાં વિવિધ સંક્રમણોથી બચવા માટે આપણા ધર્મશાસ્ત્રનાં અચૂક સૂચનો (નિયમો).🙏😊

📿📿📿📿📿📿📿📿📿📿📿📿📿

१ »
लवणं व्यञ्जनं चैव घृतं तैलं तथैव च ।
लेह्यं पेयं च विविधं हस्तदत्तं न भक्षयेत् ।।

धर्मसिन्धू ३पू. आह्निक

મીઠું, ઘી, તેલ, અન્ન તથા બધા વ્યજંનો ચમચા વડે જ પીરસવા જોઇએ, હાથથી નહીં.

२ »
अनातुरः स्वानि खानि न स्पृशेदनिमित्ततः ।।

मनुस्मृति ४/१४४

કારણ વિના પોતાની ઇન્દ્રિયોને (આંખ, નાક, કાન વગેરે) ન અડો.

३ »
अपमृज्यान्न च स्न्नातो गात्राण्यम्बरपाणिभिः ।।

मार्कण्डेय पुराण ३४/५२

સ્નાન પછી પોતાના હાથ વડે કે સ્નાન વખતે પહેરેલાં વસ્ત્રો વડે શરીર ન લૂછો.

४ »
हस्तपादे मुखे चैव पञ्चाद्रे भोजनं चरेत् ।।

पद्म०सृष्टि.५१/८८

नाप्रक्षालितपाणिपादो भुञ्जीत ।।

सुश्रुतसंहिता चिकित्सा २४/९८

હાથ, પગ, મોં ધોઈને જ જમવા બેસો.

५ »

स्न्नानाचारविहीनस्य सर्वाः स्युः निष्फलाः क्रियाः ।।

वाघलस्मृति ६९

સ્નાન અને શુદ્ધ આચાર વિના બધા કાર્યો નિષ્ફળ નીવડે છે.

६ »
न धारयेत् परस्यैवं स्न्नानवस्त्रं कदाचन ।।

पद्म०सृष्टि.५१/८६

બીજાએ સ્નાન માટે વાપરેલાં વસ્ત્રો (ટુવાલ વગેરે) ઉપયોગમાં ન લેવાં.

७ »
अन्यदेव भवद्वासः शयनीये नरोत्तम ।
अन्यद् रथ्यासु देवानाम् अर्चायाम् अन्यदेव हि ।।

महाभारत अनु० १०४/८६

સૂતી વખતે, બહાર જતી વખતે, પૂજા કરતી વખતે અલગ અલગ વસ્ત્રો પહેરવાં.

८ »
तथा न अन्यधृतं (वस्त्रं) धार्यम् ।।

महाभारत अनु० १०४/८६

બીજાઓએ પહેરેલાં વસ્ત્રો ન પહેરવાં.

९ »

न अप्रक्षालितं पूर्वधृतं वसनं बिभृयाद् ।।

विष्णुस्मृति ६४

પહેરેલાં વસ્ત્રોને ધોયા વગર ફરીથી ન પહેરવાં.

१० »
न आद्रं परिदधीत ।।

गोभिसगृह्यसूत्र ३/५/२४

ભીનાં વસ્ત્રો ન પહેરવાં.

११ »

चिताधूमसेवने सर्वे वर्णाः स्न्नानम् आचरेयुः ।
वमने श्मश्रुकर्मणि कृते च ।।

विष्णुस्मृति २२

સ્મશાનમાં જઈ આવ્યા પછી, વમન (ઉલટી) થયા પછી, હજામત કર્યા પછી બધા મનુષ્યોએ સ્નાન કરવું જોઈએ.
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

આ છે આપણી સનાતન ગાથા. જે યુગો પેહલાથી આજની ઉદ્ભવેલી પરિસ્થિતિ માટે તમને અગાઉથી જ ચેતવી દીધા છે. 🌺🙏🌺

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

अपनों से अपनी बाते
🌼🤖🌟🌼🤖🌟🌼

क्या पति को परमेश्वर माना जाना उचित हैं❓

हंस जैन, खण्डवा मध्यप्रदेश
ब 9827214427

.
पति ने अपनी नवविवाहिता पत्नी से पूछा, “पति के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? पत्नी को पति को क्या मान कर व्यवहार करना चाहिए?”

पत्नी ने कहा, “पति पत्नी तो जीवन साथी हैं, पत्नी उसके सुख-दुःख में सहभागिनी है। उसे पति के साथ जीवन पथ पर कंधे से कंधा मिला कर चलना चाहिए।”

पत्नी के विचार सुन कर पति को अच्छा नहीं लगा। उसने कहा, “तुम्हारे विचार भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं हैं। हमारे यहां पति को परमेश्वर मान कर उसकी पूजा का विधान है। पत्नी उसकी अनुगामिनी है। वह किसी भी दृष्टि से उसकी बराबरी नहीं कर सकती। मैं चाहता हूं कि तुम मुझे पति परमेश्वर के रूप में मान्यता दो।”

पत्नी ने कहा, “ठीक है, मैं आपको परमेश्वर मान कर ही व्यवहार करूंगी।”
.
दूसरे दिन पत्नी ने स्नान से निवृत होकर प्रातः 5 बजे पति को जगाया, “उठिये, जल्दी से स्नान कर पूजा घर में चलिए, मुझे पूजा करनी है।”

पति ने कहा, “मुझे क्यों तंग करती हो? मुझे सोने दो, तुम जाकर अपनी पूजा करो।”

पत्नी, “पूजा तो मुझे आपकी करनी है और जब तक आप नहा-धोकर आसन पर नहीं बैठ जाते, मैं पूजा कैसे कर सकती हूं?”

पति, “सुबह-सुबह मज़ाक मत करो, मेरी पूजा-वूजा की ज़रूरत नहीं है।”

पत्नी, “ठीक है, जब तक आप पूजा स्वीकार नहीं करते, मैं भी भूखी-प्यासी बैठी रहूंगी।” अब विवश पति को उठना ही पड़ा। नहा कर आसन पर बैठा कर पत्नी ने विधिपूर्वक पूजा-आरती की, पति को प्रसाद लगाया स्वयं खाया।

पति ने कहा, “आज नाश्ते में आमलेट बनाना।”

कुछ देर बाद पत्नी ने चाय और
आलू के पराठे सामने रखे।

पति, “यह क्या, मैंने आमलेट के लिए कहा था।”

पत्‍नी, “हां, कहा था, पर भगवान् को अंडा-मांस का भोग नहीं लगाया जाता।” पति ने पत्‍नी को घूर कर देखा, किसी प्रकार गुस्से को पीकर नाश्ता किया, फिर पत्‍नी से बोला, “आज लंच में गोभी की सब्ज़ी और मटर पुलाव बनाना।” खाने के समय पत्‍नी ने भोजन परोसा- अरहर की दाल, बैंगन का भुर्ता और चपाती।

पति, “यह क्या मैंने मटर पुलाव और गोभी की सब्ज़ी के लिए कहा था।”

पत्‍नी, “देखिये भगवान् को जो भोग लगाया जाता है, वह उसे स्वीकार कर लेते हैं, अपनी पसंद नहीं जताते।”

पति ने झल्ला कर कहा, “यह क्या सुबह से भगवान्-भगवान् लगा रखा है, मैं पत्थर की मूर्ति नहीं हाड़ मांस का इन्सान हूं।”

पत्नी, “पर मैं तो आपको भगवान् मान कर चल रही हूं।” पति ने किसी प्रकार खाना निगला। फिर जाते हुए बोला, “शाम को पार्टी में चलना है। नीली साड़ी ज़री वाली और हीरे का नेकलेस पहनना।” शाम को पति ने पत्नी को आकर देखा। पत्नी ने क्रीम कलर का सलवार कुर्त्ता पहन रखा है और गले में मोतियों की माला। अब तो पति का पारा ऊंचा चढ़ गया। वह चीख उठा, “मैंने तुम्हें नेकलेस और साड़ी पहनने को कहा था।” पत्नी ने शांत मुद्रा में कहा, “हां, कहा था।”

पति, “फिर क्यों नहीं पहना।”

पत्नी, “देखिये, आप पूजनीय है। आपकी पूजा करना मेरा धर्म है, मैं आपकी हर बात मानने को बाध्य नहीं हूं।”

पति, “यह क्या बात हुई।”

पत्‍नी, “बात साफ़ है। आप भगवान् को मानते हैं, भगवान् की नहीं मानते, भगवान् कहते हैं, धर्माचरण करो, सबसे प्रेम करो, छल कपट न करो, किसी को मत सताओ, पाप की कमाई न खाओ। पर आप उनकी कोई बात मानते हैं? आप अपनी सुविधानुसार धर्म को मोड़ लेते हैं। मैं भी आपको परमेश्वर मान कर वैसा ही व्यवहार कर रही हूं। मैंने तो आपकी जीवन संगिनी व सहगामिनी बन कर आचरण करना चाहा था, पर आप तो परमेश्वर जैसा व्यवहार चाहते हैं। मैं आपकी पूजा-अर्चना करूंगी पर बात मानना न मानना मेरी सुविधा व रुचि पर निर्भर है अब आप स्वयं निर्णय कर लीजिए कि आप मुझे पति परमेश्वर की पुजारिन बनाना चाहते हैं या जीवन साथी की सहयोगिनी।”

अब पति महोदय पशोपेश में है कि उनके मान की रक्षा कैसे हो??

आप बताइए बेचारा पति निर्णय नही ले पा रहा ।

हंस जैन रामनगर खंडवा
9827214427

🌹🎾🌹🎾🌹🎾🌹

Posted in मूर्ति पूजा - Idolatry

देवलोक गौशाला

देवी-देवताओं की मूर्ति पूजना चाहिए या नहीं?

यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍।
स्‍वर्यस्‍य च केवलं तस्‍मै ज्‍येष्‍ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद 10-8-1

भावार्थ : जो भूत, भवि‍ष्‍य और सबमें व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है। वहीं हम सब के लिए प्रार्थनीय और वही हम सबके लिए पूज्जनीय है।

उत्तर : पंचभूतों से निर्मित किसी भी आकार-प्रकार पर श्रद्धा स्थिर करना मूर्तिपूजा है।
ईश्वर की कोई मूर्ति बनाई नहीं जा सकती इसीलिए सिर्फ देवी और देवताओं की ही मूर्तियां बनती है। ऐसे कई स्थान हैं जहां पर देवी या देवता जाग्रत रूप से विद्यमान हैं। वहां उनकी मूर्ति नहीं भी होगी तो भी वे होंगे। ऐसे सभी स्थानों को हम वैदिक बनकर उनके खिलाफ नहीं जा सकते, क्योंकि वे सभी भी ईश्वर की ओर से हैं। यदि हम हिन्दुओं को दो हिस्से में बांट दें, तो एक को कहेंगे वैदिक और दूसरे को कहेंगे पौराणिक। जो पौराणिक हैं वे सभी मूर्तिपूजक हैं।

संत कहते हैं कि मूर्ति-पूजा का सारा आधार इस बात पर है कि आपके मस्तिष्क में और विराट परमात्मा के मस्तिष्क में संबंध हैं। दोनों के संबंध को जोड़ने वाला बीच में एक सेतु चाहिए। संबंधित हैं आप, सिर्फ एक सेतु चाहिए। वह सेतु निर्मित हो सकता है, उसके निर्माण का प्रयोग ही मूर्ति है। और निश्चित ही वह सेतु मूर्त ही होगा, क्योंकि आप अमूर्त से सीधा कोई संबंध स्थापित न कर पाएंगे। ये मंदिर व मूर्तियां आध्यात्मिक देश भारत में अध्यात्म की शिशु कक्षाएं हैं।

मूर्तिपूजा का पक्ष : मूर्तिपूजा के समर्थक कहते हैं कि ईश्वर तक पहुंचने में मूर्तिपूजा रास्ते को सरल बनाती है। मन की एकाग्रता और चित्त को स्थिर करने में मूर्तिपूजा से सहायता मिलती है। मूर्ति को आराध्य मानकर उसकी उपासना करने और फूल आदि अर्पित करने से मन में विश्वास और खुशी का अहसास होता है। इस विश्वास और खुशी के कारण ही मनोकामना की पूर्ति होती है। विश्वास और श्रद्धा ही जीवन में सफलता का आधार है।

प्राचीन मंदिर ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन मंदिरों के स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियां आवेष्टित की जाती थीं। मंदिरों में पूजा-पाठ नहीं होता था। यदि आप खजुराहो, कोणार्क या दक्षिण के प्राचीन मंदिरों की रचना देखेंगे तो जान जाएंगे कि ये मंदिर किस तरह के होते हैं। ध्यान या प्रार्थना करने वाली पूरी जमात जब खत्म हो गई है तो इन जैसे मंदिरों पर पूजा-पाठ का प्रचलन बढ़ा। पूजा-पाठ के प्रचलन से मध्यकाल के अंत में मनमाने मंदिर बने। मनमाने मंदिर से मनमानी पूजा-आरती आदि कर्मकांडों का जन्म हुआ, जो वेदसम्मत नहीं माने जाते हैं।

मूर्तिपूजा के पक्ष में पं. दीनानाथ शर्मा लिखते हैं- ‘जड़ (मूल) ही सबका आधार हुआ करती है। जड़ सेवा के बिना किसी का भी कार्य नहीं चलता। दूसरे की आत्मा की प्रसन्नतापूर्वक उसके आधारभूत जड़ शरीर एवं उसके अंगों की सेवा करनी पड़ती है। परमात्मा की उपासना के लिए भी उसके आश्रयस्वरूप जड़ प्रकृति की पूजा करनी पड़ती है।

हम वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, प्रकाश आदि की उपासना में प्रचुर लाभ उठाते हैं, तब मूर्तिपूजा से क्यों घबराना चाहिए? उसके द्वारा तो आप अणु-अणु में व्याप्त चेतन (सच्चिदानंद) की पूजा कर रहे होते हैं। आप जिस बुद्धि या मन को आधारभूत करके परमात्मा का अध्ययन कर रहे होते हैं, क्यों वे जड़ नहीं हैं? परमात्मा भी जड़ प्रकृति के बिना कुछ नहीं कर सकता, सृष्टि भी नहीं रच सकता। तब सिद्ध हुआ कि जड़ और चेतन का परस्पर संबंध है। तब परमात्मा भी किसी मूर्ति के बिना उपास्य कैसे हो सकता है?

क्या कहते हैं वेद…

यह सही है कि सृष्टि की सबसे पुरानी पुस्तक वेद में एक निराकार ईश्वर की उपासना का ही विधान है। चारों वेदों के लगभग मूल 20,589 मंत्रों में कोई ऐसा मंत्र नहीं है, जो मूर्ति पूजा का पक्षधर हो, लेकिन फिर भी मूर्ति पूजा करना कोई अपराध नहीं है यह सिर्फ अज्ञान है। देवी या देवताओं की कुछ खास स्थान पर की जा रही मूर्ति पूजा को अनुचित ठहराना कही से भी उचित नहीं है। ऐसे कुछ स्थानों को छोड़कर बाकी जगह पर मूर्ति का होने क्या उचित हैं?

न तस्य प्रतिमाsअस्ति यस्य नाम महद्यस:। -(यजुर्वेद अध्याय 32, मंत्र 3)
अर्थात: उस ईश्वर की कोई मूर्ति अर्थात प्रतिमा नहीं जिसका महान यश है।

अन्धन्तम: प्र विशन्ति येsसम्भूति मुपासते।
ततो भूयsइव ते तमो यs उसम्भूत्या-रता:।। -(यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 9)

अर्थात : जो लोग ईश्वर के स्थान पर जड़ प्रकृति या उससे बनी मूर्तियों की पूजा उपासना करते हैं, वे लोग घोर अंधकार को प्राप्त होते हैं।

*जो जन परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य की उपासना करता है वह विद्वानों की दृष्टि में पशु ही है। – (शतपथ ब्राह्मण 14/4/2/22)

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यन्ति ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥– केनोपनि०॥

अर्थात जो आंख से नहीं दीख पड़ता और जिस से सब आंखें देखती है , उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। और जो उस से भिन्न सूर्य , विद्युत और अग्नि आदि जड़ पदार्थ है उन की उपासना मत कर॥
भगवान कृष्ण भी कहते हैं- ‘जो परमात्मा को अजन्मा और अनादि तथा लोकों का महान ईश्वर, तत्व से जानते हैं वे ही मनुष्यों में ज्ञानवान है। वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। परमात्मा अनादि और अजन्मा है, परंतु मनुष्‍य, इतर जीव-जंतु तथा जड़ जगत क्या है? वे सब के सब न अजन्मा है न अनादि। परमात्मा, बुद्धि, तत्वज्ञान, विवेक, क्षमा, सत्य, दम, सुख, दुख, उत्पत्ति और अभाव, भय और अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अप‍कीर्ति ऐसे ही प्राणियों की नाना प्रकार की भावनाएं परमात्मा से ही होती है।-भ. गीता-10-3,4,5।
जब भगवान कृष्ण कहते हैं कि परमात्मा अजन्मा है और अमूर्त है फिर उसकी मूर्ति कैसे बन सकती है। यह सही भी है कि आज तक परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं बनी है। देवी, देवताओं, पितरों, गुरुओं और भगवानों की मूर्ति बनी है।

हालांकि उपरोक्त बातें ईश्‍वर संबंधी हैं, देव संबंधी नहीं। प्राचीनकाल में कलयुग के प्रारंभ में देवी और देवताओं के विग्रह रूप की पूजा होती थी। जैसे विष्णु की शालिग्राम के रूप में और शिव की शिवलिंग के रूप में। फिर श्रमण धर्म का प्रभाव बढ़ने के साथ ही 2,000 वर्ष पूर्व 33 देवता और देवियों सहित राम एवं कृष्ण आदि की मूर्तियां बनाकर पूजने का प्रचलन चला।

मूर्ति पूजा का रहस्यमयी इतिहास…

मूर्तियां तीन तरह के लोगों ने बनाईं- एक वे जो वास्तु और खगोल विज्ञान के जानकार थे, तो उन्होंने तारों और नक्षत्रों के मंदिर बनाए। ऐसे दुनियाभर में सात मंदिर थे। दूसरे वे, जो अपने पूर्वजों या प्रॉफेट के मरने के बाद उनकी याद में मूर्ति बनाते थे। तीसरे वे, जिन्होंने अपने-अपने देवता गढ़ लिए थे। हर कबीले का एक देवता होता था। कुलदेवता और कुलदेवी भी होती थी।

शोधकर्ताओं के अनुसार अरब के मक्का में पहले मूर्तियां ही रखी होती थीं। वहां उस काल में बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड़, नृसिंह और महाराजा बलि सहित लगभग 360 मूर्तियां रखी हुई थीं। ऐसा माना जाता है हालांकि इसमें कितनी सचाई है यह हम नहीं जानते कि जाट और गुर्जर इतिहास अनुसार तुर्किस्तान पहले नागवंशियों का गढ़ था। यहां नागपूजा का प्रचलन था।

भारत में वैसे तो मूर्तिपूजा का प्रचलन पूर्व आर्य काल (वैदिक काल) से ही रहा है। भगवान कृष्ण के काल में नाग, यक्ष, इन्द्र आदि की पूजा की जाती थी। वैदिक काल के पतन और अनीश्वरवादी धर्म के उत्थान के बाद मूर्तिपूजा का प्रचलन बढ़ गया।

कहते हैं कि वेद काल में न तो मंदिर थे और न ही मूर्ति, क्योंकि इसका इतिहास में कोई साक्ष्य नहीं मिलता। इन्द्र और वरुण आदि देवताओं की चर्चा जरूर होती है, लेकिन उनकी मूर्तियां थीं इसके भी साक्ष्य नहीं मिलते हैं। भगवान कृष्ण के काल में लोग इन्द्र नामक देवता से जरूर डरते थे। भगवान कृष्ण ने ही उक्त देवी-देवताओं के डर को लोगों के मन से निकाला था। इसके अलावा हड़प्पा काल में देवताओं (पशुपति-शिव) की मूर्ति का साक्ष्य मिला है, लेकिन निश्चित ही यह आर्य और अनार्य का मामला रहा होगा।

प्राचीन अवैदिक मानव पहले आकाश, समुद्र, पहाड़, बादल, बारिश, तूफान, जल, अग्नि, वायु, नाग, सिंह आदि प्राकृतिक शक्तियों की शक्ति से परिचित था और वह जानता था कि यह मानव शक्ति से कहीं ज्यादा शक्तिशाली है इसलिए वह इनकी प्रार्थना करता था। बाद में धीरे-धीरे इसमें बदलाव आने लगा। वह मानने लगा कि कोई एक ऐसी शक्ति है, जो इन सभी को संचालित करती है। वेदों में सभी तरह की प्राकृतिक शक्तियों का खुलासा कर उनके महत्व का गुणागान किया गया है। हालांकि वेदों का केंद्रीय दर्शन ‘ब्रह्म’ ही है।

पूर्व वैदिक काल में वैदिक समाज जन इकट्ठा होकर एक ही वेदी पर खड़े रहकर ब्रह्म (ईश्वर) के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त करते थे। वे यज्ञ द्वारा भी ईश्वर और प्रकृति तत्वों का आह्वान और प्रार्थना करते थे। बाद में धीरे-धीरे लोग वेदों का गलत अर्थ निकालने लगे। हिन्दू धर्म मूलत: अद्वैतवाद और एकेश्वरवाद का समर्थक है जिसका मूल ऋग्वेद, उपनिषद और गीता में मिलता है। अथर्ववेद की रचना के बाद हिन्दू समाज में दो फाड़ हो गई- ऋग-यजु और साम-अथर्व।

इस तरह वेदों में ईश्वर उपासना के दो रूप प्रचलित हो गए- साकार तथा निराकार। निराकारवादी प्रायः साकार उपासना या मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि ऋषि-मनीषियों ने दोनों उपासना पद्धतियों का निर्माण मनुष्य के बौद्धिक स्तर की अनुकूलता के अनुरूप किया था।

शिवलिंग की पूजा का प्रचलन अथर्व और पुराणों की देन है। शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन हिन्दू-जैन धर्म में बढ़ने लगा। बौद्धकाल में बुद्ध और महावीर की मूर्ति‍यों को अपार जन-समर्थन मि‍लने के कारण विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियां बनाई जाने लगीं।

मान्यता के अनुसार महाभारत काल तक अर्थात द्वापर युग के अंत तक देवी और देवता धरती पर ही रहते थे और वे भक्तों के समक्ष कभी भी प्रकट हो जाते थे। तब उनके साक्षात रूप की पूजा या प्रार्थना होती थी। लेकिन कलयुग के प्रारंभ होने के बाद उनके विग्रह रूप की पूजा होने लगी। विग्रह रूप अर्थात शिवलिंग, शालिग्राम, जल, अग्नि, वायु, आकाश और वृक्ष रूप आदि की।

अब सवाल यह उठता है कि हिन्दू धर्म के धर्मग्रंथ वेद, उपनिषद और गीता भी मूर्ति पूजा को नहीं मानते हैं तो हिन्दू क्यों मूर्ति या पत्थर की पूजा करते हैं और इस पूजा का प्रचलन आखिर कैसे, क्यूं और कब हुआ?

महावीर स्वामी और बुद्ध के जाने के बाद मूर्तिपूजा का प्रचलन बढ़ा और हजारों की संख्या में संपूर्ण देश में जैन और बौद्ध मंदिर बनने लगे।
इन्हीं को देखते हुए हिन्दुओं ने भी राम और कृष्ण के मंदिर बनाए और इस तरह भारत में मूर्ति आधारित मंदिरों का विस्तार हुआ। दरअसल, महावीर और बुद्ध की मूर्तियों के पूर्व भी हिन्दुओं ने मूर्ति आधारित देवालयों का निर्माण कर लिया था। जिसमें माता के शक्तिपीठ, शिवलिंग और विष्णु मंदिर प्रमुख है।
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आध्यात्मिक जीवन ,,,,,,
आत्मा के कल्याण की अनेक साधनायें हैं। सभी का अपना-अपना महत्त्व है और उनके परिणाम भी अलग-अलग हैं।
‘स्वाध्याय’ से ,,,,सन्मार्ग,,,,,, की जानकारी होती है।
‘सत्संग’ से ,,,,,,स्वभाव और संस्कार,,,,, बनते हैं। कथा सुनने से सद्भावनाएँ जाग्रत होती हैं।
‘तीर्थयात्रा’ से ,,,,,,,भावांकुर,,,,,, पुष्ट होते हैं।
‘कीर्तन’ से ,,,,,,,तन्मयता,,,,,, का अभ्यास होता है।
दान-पुण्य से ,,,,,,सुख-सौभाग्यों,,,,,, की वृद्धि होती है।
‘पूजा-अर्चना से ,,,,,,आस्तिकता,,,,,,, बढ़ती है।
@इस प्रकार यह सभी साधन ऋषियों ने बहुत सोच-समझकर प्रचलित किये हैं। पर ,,,,,,,,,,,,,,,,‘तप’ (परिश्रम ),,,,,,,,,,,,, का महत्त्व इन सबसे अधिक है। तप की अग्नि में पड़कर ही आत्मा के मल विक्षेप और पाप-ताप जलते हैं। तप के द्वारा ही आत्मा में वह प्रचण्ड बल पैदा होता है, जिसके द्वारा सांसारिक तथा आत्मिक जीवन की समस्याएँ हल होती हैं। तप की सामर्थ्य से ही नाना प्रकार की सूक्ष्म शक्तियाँ और दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इसलिए तप साधन को सबसे शक्तिशाली माना गया है। तप के बिना आत्मा में अन्य किसी भी साधन से तेज प्रकाश बल एवं पराक्रम उत्पन्न नहीं होता।
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” जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !”
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जिस प्रकार मैले दर्पण में सूर्य देव का प्रकाश नहीं पड़ता है उसी प्रकार मलिन अंतःकरण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है अर्थात मलिन अंतःकरण में शैतान अथवा असुरों का राज होता है ! अतः ऐसा मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त अनेक दिव्य सिद्धियों एवं निधियों का अधिकारी नहीं बन सकता है !
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“जब तक मन में खोट और दिल में पाप है, तब तक बेकार सारे मन्त्र और जाप है !”
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,,,,सच्चे संतो की वाणी से अमृत बरसता है , आवश्यकता है ,,,उसे आचरण में उतारने की ….
Note ; कृपया पोस्ट के साथ ही देवलोक गौशाला का page भी लाइक करें और हमेशा के लिए सत्संग का लाभ उठाएं ! देवलोक गौशाला सदैव आपको सन्मार्ग दिखाएगी और उस पर चलने के लिए प्रेरित करती रहेगी! ! सर्वदेवमयी यज्ञेश्वरी गौमाता को नमन
जय गौमाता की 🙏👏🌹🌲🌿🌹
शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है ! चाहो तो इससे ” विभूतिया ” (अच्छाइयां / पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम ” दुर्गति ” ( बुराइया / पाप ) इत्यादि !
परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो !
प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करो !
शाकाहार अपनाओ , करुणा को चुनो !
choice is yours . 🚩🙏🙏🚩

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

शूरवीरराजारामजाट

ढाई मसती बसती करी,खोद कब्र करी खड्ड,
अकबर अरु जहांगीर के गाढ़े कढ़ी हड्ड”।

नाम :- राजाराम जाट, भज्जासिंह के पुत्र थे और सिनसिनवार जाटों का सरदार थे ।

औरंगजेब के एक अधिकारी लाल बेग ने एक बार का बलात्कार कर दिया ..ये खबर राजाराम जाट को मिली ….

राजाराम जाट ने लाल बेग की हत्या कर दी और कहा हो गया न्याय ..ये राजा राम जाट का न्याय था ..राजाराम औरंगजेब को उसी की भाषा मे जवाब देते थे ..औरंगजेब ने अनेक मन्दिर तोड़े तो बदले में राजा राम जाट ने उनके अनेक मकबरे और महलों को तोड़ा ।
अब इनकी वीरता के किस्से औरंगजेब तक पहुँच गए थे..
औरंगजेब ने जाट विद्रोह को खत्म करने के लिए अपने चाचा को भेजा ..राजाराम जाट ने उन्हें भी युद्ध मे हरा दिया ।
औरंगजेब के चाचा की हत्या के बाद मुगल सेना अब अंदरूनी कलह में फंस चुकी थी ..जिसका फायदा उठाकर राजाराम जाट ने 1688 में मुगलो पे हमला कर करीब 500 मुगलो के सिर काट दिए ।

राजाराम ने अकबर की अस्थियों को खोदकर निकाला और उसे जला दिया इसके बाद उसने हुमायूं के मकबरे को भी लूटा ।।
जो भाषा औरंगजेब समझता था ..उसी भाषा मे औरंगजेब को अब जवाब मिलने लगा ।
राजाराम जाट की ख्याति अब शूरवीरों जैसी होने लगी थी।
पर अंत मे वही हुआ जो मुगलो को आता था छल ..और 4 जुलाई 1688 को युद्ध करते समय धोखे से मुगल सैनिक ने पीछे से हमला करके उन्हें मृत्यु का यश मिला ।
इतिहास में हमे बहुत बदलाव करने है ..अच्छे से भारतीय इतिहास लिखे तो ये शूरवीर इतिहास में अग्रमी पन्ने पे होंगे। 🙏जय श्री राम ।🙏

Posted in महाभारत - Mahabharat

राहुल गर्ग

शस्त्र की महत्ता…!!

दधीचि ऋषि ने देश के हित में अपनी हड्डियों का दान कर दिया था !

उनकी हड्डियों से तीन धनुष बने- १. गांडीव, २. पिनाक और ३. सारंग !

जिसमे से गांडीव अर्जुन को मिला था जिसके बल पर अर्जुन ने महाभारत का युद्ध जीता !

सारंग से भगवान राम ने युद्ध किया था और रावण के अत्याचारी राज्य को ध्वस्त किया था !

और, पिनाक भगवान शिव जी के पास था जिसे तपस्या के माध्यम से खुश रावण ने शिव जी से मांग लिया था !

परन्तु… वह उसका भार लम्बे समय तक नहीं उठा पाने के कारण बीच रास्ते में जनकपुरी में छोड़ आया था !

इसी पिनाक की नित्य सेवा सीताजी किया करती थी ! पिनाक का भंजन करके ही भगवान राम ने सीता जी का वरण किया था !

ब्रह्मर्षि दधिची की हड्डियों से ही “एकघ्नी नामक वज्र” भी बना था … जो भगवान इन्द्र को प्राप्त हुआ था !

इस एकघ्नी वज्र को इन्द्र ने कर्ण की तपस्या से खुश होकर उन्होंने कर्ण को दे दिया था! इसी एकघ्नी से महाभारत के युद्ध में भीम का महाप्रतापी पुत्र घतोत्कक्ष कर्ण के हाथों मारा गया था ! और भी कई अश्त्र-शस्त्रों का निर्माण हुआ था उनकी हड्डियों से !

लेकिन ……… दधिची के इस अस्थि-दान का उद्देश्य क्या था ??????

क्या उनका सन्देश यही था कि….. उनकी आने वाली पीढ़ी नपुंसकों और कायरों की भांति मुंह छुपा कर घर में बैठ जाए और शत्रु की खुशामद करे….??? नहीं..

कोई ऐसा काल नहीं है जब मनुष्य शस्त्रों से दूर रहा हो..

हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ से ले कर ऋषि-मुनियों तक का एक दम स्पष्ट सन्देश और आह्वान रहा है कि….

”हे सनातनी वीरो.शस्त्र उठाओ और अन्याय तथा अत्याचार के विरुद्ध युद्ध करो !”

बस आज भी सबके लिए यही एक मात्र सन्देश है !
राष्ट्र और धर्म रक्षा के लिए अंततः बस एक ही मार्ग है !

सशक्त बनो..!

Posted in सुभाषित - Subhasit

नवनीतं हृदयं ब्राह्मणस्य वाचि क्षुरो निहितस्तीक्ष्णधारः! तदुभयमेतद्विपरीतं क्षत्रियस्य वाङ्गवनीतं हृदयं तीक्ष्णधारम्!! [ महाभारत १/३/१२३ ] अर्थात् :- ब्राह्मणोंका हृदय मक्खन जैसे कोमल होता है, किन्तु उनकी वाणी तीखी धारवाले छुरी जैसे कठोर होती है! क्षत्रियमें यह दोनों बातें विपरीत होती हैं अर्थात् वाणी मृदु, परन्तु हृदय कठोर होता है ! जबसे ब्राह्मणोंने "अर्थात अध्यात्मविदों एवं सन्तों" समाजमें व्याप्त अधर्मके विषयमें सत्य बतानेका कार्य छोड दिया है ! तबसे यह समाज अनियन्त्रित घोडे समान दिशाहीन होकर भटकने लगता है !!

जय श्री राम !!

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

प्रशांत मणि त्रिपाठी

पंचतंत्र

गहरा एकदम गहरा ज्ञान✍️

एक नदी में बाढ़ आती है छोटे से टापू में पानी भर जाता है वहां रहने वाला सीधा साधा एक चूहा कछुवे से कहता है मित्र
” क्या तुम मुझे नदी पार करा सकते हो मेरे बिल में पानी भर गया है ??
कछुवा राजी हो जाता है तथा चूहे को अपनी पीठ पर बैठा लेता है✍️
तभी एक बिच्छु भी बिल से बाहर आता है।
कहता है मुझे भी पार जाना है मुझे भी ले चलो,

चूहा बोला मत बिठाओ ये जहरीला है ये मुझे काट लेगा।
तभी समय की नजाकत को भांपकर बिच्छू बड़ी विनम्रता से कसम खाकर प्रेम प्रदर्शित करते हुए कहता है : भाई कसम से नही काटूंगा बस मुझे भी ले चलो।”

कछुआ चूहे और बिच्छू को ले तैरने लगता है।
तभी बीच रास्ते मे बिच्छु चूहे को काट लेता है।
चूहा चिल्लाकर कछुए से बोलता है “मित्र इसने मुझे काट लिया अब मैं नही बचूंगा।”

थोड़ी देर बाद उस बिच्छू ने कछुवे को भी डंक मार दिया। कछुवा मजबूर था जब तक किनारे पहुंचा चूहा मर चुका था।।

कछुआ बोला
“मैं तो इंसानियत से मजबूर था तुम्हे बीच मे नही डुबोया”
मगर तुमने मुझे क्यों काट लिया ?
बिच्छु उसकी पीठ से उतरकर जाते जाते बोला “मूर्ख तुम जानते नही मेरी तो मजहब ही है डंक मारना चाहे कोई भी हो।”
गलती तुम्हारी है जो तुमने मुझ पर विश्वास किया।।
ठीक इसी तरह
कोरोना की इस बाढ़ में मोदी जी ने भी नदी पार करवाने के लिए कुछ बिच्छुओं को पीठ पर बिठा लिया है।
वे लगातार डंक मार रहे है और सरकार इन्सानियत की खातिर मजबूर हैं ।।
फलस्वरूप
हर रोज बेचारे निर्दोष डॉक्टर,पुलिस,और स्वास्थ्यकर्मी पिट ओर मर रहे हैं✍️