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धन्यो गृहस्थाश्रमः


राकेश पांडे

धन्यो गृहस्थाश्रमः-
गृहस्थ – धर्म अन्य सभी धर्मों से अधिक महत्वपूर्ण माना गया है।

महर्षि व्यास के शब्दों में “गृहस्थ्येव हि धर्माणा सर्वेषाँ मूल मुच्यते” गृहस्थाश्रम ही सर्व धर्मों का आधार है। “धन्यो गृहस्थाश्रमः” चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम धन्य है। जिस तरह समस्त प्राणी माता का आश्रय पाकर जीवित रहते हैं, उसी तरह सभी आश्रम गृहस्थाश्रम पर आधारित हैं।

परिवार-संस्था सहजीवन के व्यावहारिक शिक्षण की प्रयोगशाला है। इसीलिए कुटुम्ब समाज संस्था की इकाई माना जाता है। गृहस्थ में बिना किसी संविधान, दण्ड-विधान, सैनिक शक्ति के ही सब सदस्य परस्पर सहयोगी सह-जीवन बिताते हैं। माता, पिता, पुत्र, पति-पत्नी, नाते-रिश्तों के सम्बन्ध किसी दण्ड के भय अथवा कानून की प्रेरणा पर कायम नहीं होते, वरन् वे स्वेच्छा से कुल धर्म कुल परम्परा, आनुवंशिक संस्कारों पर निर्भर करते हैं।

प्रत्येक सदस्य अपनी-अपनी मर्यादाओं का पालन करने में अपनी प्रतिष्ठा, कल्याण, गौरव की भावना रखकर खुशी-खुशी उन्हें निभाने का प्रयत्न करता है। कुटुम्ब के साथ सह-जीवन में आवश्यकता पड़ने पर प्रत्येक सदस्य अपने व्यक्तिगत सुख स्वार्थों का त्याग करने में भी प्रसन्नता अनुभव करता है।

यही सह-जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता होती है। बिना अपने स्वार्थों का त्याग किये, कष्ट सहन किये सह- जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती और उसमें भी विशेषता यह है कि यह त्याग-सहिष्णुता स्वेच्छा से खुशी के साथ वहन की जाती है। सह-जीवन के लिए ऐसा शिक्षण और कहाँ मिल सकता है?

कुटुम्ब के निर्माण के लिए फिर किसी कृत्रिम उपाय, संकल्प विधान की आवश्यकता नहीं होती। परिवार अपने आप में ‘स्वयं-सिद्ध’ संस्था है। माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, पुत्र आदि के चुनाव करने की आवश्यकता नहीं होती। जहाँ गृहस्थ है, वहाँ ये सब तो हैं ही। और इन सम्बन्धों को स्थिर रखने के लिए किसी कृत्रिम उपाय की भी आवश्यकता नहीं होती। कुटुम्ब तो सहज आत्मीयता पर चलते हैं।

कहावत है-”पानी की अपेक्षा खून अधिक गाढ़ा होता है, इसलिए एक ही जलाशय के पास बसने वालों की अपेक्षा एक ही कुटुम्ब में बँधे लोगों के सम्बन्ध अधिक प्रगाढ़ आत्मीय, अभेद्य होते हैं।” कितना ही बैर भाव क्यों न पैदा हो जाय लेकिन खून का असर आदमी के दिल और दिमाग से हट नहीं सकता। एक खून का व्यक्ति अपने साथी से स्वयं लड़ लेगा लेकिन दूसरे का आक्रमण बर्दाश्त नहीं करता। दुनिया में सब सम्बन्ध परिस्थिति वश टूट सकते हैं लेकिन खून का नहीं।

कोई पुत्र अपने पिता से यह नहीं कह सकता कि मैं तुम्हारा बेटा नहीं। कोई भाई अपनी बहन से यह सिद्ध नहीं कर सकता कि “मैं तुम्हारा भाई नहीं।” खून का सम्बन्ध स्वयं सिद्ध है। एक माता-पिता अपने पुत्र के लिए जितना सोच सकते हैं, उतना हृदयपूर्वक अन्य नहीं सोच सकता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि एक ही खून से सींची हुई कुटुम्ब संस्था गृहस्थ जीवन का अलौकिक चमत्कार है।

गृहस्थ का आधार है, वैवाहिक जीवन। स्त्री और पुरुष विवाह-संस्कार के द्वारा गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते हैं। तब वे गृहस्थाश्रमी कहलाते हैं। स्मरण रहे विवाह संस्कार का अर्थ दो शरीरों का मिलन नहीं होता। हमारे यहाँ विवाह स्थूल नहीं, वरन् हृदय की, आत्मा की, मन की एकता का संस्कार है। जो विवाह को शारीरिक निर्बाध कामोपभोग का सामाजिक स्वीकृति-पत्र समझते हैं, वे भूल करते हैं। वे अज्ञान में हैं। विवाह का यह प्रयोजन कदापि नहीं है।

भारतीय जीवन पद्धति में उसका उद्देश्य बहुत बड़ा है, दिव्य है , पवित्र है। विवाह के समय वर कहता है-

“द्यौरहं पृथ्वी त्वं सामाहम्हक्त्वम्।
सम्प्रिदौ रोचिष्णू सुमनस्यमानौजीवेव शरदः शतम्॥”

“मैं आकाश हूँ, तू पृथ्वी है। मैं सामवेद हूँ, तू ऋग्वेद है। हम एक दूसरे पर प्रेम करें। एक दूसरे को सुशोभित करें। एक दूसरे के प्रिय बनें। एक दूसरे के साथ निष्कपट व्यवहार करके सौ वर्ष तक जियें।”

यही कहीं नहीं कहा है कि पति और पत्नी दो शरीर हैं। उन दोनों शरीरों का मिलन ही विवाह है अथवा भोगासक्त जीवन बिता कर अल्प- मृत्यु प्राप्त करना ही विवाह है।

आकाश और पृथ्वी का सहज मिलन पति पत्नी के सम्बन्धों का अपूर्व आदर्श है। विवाह ज्ञान और कला का संगम है। प्रेम के लिए एक दूसरे को अर्पण कर देने का विधान है, दो हृदयों को निष्कपट- खुले व्यवहार सूत्र में पिरोने का विधान है। विवाह संयमपूर्वक लेकिन आनन्दमय जीवन बिताकर पूर्ण आयु प्राप्त करने का सहज मार्ग है।

गृहस्थ का उद्देश्य स्त्री – पुरुष एवं अन्य सदस्यों का ऐसा संयुक्त जीवन है जो उन्हें शारीरिक सीमाओं से ऊपर उठा कर एक दूसरे के प्रति निष्ठा, आत्मीयता, एकात्मकता की डोर में बाँध देता है। यह डोर जितनी प्रगाढ़ – पुष्ट होती जाती है, उतनी ही शारीरिकता गौण होती जाती है। ऐसी परिस्थिति में शरीर भले ही रोगी, कुरूप हो जावे लेकिन पारस्परिक निष्ठा कम नहीं होती।

एक स्त्री ही संसार में सबसे सुन्दर और गुणवती नहीं होती, लेकिन पति के लिए सृष्टि में उसके समान कोई नहीं। संसार में सभी माँ एक सी नहीं होतीं, लेकिन प्रत्येक माँ अपने बच्चे के लिए मानो ईश्वरी वात्सल्य की साकार प्रतिमा है। एक गरीब कंजर अशिक्षित माँ के अंक में बालक को जो कुछ मिल सकता है, वह किसी दूसरी स्त्री के पास नहीं मिल सकता। प्रत्येक बालक के लिए माँ उसकी जननी ही हो सकती हैं और काना, कुरूप, गन्दा, अविकसित बालक भी माँ के लिए सबसे अधिक प्रिय होता है। धर्म की बहन कितनी ही बना ली जाएं लेकिन भाई के लिए जो उमड़ता-घुमड़ता हृदय एक सहोदर बहन में हो सकता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस तरह हम देखते हैं कि गृहस्थाश्रम शारीरिक सम्बन्धों पर टिका हुआ नहीं है। अपितु स्नेहमय, दिव्य, सूक्ष्म आधार स्तम्भों पर इस पुण्य भवन का निर्माण होता है। पारिवारिक जीवन में परस्पर सम्बन्धों की यह दिव्यता ही गृहस्थ जीवन की आत्मा है।

गृहस्थाश्रम वृत्तियों का शोधन करना जीवन की साधना की एक रचनात्मक प्रयोगशाला है। मनुष्य की काम वासना को पति-पत्नी में एक दूसरे के प्रति कर्त्तव्य, निष्ठा, प्रेम में परिवर्तित कर कामोपभोग को एक साँस्कृतिक संस्कार बनाकर सामाजिक मूल्य में बदल देना गृहस्थाश्रम की ही देन है। स्मरण रहे गृहस्थाश्रमी शरीर-निष्ठ अथवा रूप-निष्ठ नहीं होता। कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व, प्रेम की निष्ठा ज्यों-ज्यों बढ़ती है, शारीरिकता नष्ट होने लगती है और क्रमशः पूर्णरूपेण शारीरिकता का अन्त होकर उक्त दिव्य आधार मुख्य हो जाते हैं। कामुकता भी नष्ट हो जाती है। इसलिए गृहस्थाश्रम कामोपभोग का प्रमाण-पत्र नहीं, अपितु संयम-ब्रह्मचर्य मूलक है। संयम का एक क्रमिक लेकिन व्यावहारिक साधना स्थल है। सेवा-शुश्रूषा, पालन-पोषण, शिक्षण एक दूसरे के प्रति प्रेम, त्याग, सहिष्णुता के माध्यम से मनुष्य की कामशक्ति संस्कारित, निर्मल होकर मनुष्य को व्यवस्थित संगत, दिव्य बनाने का आधार बन जाती है।

गृहस्थ तप और त्याग का जीवन है। गृहस्थी के निर्वाह-पालन के लिये किए जाने वाला प्रयत्न किसी तप से कम नहीं है। कुटुम्ब का भार वहन करना, परिवार के सदस्यों को सुविधापूर्ण जीवन के साधन जुटाना, स्त्री, बच्चे, माता, पिता, अन्य परिजनों की सेवा करना बहुत कठिन तपस्या है। गृहस्थ में स्वयमेव मनुष्य को अपनी अनेकों प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना पड़ता है। कोई भी गृहस्थ स्वयं कम खा लेता है, पुराना कपड़ा पहन लेता है, लेकिन परिवार के सदस्यों की चिकित्सा, वस्त्र, भोजन, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए सब प्रबन्ध करता है। पेट काट कर भी माँ-बाप बच्चों को पढ़ाते हैं। फटा कपड़ा स्वयं पहनकर बच्चों को अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनाते हैं। गृहस्थ में जिम्मेदार व्यक्ति के सामने अन्य सदस्यों को सुखी सन्तुष्ट रखने का ध्यान प्रमुख होता है, स्वयं का गौण। उधर गृहिणी सबसे पीछे जो बच जाता है, वह खा लेती है। सबकी सेवा में दिन-रात लगी रहती है। बिना किसी प्राप्ति की इच्छा से सहज रूपेण। सचमुच गृहस्थाश्रम एक यज्ञ है तप और त्याग का। प्रत्येक सदस्य उदारतापूर्वक सहज ही एक दूसरे के लिए कष्ट सहता है, एक दूसरे के लिए त्याग करता है।

गृहस्थाश्रम समाज को सुनागरिक देने की खान है। भक्त, ज्ञानी, सन्त, महात्मा, महापुरुष, विद्वान, पण्डित, गृहस्थाश्रम से ही निकल कर आते हैं। उनके जन्म से लेकर शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण, ज्ञान-वर्धन गृहस्थाश्रम के बीच ही होता है। परिवार के बीच ही मनुष्य की सर्वोपरि शिक्षा होती है।

गृहस्थाश्रम की सर्वोपरि उपलब्धि है उसका आतिथ्य धर्म। आतिथ्य धर्म कितना बड़ा सामाजिक मूल्य है। जिसे कहीं भोजन न मिले, जो संयोग से ही पहुँच जाय उसे भोजन कराये बगैर गृहस्थी भोजन नहीं करता। गाँव के पास -पड़ौस में कोई भूखा न रह जाय, इसके लिए प्रतिदिन नियम पूर्वक किसी अतिथि को भोजन कराये बिना कुछ भी न खाना, हमारे यहाँ गृहस्थाश्रम की अभूतपूर्व देन है। असंख्यों असमर्थ, अपाहिज अथवा अन्य उच्च कार्यों में लगे त्यागी तपस्वी, संन्यासी, सेवकों का जीवन निर्वाह गृहस्थाश्रम से ही होता है।

गृहस्थाश्रम समाज के संगठन, मानवीय मूल्यों की स्थापना, समाज निष्ठा, भौतिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के आध्यात्मिक-मानसिक विकास का क्षेत्र है। गृहस्थाश्रम ही समाज के व्यवस्थित स्वरूप का मूलाधार है।

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રત્નાભાઈ મનજીભાઈ ઠુમર


એક વયોવૃદ્ધ માણસ લાકડીના ટેકે ટેકે જૂનાગઢની કલેક્ટર કચેરીના પગથિયાં ચડીને મુખ્ય દરવાજે આવ્યા. દરવાજે રહેલા ચોકીદારે દાદાના હાથમાં સેનીટાઇઝર આપતા પૂછયું, ‘દાદા, કેટલા વરસ થયા ?’ દાદાએ ધ્રુજતા અવાજે કહ્યું, ‘ભાઈ 99મું ચાલે છે’. ચોકીદારે પૂછ્યું , ‘કોઈ મદદ લેવા આવ્યા છો ?’ દાદાએ કહ્યું, ‘ના ભાઈ કોઈ મદદ લેવા નથી આવ્યો. આપણો દેશ અત્યારે ઉપાધિમાંથી પસાર થઈ રહ્યો છે એટલે મારી મરણમૂડી મુખ્યમંત્રી રાહતફંડમાં આપવા આવ્યો છું. મારી પાસે અંગત બચતની થોડી રકમ પડી હતી તેમાંથી 51000નો ચેક કલેક્ટર સાહેબને આપવા આવ્યો છું.’

આ દાદાનું નામ છે રત્નાભાઈ મનજીભાઈ ઠુમર. તમને જાણીને આશ્વર્ય થશે કે 99 વર્ષના આ દાદા 1975થી 1980ના સમયગાળા દરમિયાન મેંદરડા-માળિયા મતવિસ્તારમાંથી ગુજરાત રાજ્યના ધારાસભ્ય પણ રહી ચૂક્યા છે. અત્યંત સાદગીપૂર્ણ જીવન જીવતા રત્નાબાપાએ ધારાસભ્ય તરીકે પોતાનો પગાર પણ નથી લીધો અને પેન્શન પણ નથી લીધું. ધારાસભ્ય હતા ત્યારે પણ સરકારી બસમાં જ સામાન્ય મુસાફર તરીકે મુસાફરી કરી છે.

ભારતમાં જ્યારે અનાજની તંગી હતી ત્યારે તત્કાલીન વડાપ્રધાન શ્રી લાલબહાદુર શાસ્ત્રીએ ભારતના લોકોને અઠવાડિયામાં એક દિવસ એક ટંકનું ભોજન છોડવા માટે અપીલ કરી હતી. રત્નાબાપાએ ત્યારથી દર સોમવારે એક ટંક જમવાનું છોડી દીધું છે જે નિયમ 99 વર્ષની જૈફ વયે તૂટવા નથી દીધો.

51000નો ચેક જૂનાગઢના એડિશનલ કલેક્ટરને અર્પણ કર્યો ત્યારે રત્નાબાપાએ કહ્યું, ‘સાહેબ, હું વૃદ્ધ છું એટલે આવેલા સંકટ સામે લડાઈ લડવામાં મારું શરીર તો કામમાં આવે એમ નથી પણ મારી થોડીઘણી બચત હતી તે દેશને કામમાં આવે એટલે અર્પણ કરું છું.’

ભારત મહાન છે કારણકે ભારત પાસે રત્નાબાપા જેવા મુઠ્ઠી ઊંચેરા માણસો પણ છે.

મન મેં હૈ વિશ્વાસ,
પુરા હૈ વિશ્વાસ,
હમ હોંગે કામિયાબ એક દિન.

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एक संत को सुबह-सुबह सपना आया। सपने में सब तीर्थों में चर्चा चल रही थी की कि इस कुंभ के मेले में सबसे अधिक किसने पुण्य अर्जित किया। श्री प्रयागराज ने कहा कि ” सबसे अधिक पुण्य तो रामू मोची को ही मिला हैं।”

गंगा मैया ने कहाः ” लेकिन रामू मोची तो गंगा में स्नान करने ही नहीं आया था।”
देवप्रयाग जी ने कहाः ” हाँ वो यहाँ भी नहीं आया था।”
रूद्रप्रयाग ने भी बोला “हाँ इधर भी नहीं आया था।”

फिर प्रयागराज ने कहाः ” लेकिन फिर भी इस कुंभ के मेले में जो कुंभ का स्नान हैं उसमे सबसे अधिक पुण्य रामू मोची को मिला हैं।
सब तीर्थों ने प्रयागराज से पूछा
“रामू मोची किधर रहता है
और वो क्या करता हैं?

श्री प्रयागराजजी ने कहाः “वह रामू मोची जूता की सिलाई करता हैं और केरल प्रदेश के दीवा गाँव में रहता हैं।”
इतना स्वप्न देखकर वो संत नींद से जाग गए। और मन ही मन सोचने लगे कि क्या ये भ्रांति है या फिर सत्य हैं! सुबह प्रभात में सपना अधिकतर सच्चे ही होते हैं। इसलिए उन्ह संत ने इसकी खोजबीन करनी की सोची।

जो जीवन्मुक्त संत महापुरूष होते हैं वो निश्चय के बड़े ही पक्के होते है, और फिर वो संत चल पड़े केरल दिशा की ओर। स्वंप्न को याद करते और किसी किसी को पूछते – पूछते वो दीवा गाँव में पहुँच ही गये। जब गावं में उन्होंने रामू मोची के बारे में पूछा तो, उनको रामू मोची मिल ही गया। संत के सपने की बात सत्य निकली।

वो संत उस रामू मोची से मिलने गए। वह रामू मोची संत को देखकर बहुत ही भावविभोर हो गया और कहा
“महाराज! आप मेरे घर पर? मै जाति तो से चमार हूँ, हमसे तो लोग दूर दूर रहते हैं, और आप संत होकर मेरे घर आये। मेरा काम तो चमड़े का धन्धा हैं। मै वर्ण से शूद्र हूँ। अब तो उम्र से भी लाचार हो गया हूँ। बुद्धि और विद्धा से अनपढ़ हूँ मेरा सौभाग्य हैं की आप मेरे घर पधारे.”

संत ने कहा “हाँ” मुझे एक स्वप्न आया था उसी कारण मै यहाँ आया और संत तो सबमे उसी प्रभु को देखते हैं इसलिए हमें किसी भी प्रकार की कोई परेशानी नहीं हैं किसी की घर जाने में और मिलने में।

संत ने कहा आपसे से एक प्रश्न था की “आप कभी कुम्भ मेले में गए हो”? और इतना सारा पुण्य आपको कैसे मिला?
वह रामू मोची बोला ” नहीं महाराज! मै कभी भी कुंभ के मेले में नहीं गया, पर जाने की बहुत लालसा थी इसलिए मै अपनी आमदनी से रोज कुछ बचत कर रहा था।

इस प्रकार महीने में करीब कुछ रूपया इकट्ठा हो जाता था और बारह महीने में कुम्भ जाने लायक और उधर रहने खाने पीने लायक रूपये हो गए थे। जैसे ही मेरे पास कुम्भ जाने लायक पैसे हुए मुझे कुम्भ मेले का शुरू होने का इंतज़ार होने लगा

और मै बहुत ही प्रसन्न था की मै कुंभ के मेले में गंगाजी स्नान करूँगा.
लेकिन उस समय मेरी पत्नी माँ बनने वाली थी। अभी कुछ ही समय पहले की बात हैं। एक दिन मेरी पत्नी को पड़ोस के किसी घर से मेथी की सब्जी की सुगन्ध आ गयी। और उसने वह सब्जी खाने की इच्छा प्रकट की।

मैंने बड़े लोगो से सुना था कि गर्भवती स्त्री की इच्छा को पूरा कर देना चाहिए। मै सब्जी मांगने उनके घर चला गया और उनसे कहा
“बहनजी, क्या आप थोड़ी सी सब्जी मुझको दे सकते हो। मेरी पत्नी गर्भवती हैं और उसको खाने की इच्छा हो रही हैं।

“हाँ रामू भैया! हमने मेथी की सब्जी तो बना रखी हैं” वह बहन हिचकिचाने लग गई। और फिर उसने जो कहा उसको सुनकर मै हैरान रह गया ” मै आपको ये सब्जी नहीं दे सकती क्योंकि आपको देने लायक नहीं हैं।”
“क्यों बहन जी?”

“आपको तो पता हैं हम बहुत ही गरीब हैं और हमने पिछले दो दिन से कुछ भी नहीं खाया। भोजन की कोई व्यवस्था नही हो पा रही थी। आपके जो ये भैया वो काफी परेशान हो गए थे। सबसे कर्जा भी ले लिया था। उनको जब कोई उपाय नहीं मिला तो भोजन के लिए घूमते – घूमते शमशान की ओर चले गए। उधर किसी ने मृत्य की बाद अपने पितरों के निमित्त ये सब्जी रखी हुई थी। ये वहां से छिप – छिपाकर गए और उधर से ये सब्जी लेकर आ गए। अब आप ही कहो मै किसी प्रकार ये अशुद्ध और अपवित्र सब्जी दे दूं?”

उस रामू मोची ने फिर बड़े ही भावबिभोर होकर कहा “यह सब सुनकर मुझको बहुत ही दुःख हुआ कि इस संसार में केवल मै ही गरीब नहीं हूँ, जो टका-टका जोड़कर कुम्भ मेले में जाने को कठिन समझ रहा था।

जो लोग अच्छे कपडे में दिखते है वो भी अपनी मुसीबत से जूझ रहे हैं और किसी से कह भी नहीं सकते, और इस प्रकार के दिन भी देखने को मिलता हैं और खुद और बीबी बच्चो को इतने दिन भूख से तड़फते रहते हैं! मुझे बहुत ही दुःख हुआ की हमारे पड़ोस में ऐसे लोग भी रहते हैं,

और मै टका-टका बचाकर गंगा स्नान करने जा रहा हूँ ? उनकी सेवा करना ही मेरा कुम्भ मेले जाना हैं। मैंने जो कुम्भ मेले में जाने के लिए रूपये इकट्ठे किये हुए थे वो घर से निकाल कर ले आया। और सारे पैसे उस बहन के हाथ में रख दिए। उस दिन मेरा जो ये हृदय है बहुत ही सन्तुष्ट हो गया।

प्रभु जी! उस दिन से मेरे हृदय में आनंद और शांति आने लगी।”
वो संत बोलेः ” हाँ इसलिए जो मैने सपना देखा, उसमें सभी तीर्थ मिलकर आपकी प्रशंसा कर रहे थे।”
इसलिए संतो ने सही कहा

“वैष्णव जन तो तेने रे कहीए जे पीड़ पराई जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे।।“
🙏🏽🙏🙏🏿जय जय श्री राधे🙏🏼🙏🏾🙏🏻

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🌸 एक शिव भक्त भील कुमार की कथा 🌸🙏🏻🕉

सबसे बड़ा भक्त…….
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एक पर्वत पर शिव जी का एक सुंदर मन्दिर था। यहाँ बहुत से लोग शिव जी की पूजा के लिए आते थे। उनमें दो भक्त एक ब्राह्मण और दूसरा एक भील, नित्य आने वालों में थे.

ब्राह्मण प्रतिदिन शिव जी का दूध से अभिषेक करता, उन पर फूल,पत्तियां चढ़ाता, गूगल जलाता और चंदन का लेप करता !

भील के पास तो ये सब वस्तुए नही थी, सो वह हाथी के मदजल से शिव जी का अभिषेक करता, उन पर जंगल की फूल पत्तियां चढ़ाता और भक्ति भाव से शिव जी को रिझाने को नृत्य करता !

एक दिन ब्राह्मण जब मन्दिर गया तो उसने देखा भगवान शिव भील से बात कर रहे हैं !

ब्राह्मण को यह अच्छा नही लगा और तुरंत भगवान शिव से बोला – भगवन क्या आप मुझ से असंतुष्ट है ?
मै ऊंचे कुल में पैदा हुआ हूं तथा बहुमूल्य पदार्थो से आपकी पूजा करता हूं।
जबकि यह भील नीच कुल से है और अपवित्र पदार्थों से आपकी उपासना करता है !

शिव जी ने कहा – ब्राह्मण तुम ठीक कहते हो, किन्तु इस भील का जितना स्नेह मुझ पर है उतना तुम्हारा नही !

एक दिन शिव जी ने अपनी एक आंख गिरा दी।
ब्राह्मण नियत समय पर पूजा करने आया। उसने देखा शिव जी की एक आंख नही है। पूजा करके वह अपने घर लौट आया !

उसके बाद भील आया,उसने देखा भगवान शिव की एक आंख नही है. वो तुरंत अपनी आंख निकालने का प्रयास करने लगा !

तभी ब्राह्मण मन्दिर में पहुँच गया और भील को ऐसा करते देख तुरंत भगवान शिव के चरणों मे लेट गया और भगवान शिव से कहने लगा – प्रभु ! आपका यही सच्चा भक्त हैं इसे रोको,ये नेत्रहीन हो जाएगा !

भगवान शिव बोले – तुमने ऐसा सोचा भी नही, इसलिए मैं कहता हूं कि भील ही मेरा सच्चा भक्त हैं !

भगवान शिव की कृपा से भील नेत्रहीन होने से भी बच गया और ब्राह्मण के अहंकार के नेत्र भी खुल गए !

ईश्वर केवल भावना के भूखे है. भावना शुद्ध होगी तो परमात्मा उनके पीछे पीछे आ जाएंगे !🙏🙏

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Night story 🌹🌹🌹🌹
एक गरीब वृद्ध पिता के पास अपने अंतिम समय में दो बेटों को देने के लिए मात्र एक आम था। पिताजी आशीर्वादस्वरूप दोनों को वही देना चाहते थे,
किंतु बड़े भाई ने आम हठपूर्वक ले लिया।रस चूस लिया छिल्का अपनी गाय को खिला दिया।
गुठली छोटे भाई के आँगन में फेंकते हुए कहा-लो,ये पिताजी का तुम्हारे लिए आशीर्वाद है।
छोटे भाई ने ब़ड़ी श्रद्धापूर्वक गुठली को अपनी आँखों व सिर से लगाकर गमले में गाढ़ दिया।छोटी बहू पूजा के बाद बचा हुआ जल गमले में डालने लगी।कुछ समय बाद आम का पौधा उग आया,जो देखते ही देखते बढ़ने लगा।
छोटे भाई ने उसे गमले से निकालकर अपने आँगन में लगा दिया। कुछ वर्षों बाद उसने वृक्ष का रूप ले लिया।वृक्ष के कारण घर की धूप से रक्षा होने लगी,साथ ही प्राणवायु भी मिलने लगी,बसंत में कोयल की मधुर कूक सुनाई देने लगी।बच्चे पेड़ की छाँव में किलकारियाँ भरकर खेलने लगे।
पेड़ की शाख से झूला बाँधकर झूलने लगे।पेड़ की छोटी-छोटी लक़िड़याँ हवन करने एवं बड़ी लकड़ियाँ घर के दरवाजे-खिड़कियों में भी काम आने लगीं।
आम के पत्ते त्योहारों पर तोरण बाँधने के काम में आने लगे।धीरे-धीरे वृक्ष में कैरियाँ लग गईं। कैरियों से अचार व मुरब्बा डाल दिया गया।आम के रस से घर-परिवार के सदस्य रस-विभोर हो गए तो बाजार में आम के अच्छे दाम मिलने से आर्थिक स्थिति मजबूत हो गई।
रस से पाप़ड़ भी बनाए गए,जो पूरे साल मेहमानों व घर वालों को आम रस की याद दिलाते रहते।
ब़ड़े बेटे को आम फल का सुख क्षणिक ही मिला तो छोटे बेटे को पिता का’आशीर्वाद’दीर्घकालिक व सुख- समृद्धिदायक मिला।
मित्रो..!यही हाल हमारा भी है
परमात्मा हमे सब कुछ देता है सही उपयोग हम करते नही हैं दोष परमात्मा और किस्मत को देते हैं।
🙏🏻🙏🏻

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नई नंदन प्रसाद

शबरी बोली, यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो राम तुम यहाँ कहाँ से आते?” राम गंभीर हुए कहा, "भ्रम में न पड़ो अम्मा! राम क्या रावण का वध करने आया है? ... अरे रावण का वध तो लक्ष्मण अपने पैर से बाण चला कर कर सकता है। राम हजारों कोस चल कर इस गहन वन में आया है तो केवल तुमसे मिलने आया है अम्मा ताकि हजारों वर्षों बाद जब कोई पाखण्डी भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिल कर गढ़ा था। जब कोई कपटी भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो काल उसका गला पकड़ कर कहे कि नहीं! यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है जहाँ एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक दरिद्र वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है। राम वन में बस इसलिए आया है ताकि जब युगों का इतिहास लिखा जाय तो उसमें अंकित हो कि #सत्ता_जब_पैदल_चल_कर_समाज_के_अंतिम_व्यक्ति_तक_पहुँचे_तभी_वह_रामराज्य_है। राम वन में इसलिए आया है ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतीक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं।

सबरी एकटक राम को निहारती रहीं। राम ने फिर कहा- ” राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता! राम की यात्रा प्रारंभ हुई है भविष्य के लिए आदर्श की स्थापना के लिए। राम आया है ताकि भारत को बता सके कि अन्याय का अंत करना ही धर्म है l राम आया है ताकि युगों को सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाय, और खर-दूषणो का घमंड तोड़ा जाय और राम आया है ताकि युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि वन में बैठी सबरी के आशीर्वाद से जीते जाते हैं।” सबरी की आँखों में जल भर आया था। उसने बात बदलकर कहा- कन्द खाओगे राम?

राम मुस्कुराए, “बिना खाये जाऊंगा भी नहीं अम्मा…” जय जय सिया राम!!!