श्री राधिका जु
लट उरझी सुरझाय जा मेरे कर मेंहदी लगी हरि, आयजा।
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लट उरझी सुरझाय जा,
मेरे कर मेंहदी लगी हरि, आयजा।
माथे की बेंदी सरक गयी है,अपने हाथ लगाय जा ।
मेरे कर मेंहदी लगी।
सिर की सारी सरक गयी है
अपने हाथ उढ़ाय जा ,मेरे कर मेंहदी लगी !
चन्दसखी भज बालकृष्ण छबि
बीरी तनक खबाय जा ,मेरे कर मेंहदी लगी !
~ चन्दसखी
Part 2
एरी आजकाल सब लोकलाज त्याग दोऊ,
सीखे हैंसब बिधि सनेह सरसायबौ।
यह रसखान दिना द्वै में बात फैल जैहै,
कहां लौं सयानी चंदा हाथन छिपायबौ ।
आज ही निहार्यौ वीर, निकट कलिंदी तीर,
दोउन कौ दो उन सौं मुरि मुसकायबौ।
दोऊ परैं पैंयां दोऊ लेत हैं बलैयां,
उन्हें भूल गई गैयां इन्हें गागर उठायबौ।
रसखान
Part 3
ब्रह्म मैं ढूंड्यौ पुरानन गानन,
वेद रिचा सुनी चौगुने चायन।
देख्यौ सुन्यौ कबहू न कितै
वह कैसौ स्वरूप औ कैसौ सुभायन !
मैं ब्रह्म को खोजने निकला,
वेद,पुराण खोजे,उसका न रूप का पता चला न स्वभाव का!
उसको टेरता रहा,हेरता रहा,हार गया।
रसखान कहते हैं,नर और नारी किसी ने कुछ नहीं बताया।
वृंदावन गया,वहां की कुंज- कुटी में दुबका हुआ
वह ब्रह्म राधारानी के पैर दाब रहा था
टेरत हेरत हार पर्यौ
रसखान बतायौ न लोगलुगायन।
देख्यौ-दुर्यौ वह कुंजकुटीर में
बैठ्यौ पलोटत राधिका-पायन।
रसखान
Part 4
मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गले पहरौंगी।
ओढ पितंबर लै लकुटी, वन गोधन ग्वालनि संग फिरौंगी।।
भावतो मोहि वही रसखान, सो तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
वा मुरली मुरलीधर की अधरान- धरी, अधरा न धरौंगी।।
रसखान
Part 5
मुक्ति भरै तहं पानी
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मुक्ति कहै गोपाल ते ,मेरी मुक्ति बताय ।
ब्रज-रज उड़ि मस्तक परै ,मुक्ति मुक्त ह्वै जाय ।
गोपाल-संस्कृति लोकसंस्कृति है ।
इसके संबंध में गहराई से सोचने की जरूरत है ।
यज्ञ ,तप आदि की महिमा शास्त्रों में है ,तो रही आवे ।
पुरुषार्थ-चतुष्टय में मोक्ष को अन्तिम-पुरुषार्थ माना गया तो माना गया ,ठीक है । लेकिन गोपाल-संस्कृति में मुक्ति की क्या कदर है ?
मुक्ति भरै तहं पानी ।
मुक्ति नौन सी खारी लागै ।
गोपाल-संस्कृति में पुरुषार्थ का स्वरूप है >> ब्रज-रज में धूलि-धूसरित रहना , सामान्य हो जाना !
धूलि से अधिक और सामान्य क्या होगा ? हम न भई बिन्दावन रेनु ।
आऔ एक बार धारि गोकुल-गली की धूरि ,तब एहि नीति की प्रतीति कर लै हैं हम ।
श्रीकृष्ण से उद्धव ने ज्ञान की बात कही ,तो श्रीकृष्ण बोले > बात तो तुम्हारी ठीक ही है किन्तु एक बार ब्रजरज को नमस्कार कर आओ ,तब तुम जैसा कहोगे ,मान लूंगा ।
बेचारे उद्धव ब्रज में ज्ञान लेकर के आये ,जब लौटे तो बोले >>
आसामहो चरणरेणु जुषामहंस्यां
अथवा
वन्दे नन्द व्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश: । भागवत १०-४७
ज्ञान तो मुझे अब हुआ है श्रीकृष्ण ! मुक्ति यदि कहीं है भी तो वह इन सहज -सामान्य ब्रज-गोपिकाओं की चरण-रज से नीचे ही है ।
यह रज विशेष का निषॆध है । सामान्य बन जाना >> यही लोकसंस्कृति का संदॆश भी है । यही पुरुषार्थ का स्वरूप है |
Part 6
शृणु सखि कौतुकमेकं नन्दनिकेतांगणे मया दृष्टम्।
गोधूलि-धूसरांगो नृत्यति वेदान्त-सिद्धान्त :।
अरी सखी ! सुनो तो आज तो बडे अचरज की बात देख कर आयी हूं ।
कहां देखा सखि ?
अरी, नन्दबाबा के आंगन में देखा !
क्या देखा सखि ?
वहां आकर वेदान्त का परम सिद्धान्त गोधूलि से धूसरित होकर नाच रहा है ।
कल तक जो अपने को साध्य बतला रहा था , कल तक जो अपने को विशेष बतलाता था ,आज वह सामान्य बन जाने में ही धन्यता का अनुभव कर रहा है ।
Part 7
लोकतत्व :लीला:गोपजीवन
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दानलीला, माखनचोरी, रासलीला,चीरहरण >कितनी ही लीलाएं हैं !
कृष्ण- लीलाओं का जो ठाठ खडा है,
उसमें जनजातीयतत्व ,जनजातिकी मर्यादा,
उनके रीतिरिवाज,
नरनारी के उन्मुक्त-संबंध ,नृत्यगीत इत्यादि के अध्ययन से
वह लोकतत्व स्पष्ट होगा !
उनका मूल तो लोकगीतों में ही है ।
लीला इतिहास की घटना नहीं होती ।
सूरदास को समझने के लिये गोपजीवन को समझना होगा ।
सूरदास के काव्य में गोपजीवन का समग्र चित्र है ।
जगह-जगह वे उल्लेख कर रहे हैं >
सब सुन्दरी सबै नव जोवन निठुर अहिर की जात।
<blockquote>
हम अहीर गृहनारि लोकलज्जा के जेरे ।
गोरस बेचनहारि गूजरी अति इतराती ।
दस गैयन कर को बडौ अहिरजाति सब एक ।
जब अहीर का संदर्भ आया है तो ब्रज के गोप और गूजर का सन्दर्भ अपने आप ही आगया ।
</blockquote>
बडा पुरखा चले- जाने के बाद भी कुलों को किस प्रकार जोड देता है ,इसका उदाहरण श्रीकृष्ण हैं।
मथुरा से यादवों का एक कुल दक्षिण गया, जिसने वहां मदुरै बसाया ।
आयर-जन गायें चराते और कण्णन के गीत गाते।
यादव-गोप और आभीर जातियां गोपालदेवता की उपासक हैं और यह एकता इनको अन्तर्भुक्त करती है।
कृष्ण-साहित्य में अहीर-गोप-यादव और गूजर-तत्व बहुत महत्वपूर्ण है
<blockquote>
हम तौ निपट अहीर बाबरी जोग दीजिये जानन।
या >> ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भर छाछ पै नाच नचामें।
राधा संबंधी गीतों में गुजरिया बरसाने की जैसे पद हैं।
</blockquote>
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Part 8
सूरदास में उपासना का लोकतंत्र है। मुनिमद मेंटि दासव्रत राख्यौ अंबरीष हितकारी।
दुर्वासा जैसे तपस्वी के सामने वे दासधर्म के साथ खडे हैं। सूरकाव्य सर्वजनचेतना का काव्य है। जात पांत कुलकान गनत नहि रंक होय कै रानौ। विदुरानी ने प्यार से याद किया गोपाल ने दरवाजा खट्खटा दिया। केला के छिलके खिलाये बाबली ने? आपा भूल गयी। दुर्योधन ने उलाहना दिया .
हमतें विदुर कहा है नीकौ? ताकी झुगिया में तुम बैठे कौन बडप्पन पायौ? जात-पांत कुल हू तें न्यारौ है दासी कौ जायौ।
कृष्ण ने जवाब दिया जहं अभिमान तहां मैं नाहीं वह भोजन बिस लागे।
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Part 9
मदन ने भगवान शिव पर जब अपना बाण चलाया तो सारी सृष्टि कामुक हो उठी वही बचे जो भगवान की शरण लिए थे।
वैसी ही स्तिथि सभी मनोभावों आवेगों के लिए होती है। उनके रंग में रंगे लोग उसके समर्थन में समर्पित तर्क ढूंढ लेते हैं।
स्थिति यह हो चली है कि इस(आप जैसे कतिपय विवेकी)तरह की समझ रखने वाले अपने परिवार तक में अकेले होते जा रहे हैं।
बस सब तजि हरि भज!
बस दिया कबीरा रोय।।
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Part 10
कृष्ण एक देश या एक काल का भाव नहीं है,
क्योंकि वह केवल इतिहास नहीं है।
इतिहास देश काल का बंधन है।
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Part 11
वंशी जहां बजती है,जब कभी बजती है,
रवींद्र नाथ टैगोर कहते हैं >तोमार वांशि आमार प्राणे बेजे छे।
कृष्णतत्व रागतत्व है,रंजयतीति राग:।
अपने रंग में रंग लेता है,तो दूसरा रंग चढता ही नहीं
<blockquote>
सूरदास की कारी कामर चढे न दूजौ रंग।
</blockquote>
कैसा उन्मादी रंग है!
इस रंग को छुटाने का मन ही नहीं करता
<blockquote>
मेरी चुनरी में लग गयौ दाग री ऐसौ चटक रंग डारौ!
</blockquote>
एक बार देखती है तो कंठ से सौ-सौ रागिनियां फूट पडती हैं।
यह रंग कभी न छूटे, मैं इसे सौ बार देखूं और हजार बार नाचूं >
लोग कहें मीरा भई रे बाबरी सास कहे घर नासी रे,पग घुंघरू बांध मीरा नाची ।
तमिलनाडु के आलवारों ने नाप्पिन्नै के दिव्यसौंदर्य का चित्रण किया है,
अंडाल ने नाप्पिन्नै को नंद गोप की वधू कहा था।
आयर लोग मुल्लै वनांचल में गाय चराते थे,कण्णन के गीत गाते थे।
कन्नड के नाइणप्पा और पंप के कृष्णकाव्य प्रसिद्ध हैं॥
केरल के कृष्ण पांडुरंग हैं,
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Part 12
लीलाशुक का कृष्णकर्णामृत कह रहा है
<blockquote>
भीमरथी के पुलिन पर मत जाना, वहां तमालनील चित्त रूपी वित्त को लूट लेगा।
असम में शंकरदेव ने ब्रजबुलि में कृष्णगीत गाये।
</blockquote>
उडीसा में नावकेलि,नटचोरिगीत हैं।
महाराष्ट्र में गोविंदा आला रे की टेर गूंज रही है।
गुजरात गा रहा है >
सखी सहेली ना संग मा रे अमें चाल्यां छे जमना तीर रे आज कोई रोको नहीं।मनिपुर की विंबावती तो मीरा ही है।
सारा भारत ही कृष्णराग में रंगा है।
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Part 13
शठकोप शूद्रमुनि थे
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वैष्णवदर्शन की चार परंपराओं का उल्लेख प्राय: सभी जगह किया जाता है ।
आचार्य श्रीरामानुज का विशिष्टाद्वैत ,
श्री निंबार्कआचार्य का द्वैताद्वैत,
श्री मध्वआचार्य का द्वैतवाद तथा आचार्यवल्लभ का शुद्धाद्वैत ।
ये चारों दार्शनिक आचार्य थे, सिद्धान्तों के प्रतिपादक थे तथा इन चारों ने ब्रह्मसूत्र का भाष्य किया था ।
गीता का भाष्य भी लिखा था ।
भागवत को भी चारों ने ही आधार बनाया था ।
निस्सन्देह ये चारों ही वन्दनीय हैं ।
लेकिन जीवन-परंपरा तो नदी की तरह बहती है , पहले छोटे-छोटे स्रोत होते हैं , वे मिलते हैं , मिलते -मिलते बडी धारा बन जाती है ।
जब हम इस क्रम को देखते हैं तो हमें आश्चर्य होता है कि भले ही इन आचार्यों ने उस जीवन -परंपरा को सैद्धान्तिक आधार दिया था किन्तु वे धाराएं इनसे भी पहले लोकजीवन में मौजूद हैं ।
उदाहरण के लिये रामानुज को ही देखें ,
इनकी परंपरा मुनि शठकोप से जा कर मिलती है , जिनकी वाणी >> तिरुवायमौलि << है और जिसे तामिलवेद या द्रविडवेद कहा जाता है ।
नाथमुनि ने मधुर कवि के शिष्य परांकुश जी से उनकी वाणी को प्राप्त किया ।
ये शठकोप शूद्रमुनि थे ।
शास्त्र का अध्ययन तो विभागों में होता ही है किन्तु शास्त्र के साथ जब हम लोकजीवन की परंपरा को देखते हैं , तब ये बातें स्पष्ट होती हैं।
Part 14
श्रीविष्णुस्वामी
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वैष्णवदर्शन और उसकी परंपरा के प्रसंग में श्रीविष्णुस्वामी का नाम बडी श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है ।
यों उनकी किसी कृति का उल्लेख तो पढने को नहीं मिला किन्तु उनके अनुयायियों का एक ग्रन्थ >> साकारसिद्धि << चर्चा में अवश्य रहा है। ग्रियर्सन के एन्साइक्लोपीडिया ओफ रिलीजन एंड एथिक्स में तो कहा गया है कि श्रीविष्णुस्वामी१४ वीं शताब्दी के थे , वल्लभाचार्य के पिता लक्ष्मण भट्ट उनके शिष्य थे ।
किन्तु सर्वदर्शनसंग्रह नामक ग्रन्थ में माधवाचार्यजी ने जिस प्रकार से श्रीविष्णुस्वामी-संप्रदाय का वर्णन किया है , उससे प्रतीत होता है कि वे आचार्यवल्लभ से बहुत पहले के आचार्य हैं।
श्रीविष्णुस्वामी सिद्ध थे , यह तो सभी मानते हैं।कहा जाता है कि श्रीविष्णुस्वामी के पिता द्रविडदेश के राजा थे , जो दिल्लीसम्राट के अधीन थे ।
नाभादास के भक्तमाल में ज्ञानदेव को इनके संप्रदाय का अनुवर्ती कहा गया है।
इससे इनका समय ई. १२५० के आसपास होना संभव है ।
आगे चल कर वल्लभाचार्य ने इनके सिद्धान्त को आगे बढाया किन्तु इसी के साथ यह भी उल्लेखनीय है कि श्रीविष्णुस्वामी की परंपरा अन्य कई धाराओं में भी चलती रही है ।
सर्वदर्शनसंग्रह में श्रीविष्णुस्वामी के मतानुयायियों में गर्भकान्तमिश्र का भी नाम आता है , ये नृसिंहमूर्ति के उपासक थे ।