#दाह_संस्कार
क्या ये सम्भव है कि किसी व्यक्ति का जन्म तो एक वार हो किन्तु उसे वीरगति दो वार मिले और उसका अंतिम संस्कार तीन वार हो ?? ….
मारवाड़ (जोधपुर) के महाराजा गजसिंह जी राठौड़ ने किसी कारणवश नाराज़ हो कर अपने ज्येष्ठ पुत्र कुंवर अमरसिंह को अपने राज्य से निर्वासित कर दिया और अपने छोटे पुत्र कुंवर जसवंतसिंह को मारवाड़/जोधपुर का अगला शासक घोषित कर दिया ….
संकटकाल में अमरसिंह राठौड़ जब जोधपुर छोड़ के जाने लगे तो उनकी मदद को सर्वप्रथम दो हाथ उठे …. पहला हाथ हरसोलाव (नागौर) के जागीरदार ठाकुर बल्लूजी चम्पावत (राठौड़) का और दूसरा हाथ भावसिंह जी कुम्पावत (राठौड़) का ….
बल्लूजी ने अमरसिंह जी को वचन दिया कि हुकुम ये आपका विपत्तिकाल है इसलिए मैं साये की तरह आपका सदैव साथ दूंगा ….
समय ने करवट ली …. अमरसिंह जी राठौड़ की वीरता से आगरा का बादशाह शाहजहां परिचित था इसलिए उसने अमरसिंह जी को आगरा बुला के डेढ़-हजारी जात और ढाई-हजारी के मनसब के साथ नागौर रियासत का शासक नियुक्त कर दिया ….
अमरसिंह जी को मेढ़े लड़ाने का बहुत शौक था इसलिए नागौर में बढ़िया नस्ल के मेढ़े पाले जाने लगे और उन मेढो की भेड़ियों से रक्षा के लिए बारी-बारी नागौर के मारवाड़ी राठौड़ सरदारों की नियुक्ति की जाने लगी ….
मेढो की रखवाली के लिए जब हरसोलाव (नागौर) के राठौड़ सरदार बल्लूजी चम्पावत की बारी आयी तो उन्होंने अमरसिंह जी से कहा …. हुकुम मैं यहां विपत्तिकाल मैं आपका साथ देने आया था मेढो की रखवाली करने नहीं आया था और अब आपका विपत्तिकाल टल गया और सुकाल शुरू हो गया इसलिए मैं तो यहां से चला ….
इतना कह के बल्लूजी नागौर छोड़ के मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी सिसोदिया के पास शरण लेने गए ….
बल्लूजी की वीरता और वचनबद्धता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी इसलिए मेवाड़ पहुंचते ही महाराणा राजसिंह जी ने उनको जागीर बख्शते हुए अपने दरबार मे ऊंचा ओहदा प्रदान किया ….
बल्लूजी की दिन-प्रतिदिन बढ़ती ख्याति से मेवाड़ के सरदारों के माथे पे चिंता की सलवटें उभरने लगी और वो बल्लूजी को दरबार से हटाने की योजना बनाने लगे ….
अपने सरदारों द्वारा बल्लूजी के विरुद्ध रोज़-रोज़ कान भरे जाने के बाद एक दिन महाराणा राजसिंह जी ने अपने दरबार में पिंजरे में कैद एक भूखे खूंखार शेर को बुलाया और बल्लूजी से कहा आज मैं आपकी वीरता देखना चाहता हूं ….
बल्लूजी ने अपनी तलवार म्यान से बाहर निकाल के अपने आसन पे रखी और बिना देर किए भूखे खूंखार शेर के पिंजरे में दाखिल हो गए ….
बल्लूजी को क्षण भर भी नहीं लगा और उन्होंने उस जंगली खतरनाक शेर को जबड़ों से पकड़ के चिर दिया ….
महाराणा राजसिंह जी सहित समूचा मेवाड़ दरबार बल्लूजी की वीरता देख के स्तब्ध रह गया ….
बल्लूजी ने पिंजरे से बाहर निकल के अपनी तलवार उठाई और हाथ जोड़ के विनम्रतापूर्वक मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी से कहा …. हुकुम योद्धा की वीरता की परीक्षा रणभूमि में शत्रु से लड़वाकर ली जाती है निहत्थे जानवर से लड़वाकर नहीं ….
इतना कह कर बल्लूजी मेवाड़ छोड़कर वहां से प्रस्थान कर गए ….
महाराणा राजसिंह जी को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने बल्लूजी को वापस मनाने के लिए अपने प्रमुख सिसोदिया सरदारों को भेजा साथ ही बल्लूजी के लिए महाराणा साहब ने उपहारस्वरूप एक सुंदर बलिष्ठ घोड़ा भी भेजा ….
बल्लूजी महाराणा साहब द्वारा भेजा घोड़ा देख के प्रसन्न हुए और घोड़ा रखते हुए मेवाड़ी सरदारों से कहा …. जा के कह देना अपने राणा जी से आप पे जब विपत्तिकाल आये बल्लू को याद कर लेना मैं उनकी सहायता के लिए हाज़िर-नाजिर मिलूंगा ….
पूर्व में ऐसा ही एक वचन बल्लूजी ने नागौर नरेश राव अमरसिंह जी राठौड़ को दिया था और ऐसा ही दूसरा वचन आज उन्होंने मेवाड़ नरेश महाराणा राजसिंह जी सिसोदिया को दे दिया ….
समय अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा था ….
बादशाह शाहजहां ने ईसवी सन 1644 में हाथी की चरवाई पे टैक्स लगा दिया था ….
आगरा दरबार में बादशाह शाहजहां ने एक दिन अमरसिंह जी से हाथी की चरवाई के टैक्स की मांग की इसपे अमरसिंह जी ने कहा मैं तो आपको ऐसा कोई टैक्स नहीं दूंगा …. संपति के नाम पे मेरे पास मेरी ये तलवार है …. है दम तो इसे (तलवार को) ले लो ….
दरबार मे मौजूद बादशाह शाहजहां के साले और प्रमुख सेनानायक शलावत-खां ने ये वाक्या देख के नागौर नरेश राव अमरसिंह जी राठौड़ को गंवार कह के सम्बोधित किया ….
इधर शलावत-खां द्वारा अमरसिंह जी को गंवार कहना हुआ और उधर अमरसिंह जी ने अपनी तलवार के एक भरपूर वार से भरे दरबार में शलावत-खां की गर्दन को उसकी धड़ से जुदा कर दिया ….
आगरा दरबार में एकदम सन्नाटा पसर गया ….
बादशाह के दरबार में मौजूद मुगल और राजपूत शासक सकते में आ गए …. दरबार मे मौजूद बादशाह शाहजहां का पुत्र शहजादा औरंगजेब खौफ से अपने आसन में दुबक गया ….
अमरसिंह जी तलवार ले के अब मुगल तख्त पे विराजमान शाहजहां की छाती पे चढ़ने को आगे बढ़ने लगे …. बादशाह और अमरसिंह के बीच चंद कदमों का फासला रह गया था कि मुगल सैनिको ने अमरसिंह को घेर लिया ….
आगरा के किले में मौजूद मुगल सैनिकों को चीरते हुए अमरसिंह अपने घोड़े बहादुर पे सवार हुए और बहादुर को ऐसी एड़ लगाई कि घोड़ा बहादुर आगरा से नागौर आ के ही रुका ….
(महाराणा प्रताप के स्वामिभक्त घोड़े चेतक की तरह राजस्थान में अमरसिंह राठौड़ के घोड़े बहादुर का नाम भी आदर और सत्कार के साथ लिया जाता है) ….
अमरसिंह जी के सगे साले अर्जुनसिंह गौड़ ने शाहजहां के प्रलोभन में आ के अमरसिंह जी को दुबारा आगरा ले जा के आगरा दरबार मे धोखे से उनकी हत्या कर दी और शव को शाही पहरे में आगरे के किले में खुले में रखवा दिया ….
अमरसिंह जी की हत्या के समाचार नागौर पहुंचे तो उनकी एक रानी हाड़ी (बूंदी के हाड़ा शासकों की पुत्री) ने अमरसिंह जी की पार्थिव देह के साथ सत्ति होने की इच्छा जताई ….
किन्तु ….
हाड़ी सत्ति हो कैसे ?? …. अमरसिंह जी का शव तो आगरा किले में मुगलों की गिरफ्त में कैद पड़ा था ….
हाड़ी को अपने विश्वासपात्र हरसोलाव (नागौर) के राठौड़ सरदार बल्लूजी चम्पावत की याद आयी ….
अमरसिंह को विपत्तिकाल में साथ देने का अपना कौल (वचन) निभाने बल्लूजी मेवाड़ महाराणा द्वारा प्राप्त घोड़े पे सवार हो के अपने 500 नागौरी/मारवाड़ी साथियों के साथ आगरा कूच कर गए ….
कूटनीति से आगरा के किले में प्रवेश लेने के बाद बल्लूजी ने अमरसिंह जी के शव को अकेले मुगलों की कैद से निकाला और घोड़े पे सवार हो के किले के बुर्ज से नीचे छलांग लगा दी ….
बल्लूजी ने किले के बाहर मौजूद अपने नागौरी/मारवाड़ी राठोड़ों को अमरसिंह जी का शव सौंप के नागौर रवाना किया और अपने चंद मुट्ठी भर साथियों के साथ मुगल सेना को रोकने के लिए खुद दुबारा आगरा किले में प्रवेश कर गए ….
घोड़े की लगाम को मुंह मे दबाकर दोनों हाथों में तलवार ले के बल्लूजी मुगल सेना से भीड़ गए ….
आगरा का किला नागौरी राठोड़ों के रक्त से लाल हो गया …. मुगलों से लड़ते हुए बल्लूजी भी आगरा के किले में खेत हो गए ….
लेकिन ….
बल्लूजी ने मुगलों को अमरसिंह के शव के आसपास नहीं फटकने दिया ….
आगरा में यमुना नदी के तट पे सैन्य सम्मान के साथ बल्लूजी का दाह-संस्कार किया गया गया ….
(ये बल्लूजी की प्रथम वीरगति व प्रथम दाह-संस्कार था) ….
(आगरा के किले के सामने यमुना नदी के तट पे बल्लूजी की छतरी व उनके घोड़े की समाधि आज भी अडिग खड़ी है/बनी हुई है) ….
(आगरा के किले के मुख्य द्वार को अमरसिंह द्वार कहा जाता है) ….
समय एक वार फिर अपनी गति से आगे बढ़ने लगा ….
देबारी (मेवाड़) के मैदान में आज मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी और मुगल बादशाह औरंगजेब की सेनाएं आमने-सामने डटी थी ….
संख्याबल में ज्यादा मुगल आज मुट्ठी भर मेवाड़ी शूरमाओं पे अत्यधिक भारी पड़ रहे थे ….
रणभूमि में विचलित महाराणा राजसिंह जी को आज बल्लूजी जी चम्पावत की याद आयी और विपत्तिकाल में साथ निभाने के बल्लूजी के वचन की याद आयी ….
देबारी की घाटी में मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी आंखे बंद कर के और हाथ जोड़ के अरदास करते हैं …. काश आज बल्लूजी जैसे योद्धा मेवाड़ की और से लड़ रहे होते ….
कुछ पलों बाद मेवाड़ी और मुगल सेना भौचक्की रह गयी ….
मेवाड़ नरेश द्वारा दिये घोड़े पे सवार बल्लूजी चम्पावत दोनों हाथों में तलवार लिए मुगल सेना पे कहर ढा रहे हैं …. बल्लूजी जबरदस्त वीरता से युद्ध लड़ते हुए देबारी घाटी में मुगल सेना को चीरते चले जा रहे थे ….
देखते ही देखते मुगल सेना में हाहाकार मच गया ….
इस युद्ध में मेवाड़ की विजयी हुई …. देबारी घाटी की रणभूमि में बल्लूजी चम्पावत एक वार फिर दुबारा वीरगति को प्राप्त हो गए ….
मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी ने सैन्य सम्मान के साथ एक वार पुनः बल्लूजी चम्पावत का दाह-संस्कार करवाया ….
(यह बल्लूजी का दूसरा दाह-संस्कार था …. साथ ही मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी ने मेवाड़ की देबारी घाटी में बल्लूजी जी की दूसरी छतरी का निर्माण करवाया) ….
आज के भौतिकवादी युग में दुनिया में किसी के लिए भी यहां तक कि आप पाठकों के लिए भी ये घटना अविश्वसनीय हो सकती है ….
किन्तु ….
यह घटना बिल्कुल सत्य है ….
आगरा और देबारी में स्थित बल्लूजी की छतरी को कोई भी मित्र/पाठक पुष्टि के लिए जा के देख सकता है ….
अपने संकटकाल में बल्लूजी ने लाडनूँ जिला नागौर मारवाड़ (मेरे शहर) के एक ओसवाल बणिया के पास अपनी मुच्छ का एक बाल गिरवी रख के कुछ धन उधार लिया था ….
अपने जीवनकाल में लाडनूँ के इस बणिया से बल्लूजी उधार लिया हुआ धन लौटा के अपनी मुच्छ का वो बाल बंधक से छुड़वा नहीं पाये थे ….
बल्लूजी की छविं पीढ़ी के वंशज हरसोलाव (नागौर) के ठाकुर सूरतसिंह जी चम्पावत ने लाडनूँ के बणिया की छविं पीढ़ी को धन का भुगतान कर के बल्लूजी चम्पावत द्वारा गिरवी/बंधक रखे बाल को मुक्त करवाया/छुड़वाया ….
ठाकुर सूरतसिंह जी चम्पावत ने लाडनूँ से अपने पूर्वज बल्लूजी का बाल बंधक से छुड़वाकर उस बाल का सम्पूर्ण विधि-विधान से अंतिम-संस्कार करवाया ….
बल्लूजी के इस दाह-संस्कार में सारे बल्लुदासोत चम्पावत एकत्रित हुए तथा सम्पूर्ण विधि-विधान से बल्लूजी के तेरहवीं तक के सारे शोक के दस्तूर पूरे किए गए ….
(हरसोलाव/नागौर के महापराक्रमी शूरवीर योद्धा और वचन के पक्के ठाकुर बल्लूजी चम्पावत राठौड़ का ये तीसरा दाह-संस्कार था) ….
नागौर सहित सम्पूर्ण मेवाड़ और सम्पूर्ण मारवाड़ में बल्लूजी का नाम बड़े आदर व सत्कार से लिया जाता है ….
बल्लूजी ने जन्म भी एक वार लिया और शादी भी एक ही क्षत्राणी से की किन्तु वीरगति दो वार प्राप्त की और उनका अंतिम-संस्कार तीन वार हुआ ….
नागौर सहित समस्त राजपुताना के इतिहास में बल्लूजी की वीरता का अध्याय स्वर्णाक्षरों में अंकित है ….
राजस्थान के कण-कण में गोरा-बादल और बल्लूजी जैसे निष्ठावान योद्धा/सेनानायक/रणबांकुरे पैदा होते आये हैं ….