Posted in कविता - Kavita - કવિતા

मत कहना, हम ओल्ड हो गये!
हम तो तपकर गोल्ड हो गये।

जीवन के झंझावातों से
लड़ना, हमने मिलकर सीखा,
कैसे-कैसे मोड़ से गुजरे,
आगे बढ़ना हमने सीखा।

अनुभवों का अब साथ समंदर,
है न अब, चुनौती का डर.
जो आयेगा, टल जायेगा,
हम तो भाई, बोल्ड हो गये।

अब जीवन के नये रंग हैं,
नयी पीढ़ी के नये ढंग हैं.
पर बच्चों का, अपनों का भी,
प्यारा-प्यारा संग, संग है।

जीवन की यह सांझ सुनहरी,
ढल गई वह बीती दोपहरी.
नयी हैं राहें, नयी निगाहें,
करने को मन कुछ खुद चाहे.
खुलकर जी लें, खुलकर हँस लें.
बस जीवन यह कहना चाहे।

सचमुच हम तो बोल्ड हो गये.

मत कहना हम ओल्ड हो गये!
हम तो तपकर गोल्ड हो गये।🙏

रामेश्वर लाल

Posted in भारतीय शिक्षा पद्धति

पंडित मनीष तिवारी

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय विवाद —


यों तो मैं उन विवादित विषयों से एकदम दूरी बना कर रखता हूँ, जिनपर स्वयं हिन्दू समाज ही एकमत न हो। किंतु अब लगता है कि ये भ्रांतिपूर्ण विवाद अपना विराट स्वरूप धारण कर रहा है। अतएव अब मौन का मार्ग दुर्गम होगा।

अव्वल तो ये प्रश्न ही भ्रामक है कि क्या एक मुस्लिम संस्कृत नहीं पढ़ा सकता? इसपर मैं कहूँगा कि अवश्य पढ़ा सकता है। किंतु आप इस विवाद का आखेट वहाँ कर रहे हैं, जहाँ ये है ही नहीं।

विवाद एक मुस्लिम द्वारा संस्कृत पढ़ाने को लेकर नहीं, बल्कि वेदाङ्गों में से एक “छंदशास्त्र” को पढ़ाने का है। सो, प्रश्न का आधारभूत ढाँचा बदल लीजिए।

वस्तुतः अब प्रश्न ये है : “वैदिक विषय “छंदशास्त्र” का प्रवक्ता कोई मुस्लिम क्यों नहीं हो सकता?”

इस प्रश्न का उत्तर, प्रश्न की ही भाषा में निहित है। निषिद्धि को “मुस्लिम” शब्द के साथ इंगित कर दिया गया है और इस्लामिक दर्शन के मुताबिक़ ये बात जमे जमाए तर्कों को पूर्णरूपेण श्रांति प्रदान करती है।

“छंदशास्त्र” यानी कि वैदिक ऋचाओं की गेयता को सुनिश्चित करने वाला शास्त्र। इस शास्त्र को वेद-पुरुष का चरण कहा गया है। इस वेदाङ्ग की सहायता से वेद-पुरुष पीढ़ियों दर पीढ़ियों विचरण करता है।

क्या हो, जो काशी विवि से वेदाङ्ग में स्नातक होकर आए विद्यार्थी को ये ज्ञात न हो कि निरुक्त के पञ्चम अध्याय के आरंभिक मन्त्रों-अर्धमन्त्रों में कौनसा छंद है?

यदि वो विद्यार्थी इसपर अनभिज्ञता प्रकट कर दे, तो जानिए कि महामना का स्वप्न खण्डित हो गया! और यदि मुस्लिम प्रवक्ता द्वारा ये अध्याय पढ़ाया गया तो निश्चित तौर पर ये ही होने जा रहा है।

उक्त मन्त्रों का आरम्भ कुछ कुछ इस तरह होता है :
१) वराहो मेघो भवति वराहार:।
२) अयाम्पीतरो वराह एतस्मादेव।
३) वराहमिन्द्र एमुषम्।

वैदिक विषयों की साथ प्रकट हो जाने वाली इस्लामिक ग्रंथि यही है कि वे “आदिवराह” का वर्णन किस प्रकार करेंगे। वे किस प्रकार एक “वराह” को प्रेज़ करेंगे, जबकि उन्हें तो बालपन से ही वराह-घृणा की घुट्टी पिलाई गई है।

इस और इस तरह के अगण्य परिदृश्यों का मूल कारण उनकी अपनी थियोलॉजी है, इस्लामिक थियोलॉजी!

इस्लामिक थियोलॉजी ने विश्व इतिहास को दो भागों में विभाजित किया है : “जाहिलिया” व “इल्म”। इन्हें क्रमशः “एज ऑफ़ इग्नोरेंस” व “एज ऑफ़ एनलाइटनमेंट” भी कहा जाता है।

(“जाहिलिया” शब्द से ही “जाहिल” शब्द का निर्माण हुआ है। इस पूरे शब्द-परिवार का अर्थ “अंधेरे” से है।)

इस्लामिक थियोलॉजी इस शब्द की सहायता से, मुहम्मद साहब के आगमन से पूर्व के विश्व को परिभाषित करते हुए कहती है कि जब तक हुज़ूर और हुज़ूर का संकलित विचार समुच्चय “क़ुरआन” इस विश्व में न था, समूचा विश्व “यौमे-जाहिलिया” था, यानी कि जाहिलों की संतति।

“हुज़ूर आए, कुरआन और इल्म लाए” — ऐसी धार्मिक विचारधारा को मानने वालों की व्यक्तिगत ज़िंदगी से हमें कोई लेना देना नहीं, वे अवश्य ताक़यामत अपनी धार्मिक अवधारणाओं को क़ायम रक्खें।

किंतु कोई अब ये बताए कि जो आदमी हुज़ूर के आगमन से पहले की हर चीज़ को “जाहिलिया” मानने वाले माहौल की परवरिश पाया हो, यानी उसके लिए सही और ग़लत की लकीर ही चौदह सौ साल पहले खिंचती हो, उसके लिए ये मान पाना और फिर अपने विद्यार्थियों को बता पाना कितना दुर्लभ होगा कि ऋग्वेद की इस ऋचा का कालखण्ड पाँच हज़ार वर्ष पूर्व है।

जबकि कुछ ऋचाएँ तो नौ हज़ार, दस हज़ार और बारह हज़ार से होते हुए पचास हज़ार वर्ष पहले तक जाती हैं! ऐसे में, एक मुस्लिम छंदशास्त्री बिना किसी “जाहिलिया” दुर्भावना के कैसे पढ़ा सकेगा?

सातवीं सदी के मध्य में, हजरत उमर ने चार हज़ार सैनिकों के साथ मिस्र पर आक्रमण किया था। उन्होंने मिस्र को जीतकर सबसे पहला काम जानते हैं क्या किया? मिस्र के समृद्ध पुस्तकालय को जला कर भस्म कर दिया था।

जब वे अग्निकाण्ड का आदेश दे रहे थे, तब उन्होंने अपने सिपाहसालार से कहा था :

“इस पूरे जखीरे में से एक भी किताब सहेजने के काबिल नहीं। ये सब “जाहिलिया” युग की हैं। अल्लाह ने क़ुरआन में कुछ भी नहीं रख छोड़ा है। अगर इसमें ऐसा कोई ज्ञान है, जो क़ुरआन में नहीं भी है, तो भी वो बेकार है। चूँकि अल्लाह ने उसे क़ुरआन में नहीं शामिल किया!”

— ऐसी विचारधारा तले पले-बढ़े एक युवा प्रवक्ता से वैदिक “छंदशास्त्र” का ठीक ठीक सम्मान करना भी न हो सकेगा, उसे पढ़ना तो बहुत दूर की बात है। वो कभी दिल से स्वीकार ही न कर सकेगा कि ये “छंदशास्त्र” पढ़ाए जाने योग्य है।

और फिर शुरू होगा उसका नेक्स्ट स्टेप : अल-तकिया!

यानी कि धीरे-धीरे विद्यार्थियों का ब्रेनवॉश। अब विद्यार्थी वैदिक विषयों में मुहम्मद साहब को खोजेंगे। बावजूद इसके कि क़ुरआन में भविष्य का आंकलन करने की कतई मनाही है। स्पष्ट लिखा है कि केवल और केवल अल्लाह ही भविष्यवाणी कर सकते हैं।

अल्लाह द्वारा साफ़ मनाही के बाद भी मुस्लिम विद्वान् क्यों वेदों में मुहम्मद साहब को खोजते रहते हैं। इस बात को मैं कभी फुरसत से समझना चाहूँगा।

फ़िलहाल, मुस्लिम प्रवक्ता के नियुक्ति विवाद पर ही बात हो!

ऐसा इस भारतभूमि में प्रथम बार नहीं हुआ है कि किसी विश्वविद्यालय में धार्मिक आधार पर आचार्य चुनने की परंपरा हो। ठीक ऐसी ही परंपरा, प्राच्यकाल में भी थी!

ऐसे ढेरों उदाहरण मौजूद हैं, जब आचार्यों की नियुक्ति में धर्म ने बाधा डाल दी हो। किन्तु यहां दो प्रसिद्व उदाहरण पर्याप्त होंगे। पहले आचार्य अश्वघोष और दूजे आचार्य कुमारिल भट्ट।

अश्वघोष और कुमारिल, दोनों ही सनातनी हिंदू जन्मे थे। दोनों प्रकांड विद्वान थे। दोनों बौद्धों के हाथों शास्त्रार्थ में पराजित हुए और दोनों बौद्धधर्म में दीक्षित हुए।

किन्तु बौद्धधर्म में ख्यातिप्राप्त विद्वान् हो जाने के पश्चात् भी उन्हें बौद्ध-भिक्षुओं को पढ़ाने का अधिकार नहीं मिला था! (हाँ, अश्वघोष का लिखा साहित्य अवश्य बौद्धों में लोकप्रिय है।)

यानी कि इतिहास ये कहता है, यदि प्रोफ़ेसर साहब फ़िरोज़ खान किसी हिन्दू विद्वान् से पराजित होकर हिन्दूधर्म ग्रहण भी कर लें, तब भी वे धर्माचार्य बनने की योग्यता न पा सकेंगे।

हालाँकि, यदि फ़िरोज़ साहब परधर्म में प्रवृत्त होने की अश्वघोष जितनी क्षमता रखते होंगे तो उन्हें अवश्य संस्कृत के कला व साहित्य विभाग में पढ़ाने का अवसर मिलेगा।

किन्तु धर्म के संकाय में वे केवल विद्यार्थियों की पङ्क्ति में बैठ सकते हैं! इससे अधिक उन्हें एक भाषा कुछ भी नहीं दे सकती। इससे आगे की व्याप्तियों पर धर्म अपना अधिकार कर लेता है।

और समग्र हिन्दू समाज यही चाहता है कि धर्म के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण न किया जावै!

इति।

✍️साभार संकलन् ©®

Posted in भारतीय शिक्षा पद्धति

मोहनलाल जैन

नेहरु के शिक्षा मंत्री – मौलाना अबुल कलाम आज़ाद…!

बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि मौलाना अबुल कलाम किसी विश्वविद्यालय की देन नहीं अपितु एक मदरसे की देन थे…

उनकी बड़ी उपलब्धि कोई शैक्षिक डिग्री नहीं अपितु नेहरू के संग नजदीकियां थी…
इसीलिए जिस कुर्सी पर किसी वैदिक विद्वान को देश का पाठयक्रम निर्धारित करने के लिए बैठाना था उस पर एक मदरसे के मौलवी को बैठाया गया…

यह भारतीय शिक्षा के विकृतीकरण को नेहरू की एक मुख्य देन है…
आइए इस पर विचार करें…

११ नवम्बर १८८८ को पैदा हुए मक्का में, वालिद का नाम “मोहम्मद खैरुद्दीन” और अम्मी मदीना (अरब) की थीं,नाना शेख मोहम्मद ज़ैर वत्री,मदीना के बहुत बड़े विद्वान थे
मौलाना आज़ाद अफग़ान उलेमाओं के ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे जो बाबर के समय हेरात से भारत आए थे ये सज्जन जब दो साल के थे तो इनके वालिद कलकत्ता आ गए सब कुछ घर में पढ़ा और कभी स्कूल कॉलेज नहीं गए बहुत ज़हीन मुसलमान थे

इतने ज़हीन कि इन्हे मृत्युपर्यन्त “भारत रत्न” से भी नवाज़ा गया इतने काबिल कि कभी स्कूल कॉलेज का मुंह नहीं देखा और बना दिए गए भारत के पहले केंद्रीय शिक्षा मंत्री…
इस शख्स का नाम था “मौलाना अबुल कलम आज़ाद” इन्होने इस बात का ध्यान रखा कि विद्यालय हो या विश्वविद्यालय कहीं भी इस्लामिक अत्याचार को ना पढ़ाया जाए, इन्होने भारत के इतिहास को ही नहीं अन्य पुस्तकों को भी इस तरह लिखवाया कि उनमे भारत के गौरवशाली अतीत की कोई बात ना आए

आज भी इतिहास का विद्यार्थी भारत के अतीत को गलत ढंग से समझता है…
हमारे विश्वविद्यालयों में – गुरु तेग बहादुर,गुरु गोबिंद सिंह,बन्दा बैरागी,हरी सिंह नलवा,राजा सुहेल देव पासी,दुर्गा दास राठौर के बारे में कुछ नहीं बताया जाता…!

आज की तारीख में इतिहास हैं…
हिन्दू सदैव असहिष्णु थे,मुस्लिम इतिहास की साम्प्रदायिकता को सहानुभूति की नज़र से देखा जाये
भारतीय संस्कृति की रीढ़ की हड्डी तोड़ने तथा लम्बे समय तक भारत पर राज करने के लिए १८३५ में ब्रिटिश संसद में भारतीय शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त करने के लिए मैकाले ने क्या रणनीति सुझायी थी तथा उसी के तहत Indian Education Act-१८५८ लागु कर दिया गया…

अंग्रेज़ों ने “Aryan Invasion Theory” द्वारा भारतीय इतिहास को इसलिए इतना तोडा मरोड़ा कि भारतियों कि नज़र में उनकी संस्कृति निकृष्ट नज़र आये और आने वाली पीढ़ियां यही समझें कि अँगरेज़ बहुत उत्कृष्ट प्रशासक थे
आज जो पढाया जा रहा है उसका सार है –

हिन्दू आर्यों की संतान हैं और वे भारत के रहने वाले नहीं हैं वे कहीं बाहर से आये हैं और यहाँ के आदिवासियों को मार मार कर तथा उनको जंगलों में भगाकर उनके नगरों और सुन्दर हरे-भरे मैदानों में स्वयं रहते हैं…!
हिन्दुओं के देवी देवता राम,कृष्ण आदि की बातें झूठे किस्से कहानियां हैं हिन्दू महामूर्ख और अनपढ़ हैं…!

हिन्दुओं का कोई इतिहास नहीं है और यह इतिहास अशोक के काल से आरम्भ होता है…!
हमारे पूर्वज जातिवादी थे मानवता तो उनमे थी ही नहीं…!
वेद,जो हिन्दुओं की सर्व मान्य पूज्य पुस्तकें हैं,गड़रियों के गीतों से भरी पड़ी हैं…!

हिन्दू सदा से दास रहे हैं कभी शकों के,कभी हूणों के,कभी कुषाणों के और कभी पठानों तुर्कों और मुगलों के…!
रामायण तथा महाभारत काल्पनिक किस्से कहानियां हैं…!

१५अगस्त १९४७,को आज़ादी मिली,क्या बदला…?
रंगमंच से सिर्फ अंग्रेज़ बदले बाकि सब तो वही चला अंग्रेज़ गए तो सत्ता उन्ही की मानसिकता को पोषित करने वाली कांग्रेस और नेहरू के हाथ में आ गयी नेहरू के कृत्यों पर तो किताबें लिखी जा चुकी हैं
पर सार यही है की वो धर्मनिरपेक्ष कम और मुस्लिम हितैषी ज्यादा था न मैकाले की शिक्षा नीति बदली और न ही शिक्षा प्रणाली शिक्षा प्रणाली जस की तस चल रही है

और इसका श्रेय स्वतंत्र भारत के प्रथम और दस वर्षों (१९४७-५८) तक रहे शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलम आज़ाद को दे ही देना चाहिए बाकि जो कसर बची थी वो नेहरू की बिटिया इन्दिरा गाँधी ने तो आपातकाल में विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास भी बदल कर पूरी कर दी
जिस आज़ादी के समय भारत की १८.७३% जनता साक्षर थी उस भारत के प्रधानमंत्री ने अपना पहला भाषण “tryst With Destiny”अंग्रेजी में दिया था

आज का युवा भी यही मानता है कि यदि अंग्रेजी न होती तो भारत इतनी तरक्की नहीं कर पाता और हम यह सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि पता नहीं जर्मनी,जापान,चीन इजराइल ने अपनी मातृभाषाओं में इतनी तरक्की कैसे कर ली…?
आज तक हम इससे उबर नही सके हैं २०१८ में NCERT की वे किताबें हैं जो २००५ का संस्करण हैं-यह पढाया जा रहा है विद्यार्थियों को…ICSE एक सरकारी परीक्षा संस्थान है जो CBSE की तरह पूरे भारत में मान्य है. संयोग से इसकी २०१६ की इतिहास की पुस्तकें देखी…

नमूना देखें
कक्षा छह –
१.इतिहास की घटनाओं के समय का माप केवल ईसा के जन्म से पूर्व (BC बिफोर क्राईस्ट) या ईसा के बाद (AC आफ्टर क्राईस्ट) जैसे भारत का तो कोई समय था ही नहीं…?

२.सिंधु घाटी में एक महान सभ्यता अस्तित्व में थी,जिसे आक्रान्ता आर्यों ने तहस नहस कर दिया…?

३.आक्रमण के बाद आर्य भ्रमित थे कि वे अपने वेदों के साथ यहाँ बसें या यहाँ से चले जाएँ…?

४.उसके बाद सम्राट अशोक आते हैं हर जगह बौद्ध धर्म का उल्लेख उस समय तक मानो हिन्दू थे ही नहीं…?

५.गुप्तकाल…मानो समुद्रगुप्त पहला हिंदू शासक हो क्योंकि वह सहिष्णु था और वह भी अपवादस्वरुप…पल्लव,चोल,चेर या तो वैष्णव थे अथवा शैव,हिन्दू नहीं पूरी किताब में हिंदुओं का उल्लेख सिर्फ तीन बार…?

६.मुखपृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक छठवीं क्लास के आईसीएसई के इतिहास में हिन्दू कहीं मौजूद ही नहीं है कुछ है तो आर्यों द्वारा किया गया सभ्यताओं का सफाया
तथा बौद्धों पर जाति थोपने का उल्लेख इन ४० पृष्ठों में ५००० से अधिक वर्षों पुरानी धार्मिक सभ्यता का उल्लेख तक नहीं है पूरे ३०० वर्ष के राजवंशों का इतिहास एक पैरा में निबटा दिया गया…?

कक्षा ७ संक्षेप में…
कक्षा सात की इतिहास की पुस्तक में ईसामसीह का प्रचार है और वह केवल इसी के लिए ही लिखी गई है…
दुनिया भर में इस्लाम का खूनी विजय अभियान,अरबों द्वारा किया गया “एकीकरण” का प्रयास था,जिसने अनेक लेखक,विचारक और वैज्ञानिक दिए तुर्की के आक्रमण से पहले भारत क्या था,इसका उल्लेख केवल दो पृष्ठों में हैं

जबकि हर क्रूर मुग़ल बादशाह पर पूरा अध्याय है भारत पर अरब आक्रमण एक अच्छी बात थी,उन्होंने हमें सांस्कृतिक पहचान दी महमूद लुटने इसलिए आया क्योंकि उसे पैसे की जरूरत थी जिस कट्टरपंथी कुतबुद्दीन ऐबक ने २७ मंदिरों को नष्ट कर कुतुब मीनार बनबाई वह एक दयालु और उदार आदमी था…
बाबर ने अपने शासनकाल में धार्मिक सहिष्णुता की प्रवृत्ति शुरू की औरंगजेब एक रूढ़िवादी और भगवान से डरने वाला मुस्लिम संत था जो अपने जीवन यापन के लिए टोपियां सिलता था वह अदूरदर्शी शासक अवश्य था…!

कक्षा ८ से दस तक संक्षेप में…
मराठा साम्राज्य अस्तित्व में आने के पूर्व ही समाप्त हो गया
यहाँ भी ईसाई उत्पीड़न घुसाने का प्रयास, बाइबल पढ़ने वाले गुलामों को निर्दयतापूर्वक दंडित किया जाता था सिखाया जाता है कि गोरों का राष्ट्रवाद एक अच्छी बात है,किन्तु जब भारतीय राष्ट्रवादी हों तो वे अतिवादी हैं

जाटों का उल्लेख महज सात लाइनों में,और राजपूतों का १२ में मिलता है पंजाब का उल्लेख सीधे गुरु गोबिंद सिंह से शुरू होता है
उम्मीद के मुताबिक़ हैदर अली और टीपू सुल्तान को बेहतर दिखाया गया है मैसूर किंगडम की शुरूआत हैदर अली से

मराठाओं को बस एक पेज में लपेट दिया, शिवाजी को महज एक पंक्ति में संभाजी कौन तो बस एक कमजोर उत्तराधिकारी…मराtha सिर्फ एक क्षेत्रीय शक्ति थे,जबकि मुगल और ब्रिटिश साम्राज्य थे मुगल साम्राज्य के पतन से अराजकता और अव्यवस्था फैली जिन महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य पंजाब, कश्मीर और पार तक था,उनका उल्लेख केवल चार लाइनों में हो गया…
कसाई टीपू को मैसूर का टाइगर बताया गया गया एक प्रबुद्ध शासक जो अपने समय से आगे का विचार करता था तो औरंगजेब एक संत था और कुतबुद्दीन ऐबक एक दयालु,उदार व्यक्ति और टीपू तो निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्ष,उदार और सहिष्णु था ही मुरदान खान और खलील जैसे ठग देवी काली के उपासक थे जिन्होंने दो लाख से अधिक लोगों की हत्याएं कीं…

भारतीय समाज गड्ढे में पड़ा हुआ था इसलिए दमनकारी था १८४३ में अंग्रेजों ने यहाँ गुलामी को अवैध घोषित किया (है ना हैरत की बात उन्होंने भारत में गुलामी को अवैध घोषित किया अफ्रीका में नहीं)
भारतीय शिक्षा…?

मिशनरियों के आने के पूर्व केवल कुछ गिने चुने शिक्षक अपने घर में ही पढाया करते थे
जबकि सचाई यह है कि अकेले बिहार में ब्रिटेन से कहीं ज्यादा स्कूल और विश्वविद्यालय थे बिटिश ने अपनी स्वयं की शिक्षा प्रणाली भारत के अनुसार बनाई…

हिंदू धर्म को पुनर्जीवित करने वाली सुधारक केवल एनी बेसेंट थीं…
संयोग से एक सच्चाई जरूर सामने आ गई,वह यह कि ह्यूम ने कांग्रेस का गठन १८५७ जैसी घटनाएँ रोकने के लिए किया था,
और यह काम कांग्रेस ने बहुत अच्छी तरह से किया भी युवाओं ने अभिनव भारत जैसी गुप्त गतिविधियों का संचालन किया,जिन्होंने भारत के बाहर काम किया,यहाँ भी वीर सावरकर का उल्लेख नहीं क्रांतिकारी आंदोलन का उल्लेख केवल एक पेज से भी कम में किया गया है

क्योंकि असली नायकों(गांधी,नेहरू) को ज्यादा स्थान की जरूरत है…नेहरू – गांधी को स्वतंत्रता का पूरा श्रेय दिया गया है…!

गांधी-इरविन समझौते को इतना महत्व दिया गया है कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का बलिदान पूरी तरह गौण हो गया है…

नेताजी और आजाद हिंद फौज का उल्लेख मात्र एक चौथाई पृष्ठ में मिलता है…!

तो यह है हमारी आज की इतिहास शिक्षा का कच्चा चिट्ठा…
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और उनकी सेना को एक चौथाई पेज,शिवाजी को एक लाइन,लेकिन चाचा जी का स्तवन भरपूर और हाँ क्रिकेट तो भूल ही गए इस औपनिवेशिक खेल को पूरे दो पृष्ठ,आखिर बोस,भगत सिंह और मराठा साम्राज्य की तुलना में यह अधिक महत्वपूर्ण जो हैं…!

मोदी जी धारा ३७०,ट्रिपल तलाक और राम मंदिर पर आपने प्रशंसनीय कार्य किया है…आपको नमन…!
कृपया देश के शिक्षा तंत्र में भी सर्जिकल स्ट्राइक कीजिये…!!!

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

रानी लक्ष्मीबाई


अरुण सुक्ला

झांझांसी की रानी ने कहा था अंतिम क्षणों में
अंग्रेज़ों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए,
जला दो🔥
अंग्रेज़ों की तरफ़ से कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स पहला शख़्स था जिसने रानी लक्ष्मीबाई को अपनी आँखों से लड़ाई के मैदान में लड़ते हुए देखा.
उन्होंने घोड़े की रस्सी अपने दाँतों से दबाई हुई थी. वो दोनों हाथों से तलवार चला रही थीं और एक साथ दोनों तरफ़ वार कर रही थीं.
उनसे पहले एक और अंग्रेज़ जॉन लैंग को रानी लक्ष्मीबाई को नज़दीक से देखने का मौका मिला था, लेकिन लड़ाई के मैदान में नहीं, उनकी हवेली में.
जब दामोदर के गोद लिए जाने को अंग्रेज़ों ने अवैध घोषित कर दिया तो रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी का अपना महल छोड़ना पड़ा था.
उन्होंने एक तीन मंज़िल की साधारण सी हवेली ‘रानी महल’ में शरण ली थी.
रानी ने वकील जॉन लैंग की सेवाएं लीं जिसने हाल ही में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ एक केस जीता था.
गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग के कार्यकाल में ही 1857 का गदर हुआ था
‘रानी महल’ में लक्ष्मी बाई
लैंग का जन्म ऑस्ट्रेलिया में हुआ था और वो मेरठ में एक अख़बार, ‘मुफ़ुस्सलाइट’ निकाला करते थे.
लैंग अच्छी ख़ासी फ़ारसी और हिंदुस्तानी बोल लेते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासन उन्हें पसंद नहीं करता था, क्योंकि वो हमेशा उन्हें घेरने की कोशिश किया करते थे.
जब लैंग पहली बार झाँसी आए तो रानी ने उनको लेने के लिए घोड़े का एक रथ आगरा भेजा था.
उनको झाँसी लाने के लिए रानी ने अपने दीवान और एक अनुचर को आगरा रवाना किया.
अनुचर के हाथ में बर्फ़ से भरी बाल्टी थी जिसमें पानी, बियर और चुनिंदा वाइन्स की बोतलें रखी हुई थीं. पूरे रास्ते एक नौकर लैंग को पंखा करते आया था.
झाँसी पहुंचने पर लैंग को पचास घुड़सवार एक पालकी में बैठा कर ‘रानी महल’ लाए जहाँ के बगीचे में रानी ने एक शामियाना लगवाया हुआ था.
मलमल की साड़ी
रानी लक्ष्मीबाई शामियाने के एक कोने में एक पर्दे के पीछे बैठी हुई थीं. तभी अचानक रानी के दत्तक पुत्र दामोदर ने वो पर्दा हटा दिया.
लैंग की नज़र रानी के ऊपर गई. बाद में रेनर जेरॉस्च ने एक किताब लिखी, ‘द रानी ऑफ़ झाँसी, रेबेल अगेंस्ट विल.’
किताब में रेनर जेरॉस्च ने जॉन लैंग को कहते हुए बताया, ‘रानी मध्यम कद की तगड़ी महिला थीं. अपनी युवावस्था में उनका चेहरा बहुत सुंदर रहा होगा, लेकिन अब भी उनके चेहरे का आकर्षण कम नहीं था. मुझे एक चीज़ थोड़ी अच्छी नहीं लगी, उनका चेहरा ज़रूरत से ज़्यादा गोल था. हाँ उनकी आँखें बहुत सुंदर थी और नाक भी काफ़ी नाज़ुक थी.उनका रंग बहुत गोरा नहीं था. उन्होंने एक भी ज़ेवर नहीं पहन रखा था, सिवाए सोने की बालियों के. उन्होंने सफ़ेद मलमल की साड़ी पहन रखी थी, जिसमें उनके शरीर का रेखांकन साफ़ दिखाई दे रहा था.. जो चीज़ उनके व्यक्तित्व को थोड़ा बिगाड़ती थी- वो थी उनकी फटी हुई आवाज़.’
रानी के घुड़सवार
बहरहाल कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स ने तय किया कि वो खुद आगे जा कर रानी पर वार करने की कोशिश करेंगे.
लेकिन जब जब वो ऐसा करना चाहते थे, रानी के घुड़सवार उन्हें घेर कर उन पर हमला कर देते थे. उनकी पूरी कोशिश थी कि वो उनका ध्यान भंग कर दें.
कुछ लोगों को घायल करने और मारने के बाद रॉड्रिक ने अपने घोड़े को एड़ लगाई और रानी की तरफ़ बढ़ चले थे.
उसी समय अचानक रॉड्रिक के पीछे से जनरल रोज़ की अत्यंत निपुण ऊँट की टुकड़ी ने एंट्री ली. इस टुकड़ी को रोज़ ने रिज़र्व में रख रखा था.
इसका इस्तेमाल वो जवाबी हमला करने के लिए करने वाले थे. इस टुकड़ी के अचानक लड़ाई में कूदने से ब्रिटिश खेमे में फिर से जान आ गई. रानी इसे फ़ौरन भाँप गई.
उनके सैनिक मैदान से भागे नहीं, लेकिन धीरे-धीरे उनकी संख्या कम होनी शुरू हो गई.
ब्रिटिश सैनिक
उस लड़ाई में भाग ले रहे जॉन हेनरी सिलवेस्टर ने अपनी किताब ‘रिकलेक्शंस ऑफ़ द कैंपेन इन मालवा एंड सेंट्रल इंडिया’ में लिखा, “अचानक रानी ज़ोर से चिल्लाई, ‘मेरे पीछे आओ.’ पंद्रह घुड़सवारों को एक जत्था उनके पीछे हो लिया. वो लड़ाई के मैदान से इतनी तेज़ी से हटीं कि अंग्रेज़ सैनिकों को इसे समझ पाने में कुछ सेकेंड लग गए. अचानक रॉड्रिक ने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा, ‘दैट्स दि रानी ऑफ़ झाँसी, कैच हर.'”
रानी और उनके साथियों ने भी एक मील ही का सफ़र तय किया था कि कैप्टेन ब्रिग्स के घुड़सवार उनके ठीक पीछे आ पहुंचे. जगह थी कोटा की सराय.
लड़ाई नए सिरे से शुरू हुई. रानी के एक सैनिक के मुकाबले में औसतन दो ब्रिटिश सैनिक लड़ रहे थे. अचानक रानी को अपने बायें सीने में हल्का सा दर्द महसूस हुआ, जैसे किसी सांप ने उन्हें काट लिया हो.
एक अंग्रेज़ सैनिक ने, जिसे वो देख नहीं पाईं थीं, उनके सीने में संगीन भोंक दी थी. वो तेज़ी से मुड़ी और अपने ऊपर हमला करने वाले पर पूरी ताकत से तलवार से टूट पड़ी.
राइफ़ल की गोली
रानी को लगी चोट बहुत गहरी नहीं थी, लेकिन उसमें बहुत तेज़ी से ख़ून निकल रहा था. अचानक घोड़े पर दौड़ते-दौड़ते उनके सामने एक छोटा सा पानी का झरना आ गया.
उन्होंने सोचा वो घोड़े की एक छलांग लगाएंगी और घोड़ा झरने के पार हो जाएगा. तब उनको कोई भी नहीं पकड़ सकेगा.
उन्होंने घोड़े में एड़ लगाई, लेकिन वो घोड़ा छलाँग लगाने के बजाए इतनी तेज़ी से रुका कि वो करीब करीब उसकी गर्दन के ऊपर लटक गईं.
उन्होंने फिर एड़ लगाई, लेकिन घोड़े ने एक इंच भी आगे बढ़ने से इंकार कर दिया. तभी उन्हें लगा कि उनकी कमर में बाई तरफ़ किसी ने बहुत तेज़ी से वार हुआ है.
उनको राइफ़ल की एक गोली लगी थी. रानी के बांए हाथ की तलवार छूट कर ज़मीन पर गिर गई.
उन्होंने उस हाथ से अपनी कमर से निकलने वाले खून को दबा कर रोकने की कोशिश की.
रानी पर जानलेवा हमला
एंटोनिया फ़्रेज़र अपनी पुस्तक, ‘द वारियर क्वीन’ में लिखती हैं, “तब तक एक अंग्रेज़ रानी के घोड़े की बगल में पहुंच चुका था. उसने रानी पर वार करने के लिए अपनी तलवार ऊपर उठाई. रानी ने भी उसका वार रोकने के लिए दाहिने हाथ में पकड़ी अपनी तलवार ऊपर की. उस अंग्रेज़ की तलवार उनके सिर पर इतनी तेज़ी से लगी कि उनका माथा फट गया और वो उसमें निकलने वाले खून से लगभग अंधी हो गईं.”
तब भी रानी ने अपनी पूरी ताकत लगा कर उस अंग्रेज़ सैनिक पर जवाबी वार किया. लेकिन वो सिर्फ़ उसके कंधे को ही घायल कर पाई. रानी घोड़े से नीचे गिर गई.
तभी उनके एक सैनिक ने अपने घोड़े से कूद कर उन्हें अपने हाथों में उठा लिया और पास के एक मंदिर में ले लाया. रानी तब तक जीवित थीं.
मंदिर के पुजारी ने उनके सूखे हुए होठों को एक बोतल में रखा गंगा जल लगा कर तर किया. रानी बहुत बुरी हालत में थी. धीरे धीरे वो अपने होश खो रही थी.
उधर, मंदिर के अहाते के बाहर लगातार फ़ायरिंग चल रही थी. अंतिम सैनिक को मारने के बाद अंग्रेज़ सैनिक समझे कि उन्होंने अपना काम पूरा कर दिया है.
दामोदर के लिए…
तभी रॉड्रिक ने ज़ोर से चिल्ला कर कहा, “वो लोग मंदिर के अंदर गए है. उन पर हमला करो. रानी अभी भी ज़िंदा है.”
उधर, पुजारियों ने रानी के लिए अंतिम प्रार्थना करनी शुरू कर दी थी. रानी की एक आँख अंग्रेज़ सैनिक की कटार से लगी चोट के कारण बंद थी.
उन्होंने बहुत मुश्किल से अपनी दूसरी आँख खोली. उन्हें सब कुछ धुंधला दिखाई दे रहा था और उनके मुंह से रुक रुक कर शब्द निकल रहे थे, “….दामोदर… मैं उसे तुम्हारी… देखरेख में छोड़ती हूँ… उसे छावनी ले जाओ… दौड़ो उसे ले जाओ.”
बहुत मुश्किल से उन्होंने अपने गले से मोतियों का हार निकालने की कोशिश की. लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाई और फिर बेहोश हो गई.
मंदिर के पुजारी ने उनके गले से हार उतार कर उनके एक अंगरक्षक के हाथ में रख दिया, “इसे रखो… दामोदर के लिए.”
रानी का पार्थिव शरीर
रानी की साँसे तेज़ी से चलने लगी थीं. उनकी चोट से खून निकल कर उनके फेफड़ों में घुस रहा था. धीरे धीरे वो डूबने लगी थीं. अचानक जैसे उनमें फिर से जान आ गई.
वो बोली, “अंग्रेज़ों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए.” ये कहते ही उनका सिर एक ओर लुड़क गया. उनकी साँसों में एक और झटका आया और फिर सब कुछ शांत हो गया.
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने प्राण त्याग दिए थे. वहाँ मौजूद रानी के अंगरक्षकों ने आनन फानन में कुछ लकड़ियाँ जमा की और उन पर रानी के पार्थिव शरीर को रख आग लगा दी थी.
उनके चारों तरफ़ रायफलों की गोलियों की आवाज़ बढ़ती चली जा रही थी. मंदिर की दीवार के बाहर अब तक सैकड़ों ब्रिटिश सैनिक पहुंच गए थे.
मंदिर के अंदर से सिर्फ़ तीन रायफलें अंग्रेज़ों पर गोलियाँ बरसा रही थीं. पहले एक रायफ़ल शांत हुई… फिर दूसरी और फिर तीसरी रायफ़ल भी शांत हो गई.
चिता की लपटें
जब अंग्रेज़ मंदिर के अंदर घुसे तो वहाँ से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी. सब कुछ शांत था. सबसे पहले रॉड्रिक ब्रिग्स अंदर घुसा।
वहाँ रानी के सैनिकों और पुजारियों के कई दर्जन रक्तरंजित शव पड़े हुए थे. एक भी आदमी जीवित नहीं बचा था. उन्हें सिर्फ़ एक शव की तलाश थी.
तभी उसकी नज़र एक चिता पर पड़ी जिसकीं लपटें अब धीमी पड़ रही थीं. उसने अपने बूट से उसे बुझाने की कोशिश की.
तभी उसे मानव शरीर के जले हुए अवशेष दिखाई दिए. रानी की हड्डियाँ करीब करीब राख बन चुकी थीं.
इस लड़ाई में लड़ रहे कैप्टेन क्लेमेंट वॉकर हेनीज ने बाद में रानी के अंतिम क्षणों का वर्णन करते हुए लिखा, “हमारा विरोध ख़त्म हो चुका था. सिर्फ़ कुछ सैनिकों से घिरी और हथियारों से लैस एक महिला अपने सैनिकों में कुछ जान फूंकने की कोशिश कर रही थी. बार-बार वो इशारों और तेज़ आवाज़ से हार रहे सैनिकों का मनोबल बढ़ाने का प्रयास करती थी, लेकिन उसका कुछ ख़ास असर नहीं पड़ रहा था. कुछ ही मिनटों में हमने उस महिला पर भी काबू पा लिया. हमारे एक सैनिक की कटार का तेज़ वार उसके सिर पर पड़ा और सब कुछ समाप्त हो गया. बाद में पता चला कि वो महिला और कोई नहीं स्वयं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी.”
तात्या टोपे
रानी के बेटे दामोदर को लड़ाई के मैदान से सुरक्षित ले जाया गया. इरा मुखोटी अपनी किताब ‘हिरोइंस’ में लिखती हैं, “दामोदर ने दो साल बाद 1860 में अंग्रेज़ों के सामने आत्म समर्पण किया. बाद में उसे अंग्रेज़ों ने पेंशन भी दी. 58 साल की उम्र में उनकी मौत हुई. जब वो मरे तो वो पूरी तरह से कंगाल थे. उनके वंशज अभी भी इंदौर में रहते हैं और अपने आप को ‘झाँसीवाले’ कहते हैं.”
दो दिन बाद महादजी सिधिंया ने इस जीत की खुशी में जनरल रोज़ और सर रॉबर्ट हैमिल्टन के सम्मान में ग्वालियर में भोज दिया।
रानी की मौत के साथ ही विद्रोहियों का साहस टूट गया और ग्वालियर पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया।
नाना साहब वहाँ से भी बच निकले लेकिन तात्या टोपे के साथ उनके अभिन्न मित्र नवाड़ के राजा ने ग़द्दारी की
तात्या टोपे पकड़े गए और उन्हें ग्वालियर के पास शिवपुरी ले जा कर एक पेड़ से फाँसी पर लटका दिया गया ।सी की रानी ने कहा था अंतिम क्षणों में
अंग्रेज़ों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए,
जला दो🔥
अंग्रेज़ों की तरफ़ से कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स पहला शख़्स था जिसने रानी लक्ष्मीबाई को अपनी आँखों से लड़ाई के मैदान में लड़ते हुए देखा.
उन्होंने घोड़े की रस्सी अपने दाँतों से दबाई हुई थी. वो दोनों हाथों से तलवार चला रही थीं और एक साथ दोनों तरफ़ वार कर रही थीं.
उनसे पहले एक और अंग्रेज़ जॉन लैंग को रानी लक्ष्मीबाई को नज़दीक से देखने का मौका मिला था, लेकिन लड़ाई के मैदान में नहीं, उनकी हवेली में.
जब दामोदर के गोद लिए जाने को अंग्रेज़ों ने अवैध घोषित कर दिया तो रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी का अपना महल छोड़ना पड़ा था.
उन्होंने एक तीन मंज़िल की साधारण सी हवेली ‘रानी महल’ में शरण ली थी.
रानी ने वकील जॉन लैंग की सेवाएं लीं जिसने हाल ही में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ एक केस जीता था.
गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग के कार्यकाल में ही 1857 का गदर हुआ था
‘रानी महल’ में लक्ष्मी बाई
लैंग का जन्म ऑस्ट्रेलिया में हुआ था और वो मेरठ में एक अख़बार, ‘मुफ़ुस्सलाइट’ निकाला करते थे.
लैंग अच्छी ख़ासी फ़ारसी और हिंदुस्तानी बोल लेते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासन उन्हें पसंद नहीं करता था, क्योंकि वो हमेशा उन्हें घेरने की कोशिश किया करते थे.
जब लैंग पहली बार झाँसी आए तो रानी ने उनको लेने के लिए घोड़े का एक रथ आगरा भेजा था.
उनको झाँसी लाने के लिए रानी ने अपने दीवान और एक अनुचर को आगरा रवाना किया.
अनुचर के हाथ में बर्फ़ से भरी बाल्टी थी जिसमें पानी, बियर और चुनिंदा वाइन्स की बोतलें रखी हुई थीं. पूरे रास्ते एक नौकर लैंग को पंखा करते आया था.
झाँसी पहुंचने पर लैंग को पचास घुड़सवार एक पालकी में बैठा कर ‘रानी महल’ लाए जहाँ के बगीचे में रानी ने एक शामियाना लगवाया हुआ था.
मलमल की साड़ी
रानी लक्ष्मीबाई शामियाने के एक कोने में एक पर्दे के पीछे बैठी हुई थीं. तभी अचानक रानी के दत्तक पुत्र दामोदर ने वो पर्दा हटा दिया.
लैंग की नज़र रानी के ऊपर गई. बाद में रेनर जेरॉस्च ने एक किताब लिखी, ‘द रानी ऑफ़ झाँसी, रेबेल अगेंस्ट विल.’
किताब में रेनर जेरॉस्च ने जॉन लैंग को कहते हुए बताया, ‘रानी मध्यम कद की तगड़ी महिला थीं. अपनी युवावस्था में उनका चेहरा बहुत सुंदर रहा होगा, लेकिन अब भी उनके चेहरे का आकर्षण कम नहीं था. मुझे एक चीज़ थोड़ी अच्छी नहीं लगी, उनका चेहरा ज़रूरत से ज़्यादा गोल था. हाँ उनकी आँखें बहुत सुंदर थी और नाक भी काफ़ी नाज़ुक थी.उनका रंग बहुत गोरा नहीं था. उन्होंने एक भी ज़ेवर नहीं पहन रखा था, सिवाए सोने की बालियों के. उन्होंने सफ़ेद मलमल की साड़ी पहन रखी थी, जिसमें उनके शरीर का रेखांकन साफ़ दिखाई दे रहा था.. जो चीज़ उनके व्यक्तित्व को थोड़ा बिगाड़ती थी- वो थी उनकी फटी हुई आवाज़.’
रानी के घुड़सवार
बहरहाल कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स ने तय किया कि वो खुद आगे जा कर रानी पर वार करने की कोशिश करेंगे.
लेकिन जब जब वो ऐसा करना चाहते थे, रानी के घुड़सवार उन्हें घेर कर उन पर हमला कर देते थे. उनकी पूरी कोशिश थी कि वो उनका ध्यान भंग कर दें.
कुछ लोगों को घायल करने और मारने के बाद रॉड्रिक ने अपने घोड़े को एड़ लगाई और रानी की तरफ़ बढ़ चले थे.
उसी समय अचानक रॉड्रिक के पीछे से जनरल रोज़ की अत्यंत निपुण ऊँट की टुकड़ी ने एंट्री ली. इस टुकड़ी को रोज़ ने रिज़र्व में रख रखा था.
इसका इस्तेमाल वो जवाबी हमला करने के लिए करने वाले थे. इस टुकड़ी के अचानक लड़ाई में कूदने से ब्रिटिश खेमे में फिर से जान आ गई. रानी इसे फ़ौरन भाँप गई.
उनके सैनिक मैदान से भागे नहीं, लेकिन धीरे-धीरे उनकी संख्या कम होनी शुरू हो गई.
ब्रिटिश सैनिक
उस लड़ाई में भाग ले रहे जॉन हेनरी सिलवेस्टर ने अपनी किताब ‘रिकलेक्शंस ऑफ़ द कैंपेन इन मालवा एंड सेंट्रल इंडिया’ में लिखा, “अचानक रानी ज़ोर से चिल्लाई, ‘मेरे पीछे आओ.’ पंद्रह घुड़सवारों को एक जत्था उनके पीछे हो लिया. वो लड़ाई के मैदान से इतनी तेज़ी से हटीं कि अंग्रेज़ सैनिकों को इसे समझ पाने में कुछ सेकेंड लग गए. अचानक रॉड्रिक ने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा, ‘दैट्स दि रानी ऑफ़ झाँसी, कैच हर.'”
रानी और उनके साथियों ने भी एक मील ही का सफ़र तय किया था कि कैप्टेन ब्रिग्स के घुड़सवार उनके ठीक पीछे आ पहुंचे. जगह थी कोटा की सराय.
लड़ाई नए सिरे से शुरू हुई. रानी के एक सैनिक के मुकाबले में औसतन दो ब्रिटिश सैनिक लड़ रहे थे. अचानक रानी को अपने बायें सीने में हल्का सा दर्द महसूस हुआ, जैसे किसी सांप ने उन्हें काट लिया हो.
एक अंग्रेज़ सैनिक ने, जिसे वो देख नहीं पाईं थीं, उनके सीने में संगीन भोंक दी थी. वो तेज़ी से मुड़ी और अपने ऊपर हमला करने वाले पर पूरी ताकत से तलवार से टूट पड़ी.
राइफ़ल की गोली
रानी को लगी चोट बहुत गहरी नहीं थी, लेकिन उसमें बहुत तेज़ी से ख़ून निकल रहा था. अचानक घोड़े पर दौड़ते-दौड़ते उनके सामने एक छोटा सा पानी का झरना आ गया.
उन्होंने सोचा वो घोड़े की एक छलांग लगाएंगी और घोड़ा झरने के पार हो जाएगा. तब उनको कोई भी नहीं पकड़ सकेगा.
उन्होंने घोड़े में एड़ लगाई, लेकिन वो घोड़ा छलाँग लगाने के बजाए इतनी तेज़ी से रुका कि वो करीब करीब उसकी गर्दन के ऊपर लटक गईं.
उन्होंने फिर एड़ लगाई, लेकिन घोड़े ने एक इंच भी आगे बढ़ने से इंकार कर दिया. तभी उन्हें लगा कि उनकी कमर में बाई तरफ़ किसी ने बहुत तेज़ी से वार हुआ है.
उनको राइफ़ल की एक गोली लगी थी. रानी के बांए हाथ की तलवार छूट कर ज़मीन पर गिर गई.
उन्होंने उस हाथ से अपनी कमर से निकलने वाले खून को दबा कर रोकने की कोशिश की.
रानी पर जानलेवा हमला
एंटोनिया फ़्रेज़र अपनी पुस्तक, ‘द वारियर क्वीन’ में लिखती हैं, “तब तक एक अंग्रेज़ रानी के घोड़े की बगल में पहुंच चुका था. उसने रानी पर वार करने के लिए अपनी तलवार ऊपर उठाई. रानी ने भी उसका वार रोकने के लिए दाहिने हाथ में पकड़ी अपनी तलवार ऊपर की. उस अंग्रेज़ की तलवार उनके सिर पर इतनी तेज़ी से लगी कि उनका माथा फट गया और वो उसमें निकलने वाले खून से लगभग अंधी हो गईं.”
तब भी रानी ने अपनी पूरी ताकत लगा कर उस अंग्रेज़ सैनिक पर जवाबी वार किया. लेकिन वो सिर्फ़ उसके कंधे को ही घायल कर पाई. रानी घोड़े से नीचे गिर गई.
तभी उनके एक सैनिक ने अपने घोड़े से कूद कर उन्हें अपने हाथों में उठा लिया और पास के एक मंदिर में ले लाया. रानी तब तक जीवित थीं.
मंदिर के पुजारी ने उनके सूखे हुए होठों को एक बोतल में रखा गंगा जल लगा कर तर किया. रानी बहुत बुरी हालत में थी. धीरे धीरे वो अपने होश खो रही थी.
उधर, मंदिर के अहाते के बाहर लगातार फ़ायरिंग चल रही थी. अंतिम सैनिक को मारने के बाद अंग्रेज़ सैनिक समझे कि उन्होंने अपना काम पूरा कर दिया है.
दामोदर के लिए…
तभी रॉड्रिक ने ज़ोर से चिल्ला कर कहा, “वो लोग मंदिर के अंदर गए है. उन पर हमला करो. रानी अभी भी ज़िंदा है.”
उधर, पुजारियों ने रानी के लिए अंतिम प्रार्थना करनी शुरू कर दी थी. रानी की एक आँख अंग्रेज़ सैनिक की कटार से लगी चोट के कारण बंद थी.
उन्होंने बहुत मुश्किल से अपनी दूसरी आँख खोली. उन्हें सब कुछ धुंधला दिखाई दे रहा था और उनके मुंह से रुक रुक कर शब्द निकल रहे थे, “….दामोदर… मैं उसे तुम्हारी… देखरेख में छोड़ती हूँ… उसे छावनी ले जाओ… दौड़ो उसे ले जाओ.”
बहुत मुश्किल से उन्होंने अपने गले से मोतियों का हार निकालने की कोशिश की. लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाई और फिर बेहोश हो गई.
मंदिर के पुजारी ने उनके गले से हार उतार कर उनके एक अंगरक्षक के हाथ में रख दिया, “इसे रखो… दामोदर के लिए.”
रानी का पार्थिव शरीर
रानी की साँसे तेज़ी से चलने लगी थीं. उनकी चोट से खून निकल कर उनके फेफड़ों में घुस रहा था. धीरे धीरे वो डूबने लगी थीं. अचानक जैसे उनमें फिर से जान आ गई.
वो बोली, “अंग्रेज़ों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए.” ये कहते ही उनका सिर एक ओर लुड़क गया. उनकी साँसों में एक और झटका आया और फिर सब कुछ शांत हो गया.
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने प्राण त्याग दिए थे. वहाँ मौजूद रानी के अंगरक्षकों ने आनन फानन में कुछ लकड़ियाँ जमा की और उन पर रानी के पार्थिव शरीर को रख आग लगा दी थी.
उनके चारों तरफ़ रायफलों की गोलियों की आवाज़ बढ़ती चली जा रही थी. मंदिर की दीवार के बाहर अब तक सैकड़ों ब्रिटिश सैनिक पहुंच गए थे.
मंदिर के अंदर से सिर्फ़ तीन रायफलें अंग्रेज़ों पर गोलियाँ बरसा रही थीं. पहले एक रायफ़ल शांत हुई… फिर दूसरी और फिर तीसरी रायफ़ल भी शांत हो गई.
चिता की लपटें
जब अंग्रेज़ मंदिर के अंदर घुसे तो वहाँ से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी. सब कुछ शांत था. सबसे पहले रॉड्रिक ब्रिग्स अंदर घुसा।
वहाँ रानी के सैनिकों और पुजारियों के कई दर्जन रक्तरंजित शव पड़े हुए थे. एक भी आदमी जीवित नहीं बचा था. उन्हें सिर्फ़ एक शव की तलाश थी.
तभी उसकी नज़र एक चिता पर पड़ी जिसकीं लपटें अब धीमी पड़ रही थीं. उसने अपने बूट से उसे बुझाने की कोशिश की.
तभी उसे मानव शरीर के जले हुए अवशेष दिखाई दिए. रानी की हड्डियाँ करीब करीब राख बन चुकी थीं.
इस लड़ाई में लड़ रहे कैप्टेन क्लेमेंट वॉकर हेनीज ने बाद में रानी के अंतिम क्षणों का वर्णन करते हुए लिखा, “हमारा विरोध ख़त्म हो चुका था. सिर्फ़ कुछ सैनिकों से घिरी और हथियारों से लैस एक महिला अपने सैनिकों में कुछ जान फूंकने की कोशिश कर रही थी. बार-बार वो इशारों और तेज़ आवाज़ से हार रहे सैनिकों का मनोबल बढ़ाने का प्रयास करती थी, लेकिन उसका कुछ ख़ास असर नहीं पड़ रहा था. कुछ ही मिनटों में हमने उस महिला पर भी काबू पा लिया. हमारे एक सैनिक की कटार का तेज़ वार उसके सिर पर पड़ा और सब कुछ समाप्त हो गया. बाद में पता चला कि वो महिला और कोई नहीं स्वयं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी.”
तात्या टोपे
रानी के बेटे दामोदर को लड़ाई के मैदान से सुरक्षित ले जाया गया. इरा मुखोटी अपनी किताब ‘हिरोइंस’ में लिखती हैं, “दामोदर ने दो साल बाद 1860 में अंग्रेज़ों के सामने आत्म समर्पण किया. बाद में उसे अंग्रेज़ों ने पेंशन भी दी. 58 साल की उम्र में उनकी मौत हुई. जब वो मरे तो वो पूरी तरह से कंगाल थे. उनके वंशज अभी भी इंदौर में रहते हैं और अपने आप को ‘झाँसीवाले’ कहते हैं.”
दो दिन बाद महादजी सिधिंया ने इस जीत की खुशी में जनरल रोज़ और सर रॉबर्ट हैमिल्टन के सम्मान में ग्वालियर में भोज दिया।
रानी की मौत के साथ ही विद्रोहियों का साहस टूट गया और ग्वालियर पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया।
नाना साहब वहाँ से भी बच निकले लेकिन तात्या टोपे के साथ उनके अभिन्न मित्र नवाड़ के राजा ने ग़द्दारी की
तात्या टोपे पकड़े गए और उन्हें ग्वालियर के पास शिवपुरी ले जा कर एक पेड़ से फाँसी पर लटका दिया गया ।

Posted in सुभाषित - Subhasit

देवीसिंह तोमर

मनु स्मृति के अनुसार,इन पंद्रह लोगों के साथ कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए!!!!!!

ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः।
बालवृद्धातुरैर्वैधैर्ज्ञातिसम्बन्धिबांन्धवैः।।
मातापितृभ्यां यामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया।
दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्।।

अर्थात् : – यज्ञकरने,वाले,पुरोहित,आचार्य,अतिथियों,माता,पिता,मामा आदि।संबंधियों,भाई,बहन,पुत्र,पुत्री,पत्नी,पुत्रवधू,दामाद तथा,गृह सेवकों यानी नौकरों से वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

यज्ञ करने वाला : – यज्ञ करने वाला ब्राह्मण सदैव सम्मान करने योग्य होता है। यदि उससे किसी प्रकार की कोई चूक हो जाए तो भी उसके साथ कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। यदि आप ऐसा करेंगे तो इससे आपकी प्रतिष्ठा ही धूमिल होगी। अतः यज्ञ करने वाले वाले ब्राह्मण से वाद-विवाद न करने में ही भलाई है।_

पुरोहित : – यज्ञ, पूजन आदि धार्मिक कार्यों को संपन्न करने के लिए एक योग्य व विद्वान ब्राह्मण को नियुक्त किया जाता है, जिसे पुरोहित कहा जाता है। भूल कर भी कभी पुरोहित से विवाद नहीं करना चाहिए। पुरोहित के माध्यम से ही पूजन आदि शुभ कार्य संपन्न होते हैं, जिसका पुण्य यजमान (यज्ञ करवाने वाला) को प्राप्त होता है। पुरोहित से वाद-विवाद करने पर वह आपका काम बिगाड़ सकता है, जिसका दुष्परिणाम यजमान को भुगतना पड़ सकता है। इसलिए पुरोहित से कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

आचार्य : – प्राचीनकाल में उपनयन संस्कार के बाद बच्चों को शिक्षा के लिए गुरुकुल भेजा जाता था, जहां आचार्य उन्हें पढ़ाते थे। वर्तमान में उन आचार्यों का स्थान स्कूल टीचर्स ने ले लिया है। मनु स्मृति के अनुसार आचार्य यानी स्कूल टीचर्स से भी कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। वह यदि दंड भी दें तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। आचार्य (टीचर्स) हमेशा अपने छात्रों का भला ही सोचते हैं। इनसे वाद-विवाद करने पर विद्यार्थी का भविष्य भी खतरे में पड़ सकता है।

अतिथि : – हिंदू धर्म में अतिथि यानी मेहमान को भगवान की संज्ञा दी गई है इसलिए कहा जाता है मेहमान भगवान के समान होता है। उसका आवभगत ठीक तरीके से करनी चाहिए। भूल से भी कभी अतिथि के साथ वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। अगर कोई अनजान व्यक्ति भी भूले-भटके हमारे घर आ जाए तो उसे भी मेहमान ही समझना चाहिए और यथासंभव उसका सत्कार करना चाहिए। अतिथि से वाद-विवाद करने पर आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस लग सकती है।

माता : – माता ही शिशु की सबसे प्रथम शिक्षक होती है। माता 9 महीने शिशु को अपने गर्भ में धारण करती है और जीवन का प्रथम पाठ पढ़ाती है। यदि वृद्धावस्था या इसके अतिरिक्त भी कभी माता से कोई भूल-चूक हो जाए तो उसे प्यार से समझा देना चाहिए न कि उसके साथ वाद-विवाद करना चाहिए। माता का स्थान गुरु व भगवान से ही ऊपर माना गया है। इसलिए माता सदैव पूजनीय होती हैं। अतः माता के साथ कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

*पिता : – पिता ही जन्म से लेकर युवावस्था तक हमारा पालन-पोषण करते हैं। इसलिए मनु स्मृति के अनुसार पिता के साथ कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। पिता भी माता के ही समान पूज्यनीय होते हैं। हम जब भी किसी मुसीबत में फंसते हैं, तो सबसे पहले पिता को ही याद करते हैं और पिता हमें उस समस्या का समाधान भी सूझाते हैं। वृद्धावस्था में भी पिता अपने अनुभव के आधार पर हमारा मार्गदर्शन करते हैं। इसलिए पिता के साथ वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

मामा आदि संबंधी : – मामा आदि संबंधी जैसे- काका-काकी, ताऊ-ताईजी, बुआ-फूफाजी, ये सभी वो लोग होते हैं, जो बचपन से ही हम पर स्नेह रखते हैं। बचपन में कभी न कभी ये भी हमारी जरूरतें पूरी करते हैं। इसलिए ये सभी सम्मान करने योग्य हैं। इनसे वाद-विवाद करने पर समाज में हमें सभ्य नहीं समझा जाएगा और हमारी प्रतिष्ठा को भी ठेस लग सकती है। इसलिए भूल कर भी कभी मामा आदि सगे-संबंधियों से वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। यदि ऐसी स्थिति बने तो भी समझा-बूझाकर इस मामले को सुलझा लेना चाहिए।_

भाई : – हिंदू धर्म के अनुसार बड़ा भाई पिता के समान तथा छोटा भाई पुत्र के समान होता है। बड़ा भाई सदैव मार्गदर्शक बन कर हमें सही रास्ते पर चलने के प्रेरित करता है और यदि भाई छोटा है तो उसकी गलतियां माफ कर देने में ही बड़प्पन है। विपत्ति आने पर भाई ही भाई की मदद करता है। बड़ा भाई अगर परिवार रूपी वटवृक्ष का तना है तो छोटा भाई उस वृक्ष की शाखाएं। इसलिए भाई छोटा हो या बड़ा उससे किसी भी प्रकार का वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।_

बहन : – भारतीय सभ्यता में बड़ी बहन को माता तथा छोटी बह न को पुत्री माना गया है। बड़ी बहन अपने छोटे भाई-बहनों को माता के समान ही स्नेह करती है। संकट के समय सही रास्ता बताती है। छोटे भाई-बहनों पर जब भी विपत्ति आती है, बड़ी बहन हर कदम पर उनका साथ देती है।

छोटी बहन पुत्री के समान होती है। परिवार में जब भी कोई शुभ प्रसंग आता है, छोटी बहन ही उसे खास बनाती है। छोटी बहन जब घर में होती है तो घर का वातावरण सुखमय हो जाता है। इसलिए मनु स्मृति में कहा गया है कि बहन के साथ कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

पुत्र : – हिंदू धर्म ग्रंथों में पुत्र को पिता का स्वरूप माना गया है यानी पुत्र ही पिता के रूप में पुनः जन्म लेता है। शास्त्रों के अनुसार पुत्र ही पिता को पुं नामक नरक से मुक्ति दिलाता है। इसलिए उसे पुत्र कहते हैं।

पुं नाम नरक त्रायेताति इति पुत्र : – पुत्र द्वारा पिंडदान, तर्पण आदि करने पर ही पिता की आत्मा को मोक्ष प्राप्त होता है। पुत्र यदि धर्म के मार्ग पर चलने वाला हो तो वृद्धावस्था में माता-पिता का सहारा बनता है और पूरे परिवार का मार्गदर्शन करता है। इसलिए मनु स्मृति के अनुसार पुत्र से कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

पुत्री : – भारतीय संस्कृति में पुत्री को लक्ष्मी का रूप माना जाता है। कहते हैं कि भगवान जिस पर प्रसन्न होता है, उसे ही पुत्री प्रदान करता है। संभव है कि पुत्र वृद्धावस्था में माता-पिता का पालन-पोषण न करे, लेकिन पुत्री सदैव अपने माता-पिता का साथ निभाती है। परिवार में होने वाले हर मांगलिक कार्यक्रम की रौनक पुत्रियों से ही होती है। विवाह के बाद भी पुत्री अपने माता-पिता के करीब ही होती है। इसलिए पुत्री से कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।_

पत्नी : – हिंदू धर्म में पत्नी को अर्धांगिनी कहा जाता है, जिसका अर्थ है पति के शरीर का आधा अंग। किसी भी शुभ कार्य व पूजन आदि में पत्नी का साथ में होना अनिवार्य माना गया है, उसके बिना पूजा अधूरी ही मानी जाती है। पत्नी ही हर सुख-दुख में पति का साथ निभाती है। वृद्धावस्था में यदि पुत्र आदि रिश्तेदार साथ न हो तो भी पत्नी कदम-कदम पर साथ चलती है। इसलिए मनु स्मृति के अनुसार पत्नी से भी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।

पुत्रवधू* : – पुत्र की पत्नी को पुत्रवधू कहते हैं। भारतीय संस्कृति के अनुसार पुत्रवधू को भी पुत्री के समान ही समझना चाहिए। पुत्रियों के अभाव में पुत्रवधू से ही घर में रौनक रहती है। कुल की मान-मर्यादा भी पुत्रवधू के ही हाथों में होती है। परिवार के सदस्यों व अतिथियों की सेवा भी पुत्रवधू ही करती है। पुत्रवधू से ही वंश आगे बढ़ता है। इसलिए यदि पुत्रवधू से कभी कोई चूक भी हो जाए तो भी उसके साथ वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।_

गृह सेवक यानी नौकर : – मनु स्मृति के अनुसार गृह सेवक यानी नौकर से भी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए क्योंकि पुराने सेवक आपकी व आपके परिवार की कई गुप्त बातें जानता है। वाद-विवाद करने पर वह गुप्त बातें सार्वजनिक कर सकता है। जिससे आपके परिवार की प्रतिष्ठा खराब हो सकती है। इसलिए नौकर से भी कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।_

दामाद : – पुत्री के पति को दामाद यानी जमाई कहते हैं। धर्म ग्रंथों में पुत्री के पुत्र (धेवते) को पोत्र समान माना गया है। पुत्र पोत्र के न होने पर धेवता ही उससे संबंधित सभी जिम्मेदारी निभाता है तथा नाना के उत्तर कार्य (पिंडदान, तर्पण, श्राद्ध आदि) करने का अधिकारी भी होता है। दामाद से इसलिए भी विवाद नहीं करना चाहिए क्योंकि इसका असर आपकी पुत्री के दांपत्य जीवन पर भी पढ़ सकता है।

Posted in संस्कृत साहित्य

मिलनाडु के प्राचीन पंचवर्णस्वामी मंदिर की दीवाल पर साईकिल पर बैठे एक वयक्ति की मूर्ति उकीर्ण है ।।
जिसमे साफ़ तौर पर युवक सायकल पैडल मारता हुआ दिखाई दे रहा है इस तस्वीर ने पूरी दुनिया को हैरान कर दिया है।
ये मूर्ति 2000 साल पुरानी है । लेकिन साईकिल का आविष्कार तो 200 साल पहले यूरोप में हुआ था ।।
एक बात हमेशा दिमाग में घूमती है सारे बड़े बड़े आविष्कार सिर्फ 250 सालो के अंदर ही हुए जब अंग्रेज और फ्रांसीसी पुर्तगाली भारत आये इससे पहले क्यों कोई आविष्कार नही हुआ भारत आने के बाद हजारो आविष्कार कैसे होने लगे ???

विदेशी आक्रमण कारियों ने हमारे धन सम्पति के साथ साथ विज्ञान और तकनीक को भी चुराया है ।और अपने नाम से छापा है।

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

सर! मुझे पहचाना?”

“कौन?”

“सर, मैं आपका स्टूडेंट। 40 साल पहले का

“ओह! अच्छा। आजकल ठीक से दिखता नही बेटा और याददाश्त भी कमज़ोर हो गयी है। इसलिए नही पहचान पाया। खैर। आओ, बैठो। क्या करते हो आजकल?” उन्होंने उसे प्यार से बैठाया और पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा।

“सर, मैं भी आपकी ही तरह टीचर बन गया हूँ।”

“वाह! यह तो अच्छी बात है लेकिन टीचर की तनख़ाह तो बहुत कम होती है फिर तुम कैसे…?”

“सर। जब मैं सातवीं क्लास में था तब हमारी कलास में एक वाक़िआ हुआ था। उस से आपने मुझे बचाया था। मैंने तभी टीचर बनने का इरादा कर लिया था। वो वाक़िआ मैं आपको याद दिलाता हूँ। आपको मैं भी याद आ जाऊँगा।”

“अच्छा! क्या हुआ था तब?”

“सर, सातवीं में हमारी क्लास में एक बहुत अमीर लड़का पढ़ता था। जबकि हम बाक़ी सब बहुत ग़रीब थे। एक दिन वोह बहुत महंगी घड़ी पहनकर आया था और उसकी घड़ी चोरी हो गयी थी। कुछ याद आया सर?”

“सातवीं कक्षा?”

“हाँ सर। उस दिन मेरा दिल उस घड़ी पर आ गया था और खेल के पीरियड में जब उसने वह घड़ी अपने पेंसिल बॉक्स में रखी तो मैंने मौक़ा देखकर वह घड़ी चुरा ली थी।
उसके बाद आपका पीरियड था। उस लड़के ने आपके पास घड़ी चोरी होने की शिकायत की। आपने कहा कि जिसने भी वह घड़ी चुराई है उसे वापस कर दो। मैं उसे सज़ा नहीं दूँगा। लेकिन डर के मारे मेरी हिम्मत ही न हुई घड़ी वापस करने की।”

“फिर आपने कमरे का दरवाज़ा बंद किया और हम सबको एक लाइन से आँखें बंद कर खड़े होने को कहा और यह भी कहा कि आप सबकी जेब देखेंगे लेकिन जब तक घड़ी मिल नहीं जाती तब तक कोई भी अपनी आँखें नहीं खोलेगा वरना उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा।”

“हम सब आँखें बन्द कर खड़े हो गए। आप एक-एक कर सबकी जेब देख रहे थे। जब आप मेरे पास आये तो मेरी धड़कन तेज होने लगी। मेरी चोरी पकड़ी जानी थी। अब जिंदगी भर के लिए मेरे ऊपर चोर का ठप्पा लगने वाला था। मैं पछतावे से भर उठा था। उसी वक्त जान देने का इरादा कर लिया था लेकिन….लेकिन मेरी जेब में घड़ी मिलने के बाद भी आप लाइन के आख़िर तक सबकी जेब देखते रहे। और घड़ी उस लड़के को वापस देते हुए कहा, “अब ऐसी घड़ी पहनकर स्कूल नहीं आना और जिसने भी यह चोरी की थी वह दोबारा ऐसा काम न करे। इतना कहकर आप फिर हमेशा की तरह पढाने लगे थे।”कहते कहते उसकी आँख भर आई।

वह रुंधे गले से बोला, “आपने मुझे सबके सामने शर्मिंदा होने से बचा लिया। आगे भी कभी किसी पर भी आपने मेरा चोर होना जाहिर न होने दिया। आपने कभी मेरे साथ फ़र्क़ नहीं किया। उसी दिन मैंने तय कर लिया था कि मैं आपके जैसा टीचर ही बनूँगा।”

“हाँ हाँ…मुझे याद आया।” उनकी आँखों मे चमक आ गयी। फिर चकित हो बोले, “लेकिन बेटा… मैं आजतक नहीं जानता था कि वह चोरी किसने की थी क्योंकि…जब मैं तुम सबकी जेब देख कर रहा था तब मैंने भी अपनी आँखें बंद कर ली थीं।”

शिक्षक संस्कारों का
निर्माता होता है।

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शीतला दुबे

भगवान् श्री कृष्ण के जीवन से जुड़ी अनसुनी बातें…
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1. भगवान् श्री कृष्ण के खड्ग का नाम ‘नंदक’, गदा का नाम ‘कौमौदकी’ और शंख का नाम ‘पांचजन्य’ था जो गुलाबी रंग का था।

  1. भगवान् श्री कॄष्ण के परमधामगमन के समय ना तो उनका एक भी केश श्वेत था और ना ही उनके शरीर पर कोई झुर्री थीं।

3.भगवान् श्री कॄष्ण के धनुष का नाम शारंग व मुख्य आयुध चक्र का नाम ‘ सुदर्शन’ था। वह लौकिक, दिव्यास्त्र व देवास्त्र तीनों रूपों में कार्य कर सकता था उसकी बराबरी के विध्वंसक केवल दो अस्त्र और थे पाशुपतास्त्र ( शिव , कॄष्ण और अर्जुन के पास थे) और प्रस्वपास्त्र ( शिव , वसुगण , भीष्म और कृष्ण के पास थे) ।

  1. भगवान् श्री कॄष्ण की परदादी ‘मारिषा’ व सौतेली मां रोहिणी( बलराम की मां) ‘नाग’ जनजाति की थीं.

  2. भगवान श्री कॄष्ण से जेल में बदली गई यशोदापुत्री का नाम एकानंशा था, जो आज विंध्यवासिनी देवी के नाम से पूजी जातीं हैं।

  3. भगवान् श्री कॄष्ण की प्रेमिका ‘राधा’ का वर्णन महाभारत, हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण व भागवतपुराण में नहीं है। उनका उल्लेख बॄम्हवैवर्त पुराण, गीत गोविंद व प्रचलित जनश्रुतियों में रहा है।

  4. जैन परंपरा के मुताबिक, भगवान श्री कॄष्ण के चचेरे भाई तीर्थंकर नेमिनाथ थे जो हिंदू परंपरा में ‘घोर अंगिरस’ के नाम से प्रसिद्ध हैं.

  5. भगवान् श्री कॄष्ण अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी द्वारिका में 6 महीने से अधिक नहीं रहे।

  6. भगवान श्री कृष्ण ने अपनी औपचारिक शिक्षा उज्जैन के संदीपनी आश्रम में मात्र कुछ महीनों में पूरी कर ली थी।

  7. ऐसा माना जाता है कि घोर अंगिरस अर्थात नेमिनाथ के यहाँ रहकर भी उन्होंने साधना की थी.

  8. प्रचलित अनुश्रुतियों के अनुसार, भगवान श्री कॄष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था और डांडिया रास उसी का नॄत्य रूप है।

  9. कलारीपट्टु’ का प्रथम आचार्य कॄष्ण को माना जाता है। इसी कारण ‘नारायणी सेना’ भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी।

  10. भगवान श्रीकृष्ण के रथ का नाम ‘जैत्र’ था और उनके सारथी का नाम दारुक/ बाहुक था। उनके घोड़ों (अश्वों) के नाम थे शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक।

  11. भगवान श्री कृष्ण की त्वचा का रंग मेघश्यामल था और उनके शरीर से एक मादक गंध स्रावित होती थी.

  12. भगवान श्री कॄष्ण की मांसपेशियां मृदु परंतु युद्ध के समय विस्तॄत हो जातीं थीं, इसलिए सामन्यतः लड़कियों के समान दिखने वाला उनका लावण्यमय शरीर युद्ध के समय अत्यंत कठोर दिखाई देने लगता था ठीक ऐसे ही लक्ष्ण कर्ण, द्रौपदी व कॄष्ण के शरीर में देखने को मिलते थे।

  13. जनसामान्य में यह भ्रांति स्थापित है कि अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, परंतु वास्तव में कॄष्ण इस विधा में भी सर्वश्रेष्ठ थे और ऐसा सिद्ध हुआ मद्र राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में जिसकी प्रतियोगिता द्रौपदी स्वयंवर के ही समान परंतु और कठिन थी।

  14. यहां कर्ण व अर्जुन दोंनों असफल हो गये और तब श्री कॄष्ण ने लक्ष्यवेध कर लक्ष्मणा की इच्छा पूरी की, जो पहले से ही उन्हें अपना पति मान चुकीं थीं।

  15. भगवान् श्री युद्ध कृष्ण ने कई अभियान और युद्धों का संचालन किया था, परंतु इनमे तीन सर्वाधिक भयंकर थे। 1- महाभारत, 2- जरासंध और कालयवन के विरुद्ध 3- नरकासुर के विरुद्ध

  16. भगवान् श्री कृष्ण ने केवल 16 वर्ष की आयु में विश्वप्रसिद्ध चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया. मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया.

  17. भगवान् श्री कॄष्ण ने असम में बाणासुर से युद्ध के समय भगवान शिव से युद्ध के समय माहेश्वर ज्वर के विरुद्ध वैष्णव ज्वर का प्रयोग कर विश्व का प्रथम ‘जीवाणु युद्ध’ किया था।

  18. भगवान् श्री कॄष्ण के जीवन का सबसे भयानक द्वंद युद्ध सुभुद्रा की प्रतिज्ञा के कारण अर्जुन के साथ हुआ था, जिसमें दोनों ने अपने अपने सबसे विनाशक शस्त्र क्रमशः सुदर्शन चक्र और पाशुपतास्त्र निकाल लिए थे। बाद में देवताओं के हस्तक्षेप से दोंनों शांत हुए।

  19. भगवान् श्री कृष्ण ने 2 नगरों की स्थापना की थी द्वारिका (पूर्व मे कुशावती) और पांडव पुत्रों के द्वारा इंद्रप्रस्थ ( पूर्व में खांडवप्रस्थ)।

  20. भगवान् श्री कृष्ण ने कलारिपट्टू की नींव रखी जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई।

  21. भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवतगीता के रूप में आध्यात्मिकता की वैज्ञानिक व्याख्या दी, जो मानवता के लिए आशा का सबसे बडा संदेश थी, है और सदैव रहेगी।
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રામ મંદિર નિર્માણનો નિર્ણય સુપ્રીમ કોર્ટે આપ્યો તો રામ મંદિર મુદ્દે ક્રેડિટ ભાજપને શા માટે મળવી જોઈએ?

ભવ્ય-દિવ્ય રામ મંદિર નિર્માણમાં ભાજપનું બલિદાન – યોગદાન

રામ જન્મભૂમિમાં રામનો વાસ કરાવવામાં અને મંદિર નિર્માણમાં ભાજપની ભૂમિકા સૌથી મહત્વપૂર્ણ રહી

રામ મંદિર નિર્માણ મામલે ભાજપનો એક વર્ગ, ખાસ કરીને ભાજપ સમર્થકો જ ભાજપથી નારાજ હતા. કેન્દ્રમાં ભાજપની સરકાર બન્યા બાદ મોટાભાગ લોકોની મહત્વકાંક્ષા હતી કે, ભાજપ સરકારે કાયદો બનાવી રામ મંદિરનું નિર્માણ કરવું જોઈએ. એ લોકોને કોર્ટ-કચેરીથી કોઈ મતલબ ન હતો. એમને તો બસ ભાજપ સરકાર રામ મંદિરનું નિર્માણ કરે એટલું જ જોઈતું હતું. પ્રધાનમંત્રી નરેન્દ્રભાઈ મોદી – ભાજપે જ્યારે રામ મંદિર મુદ્દો ન્યાયમંદિરમાં જ ઉકેલાશે એવું કહ્યું ત્યારે અલગ-અલગ પ્રકારની વાતો થઈ ભાજપ પર આંગળી ઉઠવા લાગી હતી. એક આખા રાષ્ટ્રવાદી વર્ગને પણ આંચકો લાગી ભાજપે રામ મંદિર મુદ્દે પાછીપાની કરી તેવી ધારણા બાંધી લીધી હતી. રામ મંદિર નિર્માણ મુદ્દે કરોડો હિંદુઓને એકમાત્ર ભાજપ પાસેથી આશા-અપેક્ષા-ઈચ્છા હતી કે ભાજપ સરકાર રામ મંદિર નિર્માણ કરશે. કોર્ટમાં નહીં પરંતુ કાયદો ઘડી. આ એવા બધા લોકો હતા જેમેને અદાલતની કાર્યવાહી અને ચૂકાદાઓ અંગે પૂર્વગ્રહ હતા. પણ તેઓ એ વિચારી શકતા ન હતા કે જે વિવાદ ૫૦૦ વર્ષોથી ચાલ્યો છે તેનું નિરાકરણ લાવવામાં સમય તો લાગે જ.

રામ મંદિર મુદ્દે મોદી-શાહ અને ભાજપના ઉદ્દેશો પર શંકા થવા લાગી હતી. ઘણા નોટાવીર બની ગયા તો બીજા કેટલાંક લોકો પણ અન્ય પક્ષો સાથે જોડાઈ ગયા હતા. અહીં અભાવ તેમની પોતાની શ્રદ્ધામાં હતો પરંતુ તેઓ સેનાપતિને દોષી ગણાવવા લાગ્યા હતા. મંદિરનું નિર્માણ હોય કે હિંદુઓનાં હક્કની વાત.. ભાજપ હંમેશા ભારતીયોનો અવાજ બન્યું છે. જો માત્ર રામ મંદિર નિર્માણમાં ભાજપના પ્રયત્નો અને તેના પરિણામો વિશે વાત કરવામાં આવે તો..

🏹 સૌ પ્રથમ, લાલકૃષ્ણ અડવાણીએ રથયાત્રા કાઢીને રામ મંદિર નિર્માણનું વાતાવરણ બનાવ્યું હતું. જ્યારે યાત્રા દરમિયાન તેમની ધરપકડ કરવામાં આવી હતી ત્યારે તેમણે વી.પી.સિંઘ પાસેથી ટેકો પાછો ખેંચી કેન્દ્ર સરકારને પાડી દીધી હતી. રામ મંદિર મુદ્દે સરકારો બને છે પરંતુ આ મુદ્દે કેન્દ્ર સરકાર પડી ભાંગી હોય તેની વાત કોઈપણ કરતું નથી. બાદમાં કારસેવકો પર ગોળીબાર કર્યા બાદ ભાજપ સહિત અન્ય હિન્દુવાદી સંગઠનોનાં દબાણને કારણે મુલાયમ સરકારને પણ સરકારમાંથી વિદાય લેવી પડી હતી.

🏹 ૬ ડિસેમ્બરનાં રોજ બાબરી વિધ્વંસ મામલે કલ્યાણ સરકારે કારસેવકોને ટેકો આપ્યો અને પોલીસને ગોળીબાર કરતા અટકાવ્યા. જ્યારે ત્રણેય ઢાંચા પડી ભાંગ્યા ત્યારે એ કલ્યાણસિંહ જ હતા જેમણે એ જ સાંજે છાતી ઠોકીને કહ્યું હતું કે, અમારી સરકારમાં આ ઢાંચો તૂટ્યો છે અને હું તેની જવાબદારી જાતે લઈને કોઈપણ પ્રકારની ન્યાયિક તપાસનો સામનો કરવા તૈયાર છું. અને તેમણે જય શ્રી રામનો જયઘોષ પણ કર્યો હતો.

🏹 ભાજપનાં ઘણા નેતાઓની સાથે મુખ્યત્વે લાલકૃષ્ણ અડવાણી, મુરલી મનોહર જોશી, ઉમાભારતી, વિનય કટિયાર, વેદાંતીજી મહારાજ જેવા લોકો હજી પણ બાબરી મસ્જિદ વિધ્વંસ કેસનો સામનો કરી રહ્યાં છે.

🏹 જે એએસઆઈનાં ખોદકામનાં પુરાવા પર સુપ્રીમ કોર્ટમાં રામ મંદિર તરફેણમાં નિર્ણય આવ્યો છે એ ખોદકામ શરૂ કરવામાં તત્કાલીન અટલ બિહારી સરકાર અને મુરલી મનોહર જોશીજીનો ફાળો છે.

🏹 બાબરી વિધ્વંસ પહેલાં, કલ્યાણ સરકારે લગભગ ૭૦ એકર જમીન હસ્તગત કરીને મંદિર બનાવવાનું કામ શરૂ કર્યું હતું પરંતુ મુસ્લિમ પક્ષે હાઈકોર્ટનાં દરવાજા ખખડાવ્યા હતા અને અદાલતે સ્થાયી બાંધકામ પર રોક લગાવી દીધી હતી. પાછળથી આ જમીન કેન્દ્ર સરકારની હસ્તક આવી, જે જમીન મોદી સરકારે આ વર્ષે સુપ્રીમ કોર્ટમાં હિન્દુ પક્ષોને આપવાની વાત કહી હતી.

🏹 બીજી તરફ કોંગ્રેસ સરકારે શ્રી રામ કાલ્પનિક વ્યક્તિ છે તેવું એફિડેવિટ પણ સુપ્રીમ કોર્ટમાં જમા કરાવેલું તો ગયા વર્ષે કપિલ સિબ્બલે ચૂંટણી પહેલા રામ મંદિર મામલે નિર્ણય ન આવે તે માટે સુપ્રીમ કોર્ટમાં અરજી કરી હતી. જો અન્ય રાજકીય પક્ષોની વાત કરવામાં આવે તો.. સપાએ ગોળીઓ ચલાવી હતી અને યુપીમાં તેમની સરકાર રહી ત્યાં સુધી ક્યારેય મંદિરની તરફેણમાં નિવેદન આપ્યું ન હતું. પંચ કોસી અને ચૌરાસી કોસી યાત્રા દરમિયાન પણ મોટા અવરોધ ઉભા કર્યા હતા. આ સાથે જ ફૈઝાબાદ કોર્ટનાં ન્યાયધીશ જેમણે સૌ પ્રથમ તાળુ ખોલવાની મંજૂરી આપી હતી, મુલાયમ સરકારે તેમનું હાઈકોર્ટમાં પ્રમોશન અટકાવવા સુધી ષડયંત્ર રચેલા.

🏹 લાલુ યાદવ હોય કે વામપંથીઓ કે કોંગ્રેસીઓ.. રામ મંદિર મુદ્દે દરેકનાં ચહેરાઓ ઉઘાડા પડતા રહ્યાં છે. ત્યારે એક માત્ર ભાજપ જ હતું જેણે તેને ચૂંટણીનો મુદ્દો બનાવ્યો અને સ્પષ્ટપણે કહ્યું હતું કે, મંદિરનું નિર્માણ કાયદાકીય રીતે શાંતિ-સૌહાર્દપૂર્ણ રીતે થશે.

🏹 મોદી-યોગીજીનાં આગમન પછી અયોધ્યાને તેની દિવ્યતા-ભવ્યતા મળી. મેડિકલ કોલેજ, એરપોર્ટ સહિતની કરોડો રૂપિયાની યોજનાઓ પણ શરૂ કરવામાં આવી હતી. અહીં જ્યારે અખિલેશ કે માયાવતીની સરકાર હતી ત્યારે તેમણે એ જાણવું પણ મહત્વપૂર્ણ સમજ્યું ન હતું કે, ગોરખનાથપીઠનાં પ્રમુખ મહારાજજી છે, જેની ત્રણ પેઢીઓ મંદિર માટે લડત લડી રહી છે. તે જ સમયે યોગી સરકારે અયોધ્યામાં ૨૫૧ મીટર ઉંચી શ્રી રામ પ્રતિમાની સ્થાપના કરીને શ્રી રામનાં સ્વરૂપમાં દિવ્ય-ભવ્ય રીતે ન્યાય આપવાનું કામ શરૂ કર્યું.

🏹 રામ મંદિર મુદ્દે આ નિર્ણય મોદી સરકાર પહેલાની સરકારનાં કાર્યકાળમાં આવી શક્યો હોત પરંતુ ભાજપ સિવાય કોંગ્રેસ સહિતનાં તમામ પક્ષો રામ મંદિર મુદ્દે એટલા બધા આડા ચાલ્યા કે દેશનાં ન્યાયિક ઈતિહાસમાં પહેલીવાર સીજેઆઈને મહાભિયોગનો સામનો કરવો પડ્યો.

🏹 જ્યારે હાલનાં સીજેઆઈ જસ્ટિસ ગોગોઈએ આ કેસની દૈનિક સુનવણીની વાત કરી ત્યારે તેમના પર જાતીય શોષણનો આરોપ મૂકાયો હતો. તે સમયે અરુણ જેટલીએ એક બ્લોગ લખીને સીજેઆઈને ટેકો આપ્યો હતો. ત્યારબાદ કાયદાપ્રધાન અને મોદીજીએ પણ ન્યાયતંત્રનું ગૌરવ જાળવવાની વાત કરીને પરોક્ષ રીતે સીજેઆઇને ટેકો આપ્યો હતો.

🏹 ભાજપનાં તમામ વિરોધી પક્ષો દ્વારા કેટકેટલા દાવપેચ રમવામાં આવ્યા હતા પરંતુ આ વખતે આખરે નિર્ણય આવી ગયો છે. આ બધી બાબતો તેવા લોકોએ સમજી લેવી જોઈએ કે જેઓ હજી પણ કહે છે કે જો રામ મંદિર મુદ્દે નિર્ણય સુપ્રીમ કોર્ટ આપે તો તેની ક્રેડિટ ભાજપને કેમ મળે?

🏹 તેથી જ ભાજપે સુપ્રીમ કોર્ટથી આ નિર્ણયની આશા રાખી હતી જેથી પોતાના કે અન્ય લોકો ભલે ભાજપની ટિકા કરે પરંતુ કોર્ટનાં નિર્ણય કે રામ મંદિર મુદ્દે ભવિષ્યમાં ક્યારેય આંગળી ન ચીંધી શકે. તેથી કેન્દ્રમાં સરકાર હોવા છતાં ભાજપે રામ મંદિર મુદ્દે કાયદો બનાવવાનો વિકલ્પ પ્લાન-બી તરીકે રાખ્યો હતો.

🏹 અંતે અયોધ્યા કેસ અંગે ઐતિહાસિક નિર્ણય આપ્યા બાદ સુપ્રીમ કોર્ટે ભવ્ય-દિવ્ય રામ મંદિર બનાવવાની જવાબદારી કેન્દ્ર અને રાજ્યની ભાજપ સરકારને જ સોંપી છે પણ આ બધી બાબતો કટ્ટરવાદી લોકો સમજી નહીં શકે. આ લેખ ભવ્ય-દિવ્ય રામ મંદિર નિર્માણમાં ભાજપનું બલિદાન – યોગદાન અંગે હતો પણ હા, રામ મંદિર નિર્માણમાં અન્ય કેટલાય લોકો અને સંસ્થાઓએ પણ બલિદાન આપ્યું છે જેની વાત હવે પછીનાં લેખમાં..

– ભવ્ય રાવલ લેખક-પત્રકાર

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इस पूरी दुनिया मे “राम” शब्द का उच्चारण सबसे ज्यादा जिस भूभाग पर होता है वो भूभाग हरियाणा है ।
हरियाणा वो भूमि है जहाँ पर न सिर्फ स्वागत और अभिवादन के लिए राम राम बोलते हैं अपितु सारी दुनिया जहाँ जहाँ भगवान , ईश्वर इत्यादि शब्द प्रयोग होते हैं वहाँ हरियाणा मे राम शब्द प्रयोग किया जाता है ।
जैसे दुनिया कहेगी – भगवान देख रहा है , ईश्वर न्याय करेगा , धर्मराज के द्वार जाना है इत्यादि
लेकिन हरियाणा मे कहेंगे – राम देखै है , राम न्याय करेगा ,राम घर जाना है , राम से डर ।
हरियाणा की कहावतें भी केवल राम से संबंधित है जैसे –
हिम्मत का राम हिमायती , अंधों की मक्खी राम हटावै , राम को राम नहीं कहता , अपने को राम से बड़ा समझना ,
हरियाणा में आकाश को भी राम कहते है ।
हरियाणा मे आराम को भी राम कहते है । जैसे दुनिया कहेगी आराम से चल , आराम कर ले लेकिन हरियाणा में कहेंगे कि राम से चल , राम कर ले ।
जब कही जाना हो तो गाड़ी मे बैठने के बाद दुनिया वाले कहते हैं कि “चलो” लेकिन हरियाणा मे कहते है कि “ले राम का नाम , चाल”
हरियाणा में बारिश को भी राम कहते है । जब बूंदें होती है तो दुनिया वाले कहते हैं कि बूंदे आई थी , बहुत बारिश हूई इत्यादि । लेकिन हरियाणा में कहते हैं कि राम आया था , बहोत राम बरसा ।
जब कोई किसी का हाल चाल पूछता है तो बाकी दुनिया मे कहते है कि सब बढिय़ा है इत्यादि । लेकिन हरियाणा मे कहते हैं कि “राम रैजी स” या दया है राम की ।
हरियाणा मे गाँव को गाम कहते हैं और हरियाणवी कहावत है कि गाम राम होता है
हरियाणा के कण कण और शब्द शब्द मे राम बसता है और मुझे गर्व है स्वयं के हरियाणवी होना 🙏🏻🙏🏻 राम मंदिर के लिए बधाई आप सभी को🙏🏻🙏🏻