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म प अवस्थी

जानिए रामायण का एक अनजान सत्य

केवल लक्ष्मण ही मेघनाद का वध कर सकते थे..
क्या कारण था ?..पढ़िये पूरी कथा हनुमानजी की रामभक्ति की गाथा संसार में भर में गाई जाती है। लक्ष्मणजी की भक्ति भी अद्भुत थी। लक्ष्मणजी की कथा के बिना श्री रामकथा पूर्ण नहीं है। अगस्त्य मुनि अयोध्या आए और लंका युद्ध का प्रसंग छिड़ गया । भगवान श्रीराम ने बताया कि उन्होंने कैसे रावण और कुंभकर्ण जैसे प्रचंड वीरों का वध किया और लक्ष्मण ने भी इंद्रजीत और अतिकाय जैसे शक्तिशाली असुरों को मारा ॥ अगस्त्य मुनि बोले- श्रीराम बेशक रावण और कुंभकर्ण प्रचंड वीर थे, लेकिन सबसे बड़ा वीर तो मेघनाध ही था ॥ उसने अंतरिक्ष में स्थित होकर इंद्र से युद्ध किया था और बांधकर लंका ले आया था॥ ब्रह्मा ने इंद्रजीत से दान के रूप में इंद्र को मांगा तब इंद्र मुक्त हुए थे ॥ लक्ष्मण ने उसका वध किया, इसलिए वे सबसे बड़े योद्धा हुए ॥ श्रीराम को आश्चर्य हुआ लेकिन भाई की वीरता की प्रशंसा से वह खुश थे॥ फिर भी उनके मन में जिज्ञासा पैदा हुई कि आखिर अगस्त्य मुनि ऐसा क्यों कह रहे हैं कि इंद्रजीत का वध रावण से ज्यादा मुश्किल था ॥ अगस्त्य मुनि ने कहा- प्रभु इंद्रजीत को वरदान था कि उसका वध वही कर सकता था जो.....

(१) चौदह वर्षों तक न सोया हो,

(२) जिसने चौदह साल तक किसी स्त्री का मुख न देखा हो, और

(३) चौदह साल तक भोजन न किया हो ॥ श्रीराम बोले- परंतु मैं बनवास काल में चौदह वर्षों तक नियमित रूप से लक्ष्मण के हिस्से का फल-फूल देता रहा ॥ मैं सीता के साथ एक कुटी में रहता था, बगल की कुटी में लक्ष्मण थे, फिर सीता का मुख भी न देखा हो, और चौदह वर्षों तक सोए न हों, ऐसा कैसे संभव है ॥ अगस्त्य मुनि सारी बात समझकर मुस्कुराए॥ प्रभु से कुछ छुपा है भला! दरअसल, सभी लोग सिर्फ श्रीराम का गुणगान करते थे, लेकिन प्रभु चाहते थे कि लक्ष्मण के तप और वीरता की चर्चा भी अयोध्या के घर-घर में हो ॥

अगस्त्य मुनि ने कहा – क्यों न लक्ष्मणजी से पूछा जाए ॥लक्ष्मणजी आए प्रभु ने कहा कि आपसे जो पूछा जाए उसे सच-सच कहिएगा॥ प्रभु ने पूछा- हम तीनों चौदह वर्षों तक साथ रहे फिर तुमने सीता का मुख कैसे नहीं देखा ?, फल दिए गए फिर भी अनाहारी कैसे रहे ?, और १४ साल तक सोए नहीं ? यह कैसे हुआ ? लक्ष्मणजी ने बताया- भैया जब हम भाभी को तलाशते ऋष्यमूक पर्वत गए तो सुग्रीव ने हमें उनके आभूषण दिखाकर पहचानने को कहा ॥ आपको स्मरण होगा मैं तो सिवाए उनके पैरों के नुपूर के कोई आभूषण नहीं पहचान पाया था क्योंकि मैंने कभी भी उनके चरणों के ऊपर देखा ही नहीं. चौदह वर्ष नहीं सोने के बारे में सुनिए – आप औऱ माता एक कुटिया में सोते थे. मैं रातभर बाहर धनुष पर बाण चढ़ाए पहरेदारी में खड़ा रहता था. निद्रा ने मेरी आंखों पर कब्जा करने की कोशिश की तो मैंने निद्रा को अपने बाणों से बेध दिया था॥ निद्रा ने हारकर स्वीकार किया कि वह चौदह साल तक मुझे स्पर्श नहीं करेगी लेकिन जब श्रीराम का अयोध्या में राज्याभिषेक हो रहा होगा और मैं उनके पीछे सेवक की तरह छत्र लिए खड़ा रहूंगा तब वह मुझे घेरेगी ॥ आपको याद होगा राज्याभिषेक के समय मेरे हाथ से छत्र गिर गया था। अब मैं १४ साल तक अनाहारी कैसे रहा! मैं जो फल-फूल लाता था आप उसके तीन भाग करते थे. एक भाग देकर आप मुझसे कहते थे लक्ष्मण फल रख लो॥ आपने कभी फल खाने को नहीं कहा- फिर बिना आपकी आज्ञा के मैं उसे खाता कैसे? मैंने उन्हें संभाल कर रख दिया॥ सभी फल उसी कुटिया में अभी भी रखे होंगे ॥ प्रभु के आदेश पर लक्ष्मणजी चित्रकूट की कुटिया में से वे सारे फलों की टोकरी लेकर आए और दरबार में रख दिया॥ फलों की गिनती हुई, सात दिन के हिस्से के फल नहीं थे॥ प्रभु ने कहा- इसका अर्थ है कि तुमने सात दिन तो आहार लिया था? लक्ष्मणजी ने सात फल कम होने के बारे बताया- उन सात दिनों में फल आए ही नहीं :—

१–जिस दिन हमें पिताश्री के स्वर्गवासी होने की सूचना मिली, हम निराहारी रहे॥

२–जिस दिन रावण ने माता का हरण किया उस दिन फल लाने कौन जाता॥

३–जिस दिन समुद्र की साधना कर आप उससे राह मांग रहे थे, ।

४–जिस दिन आप इंद्रजीत के नागपाश में बंधकर दिनभर अचेत रहे,।

५–जिस दिन इंद्रजीत ने मायावी सीता को काटा था और हम शोक में रहे,।

६–जिस दिन रावण ने मुझे शक्ति मारी,

७–और जिस दिन आपने रावण-वध किया ॥

इन दिनों में हमें भोजन की सुध कहां थी॥ विश्वामित्र मुनि से मैंने एक अतिरिक्त विद्या का ज्ञान लिया था- बिना आहार किए जीने की विद्या. उसके प्रयोग से मैं चौदह साल तक अपनी भूख को नियंत्रित कर सका जिससे इंद्रजीत मारा गया ॥भगवान श्रीराम ने लक्ष्मणजी की तपस्या के बारे में सुनकर उन्हें ह्रदय से लगा लिया । जय सियाराम जय जय राम जय शेषावतार लक्ष्मण भैया की जय संकट मोचन वीर हनुमान की

जयश्रीराम🙏🙏🚩🚩

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कोरोना


संजय कुमार
जाहिल और चम्मच ध्यान दे कि जिस दवा की मांग पुरे विश्व मे हो रही हैं
वह भी एक सनातन धर्म के पुजारी ने ही किया था
आज पुरा विश्व जिस दवा का मांग कर
रहे”Hydroxychloroquine” जो भारत में बना सब जानते हैं ,पर कुछ लोग यह कह रहें । इसको तो हमारे सरकार ने पैदा किया। एक नेता तो सही पैदा नहीं किए दवा कहा से पैदा कर दिए।
*अब आप सभी को इस दवा को किसने बनाया इसकी जानकारी देता हूं।
*Hydroxychloroquine बनाने वाले “महान हिन्दू रासायनिकी शोध” करता । डॉ. प्रफुल्लचंद्र राय का जन्म 2 अगस्त, 1861 ई. में जैसोर ज़िले के ररौली गांव में (एक कायस्थ परिवार में) हुआ था। यह स्थान अब बांग्लादेश में है तथा खुल्ना ज़िले के नाम से जाना जाता है। उनके पिता हरिश्चंद्र राय इस गाँव के प्रतिष्ठित ज़मींदार थे। वे प्रगितशील तथा खुले दिमाग के व्यक्ति थे। आचार्य राय की माँ भुवनमोहिनी देवी भी एक प्रखर चेतना-सम्पन्न महिला थीं। जाहिर है, प्रफुल्ल पर इनका प्रभाव पड़ा था। आचार्य राय के पिता का अपना पुस्तकालय था वे महान रसायनिज्ञ, उद्यमी तथा महान शिक्षक थे।
*आचार्य राय केवल आधुनिक रसायन शास्त्र के प्रथम भारतीय प्रवक्ता (प्रोफेसर) ही नहीं थे बल्कि उन्होंने ही इस देश में रसायन उद्योग की नींव भी डाली थी। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ वाले उनके बहुआयामी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने कहा था, “शुद्ध भारतीय परिधान में आवेष्टित इस सरल व्यक्ति को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि वह एक महान वैज्ञानिक हो सकता है।” आचार्य राय की प्रतिभा इतनी विलक्षण थी कि उनकी आत्मकथा “लाइफ एण्ड एक्सपीरियेंसेस ऑफ बंगाली केमिस्ट” (एक बंगाली रसायनज्ञ का जीवन एवं अनुभव) के प्रकाशित होने पर अतिप्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका “नेचर” ने उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए लिखा था कि “लिपिबद्ध करने के लिए संभवत: प्रफुल्ल चन्द्र राय से अधिक विशिष्ट जीवन चरित्र किसी और का हो ही नहीं सकता।”
*आचार्य राय एक समर्पित कर्मयोगी थे। उनके मन में विवाह का विचार भी नहीं आया और समस्त जीवन उन्होंने प्रेसीडेंसी कालेज के एक नाममात्र के फर्नीचर वाले कमरे में काट दिया। प्रेसीडेंसी कालेज में कार्य करते हुए उन्हें तत्कालीन महान फ्रांसीसी रसायनज्ञ बर्थेलो की पुस्तक “द ग्रीक एल्केमी” पढ़ने को मिली। तुरन्त उन्होंने बर्थेलो को पत्र लिखा कि भारत में भी अति प्राचीनकाल से रसायन की परम्परा रही है। बर्थेलो के आग्रह पर आचार्य ने मुख्यत: नागार्जुन की पुस्तक “रसेन्द्रसारसंग्रह” पर आधारित प्राचीन हिन्दू रसायन के विषय में एक लम्बा परिचयात्मक लेख लिखकर उन्हें भेजा। बर्थेलाट ने इसकी एक अत्यंत विद्वत्तापूर्ण समीक्षा “जर्नल डे सावंट” में प्रकाशित की, जिसमें आचार्य राय के कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। इससे उत्साहित होकर आचार्य ने अंतत: अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री” का प्रणयन किया जो विश्वविख्यात हुई और जिनके माध्यम से प्राचीन भारत के विशाल रसायन ज्ञान से समस्त संसार पहली बार परिचित होकर चमत्कृत हुआ। स्वयं बर्थेलाट ने इस पर समीक्षा लिखी जो “जर्नल डे सावंट” के १५ पृष्ठों में प्रकाशित हुई।
*१९१२ में इंग्लैण्ड के अपने दूसरे प्रवास के दौरान डरहम विश्वविद्यालय के कुलपति ने उन्हें अपने विश्वविद्यालय की मानद डी.एस.सी. उपाधि प्रदान की। रसायन के क्षेत्र में आचार्य ने १२० शोध-पत्र प्रकाशित किए। मरक्यूरस नाइट्रेट एवं अमोनियम नाइट्राइट नामक यौगिकों के प्रथम विरचन से उन्हें अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।
*डाक्टर राय ने अपना अनुसंधान कार्य पारद के यौगिकों से प्रारंभ किया तथा पारद नाइट्राइट नामक यौगिक, संसार में सर्वप्रथम सन् 1896 में, आपने ही तैयार किया, जिससे आपकी अन्तरराष्ट्रीय प्रसिद्धि प्रारम्भ हुई। बाद में आपने इस यौगिक की सहायता से 80 नए यौगिक तैयार किए और कई महत्वपूर्ण एवं जटिल समस्याओं को सुलझाया। आपने ऐमोनियम, जिंक, कैडमियम, कैल्सियम, स्ट्रांशियम, वैरियम, मैग्नीशियम इत्यादि के नाइट्राइटों के संबंध में भी महत्वपूर्ण गवेषणाएँ कीं तथा ऐमाइन नाइट्राइटों को विशुद्ध रूप में तैयार कर, उनके भौतिक और रासायनिक गुणों का पूरा विवरण दिया। आपने ऑर्गेनोमेटालिक (organo-metallic) यौगिकों का भी विशेष रूप से अध्ययन कर कई उपयोगी तथ्यों का पता लगाया तथा पारद, गंधक और आयोडीन का एक नवीन यौगिक, (I2Hg2S2), तैयार किया तथा दिखाया कि प्रकाश में रखने पर इसके क्रिस्टलों का वर्ण बदल जाता है और अँधेरे में रखने पर पुनः मूल रंग वापस आ जाता है। सन् 1904 में बंगाल सरकार ने आपको यूरोप की विभिन्न रसायनशालाओं के निरीक्षण के लिये भेजा। इस अवसर पर विदेश के विद्वानों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं ने सम्मानपूर्वक आपका स्वागत किया।
ऐसे “महान हिन्दू कायस्थ रासायनशास्त्री” जिनके वजह से पुरा विश्व को “कोरोना वायरस “जैसे महामारी से निपटने में योगदान दिया । इन्हें कोटी कोटी नमन 🙏
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ये हैं प्रभु श्रीराम के वंशज, जो आज भी जिंदा हैं !

भरत के दो पुत्र थे- तार्क्ष और पुष्कर। लक्ष्मण के पुत्र- चित्रांगद और चन्द्रकेतु और शत्रुघ्न के पुत्र सुबाहु और शूरसेन थे। मथुरा का नाम पहले शूरसेन था। लव और कुश राम तथा सीता के जुड़वां बेटे थे। जब राम ने वानप्रस्थ लेने का निश्चय कर भरत का राज्याभिषेक करना चाहा तो भरत नहीं माने। अत: दक्षिण कोसल प्रदेश (छत्तीसगढ़) में कुश और उत्तर कोसल में लव का अभिषेक किया गया।

राम ने कुश को दक्षिण कौशल, कुशस्थली (कुशावती) और अयोध्या राज्य सौंपा तो लव को पंजाब दिया। लव ने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया। आज के तक्षशिला मेँ तब भरत पुत्र तक्ष और पुष्करावती (पेशावर) मेँ पुष्कर सिंहासनारुढ़ थे। हिमाचल में लक्ष्मण पुत्रों अंगद का अंगदपुर और चंद्रकेतु का चंद्रावती में शासन था। मथुरा में शत्रुघ्‍न के पुत्र सुबाहु का तथा दूसरे पुत्र शत्रुघाती का भेलसा (विदिशा) में शासन था।

राम के काल में भी कोशल राज्य उत्तर कोशल और दक्षिण कोशल में विभाजित था। कालिदास के रघुवंश अनुसार राम ने अपने पुत्र लव को शरावती का और कुश को कुशावती का राज्य दिया था। शरावती को श्रावस्ती मानें तो निश्चय ही लव का राज्य उत्तर भारत में था और कुश का राज्य दक्षिण कोसल में। कुश की राजधानी कुशावती आज के बिलासपुर जिले में थी। कोसला को राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि माना जाता है। रघुवंश के अनुसार कुश को अयोध्या जाने के लिए विंध्याचल को पार करना पड़ता था इससे भी सिद्ध होता है कि उनका राज्य दक्षिण कोसल में ही था।

राजा लव से राघव राजपूतों का जन्म हुआ जिनमें बड़गुजर, जयास और सिकरवारों का वंश चला। इसकी दूसरी शाखा थी सिसोदिया राजपूत वंश की जिनमें बैछला (बैसला) और गैहलोत (गुहिल) वंश के राजा हुए। कुश से कुशवाह राजपूतों का वंश चला।

ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार लव ने लवपुरी नगर की स्थापना की थी, जो वर्तमान में पाकिस्तान स्थित शहर लाहौर है। यहां के एक किले में लव का एक मंदिर भी बना हुआ है। लवपुरी को बाद में लौहपुरी कहा जाने लगा। दक्षिण-पूर्व एशियाई देश लाओस, थाई नगर लोबपुरी, दोनों ही उनके नाम पर रखे गए स्थान हैं।

कुश के वंशज कौन?

राम के दोनों पुत्रों में कुश का वंश आगे बढ़ा तो कुश से अतिथि और अतिथि से, निषधन से, नभ से, पुण्डरीक से, क्षेमन्धवा से, देवानीक से, अहीनक से, रुरु से, पारियात्र से, दल से, छल से, उक्थ से, वज्रनाभ से, गण से, व्युषिताश्व से, विश्वसह से, हिरण्यनाभ से, पुष्य से, ध्रुवसंधि से, सुदर्शन से, अग्रिवर्ण से, पद्मवर्ण से, शीघ्र से, मरु से, प्रयुश्रुत से, उदावसु से, नंदिवर्धन से, सकेतु से, देवरात से, बृहदुक्थ से, महावीर्य से, सुधृति से, धृष्टकेतु से, हर्यव से, मरु से, प्रतीन्धक से, कुतिरथ से, देवमीढ़ से, विबुध से, महाधृति से, कीर्तिरात से, महारोमा से, स्वर्णरोमा से और ह्रस्वरोमा से सीरध्वज का जन्म हुआ।

कुश वंश के राजा सीरध्वज को सीता नाम की एक पुत्री हुई। सूर्यवंश इसके आगे भी बढ़ा जिसमें कृति नामक राजा का पुत्र जनक हुआ जिसने योग मार्ग का रास्ता अपनाया था। कुश वंश से ही कुशवाह, मौर्य, सैनी, शाक्य संप्रदाय की स्थापना मानी जाती है। एक शोधानुसार कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए, जो महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। यह इसकी गणना की जाए तो कुश महाभारतकाल के 2500 वर्ष पूर्व से 3000 वर्ष पूर्व हुए थे अर्थात आज से 6,500 से 7,000 वर्ष पूर्व।

इसके अलावा शल्य के बाद बहत्क्षय, ऊरुक्षय, बत्सद्रोह, प्रतिव्योम, दिवाकर, सहदेव, ध्रुवाश्च, भानुरथ, प्रतीताश्व, सुप्रतीप, मरुदेव, सुनक्षत्र, किन्नराश्रव, अन्तरिक्ष, सुषेण, सुमित्र, बृहद्रज, धर्म, कृतज्जय, व्रात, रणज्जय, संजय, शाक्य, शुद्धोधन, सिद्धार्थ, राहुल, प्रसेनजित, क्षुद्रक, कुलक, सुरथ, सुमित्र हुए। माना जाता है कि जो लोग खुद को शाक्यवंशी कहते हैं वे भी श्रीराम के वंशज हैं।

तो यह सिद्ध हुआ कि वर्तमान में जो सिसोदिया, कुशवाह (कछवाह), मौर्य, शाक्य, बैछला (बैसला) और गैहलोत (गुहिल) आदि जो राजपूत वंश हैं वे सभी भगवान प्रभु श्रीराम के वंशज है। जयपूर राजघराने की महारानी पद्मिनी और उनके परिवार के लोग की राम के पुत्र कुश के वंशज है। महारानी पद्मिनी ने एक अंग्रेजी चैनल को दिए में कहा था कि उनके पति भवानी सिंह कुश के 309वें वंशज थे।

इस घराने के इतिहास की बात करें तो 21 अगस्त 1921 को जन्में महाराज मानसिंह ने तीन शादियां की थी। मानसिंह की पहली पत्नी मरुधर कंवर, दूसरी पत्नी का नाम किशोर कंवर था और माननसिंह ने तीसरी शादी गायत्री देवी से की थी। महाराजा मानसिंह और उनकी पहली पत्नी से जन्में पुत्र का नाम भवानी सिंह था। भवानी सिंह का विवाह राजकुमारी पद्मिनी से हुआ। लेकिन दोनों का कोई बेटा नहीं है एक बेटी है जिसका नाम दीया है और जिसका विवाह नरेंद्र सिंह के साथ हुआ है। दीया के बड़े बेटे का नाम पद्मनाभ सिंह और छोटे बेटे का नाम लक्ष्यराज सिंह है।

मुसलमान भी राम के वंशज हैं?

हालांकि ऐसे कई राजा और महाराजा हैं जिनके पूर्वज श्रीराम थे। राजस्थान में कुछ मुस्लिम समूह कुशवाह वंश से ताल्लुक रखते हैं। मुगल काल में इन सभी को धर्म परिवर्तन करना पड़ा लेकिन ये सभी आज भी खुद को प्रभु श्रीराम का वंशज ही मानते हैं।

इसी तरह मेवात में दहंगल गोत्र के लोग भगवान राम के वंशज हैं और छिरकलोत गोत्र के मुस्लिम यदुवंशी माने जाते हैं। राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि जगहों पर ऐसे कई मुस्लिम गांव या समूह हैं जो राम के वंश से संबंध रखते हैं।

डीएनए शोधाधुसार उत्तर प्रदेश के 65 प्रतिशत मुस्लिम ब्राह्मण बाकी राजपूत, कायस्थ, खत्री, वैश्य और दलित वंश से ताल्लुक रखते हैं। लखनऊ के एसजीपीजीआई के वैज्ञानिकों ने फ्लोरिडा और स्‍पेन के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर किए गए अनुवांशिकी शोध के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था। - डॉ0 विजय शंकर मिश्र

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ऐसी मान्यता है कि राम ने बाली पर जो तीर चलाया था वह एक साधारण तीर था, अर्थात् राम के तरकश में अनेकों अस्त्र थे जिनसे पल भर में जीव तो क्या पूरी की पूरी सभ्यता का विनाश हो सकता था, जैसे ब्रह्मास्त्र इत्यादि। लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम — जो कि विष्णु का अवतार थे और सर्वज्ञाता थे — ने एक साधारण सा ही तीर इसलिए चलाया क्योंकि वालि की तुरन्त मृत्यु न हो और मरने से पहले उसे अपने प्रश्नों का उत्तर भली भांति प्राप्त हो जाये ताकि वह शांति से प्राण त्याग सके और मरने से पहले वह स्वजनों से भली भांति मिल सके। ।

तारा हिन्दू महाकाव्य रामायण में वानरराज बाली की पत्नी है। तारा की बुद्धिमता, प्रत्युत्पन्नमतित्वता, साहस तथा अपने पति के प्रति कर्तव्यनिष्ठा को सभी पौराणिक ग्रन्थों में सराहा गया है। तारा को हिन्दू धर्म ने पंचकन्याओं में से एक माना गया है।पौराणिक ग्रन्थों में पंचकन्याओं के विषय में कहा गया है:-

अहिल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा।
पंचकन्या स्मरणित्यं महापातक नाशक॥

अर्थात् : अहिल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा तथा मन्दोदरी, इन पाँच कन्याओं का प्रतिदिन स्मरण करने से सारे पाप धुल जाते हैं

जब तारा को बाली की मृत्यु का समाचार मिला तो वह अत्यन्त उद्विग्न हो गई और रोती हुई उस स्थान पर आई जहाँ बाली का शव पड़ा था। तारा और अंगद बाली के शव से लिपट कर बिलख-बिलख कर रोने लगे। उन दोनों दोनों को इस प्रकार रोते देख सुग्रीव को अत्यन्त दुःख हुआ। उसके नेत्रों से अश्रु बहने लगे।

तारा बाली से लिपट कर विलाप कर रही थी, “हे आर्यपुत्र! आप जैसे पराक्रमी वीर की राम ने छिप कर हत्या कर के अत्यन्त निंदनीय कर्म किया है। हे नाथ! आप मौन हो कर क्यों पड़े हैं? आप अपने पुत्र अंगद को किसके सहारे छोड़ गये? देखिये वह किस प्रकार से बिलख-बिलख कर रो रहा है। हे आर्यपुत्र! आज आप ऐसे निर्मोही कैसे हो गये? हे स्वामी! आप मुझे और अंगद को किसके भरोसे छोड़े जा रहे हैं? सुग्रीव! आज तुम्हारा मनोरथ सफल हो गया। अब आनन्द से राज्य का सुख भोगो। आज मेरे पास पुत्र, ऐश्वर्य सब कुछ होते हुये भी मैं विधवा के नाम से पुकारी जाकर संसार में तिरस्कृत जीवन व्यतीत करूँगी। पुत्र अंगद! अपने धर्मप्रेमी पिता का अन्तिम दर्शन कर लो। यमलोक को जाते हुये अपने पिता का हाथ जोड़ कर अभिवादन करो। देखो स्वामी! आपका पुत्र हाथ जोड़ कर आपके सामने खड़ा है। उसे आशीर्वाद क्यों नहीं देते? आज आपने इस युद्धरूपी यज्ञ में मेरे बिना कैसे भाग लिया। बिना अर्द्धांगिनी के तो कोई यज्ञ पूरा नहीं होता।”

इस प्रकार तारा नाना प्रकार से से विलाप करने लगी। बाली के वानर सरदारों ने बड़ी कठिनाई से उसे शव से अलग किया।

धनुष धारण किये राम को देख कर तारा उनके पास आकर बोली, “हे अमलकमलदललोचन राम! आप वीर, तेजस्वी, धर्मात्मा और महान दानवीर हैं। मैं आपसे एक दान माँगती हूँ। जिस बाण से आपने मेरे पति के प्राण लिये हैं उसी बाण से मेरे प्राण भी हर लीजिये ताकि मैं मर कर अपने पति के पास पहुँच जाऊँ। मेरे पतिदेव स्वर्ग में मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।”

रामचरित मानस के अनुसार :-

तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥

तारा को व्याकुल देखकर श्री रघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। (उन्होंने कहा-) पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु- इन पाँच तत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है

तारा के मर्मस्पर्शी शब्दों को सुन कर रामचन्द्र बोले, “तारा! तेरा इस प्रकार शोक और विलाप करना व्यर्थ है। सारा संसार परमात्मा के द्वारा बनाये गये विधान के अनुसार चलता है। विधाता की ऐसी ही इच्छा थी, यह सोच कर तुम धैर्य धारण करो। अंगद की कोई चिन्ता मत करो। वह आज से इस राज्य का युवराज होगा। तुम्हारा पति वीर था, वह युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त हुआ है; यह तुम्हारे लिये गौरव की बात है। शोक तज कर रोना बन्द करो। रोने से दिवंगत आत्मा को कष्ट पहुँचता है।”

इस प्रकार राम ने तारा को अनेक प्रकार से धैर्य बँधाया। फिर वे सुग्रीव से बोले, “हे वीर! तारा और अंगद को साथ ले जा कर अब तुम वालि के अन्तिम संस्कार की तैयारी करो। अंगद! तुम इस संस्कार के लिये घृत, चन्दन आदि ले आओ। और हे तारा! तुम भी शोक को त्याग कर बाली के लिये अर्थी की तैयारी कराओ।”

इस प्रकार रामचन्द्र जी ने सब से कह सुन कर बाली के अन्तिम संस्कार की तैयारी करवाई।

वालि की शवयात्रा में बड़े-बड़े योद्धा और किष्किन्धा निवासी रोते कलपते श्मशान घाट पहुँचे। स्त्रियों के करुणाजनक विलाप से सम्पूर्ण वातावरण शोकाकुल प्रतीत हो रही थी। नदी के तट पर जब चिता बना कर बाली का शव उस पर रखा गया तो सम्पूर्ण वातावरण एक बार फिर करुण चीत्कार से गूँज उठा। तारा पुनः बाली के शव से लिपट गई। वह चिता पर ही उससे लिपट कर विलाप किये जा रही थी। बड़ी कठिनाई से उसे को बाली के शव से पृथक किया गया। अन्त में अंगद ने चिता को अग्नि दी। जब बाली का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया तो श्री रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण, सुग्रीव, अंगद एवं अन्य प्रमुख वानरों के साथ मिल कर उसके लिये जलांजलि दी।

राम कहा अनुजहि समुझाई। राज देहु सुग्रीवहि जाई॥
रघुपति चरन नाइ करि माथा। चले सकल प्रेरित रघुनाथा॥

श्री रामचंद्रजी ने छोटे भाई लक्ष्मण को समझाकर कहा कि तुम जाकर सुग्रीव को राज्य दे दो। श्री रघुनाथजी की प्रेरणा (आज्ञा) से सब लोग श्री रघुनाथजी के चरणों में मस्तक नवाकर चले और सुग्रीव को राजा बनाया गया ।

लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज।
राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज॥

लक्ष्मणजी ने तुरंत ही सब नगरवासियों को और ब्राह्मणों के समाज को बुला लिया और (उनके सामने) सुग्रीव को राज्य और अंगद को युवराज पद दिया॥

शास्त्र समझाते हैं। यह एक अनूठा संदर्भ है कि तारा ने बाली की चिता में अपने भी प्राण त्यागने का संकल्प लिया। इसका अभिप्राय यह भी हो सकता है कि सती प्रथा हमारे समाज में प्राचीन काल से चली आ रही है। हालांकि इस संदर्भ में इतना ही कहना उचित होगा कि विलाप के समय उसने जो वचन कहे वह कोई साधारण नारी नहीं बोल सकती है। उसको राजनीति तथा कूटनीति का अच्छा ज्ञान था और इसी वजह से वानरों के कहने के बावजूद उसने अंगद का राज्याभिषेक न करा कर सुग्रीव को ही राजा मनोनित किया। अपने पुत्र पर कोई आँच न आने पाये, इस कारण उसने सुग्रीव को अपना स्वामी स्वीकार कर लिया ।

🚩जय श्रीराम 🚩

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🚩 जानिए हनुमान जी किसके अवतार थे और कितनी सिद्धियां थीं ?

07 अप्रैल 2020
http://www.azaadbharat.org

🚩 हनुमान जी का जन्म त्रेतायुग में चैत्र पूर्णिमा की पावन तिथि पर हुआ । तब से हनुमान जयंती का उत्सव मनाया जाता है । इस दिन हनुमान जी का तारक एवं मारक तत्त्व अत्याधिक मात्रा में अर्थात अन्य दिनों की तुलना में 1 सहस्र गुना अधिक कार्यरत होता है । इससे वातावरण की सात्त्विकता बढती है एवं रज-तम कणों का विघटन होता है । विघटन का अर्थ है, ‘रज-तम की मात्रा अल्प होना।’ इस दिन हनुमान जी की उपासना करने वाले भक्तों को हनुमान जी के तत्त्व का अधिक लाभ होता है ।

🚩 ज्योतिषियों की गणना अनुसार हनुमान जी का जन्म 1 करोड़ 85 लाख 58 हजार 115 वर्ष पहले चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्र नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 6:03 बजे हुआ था ।
हनुमान जी भगवान शिवजी के 11वें रुद्रावतार, सबसे बलवान और बुद्धिमान हैं ।

🚩हनुमान जी के पिता सुमेरू पर्वत के वानरराज राजा केसरी तथा माता अंजना हैं । हनुमान जी को पवनपुत्र के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि पवन देवता ने हनुमान जी को पालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।

🚩हनुमानजी को बजरंगबली के रूप में जाना जाता है क्योंकि हनुमान जी का शरीर वज्र की तरह है।

🚩पृथ्वी पर सात मनीषियों को अमरत्व (चिरंजीवी) का वरदान प्राप्त है, उनमें बजरंगबली भी हैं । हनुमानजी आज भी पृथ्वी पर विचरण करते हैं।

🚩हनुमानजी को एक दिन अंजनी माता फल लाने के लिये आश्रम में छोड़कर चली गई। जब शिशु हनुमानजी को भूख लगी तो वे उगते हुये सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने आकाश में उड़ने लगे । उनकी सहायता के लिये पवन भी बहुत तेजी से चला। उधर भगवान सूर्य ने उन्हें अबोध शिशु समझकर अपने तेज से नहीं जलने दिया । जिस समय हनुमान जी सूर्य को पकड़ने के लिये लपके, उसी समय राहु सूर्य पर ग्रहण लगाना चाहता था । हनुमान जी ने सूर्य के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तो वह भयभीत होकर वहाँ से भाग गया । उसने इन्द्र के पास जाकर शिकायत की “देवराज! आपने मुझे अपनी क्षुधा शान्त करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिये थे । आज अमावस्या के दिन जब मैं सूर्य को ग्रस्त करने गया तब देखा कि दूसरा राहु सूर्य को पकड़ने जा रहा है ।”

🚩राहु की बात सुनकर इन्द्र घबरा गये और उसे साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े । राहु को देखकर हनुमानजी सूर्य को छोड़ राहु पर झपटे । राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिये पुकारा तो उन्होंने हनुमानजी पर वज्र से प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर गिरे और उनकी बायीं ठुड्डी टूट गई ।

🚩हनुमान की यह दशा देखकर वायुदेव को क्रोध आया । उन्होंने उसी क्षण अपनी गति रोक दी । जिससे संसार का कोई भी प्राणी साँस न ले सका और सब पीड़ा से तड़पने लगे । तब सारे सुर,असुर, यक्ष,  किन्नर आदि ब्रह्मा जी की शरण में गये । ब्रह्मा उन सबको लेकर वायुदेव के पास गये । वे मूर्छित हनुमान जी को गोद में लिये उदास बैठे थे । जब ब्रह्माजी ने उन्हें जीवित किया तो वायुदेव ने अपनी गति का संचार करके सभी प्राणियों की पीड़ा दूर की । फिर ब्रह्माजी ने उन्हें वरदान दिया कि कोई भी शस्त्र इनके अंग को हानि नहीं कर सकता । इन्द्र ने भी वरदान दिया कि इनका शरीर वज्र से भी कठोर होगा । सूर्यदेव ने कहा कि वे उसे अपने तेज का शतांश प्रदान करेंगे तथा शास्त्र मर्मज्ञ होने का भी आशीर्वाद दिया। वरुण ने कहा कि मेरे पाश और जल से यह बालक सदा सुरक्षित रहेगा । यमदेव ने अवध्य और निरोग रहने का आशीर्वाद दिया । यक्षराज कुबेर,विश्वकर्मा आदि देवों ने भी अमोघ वरदान दिये ।

🚩इन्द्र के वज्र से हनुमानजी की ठुड्डी (संस्कृत मे हनु) टूट गई थी । इसलिये उनको “हनुमान” नाम दिया गया । इसके अलावा ये अनेक नामों से प्रसिद्ध है जैसे बजरंग बली, मारुति, अंजनि सुत, पवनपुत्र, संकटमोचन, केसरीनन्दन, महावीर, कपीश, बालाजी महाराज आदि । इस प्रकार हनुमान जी के 108 नाम हैं और हर नाम का मतलब उनके जीवन के अध्यायों का सार बताता है ।

🚩एक बार माता सीता ने प्रेम वश हनुमान जी को एक बहुत ही कीमती सोने का हार भेंट में देने की सोची लेकिन हनुमान जी ने इसे लेने से मना कर दिया । इस बात से माता सीता गुस्सा हो गई तब हनुमानजी ने अपनी छाती चीर का उन्हें उसे बसी उनकी प्रभु राम की छव‍ि दिखाई और कहा क‍ि उनके लिए इससे ज्यादा कुछ अनमोल नहीं ।

🚩हनुमानजी के पराक्रम अवर्णनीय है । आज के आधुनिक युग में ईसाई मिशनरियां अपने स्कूलों में पढ़ाती है कि हनुमानजी भगवान नही थे एक बंदर थे । बन्दर कहने वाले पहले अपनी बुद्धि का इलाज कराओ। हनुुमान जी शिवजी का अवतार हैं। भगवान श्री राम के कार्य में साथ देने (राक्षसों का नाश और धर्म की स्थापना करने ) के लिए भगवान शिवजी ने हनुमानजी का अवतार धारण किया था ।

🚩मनोजवं मारुततुल्य वेगं, जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथ मुख्य, श्रीराम दूतं शरणं प्रपद्ये ।

‘मन और वायु के समान जिनकी गति है, जो जितेन्द्रिय है, बुद्धिमानों में जो अग्रगण्य हैं, पवनपुत्र हैं, वानरों के नायक हैं, ऐसे श्रीराम भक्त हनुमान की शरण में मैं हूँ ।

🚩जिसको घर में कलह, क्लेश मिटाना हो, रोग या शारीरिक दुर्बलता मिटानी हो, वह नीचे की चौपाई की पुनरावृत्ति किया करे..

🚩बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन – कुमार |
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार ||

🚩चौपाई – अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन्ह जानकी माता ।।  (31)

🚩यह हनुमान चालीसा की एक चौपाई  जिसमें तुलसीदास जी लिखते हैं कि हनुमानजी अपने भक्तों को आठ प्रकार की सिद्धियाँ तथा नौ प्रकार की निधियाँ प्रदान कर सकते हैं ऐसा सीता माता ने उन्हें वरदान दिया ।  यह अष्ट सिद्धियां बड़ी ही चमत्कारिक होती है जिसकी बदौलत हनुमान जी ने असंभव से लगने वाले काम आसानी से सम्पन किये थे। आइये अब हम आपको इन अष्ट सिद्धियों, नौ निधियों और भगवत पुराण में वर्णित दस गौण सिद्धियों के बारे में विस्तार से बताते हैं ।

🚩आठ सिद्धयाँ :
हनुमानजी को  जिन आठ सिद्धियों का स्वामी तथा दाता बताया गया है वे सिद्धियां इस प्रकार हैं-

🚩1.अणिमा:  इस सिद्धि के बल पर हनुमानजी कभी भी अति सूक्ष्म रूप धारण कर सकते हैं।

इस सिद्धि का उपयोग हनुमानजी ने तब किया जब वे समुद्र पार कर लंका पहुंचे थे। हनुमानजी ने अणिमा सिद्धि का उपयोग करके अति सूक्ष्म रूप धारण किया और पूरी लंका का निरीक्षण किया था। अति सूक्ष्म होने के कारण हनुमानजी के विषय में लंका के लोगों को पता तक नहीं चला।

🚩2. महिमा:  इस सिद्धि के बल पर हनुमान ने कई बार विशाल रूप धारण किया है।

जब हनुमानजी समुद्र पार करके लंका जा रहे थे, तब बीच रास्ते में सुरसा नामक राक्षसी ने उनका रास्ता रोक लिया था। उस समय सुरसा को परास्त करने के लिए हनुमानजी ने स्वयं का रूप सौ योजन तक बड़ा कर लिया था।

इसके अलावा माता सीता को श्रीराम की वानर सेना पर विश्वास दिलाने के लिए महिमा सिद्धि का प्रयोग करते हुए स्वयं का रूप अत्यंत विशाल कर लिया था।

🚩3. गरिमा:  इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी स्वयं का भार किसी विशाल पर्वत के समान कर सकते हैं।

गरिमा सिद्धि का उपयोग हनुमानजी ने महाभारत काल में भीम के समक्ष किया था। एक समय भीम को अपनी शक्ति पर घमंड हो गया था। उस समय भीम का घमंड तोड़ने के लिए हनुमानजी एक वृद्ध वानर रूप धारक करके रास्ते में अपनी पूंछ फैलाकर बैठे हुए थे। भीम ने देखा कि एक वानर की पूंछ रास्ते में पड़ी हुई है, तब भीम ने वृद्ध वानर से कहा कि वे अपनी पूंछ रास्ते से हटा लें। तब वृद्ध वानर ने कहा कि मैं वृद्धावस्था के कारण अपनी पूंछ हटा नहीं सकता, आप स्वयं हटा दीजिए। इसके बाद भीम वानर की पूंछ हटाने लगे, लेकिन पूंछ टस से मस नहीं हुई। भीम ने पूरी शक्ति का उपयोग किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। इस प्रकार भीम का घमंड टूट गया। पवनपुत्र हनुमान के भाई थे भीम क्योंक‍ि वह भी पवनपुत्र के बेटे थे ।

🚩4. लघिमा:  इस सिद्धि से हनुमानजी स्वयं का भार बिल्कुल हल्का कर सकते हैं और पलभर में वे कहीं भी आ-जा सकते हैं।

जब हनुमानजी अशोक वाटिका में पहुंचे, तब वे अणिमा और लघिमा सिद्धि के बल पर सूक्ष्म रूप धारण करके अशोक वृक्ष के पत्तों में छिपे थे। इन पत्तों पर बैठे-बैठे ही सीता माता को अपना परिचय दिया था।

🚩5. प्राप्ति:  इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी किसी भी वस्तु को तुरंत ही प्राप्त कर लेते हैं। पशु-पक्षियों की भाषा को समझ लेते हैं, आने वाले समय को देख सकते हैं।

रामायण में इस सिद्धि के उपयोग से हनुमानजी ने सीता माता की खोज करते समय कई पशु-पक्षियों से चर्चा की थी। माता सीता को अशोक वाटिका में खोज लिया था।

🚩6. प्राकाम्य:  इसी सिद्धि की मदद से हनुमानजी पृथ्वी गहराइयों में पाताल तक जा सकते हैं, आकाश में उड़ सकते हैं और मनचाहे समय तक पानी में भी जीवित रह सकते हैं। इस सिद्धि से हनुमानजी चिरकाल तक युवा ही रहेंगे। साथ ही, वे अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी देह को प्राप्त कर सकते हैं। इस सिद्धि से वे किसी भी वस्तु को चिरकाल तक प्राप्त कर सकते हैं।

इस सिद्धि की मदद से ही हनुमानजी ने श्रीराम की भक्ति को चिरकाल तक प्राप्त कर लिया है।

🚩7. ईशित्व:  इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी को दैवीय शक्तियां प्राप्त हुई हैं।

ईशित्व के प्रभाव से हनुमानजी ने पूरी वानर सेना का कुशल नेतृत्व किया था। इस सिद्धि के कारण ही उन्होंने सभी वानरों पर श्रेष्ठ नियंत्रण रखा। साथ ही, इस सिद्धि से हनुमानजी किसी मृत प्राणी को भी फिर से जीवित कर सकते हैं।

🚩8. वशित्व:  इस सिद्धि के प्रभाव से हनुमानजी जितेंद्रिय हैं और मन पर नियंत्रण रखते हैं।

🚩वशित्व के कारण हनुमानजी किसी भी प्राणी को तुरंत ही अपने वश में कर लेते हैं। हनुमान के वश में आने के बाद प्राणी उनकी इच्छा के अनुसार ही कार्य करता है। इसी के प्रभाव से हनुमानजी अतुलित बल के धाम हैं।

🚩नौ निधियां  : हनुमान जी प्रसन्न होने पर जो नव निधियां भक्तों को देते है वो इस प्रकार हैं :-

🚩1. पद्म निधि : पद्मनिधि लक्षणों से संपन्न मनुष्य सात्विक होता है तथा स्वर्ण चांदी आदि का संग्रह करके दान करता है ।

🚩2. महापद्म निधि : महाप निधि से लक्षित व्यक्ति अपने संग्रहित धन आदि का दान धार्मिक जनों में करता है ।

🚩3. नील निधि : नील निधि से सुशोभित मनुष्य सात्विक तेज से संयुक्त होता है। उसकी संपति तीन पीढ़ी तक रहती है।

🚩4. मुकुंद निधि : मुकुन्द निधि से लक्षित मनुष्य रजोगुण संपन्न होता है वह राज्यसंग्रह में लगा रहता है।

🚩5. नन्द निधि : नन्दनिधि युक्त व्यक्ति राजस और तामस गुणोंवाला होता है वही कुल का आधार होता है ।

🚩6. मकर निधि : मकर निधि संपन्न पुरुष अस्त्रों का संग्रह करनेवाला होता है ।

🚩7. कच्छप निधि : कच्छप निधि लक्षित व्यक्ति तामस गुणवाला होता है वह अपनी संपत्ति का स्वयं उपभोग करता है ।

🚩8. शंख निधि : शंख निधि एक पीढ़ी के लिए होती है।

🚩9. खर्व निधि : खर्व निधिवाले व्यक्ति के स्वभाव में मिश्रित फल दिखाई देते हैं ।

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અહંકારની ધજા…

એક બોધ કથા

એક ગામમાં એક સંત આવ્યા. રસ્તામાં કોઈ હવેલી પર પાંચ ધજા લહેરાતી દેખાઈ, એટલે કોઇ મંદિર હશે, એમ માની અંદર દર્શન કરવા માટે ગયા. તો ખબર પડી કે એ તો કોઈનું રહેઠાણ છે..!

પરંતુ આટલી બધી ફરફરતી ધજાઓએ એમના આશ્ચર્ય માં વધારો કરી દીધો હતો એટલે છેવટે પૂછી જ લેવું, એમ વિચારી એમણે દરવાજા પરની ઘંટડી મારી.

એક સેવકે દરવાજો ખોલ્યો અને શેઠ પાસે લઈ ગયો. શેઠે નમન કર્યું અને બેસવા આસન આપ્યું. હવે સંતથી રહેવાયું નહીં એટલે રહેઠાણ પર આટલી ધજાઓ રાખવાનું કારણ સીધું પુછી જ લીધું.

શેઠે ગુમાનથી કહ્યું, ” સાચું કહું તો મારી પાસે જેટલા લાખ રૂપિયા છે, એટલી ધજાઓ હું હવેલી પર રાખું છું. હવે તૈયારી જ છે નવી એક ધજા ઉમેરવાની.”

સંતને આખી પરિસ્થિતિનો ખ્યાલ આવી ગયો. એમણે શેઠને કહ્યું, ” મને એ જાણીને ખૂબ આનંદ થયો કે તમે આટલા ધનવાન છો. કેટલાય દિવસથી મને ઊંઘ નહોતી આવતી. હવે મને શાંતિ થઈ. શું હું તમને મારી એક અમાનત સાચવવા આપી શકું?”

શેઠે તો ખુશ થઈને ‘હા’ પાડી એટલે સંતે એમને પૂછ્યું કે તમે મારી એક અમાનત સાચવશો?

શેઠે થોડા મશ્કરી વાળા ભાવમાં કહ્યું,” આ મારી લાખો રુપિયાની મિલકત સાચવું છું, તો તમારી પાસે છે શું? આ કમંડળ, ઝોળી અને ધોતિયું જ ને! એને કોણ લઈ જવાનું હતું? પડી રહેશે એક ખૂણામાં! કશું નહીં થાય. આપો તમતમારે.

સંતે પોતાની ઝોળીમાંથી એક સોય કાઢી અને શેઠને આપતાં કહ્યું,” લો શેઠ, આ મારી સોય તમને સાચવવા આપું છું, એને બરાબર સંભાળીને રાખજો અને આવતા જન્મમાં મને પાછી આપજો.”

હવે ચોંકવાનો વારો શેઠનો હતો. આવતો ભવ?
અરે! હું મારું શરીર પણ લઈ જઈ નહીં શકું અને એમની સોય ક્યાંથી આપી શકીશ?

આ વિચાર આવતા જ હવે શેઠ ની આંખ ખુલી ગઈ અને તે સીધો સંતના ચરણમાં ઝૂકી ગયો.

સંતે એને ઉભો કર્યો અને કહ્યું, ” આ તારી હવેલી પર ધજાઓ નહીં પણ તારો અહંકાર ફરકે છે, એને જલ્દીથી દૂર કર.”

વૈષ્ણવો ! એ શેઠની જેમ આપણે પણ કેટકેટલી ધજાઓ સતત સાથે લઈને ફરીએ છીએ! એક સોય પણ મૃત્યુ પછી લઈ જવાની ત્રેવડ નથી. આ ‘મારું મારું’ નીકળી જાય પછી જીવન સરસ જ છે.

આપણી સાથે આવશે ફક્ત આપડા કરેલા કર્મો , માટે મન વચન અને કર્મ થી શ્રી વલ્લભ ના ચરણો નો જ એક આશરો રાખી ને જીવન જીવો , એ જ સાથે આવશે .

શ્રી વલ્લભાધીશ કી જય હો

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हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में कई बार ऐसा होता है कि हम या तो बहुत गुस्से में झुंझलाकर या बस यूँ ही कुछ ऐसा कह जाते हैं जो हमें नहीं कहना चाहिए| आज मैं आपके साथ एक छोटी सी कहानी Share कर रहा हूँ जो मैंने You Can Win by Shiv Khera में पढ़ा था| इसे ध्यान से पढ़िए और इससे मिलने वाली सीख को गाँठ बाँध लीजिये|

एक बार एक किसान ने अपने पडोसी को भला बुरा कह दिया, पर जब बाद में उसे अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह एक संत के पास गया| उसने संत से अपने शब्द वापस लेने का उपाय पूछा| संत ने किसान से कहा , ”तुम खूब सारे पंख इकठ्ठा कर लो और उन्हें शहर के बीचो-बीच जाकर रख दो |” किसान ने ऐसा ही किया और फिर संत के पास पहुंच गया| तब संत ने कहा , ”अब जाओ और उन पंखों को इकठ्ठा कर के वापस ले आओ|”

किसान वापस गया पर तब तक सारे पंख हवा से इधर-उधर उड़ चुके थे, और किसान खाली हाथ संत के पास पहुंचा| तब संत ने उससे कहा कि ठीक ऐसा ही तुम्हारे द्वारा कहे गए शब्दों के साथ होता है| तुम आसानी से इन्हें अपने मुख से निकाल तो सकते हो पर चाह कर भी वापस नहीं ले सकते|

इस कहानी से क्या सीख मिलती है :-
कुछ कड़वा बोलने से पहले ये याद रखें कि भला-बुरा कहने के बाद कुछ भी कर के अपने शब्द वापस नहीं लिए जा सकते| हाँ, आप उस व्यक्ति से जाकर क्षमा ज़रूर मांग सकते हैं, और मांगनी भी चाहिए, पर Human Nature कुछ ऐसा होता है की कुछ भी कर लीजिये इंसान कहीं ना कहीं Hurt हो ही जाता है|

जब आप किसी को बुरा कहते हैं तो वह उसे कष्ट पहुंचाने के लिए होता है पर बाद में वो आप ही को अधिक कष्ट देता है| खुद को कष्ट देने से क्या लाभ| इससे अच्छा तो है की चुप रहा जाए|

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ज़िन्दगी के पत्थर, कंकड़ और रेत
Philosophy के एक Professor ने कुछ चीजों के साथ क्लास में प्रवेश किया| जब क्लास शुरू हुई तो उन्होंने एक बड़ा सा खाली शीशे का जार लिया और उसमे पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े भरने लगे| फिर उन्होंने छात्रों से पूछा कि क्या जार भर गया है ? और सभी ने कहा “हाँ”|

तब प्रोफ़ेसर ने छोटे-छोटे कंकडों से भरा एक बॉक्स लिया और उन्हें जार में भरने लगे| जार को थोडा हिलाने पर ये कंकड़ पत्थरों के बीच Settle हो गए| एक बार फिर उन्होंने छात्रों से पूछा कि क्या जार भर गया है? और सभी ने हाँ में उत्तर दिया|

तभी Professor ने एक sand box निकाला और उसमे भरी रेत को जार में डालने लगे| रेत ने बची-खुची जगह भी भर दी| और एक बार फिर उन्होंने पूछा कि क्या जार भर गया है? और सभी ने एक साथ उत्तर दिया , ” हाँ”|

फिर professor ने समझाना शुरू किया, ” मैं चाहता हूँ कि आप इस बात को समझें कि ये जार आपकी life को represent करता है| बड़े-बड़े पत्थर आपके जीवन की ज़रूरी चीजें हैं| आपकी family,आपका partner,आपकी health, आपके बच्चे ऐसी चीजें हैं कि अगर आपकी बाकी सारी चीजें खो भी जाएँ और सिर्फ ये रहे तो भी आपकी ज़िन्दगी पूर्ण रहेगी| ये कंकड़ कुछ अन्य चीजें हैं जो matter करती हैं- जैसे कि आपकी job, आपका घर, इत्यादि| और ये रेत बाकी सभी छोटी-मोटी चीजों को दर्शाती है|

अगर आप जार को पहले रेत से भर देंगे तो कंकडों और पत्थरों के लिए कोई जगह नहीं बचेगी| यही आपकी life के साथ होता है| अगर आप अपनी सारा समय और उर्जा छोटी-छोटी चीजों में लगा देंगे तो आपके पास कभी उन चीजों के लिए time नहीं होगा जो आपके लिए Important हैं| उन चीजों पर ध्यान दीजिये जो आपकी ख़ुशी के लिए ज़रूरी हैं| बच्चों के साथ खेलिए, अपने partner के साथ dance कीजिये| काम पर जाने के लिए, घर साफ़ करने के लिए, party देने के लिए, हमेशा वक़्त होगा| पर पहले पत्थरों पर ध्यान दीजिये| ऐसी चीजें जो सचमुच matter करती हैं | अपनी priorities set कीजिये| बाकी चीजें बस रेत हैं|

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समझिये कैसे आज का दु:ख कल का सौभाग्य बनता है….

महाराज दशरथ को जब संतान प्राप्ति नहीं हो रही थी, तब वो बड़े दुःखी रहते थे…पर ऐसे समय में उनको एक ही बात से होंसला मिलता था जो कभी उन्हें आशाहीन नहीं होने देता था…

मजे की बात ये कि इस होंसले की वजह किसी ऋषि-मुनि या देवता का वरदान नहीं बल्कि श्रवण के पिता का श्राप था….!

दशरथ जब-जब दुःखी होते थे तो उन्हें श्रवण के पिता का दिया श्राप याद आ जाता था… (कालिदासजी ने रघुवंशम में इसका वर्णन किया है)

श्रवण के पिता ने ये श्राप दिया था कि ”जैसे मैं पुत्र वियोग में तड़प-तड़प के मर रहा हूँ, वैसे ही तू भी तड़प-तड़प कर मरेगा…..’!’

दशरथ को पता था कि ये श्राप अवश्य फलीभूत होगा और इसका मतलब है कि मुझे इस जन्म में तो जरूर पुत्र प्राप्त होगा…. (तभी तो उसके शोक में मैं तड़प के मरूँगा ?)

यानि यह श्राप दशरथ के लिए संतान प्राप्ति का सौभाग्य लेकर आया….!!

ऐसी ही एक घटना सुग्रीव के साथ भी हुई….!

सुग्रीव जब सीताजी की खोज में वानर वीरों को पृथ्वी की अलग – अलग दिशाओं में भेज रहे थे…. तो उसके साथ-साथ उन्हें ये भी बता रहे थे कि किस दिशा में तुम्हें क्या मिलेगा और किस दिशा में तुम्हें जाना चाहिए या नहीं जाना चाहिये….!

प्रभु श्रीराम सुग्रीव का ये भगौलिक ज्ञान देखकर हतप्रभ थे…!

उन्होंने सुग्रीव से पूछा कि सुग्रीव तुमको ये सब कैसे पता…?

तो सुग्रीव ने उनसे कहा कि… ”मैं बाली के भय से जब मारा-मारा फिर रहा था, तब पूरी पृथ्वी पर कहीं शरण न मिली… और इस चक्कर में मैंने पूरी पृथ्वी छान मारी और इसी दौरान मुझे सारे भूगोल का ज्ञान हो गया….!!”

सोचिये, अगर सुग्रीव पर ये संकट न आया होता तो उन्हें भूगोल का ज्ञान नहीं होता और माता जानकी को खोजना कितना कठिन हो जाता…!!

इसीलिए किसी ने बड़ा सुंदर कहा है :-

“अनुकूलता भोजन है, प्रतिकूलता विटामिन है और चुनौतियाँ वरदान है और जो उनके अनुसार व्यवहार करें…. वही पुरुषार्थी है….!!!”

ईश्वर की तरफ से मिलने वाला हर एक पुष्प अगर वरदान है…….तो हर एक काँटा भी वरदान ही समझो….!!!

मतलब…..अगर आज मिले सुख से आप खुश हो…तो कभी अगर कोई दुख, विपदा, अड़चन आ जाये…..तो घबराना नहीं….! क्या पता वो अगले किसी सुख की तैयारी हो….!! *सदैव सकारात्मक रहें..!!!* बस इस आफतकाल में धैर्य और संयम के साथ लाॅकडाउन का पालन इमानदारी से करें । यदि जिम्मेदारी निर्वहन हेतु बाहर जाने की विवशता या सौभाग्य हो तो पूरी सतर्कता बरतें

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इस कहानी को आज के संदर्भ में परखें-

युद्ध महीनों से चल रहा था. दिन ढलने के बाद आज का युद्ध विराम हुआ. राजा अपने सेनापति को निर्देश के साथ सुबह की रणनीति तय करके, अपने कुछ मंत्रियों एवं एक सेना की टुकड़ी के साथ अपने विश्रामस्थल लौट रहे थे. अंधेरा बढ़ रहा था. राजा का छोटा काफिला एक गांव के किनारे से गुजर रहा था. तभी गांव से एक महिला रोते-चीखते खेत की तरफ बेसुध भागी जा रही थी. दूसरी ओर, उसके पीछे एक आदमी हाथ मे लाठी लिये बेतहाशा उसका पीछा कर रहा था. रोने की आवाज़ सुनकर,राजा की नजर उस पीड़ित भागती महिला पर पड़ी. राजा ने महावत से तुरन्त हाथी रोकने को कहा. राजा का हाथी रुकते ही.. पूरी सेना की टुकड़ी ठिठककर खड़ी हो गई.

राजा ने तत्क्षण अपने दो सैनिकों को आदेश दिया- “जाओ! उस महिला को बुलाकर यहाँ लाओ और हाँ! वो आदमी न भागने न पाये जो उसका पीछा कर रहा है.”

सैनिक – ” जो आज्ञा महाराज!”

पांच मिनट के अन्दर रणबांकुरे महिला को सम्मान से तथा आदमी को घसीटकर राजा के समक्ष पेश किये.

राजा ने हाथी पर से ऊंचे स्वर में उस आदमी से पूछा- ” क्यों मार रहे हो इस महिला को”

आदमी- “इ हमारी मेहरारु है महाराज”

राजा (क्रोधित होकर)- ” मेहरारू होने के कारण पीट रहे हो या उसने कोई गलती की है”

आदमी- ” गलती हो गई महाराज! बात मेहरारू की नहीं है…दरअसल इ खाना चटख नाहीं बनाती.. हम रोज कहते हैं खाना तड़क बने..तनिक चटनी बन जाये…लेकिन इ है कि मनबे नाहीं करत”

राजा- ” अच्छा! चटखदार खाने के शौकीन हो…

आदमी- “जी महाराज! शाम के बेला तनि चटख खोजते हैं.”

राजा- ” खुद बना लेते हो या सिर्फ दूसरे के भरोसे खोजते हो.”

आदमी- ” हाँ महाराज! हम बहुत अच्छा खाना बनाते हैं, चटख तो इतना कि दिन भर जुबान से स्वाद न उतरे”

राजा- ” तो क्यों नहीं अपनी मेहरारू को भी सिखा देते..बढ़िया और चटख बनाना”

आदमी- ” बहुत सिखाते हैं महाराज! लेकिन इसको तो जैसे कोई शौक ही नहीं.”

राजा (महिला की तरफ मुखातिब होकर)- ” क्या तुम्हारा आदमी ठीक कह रहा है? क्यों नहीं बनाती बढ़िया चटखदार”

औरत- “महाराज!एक नम्बर का निकम्मा मरद है इ. दिनभर मोदक खाकर घूमता है और रात को थरिया भर भकोसता है.. ऊपर से रोज चटख मांगता है.. बताइए! हम कहां से रोज चटख बनायेंगे. हम इनसे कह रहें हैं कि राज पर संकट है. हमारे राजा और सैनिक युद्ध में लगे हैं.. और एक तुम हो दिनभर मोदक खाकर घूमते रहते हो और रात में चूल्हे में घुसकर चटख खोज रहे हो.. बस एही बात पर पीट रहें हैं हमको…बहुत मारे हैं महाराज बहुत.

( राजा औरत की बात सुनकर गंभीर हो गये)

राजा ( आदमी से)- ” सुनो! जैसा कि तुम्हारे बात में मालूम होता है कि तुम एक हुनरमंद आदमी हो, भगवान ने तुम्हें खाना खाने और बनाने दोनों की भरसक तमीज़ दी है इसलिए मुझे लगता है कि तुम जैसे पाककला के दक्ष व्यक्ति और कुशल हाथों को एक उचित स्थान मिलना चाहिए.. इसलिए मेरा यह आदेश है कि कल से तुम सेना के साथ युद्ध स्थल पर रहोगे तथा सैनिकों के लिए चटखदार भोजन बनाओगे. वहां भोजनगृह में श्रेष्ठ एवं स्वादिष्ट भोजन हेतु सभी आवश्यक सामग्री उपलब्ध है. यद्यपि तुम कोई ऐसी सामग्री जानते हो जिससे भोजन और स्वादिष्ट और चटख बने तो तुम रसोई के प्रबंधक से बता देना.. सब प्रबन्ध हो जायेगा.. कल से हम सब तुम्हारे हाथ का भोजन ग्रहण करेंगे.

आदमी- ” क्षमा करें महाराज! गलती हो गई मुझसे.. कान पकड़ता हूँ प्रभु॥”

राजा- ” तुमसे कोई गलती नहीं हुई. आज राज्य को तुम्हारे जैसे ही कुशल, दक्ष एवं स्वाद के पारखी की आवश्यकता है क्योंकि हमारी सेना महीनों से रूखा-सूखा खाकर बोर हो गई है”

महिला (बीच में बात काटकर)- ” महाराज!यह एक नम्बर का निकम्मा है.. सतुआ नहीं घोर पायेगा.. खाना बनाना तो दूर की बात है.. इसके चक्कर में हमारे सैनिक भूखे रह जायेंगे”

राजा- ” तुम निश्चिंत रहो! जब यह अपने लाठी से तुमको पीटकर चटख खाना बनवा सकता है तो मेरे पास तो पीटने वालों की फौज है, तुम जाओ! तुरन्त इसका बोरिया बिस्तर बांधो कल सुबह से ही इसे ही चूल्हा फूंकना है.. इसे भी तो पता चले कि युद्ध में लड़ना और चूल्हे पर बैठकर चटखारे लगाने में कितना फर्क़ है”

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