माधव गोयल
🌹🙏 Jai shree Laxmi mataye namah
एक नगर में एक दिन दो मृत्यु हो गई थी !
बड़ी दिलचस्प घटना हुई थी ।
एक योगी और एक वेश्या —-
दोनों एक ही दिन एक ही घडी में संसार से चल दिए थे । दोनों का आवास भी आमने-सामने ही । दोनों जीए भी साथ ही साथ और मरे भी साथ ही साथ । एक और गहरा आश्चर्य भी था। वह तो योगी और वेश्या को छोड़ और किसी को ज्ञात नहीं है। जैसे ही उनकी मृत्यु हुई, वैसे ही उन्हें ले जाने के लिए ऊपर से दूत आए, लेकिन वे दूत वेश्या को लेकर स्वर्ग की ओर चले और
योगी को लेकर नर्क की ओर ।
योगी ने कहा: “मित्रो, निश्चय ही कुछ भूल हो गई है। वेश्या को स्वर्ग की और लिये जाते हो और मुझे नर्क की और? यह कैसा अन्याय है–यह कैसा अंधेर है?” उन दूतों ने कहा: “नहीं महानुभाव, न भूल है न अन्याय, न अंधेर! कृपाकर थोड़ा नीचे देखें। ” योगी ने नीचे धरती की और देखा ! वहां उसके शरीर को फूलों से सजाया गया था और उसका विशाल जलूस निकाला जा रहा था! हजारों- हजारों लोग रामधुन गाते हुए, उसके शरीर को शमशान की और ले जा रहे थे! वहां उसके लिए चंदन की चिता तैयार थी,
दूसरी तरफ सड़क के किनारे वेश्या की लाश पड़ी थी। उसे कोई उठाने वाला भी नहीं था, इसलिए गीध और कुत्ते उसे फाड़-फाड़कर खा रहे थे। यह देख वह योगी बोला: “धरती के लोग ही कहीं ज्यादा न्याय कर रहे है। ”
उन दूतों ने उत्तर दिया: “क्योंकि धरती के लोग केवल वही जानते है, जो बाहर था। शरीर से ज्यादा गहरी उनकी पहुंच नहीं !
असली सवाल तो शरीर का नहीं, मन का है। शरीर से तुम सन्यासी थे, किंतु मन में तुम्हारे क्या था? क्या सदा ही तुम्हारा मन वेश्या में अनुरक्त नहीं था? क्या सदा ही तुम्हारे मन में यह वासना नहीं जागती रही कि उधर वेश्या के घर में कैसा सुंदर संगीत और नृत्य चल रहा है, वहां बड़ा आनंद आता होगा और मेरा जीवन कैसा नीरस है। और उधर वह वेश्या, वह निरंतर ही सोचती थी कि योगी का जीवन कैसा आनंदपूर्ण है। रात्रि को जब तुम भजन गाते थे तो वह भाव-विभोर हो रोती थी। इधर सन्यासी के अहंकार से तुम भरते जा रहे थे, उधर पाप की पीड़ा से वह विनम्र होती जाती थी। तुम अपने तथा कथित ज्ञान के कारण कठोर होते गए और वह अपने अज्ञान- बोध के कारण सरल।
अंतत तुम्हारा अहंकारग्रस्त व्यक्तित्व बचा और उसका अहंशून्य! मृत्यु के क्षण में तुम्हारे चित्त् में अहंकार था, वासना थी! उसके चित्त् में न अहंकार था, न वासना। उसका चित्त् तो परमात्मा के प्रकाश, प्रेम और प्रार्थना से परिपूर्ण था!” जीवन का सत्य बाह्य आचरण में नहीं है। फिर बाह्य के परिवर्तन से क्या होगा? सत्य है बहुत आंतरिक—आत्यंतिक रूप से आंतरिक। उसे जानने और पाने के लिए व्यक्तित्व की परिधि पर नहीं, केंद्र पर श्रम करना होता है! उस केंद्र को खोजो। खोजने से वह निश्चय ही मिलता है, क्योंकि वह स्वयं में ही तो छिपा है! धर्म परिधि का परिवर्तन नहीं, अंतस की क्रांति है !धर्म परिधि पर अभिनय नहीं, केंद्र पर श्रम है। धर्म श्रम है, स्वयं पर! उस श्रम से ही स्व मिटता और सत्य उपलब्ध होता है !
🌹 🙏 Jai Shree Laxmi mataye namah Ji