माँ सुमित्रा की अनुपम सीख !
भगवान श्री रामचन्द्र जी को ‘चौदह वर्ष का वनवास मिला। लक्ष्मणजी ने उनसे कहा: ‘‘प्रभु! मैं भी आपके साथ चलूँगा। “श्रीरामजी ने कहा: ‘‘जाओ, माँ से विदा माँग आओ, उनसे आशीर्वाद ले आओ।”
लक्ष्मणजी ने माँ सुमित्रा को प्रणाम कर कहा: ‘‘माँ! मैं प्रभु श्रीरामजी की सेवा में वन जा रहा हूँ।”
सुमित्राजी: ‘‘बेटा! तुम मेरे पास क्यों आये?”
लक्ष्मणजी: ‘‘माँ! आप मेरी माता हैं इसलिए आपका आशीर्वाद, आपकी आज्ञा लेने आया हूँ।”
सुमित्राजी: ‘‘बेटा! क्या पिछले जन्म में मैं तेरी माँ थी? क्या अगले जन्म में मैं तेरी माँ होऊँगी? कुछ पता नहीं… परंतु बेटा! जन्मों-जन्मों से जो तेरी माँ हैं, जन्मों-जन्मों से जो तेरे पिता हैं, तू उन प्रभु की सेवा में जा रहा है तो मेरे से पूछने की क्या आवश्यकता है? फिर भी मैं तुझे एक सलाह देती हूँ कि तुम पाँच दोषों से बचकर प्रभु की सेवा करना।”
लक्ष्मणजी ने पूछा: ‘‘माँ! वे पाँच दोष कौन-से हैं?”
सुमित्राजी कहती हैं:
‘‘रागु रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू।।
सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई।।
‘राग, रोष, ईर्ष्या, मद और मोह – इनके वश स्वप्न में भी मत होना। सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन, वचन और कर्म से श्री सीताराम जी की सेवा करना। (श्रीरामचरित. अयो.कां.)
बेटा! पहला दोष है ‘राग’। तुम प्रभु की सेवा करने जा रहे हो तो कई लोग तुम्हें मिलेंगे, कइयों से परिचय होगा परंतु तुम किसीमें राग मत करना, आसक्ति मत करना। अनुराग तो बस एक रामजी से ही करना।
दूसरा दोष है ‘रोष’। कभी तुम्हारे मन का न हो तो रोष नहीं करना। क्रोध से अपने-आपको बचाना। ऐसी इच्छा नहीं करना जिसकी आपूर्ति पर क्रोध उत्पन्न हो।
तीसरा दोष है ‘ईर्ष्या’। कोई प्रभु की ज्यादा सेवा-भक्ति करे, प्रभु किसीको ज्यादा प्रेम करें तो तुम उससे ईर्ष्या नहीं करना बल्कि उसकी सेवा-भक्ति का आदर करना। कोई श्रीरामजी के ज्यादा निकट हो तो उससे ईर्ष्या नहीं करना अपितु उसके प्रति अपना प्रेम बढ़ाना।
चौथा दोष है ‘मद’। तुम अभिमान से बचना। सेवा का, उन्नति का, सदगुणों का अभिमान अपने में मत लाना अपितु इन्हें प्रभु की कृपा समझना।
पाँचवाँ दोष है ‘मोह’। किसीके मोह में मत फँसना। इसके बिना नहीं चलेगा, उसके बिना नहीं चलेगा – ऐसा नहीं करना। अपितु प्रभु में अपने मन को लगाये रखना। अनुकूलता में फँसना नहीं, प्रतिकूलता से घबराना नहीं, प्रभु का आश्रय लेना और अपने हृदय में उनको बसाये रखना तथा निष्कपटतापूर्वक उनकी सेवा करना।
बेटा लक्ष्मण! जहाँ श्रीरामजी का निवास हो वहीं तुम्हारी अयोध्या है। श्रीरामचन्द्रजी तो प्राणों के भी प्रिय हैं, हृदय के भी जीवन हैं और सभीके स्वार्थरहित सखा हैं। उनके साथ वन जाओ और जगत में जीने का लाभ उठाओ। हे पुत्र! मैं तुम पर बलिहारी जाती हूँ। मेरे समेत तुम बड़े ही सौभाग्य के पात्र हुए, जो तुम्हारे चित्त ने छल छोड़कर श्रीरामजी के चरणों में स्थान प्राप्त किया है।
पुत्रवती जुबती जग सोई । रघुपति भगतु जासु सुतु होई ।।
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी।।
‘संसार में वही युवती स्त्री पुत्रवती है, जिसका पुत्र श्रीरघुनाथजी का भक्त हो। नहीं तो जो भगवान से विमुख पुत्र से अपना हित जानती है, वह तो बाँझ ही अच्छी। पशु की भाँति उसका पुत्र को जन्म देना व्यर्थ ही है।’ (श्रीराम‘रित. अयो.कां.)
“सम्पूर्ण पुण्यों का सबसे बड़ा फल यही है कि श्रीसीतारामजी के चरणों में स्वाभाविक प्रेम हो। बेटा! तुम वही करना जिससे श्रीरामचन्द्रजी वन में क्लेश न पायें। तुम्हारे कारण श्रीरामजी और सीताजी सदैव सुख पायें।”
माँ सुमित्रा ने इस प्रकार लक्ष्मणजी को अनुपम शिक्षा देकर वन जाने की आज्ञा दी और यह आशीर्वाद दिया कि ‘श्रीसीताजी और श्रीरघुवीरजी के चरणों में तुम्हारा निर्मल (निष्काम और अनन्य) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित नया हो, बढता रहे।’ माता सुमित्रा लखनलालजी को उपदेश देती हुयी कहती हैं!
- उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित-नित नई॥
भावार्थ:-हे तात! मेरा यही उपदेश है (अर्थात तुम वही करना), जिससे वन में तुम्हारे कारण श्री रामजी और सीताजी सुख पावें और पिता, माता, प्रिय परिवार तथा नगर के सुखों की याद भूल जाएँ। तुलसीदासजी कहते हैं कि सुमित्राजी ने इस प्रकार हमारे प्रभु (श्री लक्ष्मणजी) को शिक्षा देकर (वन जाने की) आज्ञा दी और फिर यह आशीर्वाद दिया कि श्री सीताजी और श्री रघुवीरजी के चरणों में तुम्हारा निर्मल (निष्काम और अनन्य) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित नया हो!
भगवान श्रीरामजी के प्रति माता सुमित्रा की प्रीति अदभुत है! धन्य हैं ऐसी माँ, जो अपने प्यारे पुत्र को उत्तम सीख देकर प्रभुभक्ति का उपदेश देती हैं और प्रभुसेवा में भेजती हैं। हे प्रभो! हम पर ऐसी कृपा कीजिये कि हमारे दिल में भी आपके प्रति ऐसी भक्ति आ जाय। - डॉ0 विजय शंकर मिश्र
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