संजीव सुक्ला
🔴दर्पण
एक राजधानी में एक संध्या बहुत स्वागत की तैयारियां हो रही थीं। सारा नगर दीयों से सजाया गया था। रास्तों पर बड़ी भीड़ थी और देश का सम्राट खुद गांव के बाहर एक संन्यासी की प्रतीक्षा में खड़ा था। एक संन्यासी का आगमन हो रहा था। और जो संन्यासी आने को था नगर में, सम्राट के बचपन के मित्रों में से था। उस संन्यासी की दूर-दूर तक सुगंध पहुंच गई थी। उसके यश की खबरें दूर-दूर के राष्ट्रों तक पहुंच गई थीं। और वह अपने ही गांव में वापस लौटता था, तो स्वाभाविक था कि गांव के लोग उसका स्वागत करें। और सम्राट भी बड़ी उत्सुकता से उसकी प्रतीक्षा में नगर के द्वार पर खड़ा था।
संन्यासी आया, उसका स्वागत हुआ, संन्यासी को राजमहल में लेकर सम्राट ने प्रवेश किया। उसकी कुशलक्षेम पूछी। वह सारी पृथ्वी का चक्कर लगा कर लौटा था। राजा ने अपने मित्र उस संन्यासी से कहा, सारी पृथ्वी घूम कर लौटे हो, मेरे लिए क्या ले आए हो? मेरे लिए कोई भेंट?
संन्यासी ने कहा, मुझे भी खयाल आया था, पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटूं तो तुम्हारे लिए कुछ लेता चलूं। बहुत चीजें खयाल में आईं, लेकिन जो चीज भी मैंने लानी चाही, साथ में खयाल आया, तुम बड़े सम्राट हो, निश्चित ही यह चीज भी तुमने अब तक पा ली होगी। तुम्हारे महलों में किस बात की कमी होगी, तुम्हारी तिजोरियों में जो भी पृथ्वी पर सुंदर है, बहुमूल्य है, पहुंच गया होगा, और मैं हूं गरीब फकीर, नग्न फकीर, मैं तुम्हें क्या ले जा सकूंगा। बहुत खोजा, लेकिन जो भी खोजता था यही खयाल आता था तुम्हारे पास होगा और जो तुम्हारे पास हो उसे दुबारा ले जाने का कोई अर्थ न था। फिर भी एक चीज मैं ले आया हूं। और मैं सोचता हूं, वह तुम्हारे पास नहीं होगी।
सम्राट भी विचार में पड़ गया कि यह क्या ले आया होगा? उसके पास कुछ दिखाई भी न पड़ता था, सिवाय एक झोले के। उस झोले में क्या हो सकता था? आप भी कल्पना न कर सकेंगे, वह उस झोले में क्या ले आया था? कोई भी कल्पना न कर सकेगा वह क्या ले आया था? उसने झोले को खोला और एक बड़ी सस्ती सी और एक बड़ी सामान्य सी चीज उसमें से निकाली। एक आईना, एक दर्पण। और सम्राट को दिया और कहा, यह दर्पण मैं तुम्हारे लिए भेंट में लाया हूं, ताकि तुम इसमें स्वयं को देख सको।
दर्पण राजा के भवन में बहुत थे, दीवारें दर्पणों से ढकी थीं। राजा ने कहा, दर्पण तो मेरे महल में बहुत हैं। लेकिन उस फकीर ने कहा, होंगे जरूर, लेकिन तुमने उनमें शायद ही स्वयं को देखा हो। मैं जो दर्पण लाया हूं इसमें तुम खुद को देखने की कोशिश करना।
जमीन पर बहुत ही कम लोग हैं जो खुद को देखने में समर्थ हो पाते हैं। और वह व्यक्ति जो स्वयं को नहीं देख पाता, वह चाहे सारी पृथ्वी देख डाले, तो भी मानना कि वह अंधा था, उसके पास आंखें नहीं थीं। क्योंकि जो आंखें स्वयं को देखने में समर्थ न हो पाएं, वे आंखें ही नहीं।♣️