Posted in गौ माता - Gau maata

🌸🌼 गाय का अर्थतंञ और
किसान का स्वावलंबन 🌸🌺

गौ एक फायदे अनेक

डॉ. शरद कबले, सुरत, गुजरात 🌴🌴

मीञो , प्रतीदिन एक गाय को जादा से जादा ३० किलो चारा चाहिए

२० किलो हरा चारा एवम् १० किलो सुखा चारा

मतलब प्रती वर्ष ३६५*१०= ३६५० किलो सुखा चारा

ईस चारे का जादा से जादा मुल्य ३६५० /- रूपये है

जो की किसान का अपने खेत का ही होगा

अब रही बात हरे चारे की तो समझीए मेहंगा विकल्प भी चुने तो हायड्रोपोनीक चारा एक बढीया विकल्प है

प्रतीदिन २० किलो हायड्रोपोनीक चारा हेतू २ किलो गेव्हू / मका चाहिए

मतलब सालाना ३६५*२ = ७३० किलो

१५०० रू. प्रती क्वींटल के हिसाब से ईसका मुल्य हूआ ७३०*१५ = १०,६५०
कुल खर्च १०,६५०+ ३,६५० = १४,३००/-

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कुल आय
१) गौ मुञ कमसे कम ३ से ४ लिटर प्रती दिन

मतलब कम से कम १००० लिटर प्रती वर्ष

जैविक व प्राकृतीक खेती कर रहे किसानो को गौ मुञ का महत्व पता ही है

शुध्द देसी गाय का जो की रसायन मुक्त चारा खाती है ऐसी गौ माता का गौमुञ का कम से कम मुल्य १० रू प्रती लीटर चल ही रहा है

ईसी गौ मुञ से बना अर्क २०० रू प्रती लीटर मीलता है
पर हम यहा केवल गौ मुञ की बात करेंगे जो की कृषी मे ईस्तमाल होगा !
मुल्य १०००१० = १०,०००/- प्रती वर्ष
एक गौ से प्रतीदिन गोबर कम से कम १० किलो मीलेगा
ईसमे गाय का बचा हूआ न खाया हूआ चारा
+ कीचन वेस्ट से बायोगेस बनकर
कमसे कम १० किलो स्लरी खाद (Solid) मीलेगा
स्लरी खाद का महत्व तो सभी जानते ही है
ईस खाद का मुल्य ३ रू प्रती किलो
मतलब १०
३ = ३० रू. प्रतीदिन
मतलब ३०*३६५ = १०,९५०/-
ईसतरह कुल आय = १०,९५०+ १०,०००= २०९५०
+ गोबर गेस का प्रती माह ५०० के मुताबीक
६००० प्रती वर्ष
मतलब कुल आय २६,९५० /-

और कुल खर्च १४,३००/-

१२,६५०/-
ईसमे पाणी का खर्च भी यदी जोडते है
तो भी २० लीटर प्रतीदिन *३६५ = ७३०० लीटर पाणी का खर्च टेंकर से लाए तो भी
जादा से जादा १००० रू होता है

तब भी ११,६५० का नेट फायदा प्रती वर्ष
मतलब २००० प्रती माह फायदा

ईसका मतलब दुध न देनेवाली गाय से भी किसान को प्रती माह कम से कम २००० का अतीरीक्त फायदा ही होगा

और यदि दुध देनेवाली गौ माता हो तो फीर तो
+ दुध, दही ,घी और छाछ का मुल्य तो आप सब जानते ही है

ना खाद खरिदने की जरूरत
ना ही किटनाशक
ना रसोई का सरकारी सीलेंडर
ना ही मेंहगी दवाईया
( यदि गौ मुञ अर्क पीया जाए तो बीमारीया दूर ही रहती है )
ना दुध खरिदना पडेगा
ना घी ना ही छाछ

मतलब आपकी कृषी भी शुध्द खाद से समृध्द और आप स्वावलंबी भी बनेंगे
जादा जाणकारी के लिए आप हमारे टेलिग्राम पर जहारमूक्त खेती ग्रुप से जुडीये.

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Posted in सुभाषित - Subhasit

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष :

#अरण्यानी_सूक्त

अरण्यान्यरण्यान्यसौ या प्रेव नश्यसि
कथाग्रामं न पृछसि न त्वा भीरिव विन्दतीऽऽऽन्
हे अरण्य देवते! वन में जो तू देखते-देखते ही अन्तर्धान हो जाती है, वह तू नगर-ग्राम की कुछ विचारणा कैसे नहीं करती? निर्जन अरण्य में ही क्यों जाती हो? तुझे डर भी नहीं लगता?

वृषारवाय वदते यदुपावति चिच्चिकः
आघाटिभिरिवधावयन्नरण्यानिर्महीयते
ओर से बड़ी आवाज़ से शब्द करनेवाले प्राणी के समीप जब ची-ची शब्द करनेवाले प्राणी प्राप्त होता है, उस समय मानो वीणा के स्वरों के समान स्वरोच्चारण करके अरण्य देवता का यशोगान करता है।

उत गाव इवादन्त्युत वेश्मेव दृश्यते
उतो अरण्यानिःसायं शकटीरिव सर्जति
और गौवों के समान अन्य प्राणि भी इस अरण्य में रहते हैं और लता-गुल्म आदि गृह के समान दिखाई देते हैं। और सायंकाल के समय वन से विपुल गाड़ियाँ चारा, लकड़ी आदि लेकर निकलती हैं- मानो अरण्यदेवता उन्हें अपने घर भेज रहे हैं।

गामङ्गैष आ ह्वयति दार्वङ्गैषो अपावधीत्
वसन्नरण्यान्यां सायमक्रुक्षदिति मन्यते
हे अरण्य देवता! यह एक पुरुष गाय को बुला रहा है और दूसरा काष्ठ काट रहा है। रात्रि में अरण्य में रहनेवाला मनुष्य नानाविध शब्द सुनकर कोई भयभीत होकर पुकारता है, ऐसे मानता है।

न वा अरण्यानिर्हन्त्यन्यश्चेन्नाभिगछति
स्वादोःफलस्य जग्ध्वाय यथाकामं नि पद्यते
अरण्यानि किसी की हिंसा नहीं करती। और दूसरा भी कोई उस पर आक्रमण नहीं करता। वह मधुर फलों का आहार करके अपनी इच्छा के अनुसार सुख से रहता है।

आञ्जनगन्धिं सुरभिं बह्वन्नामकृषीवलाम्
प्राहम्मृगाणां मातरमरण्यानिमशंसिषम्
कस्तूरी आदि उत्तम सुवास से युक्त, सुगंधी, विपुल फल-मूलादि भक्ष्य अन्न से पूर्ण, कृषिवलों से रहित और मृगों की माता- ऐसी अरण्यानि की मैं स्तुति करता हूँ।
—#ऋग्वेद, 10.146.1-6

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

सर्वनाश का द्वार
Jai ho. ….
Radhe radhe. ….
एक ब्राह्मण दरिद्रता से बहुत दुखी होकर राजा के यहां धन याचना करने के लिए चल पड़ा। कई दिन की यात्रा करके राजधानी पहुंचा और राजमहल में प्रवेश करने की चेष्टा करने लगा।
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उस नगर का राजा बहुत चतुर था। वह सिर्फ सुपात्रों को दान देता था। याचक सुपात्र है या कुपात्र इसकी परीक्षा होती थी। परीक्षा के लिए राजमहल के चारों दरवाजों पर उसने समुचित व्यवस्था कर रखी थी।
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ब्राह्मण ने महल के पहले दरवाजे में प्रवेश किया ही था कि एक वेश्या निकल कर सामने आई। उसने राजमहल में प्रवेश करने का कारण ब्राह्मण से पूछा।
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ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि मैं राजा से धन याचना के लिए आया हूं। इसलिए मुझे राजा से मिलना आवश्यक है ताकि कुछ धन प्राप्तकर अपने परिवार का गुजारा कर लूं।
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वेश्या ने कहा- महोदय आप राजा के पास धन मांगने जरूर जाएं पर इस दरवाजे पर तो मेरा अधिकार है। मैं अभी कामपीड़ित हूं। आप यहां से अन्दर तभी जा सकते हैं जब मुझसे रमण कर लें। अन्यथा दूसरे दरवाजे से जाइए।
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ब्राह्मण को वेश्या की शर्त स्वीकार न हुई। अधर्म का आचरण करने की अपेक्षा दूसरे द्वार से जाना उन्हें पसंद आया। वहां से लौट आये और दूसरे दरवाजे पर जाकर प्रवेश करने लगे।
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दो ही कदम भीतर पड़े होंगे कि एक प्रहरी सामने आया। उसने कहा इस दरवाजे पर महल के मुख्य रक्षक का अधिकार है। यहां वही प्रवेश कर सकता है जो हमारे स्वामी से मित्रता कर ले। हमारे स्वामी को मांसाहार अतिप्रिय है। भोजन का समय भी हो गया है इसलिए पहले आप भोजन कर लें फिर प्रसन्नता पूर्वक भीतर जा सकते हैं। आज भोजन में हिरण का मांस बना है।
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ब्राह्मण ने कहा कि मैं मांसाहार नहीं कर सकता। यह अनुचित है। प्रहरी ने साफ-साफ बता दिया कि फिर आपको इस दरवाजे से जाने की अनुमति नहीं मिल सकती। किसी और दरवाजे से होकर महल में जाने का प्रयास कीजिए।
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तीसरे दरवाजे में प्रवेश करने की तैयारी कर ही रहा था कि वहां कुछ लोग मदिरा और प्याले लिए बैठे मदिरा पी रहे थे। ब्राह्मण उन्हें अनदेखा करके घुसने लगा तो एक प्रहरी आया और कहा थोड़ा हमारे साथ मद्य पीयो तभी भीतर जा सकते हो। यह दरवाजा सिर्फ उनके लिए है जो मदिरापान करते हैं। ब्राह्मण ने मद्यपान नहीं किया और उलटे पांव चौथे दरवाजे की ओर चल दिया।
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चौथे दरवाजे पर पहुंचकर ब्राह्मण ने देखा कि वहां जुआ हो रहा है। जो लोग जुआ खेलते हैं वे ही भीतर घुस पाते हैं। जुआ खेलना भी धर्म विरुद्ध है।
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ब्राह्मण बड़े सोच-विचार में पड़ा। अब किस तरह भीतर प्रवेश हो, चारों दरवाजों पर धर्म विरोधी शर्तें हैं। पैसे की मुझे बहुत जरूरत है इसलिए भीतर प्रवेश करना भी जरूरी है। एक ओर धर्म था तो दूसरी ओर धन। दोनों के बीच घमासान युद्ध उसके मस्तिष्क में होने लगा। ब्राह्मण जरा सा फिसला।
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उसने सोचा जुआ छोटा पाप है। इसको थोड़ा सा कर लें तो तनिक सा पाप होगा। मेरे पास एक रुपया बचा है। क्यों न इस रुपये से जुआ खेल लूं और भीतर प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाऊं। विचारों को विश्वास रूप में बदलते देर न लगी। ब्राह्मण जुआ खेलने लगा। एक रुपये के दो हुए, दो के चार, चार के आठ, जीत पर जीत होने लगी। ब्राह्मण राजा के पास जाना भूल गया और अब जुआ खेलने लगा। जीत पर जीत होने लगी। शाम तक हजारों रुपयों का ढेर जमा हो गया। जुआ बन्द हुआ। ब्राह्मण ने रुपयों की गठरी बांध ली. दिन भर से खाया कुछ न था। भूख जोर से लग रही थी। पास में कोई भोजन की दुकान न थी। ब्राह्मण ने सोचा रात का समय है कौन देखता है चलकर दूसरे दरवाजे पर मांस का भोजन मिलता है वही क्यों न खा लिया जाए?
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स्वादिष्ट भोजन मिलता है और पैसा भी खर्च नहीं होता, दोहरा लाभ है। जरा सा पाप करने में कुछ हर्ज नहीं। मैं तो लोगों के पाप के प्रायश्चित कराता हूं। फिर अपनी क्या चिंता है, कर लेंगे कुछ न कुछ। ब्राह्मण ने मांस मिश्रित स्वादिष्ट भोजन को छककर खाया।
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अस्वाभाविक भोजन को पचाने के लिए अस्वाभाविक पाचक पदार्थों की जरूरत पड़ती है। तामसी, विकृत भोजन करने वाले अक्सर पान, बीड़ी, शराब की शरण लिया करते हैं। कभी मांस खाया न था। इसलिए पेट में जाकर मांस अपना करतब दिखाने लगा। अब उन्हें मद्यपान की आवश्यकता महसूस हुई। आगे के दरवाजे की ओर चले और मदिरा की कई प्यालियां चढ़ाई। अब वह तीन प्रकार के नशे में थे। धन काफी था साथ में सो धन का नशा, मांसाहार का नशा और मदिरा भी आ गई थी।
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कंचन के बाद कुछ का, सुरा के बाद सुन्दरी का, ध्यान आना स्वाभाविक है। पहले दरवाजे पर पहुंचे और वेश्या के यहां जा विराजे। वेश्या ने उन्हें संतुष्ट किया और पुरस्कार स्वरूप जुए में जीता हुआ सारा धन ले लिया।
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एक पूरा दिन चारों द्वारों पर व्यतीत करके दूसरे दिन प्रातःकाल ब्राह्मण महोदय उठे। वेश्या ने उन्हें घृणा के साथ देखा और शीघ्र घर से निकाल देने के लिए अपने नौकरों को आदेश दिया। उन्हें घसीटकर घर से बाहर कर दिया गया।
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राजा को सारी सूचना पहुंच चुकी थी। ब्राह्मण फिर चारों दरवाजों पर गया और सब जगह खुद ही कहा कि वह शर्तें पूरी करने के लिए तैयार है प्रवेश करने दो पर आज वहां शर्तों के साथ भी कोई अंदर जाने देने को राजी न हुआ। सब जगह से उन्हें दुत्कार दिया गया। ब्राह्मण को न माया मिली न राम! “जरा सा” पाप करने में कोई बड़ी हानि नहीं है, यही समझने की भूल में उसने धर्म और धन दोनों गंवा दिए।
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अपने ऊपर विचार करें कहीं ऐसी ही गलतियां हम भी तो नहीं कर रहे हैं। किसी पाप को छोटा समझकर उसमें एक बार फंस जाने से फिर छुटकारा पाना कठिन होता है। जैसे ही हम बस एक कदम नीचे की ओर गिरने के लिए बढ़ा देते हैं फिर पतन का प्रवाह तीव्र होता जाता है और अन्त में बड़े से बड़े पापों के करने में भी हिचक नहीं होती। हर पाप के लिए हम खोखले तर्क भी तैयार कर लेते हैं पर याद रखें जो खोखला है वह खोखला है। छोटे पापों से भी वैसे ही बचना चाहिए जैसे अग्नि की छोटी चिंगारी से सावधान रहते हैं। सम्राटों के सम्राट परमात्मा के दरबार में पहुंचकर अनन्त रूपी धन की याचना करने के लिए जीव रूपी ब्राह्मण जाता है
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*प्रवेश द्वार काम, क्रोध लोभ, मोह के चार पहरेदार बैठे हुए हैं। वे जीव को तरह-तरह से बहकाते हैं और अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यदि जीव उनमें फंस गया तो पूर्व पुण्यों रूपी गांठ की कमाई भी उसी तरह दे बैठता है जैसे कि ब्राह्मण अपने घर का एक रुपया भी दे बैठा था। जीवन इन्हीं पाप जंजालों में व्यतीत हो जाता है और अन्त में वेश्या सरूपी ममता के द्वार से दुत्कारा जाकर रोता पीटता इस संसार से विदा होता है। रखना कहीं हम भी उस ब्राह्मण की नकल तो नहीं कर रहे हैं। कोई भी व्यक्ति दो के समक्ष कुछ नहीं छुपा सकता। एक तो वह स्वयं और दूसरा ईश्वर। हमारी अंतरात्मा हमें कई बार हल्का सा ही सही एक संकेत देती जाती हैं कि आप जो कर रहे हैं वह उचित नहीं है। हमें सही को चुनना है।….radhe radhe. …

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

दिनेश प्रताप सिंह

बिना मृत्यु के पुनर्जन्म !
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एक चोर ने राजा के महल में चोरी की। सिपाहियों को पता चला तो उन्होंने उसके पदचिह्नों का पीछा किया।
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पीछा करते-करते वे नगर से बाहर आ गये। पास में एक गाँव था। उन्होंने चोर के पदचिह्न गाँव की ओर जाते देखे।
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गाँव में जाकर उन्होंने देखा कि एक संत सत्संग कर रहे हैं और बहुत से लोग बैठकर सुन रहे हैं। चोर के पदचिह्न भी उसी ओर जा रहे थे।
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सिपाहियों को संदेह हुआ कि चोर भी सत्संग में लोगों के बीच बैठा होगा। वे वहीं खड़े रह कर उसका इंतजार करने लगे।
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सत्संग में संत कह रहे थे-जो मनुष्य सच्चे हृदय से भगवान की शरण चला जाता है, भगवान उसके सम्पूर्ण पापों को माफ कर देते हैं।
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गीता में भगवान ने कहा हैः
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।
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सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को मुझमें त्याग कर तू केवल एक मुझ सर्व शक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।
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वाल्मीकि रामायण में आता हैः
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम।।
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जो एक बार भी मेरी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कह कर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है।
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इसकी व्याख्या करते हुए संत श्री ने कहाः जो भगवान का हो गया, उसका मानों दूसरा जन्म हो गया।
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अब वह पापी नहीं रहा, साधु हो गया।
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अपिचेत्सुदाराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।
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अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिए।
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कारण कि उसने बहुत अच्छी तरह से निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।
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चोर वहीं बैठा सब सुन रहा था। उस पर सत्संग की बातों का बहुत असर पड़ा।
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उसने वहीं बैठे-बैठे यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि ‘अभी से मैं भगवान की शरण लेता हूँ, अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा। मैं भगवान का हो गया।
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सत्संग समाप्त हुआ। लोग उठकर बाहर जाने लगे।
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बाहर राजा के सिपाही चोर की तलाश में थे। चोर बाहर निकला तो सिपाहियों ने उसके पदचिह्नों को पहचान लिया और उसको पकड़ के राजा के सामने पेश किया।
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राजा ने चोर से पूछाः इस महल में तुम्हीं ने चोरी की है न ? सच-सच बताओ, तुमने चुराया धन कहाँ रखा है ?
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चोर ने दृढ़ता पूर्वक कहाः “महाराज ! इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की।”
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सिपाही बोलाः “महाराज ! यह झूठ बोलता है। हम इसके पदचिह्नों को पहचानते हैं। इसके पदचिह्न चोर के पदचिह्नों से मिलते हैं, इससे साफ सिद्ध होता है कि चोरी इसी ने की है।”
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राजा ने चोर की परीक्षा लेने की आज्ञा दी, जिससे पता चले कि वह झूठा है या सच्चा।
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चोर के हाथ पर पीपल के ढाई पत्ते रखकर उसको कच्चे सूत से बाँध दिया गया। फिर उसके ऊपर गर्म करके लाल किया हुआ लोहा रखा परंतु उसका हाथ जलना तो दूर रहा, सूत और पत्ते भी नहीं जले।
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लोहा नीचे जमीन पर रखा तो वह जगह काली हो गयी।
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राजा ने सोचा कि ‘वास्तव में इसने चोरी नहीं की, यह निर्दोष है।’
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अब राजा सिपाहियों पर बहुत नाराज हुआ कि “तुम लोगों ने एक निर्दोष पुरुष पर चोरी का आरोप लगाया है। तुम लोगों को दण्ड दिया जायेगा।”
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यह सुन कर चोर बोलाः “नहीं महाराज ! आप इनको दण्ड न दें। इनका कोई दोष नहीं है। चोरी मैंने ही की थी।”
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राजा ने सोचा कि यह साधु पुरुष है, इसलिए सिपाहियों को दण्ड से बचाने के लिए चोरी का दोष अपने सिर पर ले रहा है।
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राजा बोलाः तुम इन पर दया करके इनको बचाने के लिए ऐसा कह रहे हो पर मैं इन्हें दण्ड अवश्य दूँगा।
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चोर बोलाः “महाराज ! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, चोरी मैंने ही की थी। अगर आपको विश्वास न हो तो अपने आदमियों को मेरे पास भेजो।
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मैंने चोरी का धन जंगल में जहाँ छिपा रखा है, वहाँ से लाकर दिखा दूँगा।”
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राजा ने अपने आदमियों को चोर के साथ भेजा। चोर उनको वहाँ ले गया जहाँ उसने धन छिपा रखा था और वहाँ से धन लाकर राजा के सामने रख दिया।
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यह देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ।
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राजा बोलाः अगर तुमने ही चोरी की थी तो परीक्षा करने पर तुम्हारा हाथ क्यों नहीं जला ?
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तुम्हारा हाथ भी नहीं जला और तुमने चोरी का धन भी लाकर दे दिया, यह बात हमारी समझ में नहीं आ रही है। ठीक-ठीक बताओ, बात क्या है ?
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चोर बोलाः महाराज ! मैंने चोरी करने के बाद धन को जंगल में छिपा दिया और गाँव में चला गया।
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वहाँ एक जगह सत्संग हो रहा था। मैं वहाँ जा कर लोगों के बीच बैठ गया।
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सत्संग में मैंने सुना कि ‘जो भगवान की शरण लेकर पुनः पाप न करने का निश्चय कर लेता है, उसको भगवान सब पापों से मुक्त कर देते हैं। उसका नया जन्म हो जाता है।
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इस बात का मुझ पर असर पड़ा और मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि ‘अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा।
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अब मैं भगवान का हो लिया कि ‘अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा। अब मैं भगवान का हो गया।
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इसीलिए तब से मेरा नया जन्म हो गया।
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इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की, इसलिए मेरा हाथ नहीं जला।
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आपके महल में मैंने जो चोरी की थी, वह तो पिछले मैंने जन्म में की थी।
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कैसा दिव्य प्रभाव है सत्संग का ! मात्र कुछ क्षण के सत्संग ने चोर का जीवन ही पलट दिया।
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उसे सही समझ देकर पुण्यात्मा, धर्मात्मा बना दिया।
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चोर सत्संग-वचनों में दृढ़ निष्ठा से कठोर परीक्षा में भी सफल हो गया और उसका जीवन बदल गया।
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राजा उससे प्रभावित हुआ, प्रजा से भी वह सम्मानित हुआ और प्रभु के रास्ते चलकर प्रभु कृपा से उसने परम पद को भी पा लिया।
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सत्संग पापी से पापी व्यक्ति को भी पुण्यात्मा बना देता है। जीवन में सत्संग नहीं होगा तो आदमी कुसंग जरूर करेगा।
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कुसंगी व्यक्ति कुकर्म कर अपने को पतन के गर्त में गिरा देता है लेकिन सत्संग व्यक्ति को तार देता है, महान बना देता है। ऐसी महान ताकत है सत्संग में !

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दसरथ पटेल

एक पुरातन कथा

एक गृहस्थ भक्त अपनी जीविका का आधा भाग घर में दो दिन के खर्च के लिए पत्नी को देकर अपने गुरुदेव के पास गया ।

दो दिन बाद उसने अपने गुरुदेव को निवेदन किया के अभी मुझे घर जाना है। मैं धर्मपत्नी को दो ही दिन का घर खर्च दे पाया हूं । घर खर्च खत्म होने पर मेरी पत्नी व बच्चे कहाँ से खायेंगे ।

गुरुदेव के बहुत समझाने पर भी वो नहीं रुका। तो उन्होंने उसे एक चिट्ठी लिख कर दी। और कहा कि रास्ते में मेरे एक भक्त को देते जाना।

वह चिट्ठी लेकर भक्त के पास गया। उस चिट्ठी में लिखा था कि जैसे ही मेरा यह भक्त तुम्हें ये खत दे तुम इसको 6 महीने के लिए मौन साधना की सुविधा वाली जगह में बंद कर देना।

उस गुरु भक्त ने वैसे ही किया। वह गृहस्थी शिष्य 6 महीने तक अन्दर गुरु पद्धत्ति नियम, साधना करता रहा परंतु कभी कभी इस सोच में भी पड़ जाता कि मेरी पत्नी का क्या हुआ, बच्चों का क्या हुआ होगा ??

उधर उसकी पत्नी समझ गयी कि शायद पतिदेव वापस नहीं लौटेंगे।तो उसने किसी के यहाँ खेती बाड़ी का काम शुरू कर दिया।

खेती करते करते उसे हीरे जवाहरात का एक मटका मिला।

उसने ईमानदारी से वह मटका खेत के मालिक को दे दिया।

उसकी ईमानदारी से खुश होकर खेत के मालिक ने उसके लिए एक अच्छा मकान बनवा दिया व आजीविका हेतु ज़मीन जायदात भी दे दी ।

अब वह अपनी ज़मीन पर खेती कर के खुशहाल जीवन व्यतीत करने लगी।

जब वह शिष्य 6 महिने बाद घर लौटा तो देखकर हैरान हो गया और मन ही मन गुरुदेव के करुणा कृपा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने लगा कि सद्गुरु ने मुझे यहाँ अहंकार मुक्त कर दिया ।

मै समझता था कि मैं नहीं कमाकर दूंगा तो मेरी पत्नी और बच्चों का क्या होगा ??

करनेवाला तो सब परमात्मा है। लेकिन झूठे अहंकार के कारण मनुष्य समझता है कि मैं करनेवाला हूं।

वह अपने गुरूदेव के पास पहुंचा और उनके चरणों में पड़ गया। गुरुदेव ने उसे समझाते हुए कहा बेटा हर जीव का अपना अपना प्रारब्ध होता है और उसके अनुसार उसका जीवन यापन होता है। मैं भगवान के भजन में लग जाऊंगा तो मेरे घरवालों का क्या होगा ??

मैं सब का पालन पोषण करता हूँ मेरे बाद उनका क्या होगा यह अहंकार मात्र है।

वास्तव में जिस परमात्मा ने यह शरीर दिया है उसका भरण पोषण भी वही परमात्मा करता है।

प्रारब्ध पहले रच्यो पीछे भयो शरीर
तुलसी चिंता क्या करे भज ले श्री रघुवीर
#cp

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વાત એક અસાધારણ સ્ત્રીની… — સેતુ ~ લતા જ. હિરાણી


વાત એક અસાધારણ સ્ત્રીની… આ આખું વાંચશો તો તમને થશે કે આવી સરસ વાત તમે અત્યાર સુધી કેમ ન લખી ? મને ય એમ લાગે છે પણ નથી લખી… બસ નથી લખાઈ ! તો સાંભળો એટલે કે વાંચો…વાહ પોકારી જશો એની ગેરંટી.. પૂરું વાંચશો તો… હું જન્મી 1955 માં (હવે તો ઉંમર કહેવામાં કાંઈ વાંધો […]

via વાત એક અસાધારણ સ્ત્રીની… — સેતુ ~ લતા જ. હિરાણી

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

एक दिन एक कुत्ता जंगल में रास्ता खो गया..
तभी उसने देखा, एक शेर उसकी तरफ आ रहा है..।
कुत्ते की सांस रूक गयी..
“आज तो काम तमाम मेरा..!” उसने सोचा..
MBA ka lesson yaad aa gaya aur
फिर उसने सामने कुछ सूखी हड्डियाँ पड़ी देखि..
वो आते हुए शेर की तरफ पीठ कर के बैठ गया और एक सूखी हड्डी को चूसने लगा..
और जोर जोर से बोलने लगा,
“वाह ! शेर को खाने का मज़ा ही कुछ और है.. एक और मिल जाए तो पूरी दावत हो जायेगी !”
और उसने जोर से डकार मारा.. इस बार शेर सोच में पड़ गया..
उसने सोचा- “ये कुत्ता तो शेर का शिकार करता है ! जान बचा कर भागो !”
और शेर वहां से जान बचा के भागा..
पेड़ पर बैठा एक बन्दर यह सब तमाशा देख रहा था..
उसने सोचा यह मौका अच्छा है शेर को सारी कहानी बता देता
हूँ ..
शेर से दोस्ती हो जायेगी और उससे ज़िन्दगी भर के लिए जान का खतरा दूर हो जायेगा..
वो फटाफट शेर के पीछे भागा..
कुत्ते ने बन्दर को जाते हुए देख लिया और समझ गया की कोई लोचा है..
उधर बन्दर ने शेर को सब बता दिया की कैसे कुत्ते ने उसे बेवकूफ बनाया है..
शेर जोर से दहाडा, -“चल मेरे साथ, अभी उसकी लीला ख़तम करता हूँ”.. और बन्दर को अपनी पीठ पर बैठा कर शेर कुत्ते की तरफ लपका..
Can you imagine the quick “management” by the DOG…???
कुत्ते ने शेर को आते देखा तो एक बार को उसके आगे जान का संकट आ गया मगर फिर हिम्मत कर कुत्ता उसकी तरफ पीठ करके बैठ गया l
Another lesson of MBA applied aur जोर जोर से बोलने लगा,-
“इस बन्दर को भेजे 1 घंटा हो गया..
साला एक शेर को फंसा कर नहीं ला सकता !”
यह सुनते ही शेर ने बंदर को पटका और वापस भाग गया.!!
विशेष परिस्थिति मे सूझ बुझ से काम करना चाहिये… तभी तो शक्ति से बुद्धिबल ज्यादा बड़ा होता है….

Posted in मूर्ति पूजा - Idolatry

हिन्दू धर्म एक

मुर्तिपूजा आखिर क्यो करते हैं?
Jai ho…..
Jai Siya Ram……
वैसे सनातन धर्म के 4 वेद है , जिनमे मूर्तिपूजा वर्णित नही है , यह बात सब जानते है के वेद एक दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ है और सनातन धर्म का मूल है , वेदो मे केवल एक ईश्वर बताया गया है जो निराकार है , जिसकी उपासना करने के कई तरीके है हवन यज्ञ होम उन मे से एक है ।

अब आते है मूल बात पर के सनातन धर्म मे मूर्तिपूजा कब और क्यो आई ? तो जब ईश्वर ने वेदो का ज्ञान मनुष्य को दिया तब सतयुग था , मनुष्य की बुद्दि , स्मरण शक्ति , आयु , तपस्या बहुत तेज थे , पाप कम और भक्ति बहुत ज्यादा थी ,

फिर आया त्रेता युग मनुष्य की आयु ,बुद्दि , शक्ति थोडे कम हो गए पाप थोडा बढ गया मनुष्य मे लालच क्रोध बदले की भावना आदि आ गई तभी सीता हरण भी हुआ , इस युग मे लोग वेदो को पढते थे परन्तु सभी मनुष्य इन्हे समझ नही पाते थे हम देखते है के इस युग मे भगवान राम ने समुन्दर किनारे रेत का शिवलिंग बनाया उसकी पूजा आर्चना की फिर भगवान राम ने जीत के उद्शेय से माँ भावनी की मूर्ति बनाई और जीत का वरदान प्राप्त किया

अब आ गया दवापर यानि कृष्ण युग , मनुष्य की बुद्दि बहुत ही कम हो गई ,भक्ति कम हो गई , पाप बढ गया , अग्नि पुत्री द्रोपदी का बरी सभा मे चीर हरण की कोशिश हुई , अब इस युग मे मनुष्य वेद पढेंगे तो सकते थे किन्तु धर्म को समरण रखने योग्य नही थे ,

तभी कृष्ण भगवान ने भगवद् गीता मे कहा जो मुझे साकार (मूर्तिपूजा) या निराकार रूप मे भजता है मै दोनो को ही प्राप्त हो जाता हूँ , भगवद्गीता मे कृष्ण जी ने भक्ति के कई मार्ग बताए है जैसे के

  1. ध्यान (meditation)
  2. साकार (मूर्तिपूजा)
  3. होम ( हवन यज्ञ)
  4. उपवास
  5. नृत्य
  6. सत्संग कीर्तन
  7. नाम जपना
  8. निष्काम भाव की सेवा (बिना किसी स्वारथ के)
    9.कर्म योग ( जो केवल अपना कर्म निष्काम भाव से करता है )
  9. योग आदि

भगवान कृष्ण कहते है जो इन मार्गो मे किसी एक मे अच्छी तरह स्थित हो जाता है वह मुझे प्राप्त कर लेता है ।
मूर्तिपूजा के उद्देशय केवल उस मूर्ति को देख कर उस निराकार प्रमात्मा का ध्यान करना है , मूर्ति स्वय भगवान नही है और जिसको ध्यान करना आ जाता है जो समाधी प्राप्त कर लेता है उसे कोई मूर्ति की आवश्यकता नही होती , किन्तु हर मनुष्य की बुद्दि ऐसी नही है के वह समाधी लगा सके ध्यान कर सके , उनके उदार का एक सरल तरीका है मूर्तिपूजा क्योकि वह एक निराकार ही है जो अपने आप को तीन शक्तियो मे बाँटता है ब्ह्मा , विषणु और महेश और संसार को चलाती है ।

यदि आप निराकार का ध्यान कर सकते हो तो सबसे उत्म है नही तो मूर्तिपूजा , यज्ञ, उपवास जिसमे मन लगे वह किजीए किन्तु सच्ची भावना से , बिना भावना का ध्यान मूर्तिपूजा , यज्ञ सब पाखंड है अपने आप से ईमानदार रहीऐ , याद रहे धन्ने जट्ट और मीरा बाई ने प्रत्थर से ही कृष्ण पाया था

अंत अगर कोई मूर्ति पूजा का विरोध है तो वह न तो मूर्तिपूजा के विष्य मे कुछ जानता है न हो निराकार को जान पाया है वह केवल एक अंहकारी भेड ह….radhe radhe……

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सितालाल दुबे

‼।।संत महिमा।।‼

मथुरा में एक संत रहते थे। उनके बहुत से शिष्य थे। उन्हीं में से एक सेठ जगतराम भी थे। जगतराम का लंबा चौड़ा कारोबार था। वे कारोबार के सिलसिले में दूर दूर की यात्राएं किया करते थे।
एक बार वे कारोबार के सिलसिले में कन्नौज गये। कन्नौज अपने खुशबूदार इत्रों के लिये प्रसिद्ध है। उन्होंने इत्र की एक मंहगी शीशी संत को भेंट करने के लिये खरीदी।
सेठ जगतराम कुछ दिनों बाद काम खत्म होने पर वापस मथुरा लौटे। अगले दिन वे संत की कुटिया पर उनसे मिलने गये।संत कुटिया में नहीं थे। पूछा तो जवाब मिला कि यमुना किनारे गये हैं, स्नान-ध्यान के लिये। जगतराम घाट की तरफ चल दिये। देखा कि संत घुटने भर पानी में खड़े यमुना नदी में कुछ देख रहे हैं और मुस्कुरा रहे हैं।
तेज चाल से वे संत के नजदीक पहुंचे। प्रणाम करके बोले आपके लिये कन्नौज से इत्र की शीशी लाया हूँ। संत ने कहा लाओ दो।सेठ जगतराम ने इत्र की शीशी संत के हाथ में दे दी। संत ने तुरंत वह शीशी खोली और सारा इत्र यमुना में डाल दिया और मुस्कुराने लगे।
जगतराम यह दृश्य देख कर उदास हो गये और सोचा एक बार भी इत्र इस्तेमाल नहीं किया, सूंघा भी नहीं और पूरा इत्र यमुना में डाल दिया। वे कुछ न बोले और उदास मन घर वापस लौट गये।कई दिनों बाद जब उनकी उदासी कुछ कम हुयी तो वे संत की कुटिया में उनके दर्शन के लिये गये।
संत कुटिया में अकेले आंखे मूंदे बैठे थे और भजन गुनगुना रहे थे।आहट हुयी तो सेठ को द्वार पर देखा। प्रसन्न होकर उन्हें पास बुलाया और कहा उस दिन तुम्हारा इत्र बड़ा काम कर गया।सेठ ने आश्चर्य से संत की तरफ देखा और पूछा – मैं कुछ समझा नहीं।
संत ने कहा — उस दिन यमुना में राधा जी और श्री कृष्ण की होली हो रही थी। श्रीराधा जी ने श्रीकृष्ण के ऊपर रंग डालने के लिये जैसे ही बर्तन में पिचकारी डाली, उसी समय मैंने तुम्हारा लाया इत्र बर्तन में डाल दिया। सारा इत्र पिचकारी से रंग के साथ श्रीकृष्ण के शरीर पर चला गया और भगवान श्रीकृष्ण इत्र की महक से महकने लगे।
तुम्हारे लाये इत्र ने श्रीकृष्ण और श्रीराधा रानी की होली में एक नया रंग भर दिया। तुम्हारी वजह से मुझे भी श्रीकृष्ण और श्रीराधा रानी की कृपा प्राप्त हुयी।
सेठ जगतराम आंखे फाड़े संत को देखते रहे। उनकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
संत ने सेठ की आंखों में अविश्वास की झलक देखी तो कहा – शायद तुम्हें मेरी कही बात पर विश्वास नहीं हो रहा। जाओ मथुरा के सभी श्रीकृष्ण राधा के मंदिरों के दर्शन कर आओ, फिर कुछ कहना।
सेठ जगतराम मथुरा में स्थित सभी श्रीकृष्ण राधा के मंदिरों में गये। उन्हें सभी मंदिरों में श्रीकृष्णराधा की मूर्ति से अपने इत्र की महक आती प्रतीत हुयी।
सेठ जगतराम का इत्र श्रीकृष्ण और श्रीराधा रानी ने स्वीकार कर लिया था।वे संत की कुटिया में वापस लौटे और संत के चरणों में गिर पड़े। सेठ की आंखों से आंसुओं की धार बह निकली।
संत की आंखें भी प्रभू श्रीकृष्ण की याद में गीली हो गयीं।
सेठ जगतराम को संत जी का अधिकार मालूम हुआ कि संत महात्मा भले ही हमारे जैसे दिखते हों, रहते हों लेकिन वो हर वक्त ईश्वर मे मन लगाये रहते हैं!
पता नही हम जैसो को यह अधिकार तब प्राप्त होगा ??
जब हमारी भक्ति बढ़े , नाम-सिमरन बढ़े…
और ठाकुर जी में हमारी श्रद्धा बढ़े।

!!जय श्री कृष्ण जय श्री राधे!!

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संजू तिवारी

मैंने सुना है, एक गांव में एक मछुआ मछलियां बेचने आया था। वह मछलियां बेच कर जब लौटने लगा, तो सोचा कि राजधानी है, देख लूं घूम कर। वह गांव की बड़ी-बड़ी सड़कों पर गया। वह उस सड़क पर भी गया जहां सुगंधियों की दुकानें थीं, परफ्यूम्स की दुकानें थीं। लेकिन मछुआ एक ही सुगंध जानता था, मछली की, और कोई सुगंध नहीं जानता था। उसे जब वहां सुगंधियों की दुकानों से सुगंधियां उड़ती हुई हवा में आने लगीं, तो उसने सोचा, इस गांव के लोग बड़े पागल हैं! ये दुर्गंध की दुकानें किसलिए खोल रखी हैं? उसने अपना रूमाल अपनी नाक पर लगा लिया।
लेकिन जैसे-जैसे भीतर घुसा, और बड़ी दुकानें थीं। वह भागने लगा। और भागा तो और भीतर और बड़ी दुकानें थीं, वह दुनिया का सबसे बड़ा सुगंधियों का बाजार था, सुगंध के कारण वह बेहोश होकर गिर पड़ा।
सुना है कभी, कोई सुगंध के कारण बेहोश होकर गिर पड़े? लेकिन वह एक सुगंध जानता था–मछली की। और बाकी सब दुर्गंध थीं। वह बेहोश होकर गिर पड़ा, तो बड़ी सुगंधियों के दुकानदार अपनी तिजोरियां खोल कर वे बहुमूल्य सुगंधियां उसे सुंघाने लाए जिनसे आदमी होश में आ जाता है। लेकिन वे उसे सुगंध सुंघाने लगे, वह बेहोशी में हाथ-पैर तड़फड़ाने लगा, हाथ-पैर पटकने लगा। भीड़ इकट्ठी हो गई। सुगंधि के दुकानदार बड़े हैरान हुए कि इन सुगंधियों से तो कोई भी बेहोश आदमी होश में आ जाए, यह हो क्या रहा है! उन्हें क्या पता कि जिसे वे सुगंध समझते हैं, उसे वह बेहोश आदमी दुर्गंध समझता है! क्योंकि वह बेहोश आदमी दुर्गंध को सुगंध समझने का आदी हो चुका है।
इस भीड़ में एक दूसरे मछुए ने यह हालत देखी, उसने कहा, ठहरो! तुम जान ले लोगे। सेवको, तुम रुक जाओ।
सेवक अक्सर जान लेने वाले सिद्ध होते हैं! अगर उन्हें पता न हो कि बीमारी क्या है, तो सेवक जान लेने वाले सिद्ध होते हैं। और इस देश में तो हम जानते हैं अच्छी तरह से कि सेवक किस तरह से जान ले रहे हैं। देश की बीमारी का उन्हें कोई पता नहीं है।
उस मछुए ने कहा, दूर हटो! वह मर जाएगा आदमी। जहां तक मैं समझता हूं, तुम ही उसको बेहोश करने के कारण हो। उसने सुगंधियों को दूर फिंकवा दिया। और उस गिरे हुए मछुए की टोकरी पड़ी थी, गंदा कपड़ा पड़ा था, हाथ से गिर गया था, जिसमें वह मछलियां लाया था, उस दूसरे मछुए ने उस पर पानी छिड़का और वह गंदी टोकरी उसके मुंह पर रख दी। उस बेहोश मछुए ने गहरी श्वास ली और कहा, दिस इज़ रियल परफ्यूम! यह है असली सुगंध! ये दुष्ट मेरी जान लिए लेते थे। ये कहां-कहां की दुर्गंधें इकट्ठी किए हुए हैं!