कटघरे में खड़े मुल्ला नसरुद्दीन को संबोधित करते हुए जज ने कहा, बड़े मियां, तुम्हें बार-बार कचहरी आते शर्म नहीं आती! मुल्ला नसरुद्दीन ने इत्मीनान से जज की ओर उन्मुख होकर उत्तर देते हुए कहा, हजूर, मैं तो कभी-कभी आता हूं। मगर आप तो रोज आते हैं!
इसी जज ने एक बार पुनः मुल्ला नसरुद्दीन से कहा, मुल्ला, तुमने अपने मित्र को कुर्सी से क्यों मारा? नसरुद्दीन ने बड़ी मासूमियत से कहा, हुजूर, मेज मुझसे उठाई न गई!
जड़मति तो जड़मति ही है। अभ्यास से नहीं होगा। फिर क्या किया जाए? क्या जड़मति के लिए कोई उपाय ही नहीं?
नहीं, उपाय है–जागरण, होश, साक्षी-भाव। तुम अपनी बुद्धि की जड़ता को भीतर बैठ कर देखो भर। द्रष्टा बनो। कुछ करो मत। करोगे तो ईंट घिसोगे, करोगे तो अभ्यास हो जाएगा। करने से कुछ लाभ न होगा। करो ही मत कुछ। क्योंकि करने में तुम्हारी जड़मति का ही हाथ होगा। कृत्य तो तुम्हारी बुद्धि से ही निकलेंगे।
एक जैन मुनि शाकाहार के संबंध में प्रवचन दे रहा था। बड़ी प्रशंसा कर रहा था पशु-पक्षियों की, कि उनमें भी आत्मा है, उनमें भी जीवन है; और जो दूसरे को दुख देगा, वह खुद दुख पाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन सुन रहा था। एकदम खड़ा हो गया। और उसने कहा, आप बिलकुल ठीक कहते हैं। एक बार एक मछली ने मेरे प्राण बचाए थे। मुनि तो बहुत आनंदित हुआ। मुल्ला को पास बिठाया, पीठ थपथपायी। और लोगों से कहा, देखो, प्रत्यक्ष प्रमाण। और तुम मछलियों को खाते हो! मुल्ला से कहा, तू मेरे पास ही रुक। तू प्रत्यक्ष प्रमाण है।
जब भी मुनि प्रवचन देते, मुल्ला को दिखाते कि देखो, यह मुल्ला! क्यों मुल्ला, कहो लोगों से! मुल्ला कहता कि मछली ने एक बार मेरी जान बचाई थी।
कई दिन बीत गए। एक दिन मुनि ने पूछा, लेकिन तुम जरा विस्तार से तो कहो। कब बचाई थी? कैसे बचाई थी? मुल्ला ने कहा, वह आप न पूछें तो ठीक। एक बार मैं बिलकुल भूखा था। और एक मछली को खाकर ही बचा। नहीं तो बस जान गई ही गई थी। मैं मछली का बहुत ऋणी हूं!
तुम्हारा व्यक्तित्व, तुम्हारा कृत्य, तुम्हारे वक्तव्य, तुम्हारी साधना, तुम्हारा अभ्यास, तुम्हारे उपवास, व्रत, नियम इत्यादि कौन साधेगा? कौन करेगा? तुम हो कौन? लेकिन एक तत्व तुम्हारे भीतर है, जो तुम नहीं हो। बस वही तुम्हारी एकमात्र आशा है। तुम्हारे भीतर एक द्रष्टा-भाव है, एक साक्षी-भाव है, जो तुम नहीं हो। बस वही साक्षी-भाव जगाना है।
और ध्यान रहे, साक्षी-भाव का अभ्यास नहीं करना होता। वह तो है ही। सिर्फ स्मरण काफी है। इसलिए बुद्ध ने कहा है: सम्यक स्मृति। सम्मासति। संतों ने कहा है: सुरति। जार्ज गुरजिएफ कहता था: सेल्फ रिमेंबरिंग। अभ्यास नहीं–सिर्फ आत्म-स्मरण।
राह पर चल रहे हो, अपने को चलता हुआ देखो। बैठे हो, अपने को बैठा हुआ देखो। भोजन कर रहे हो, अपने को भोजन करता हुआ देखो। बोल रहे हो–बोलता। सुन रहे हो–सुनता। ऐसा अपने को देखो। जैसा हो रहा है, वैसा अपने को देखो। रात बिस्तर पर लेटते-लेटते अपने को बिस्तर पर लेटते देखो। झपकी आने लगी। आखिर-आखिर तक देखते रहो, देखते रहो कि नींद उतर रही, नींद उतर रही। यह उतरी, यह उतरी, यह परदा गिरा।
ओशो