त्रिकाल संध्या
जीवन को यदि तेजस्वी बनाना हो, सफल बनाना हो, उन्नत बनाना हो तो मनुष्य को त्रिकाल संध्या अवश्य करनी चाहिए।
श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यंदिनं परि ।
श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह न: ॥5॥
-ऋग्वेद 7/151/5
अर्थात- हम प्रात: श्रद्धा का आह्वान करते हैं, हम मध्याह्न काल में श्रद्धा का सब ओर से आह्वान करते हैं, हम सूर्यास्त समय में श्रद्धा का आह्वान करते हैं । हे श्रद्धा! तू इस मानव जीवन में हमें श्रद्धामय बना ।
प्रातःकाल सूर्योदय से दस मिनट पहले और दस मिनट बाद में, दोपहर को बारह बजे के दस मिनट पहले और दस मिनट बाद में तथा सायंकाल को सूर्यास्त के पाँच-दस मिनट पहले और बाद में, यह समय संधि का होता है।
इस समय किया हुआ प्राणायाम, जप और ध्यान बहुत लाभदायक होता है जो मनुष्य सुषुम्ना के द्वार को खोलने में भी सहयोगी होता है। सुषुम्ना का द्वार खुलते ही मनुष्य की छुपी हुई शक्तियाँ जाग्रत होने लगती हैं।
प्राचीन ऋषि-मुनि त्रिकाल संध्या किया करते थे। भगवान वशिष्ट भी त्रिकाल संध्या करते थे और भगवान राम भी त्रिकाल संध्या करते थे। भगवान राम दोपहर को संध्या करने के बाद ही भोजन करते थे।
संध्या के समय हाथ-पैर धोकर, तीन चुल्लू पानी पीकर फिर संध्या में बैठें और प्राणायाम करें, गायत्री मंत्र का जप करें तो बहुत अच्छा। दोपहर की संध्या समय यदि कोई आफिस में है, व्यापारिक प्रतिष्ठान में हैैं अथवा स्कूल-कॉलिज में हैैं, तो वहीं मानसिक रूप से गायत्री मंत्र का जप, प्राणायाम व ध्यान कर लें तो भी ठीक है। लेकिन गायत्री जप करें अवश्य।
जैसे उद्योग करने से, पुरुषार्थ करने से दरिद्रता नहीं रहती, वैसे ही प्राणायाम करने से पाप कटते हैं। जैसे प्रयत्न करने से धन मिलता है, वैसे ही प्राणायाम करने से आंतरिक सामर्थ्य, आंतरिक बल मिलता है। छांदोग्य उपनिषद में लिखा है कि जिसने प्राणायाम करके मन को पवित्र किया है उसे ही गुरु के आखिरी उपदेश का रंग लगता है और आत्म-परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है।
मनुष्य के फेफड़ों में तीन हजार छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। जो लोग साधारण रूप से श्वास लेते हैं उनके फेफड़ों के केवल तीन सौ से पाँच सौ तक के छिद्र ही काम करते हैं, बाकी के बंद पड़े रहते हैं, जिससे शरीर की रोग प्रतिकारक शक्ति कम हो जाती है। मनुष्य जल्दी बीमार और बूढ़ा हो जाता है। व्यसनों एवं बुरी आदतों के कारण भी शरीर की शक्ति जब शिथिल हो जाती है, रोग-प्रतिकारक शक्ति कमजोर हो जाती है तो छिद्र बंद पड़े होते हैं उनमें जीवाणु पनपते हैं और शरीर पर हमला कर देते हैं जिससे दमा और टी.बी. की बीमारी होने की संभावना बढ़ जाती है।
परन्तु जो लोग गहरा श्वास लेते हैं, उनके बंद छिद्र भी खुल जाते हैं। फलतः उनमें कार्य करने की क्षमता भी बढ़ जाती है तथा रक्त शुद्ध होता है, नाड़ी भी शुद्ध रहती है, जिससे मन भी प्रसन्न रहता है। इसीलिए सुबह, दोपहर और शाम को संध्या के समय प्राणायाम करने का विधान है। प्राणायाम से मन पवित्र होता है, एकाग्र होता है जिससे मनुष्य में बहुत बड़ा सामर्थ्य आता है।
यदि मनुष्य दस-दस प्राणायाम तीनों समय करे और शराब, माँस, बीड़ी व अन्य व्यसनों एवं फैशनों में न पड़े तो चालीस दिन में तो मनुष्य को अनेक अनुभव होने लगते हैं। केवल चालीस दिन प्रयोग करके देखिये, शरीर का स्वास्थ्य बदला हुआ मिलेगा, मन बदला हुआ मिलेगा, जठरा प्रदीप्त होगी, आरोग्यता एवं प्रसन्नता बढ़ेगी और स्मरण शक्ति में जादुई विकास होगा।
प्राणायाम से शरीर के कोषों की शक्ति बढ़ती है। इसीलिए ऋषि-मुनियों ने त्रिकाल संध्या की व्यवस्था की थी। रात्रि में अनजाने में हुए पाप सुबह की संध्या से दूर होते हैं। सुबह से दोपहर तक के दोष दोपहर की संध्या से और दोपहर के बाद अनजाने में हुए पाप शाम की संध्या करने से नष्ट हो जाते हैं तथा अंतःकरण पवित्र होने लगता है।
आजकल लोग संध्या करना भूल गये हैं, निद्रा के सुख में लगे हुए हैं। ऐसा करके वे अपनी जीवन शक्ति को नष्ट कर डालते हैं।
प्राणायाम से जीवन शक्ति का, बौद्धिक शक्ति का एवं स्मरण शक्ति का विकास होता है। स्वामी रामतीर्थ प्रातःकाल में जल्दी उठते, थोड़े प्राणायाम करते और फिर प्राकृतिक वातावरण में घूमने जाते। परमहंस योगानंद भी ऐसा करते थे।
स्वामी रामतीर्थ बड़े कुशाग्र बुद्धि के विद्यार्थी थे। गणित उनका प्रिय विषय था। जब वे पढ़ते थे, उनका नाम तीर्थराम था। एक बार परीक्षा में 13 प्रश्न दिये गये जिसमें से केवल 9 हल करने थे। तीर्थराम ने 13 के 13 प्रश्न हल कर दिये और नीचे एक टिप्पणी (नोट) लिख दी, ‘ 13 के 13 प्रश्न सही हैं। कोई भी 9 जाँच लो।’, इतना दृढ़ था उनका आत्मविश्वास।
प्राणायाम के अनेक लाभ हैं। संध्या के समय किया हुआ प्राणायाम, जप और ध्यान अनंत गुणा फल देता है। अमिट पुण्यपुंज देने वाला होता है। संध्या के समय हमारी सब नाड़ियों का मूल आधार जो सुषुम्ना नाड़ी है, उसका द्वार खुला होता है। इससे जीवन शक्ति, कुण्डलिनी शक्ति के जागरण में सहयोग मिलता है। उस समय किया हुआ ध्यान-भजन पुण्यदायी होता है, अधिक हितकारी और उन्नति करने वाला होता है। वैसे तो ध्यान-भजन कभी भी करो, पुण्यदायी होता ही है, किन्तु संध्या के समय उसका प्रभाव और भी बढ़ जाता है। त्रिकाल संध्या करने से विद्यार्थी भी बड़े तेजस्वी होते हैं।
अतएव जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए त्रिकाल संध्या अवश्य करनी चाहिए।
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