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संकरलाल वाघेला

एक बेटा अपने वृद्ध पिता को रात्रि भोज के लिए एक अच्छे रेस्टॉरेंट में लेकर
गया।
खाने के दौरान वृद्ध पिता ने कई बार भोजन अपने कपड़ों पर गिराया।
रेस्टॉरेंट में बैठे दूसरे खाना खा रहे लोग वृद्ध को घृणा की नजरों से देख रहे थे
लेकिन वृद्ध का बेटा शांत था।
खाने के बाद बिना किसी शर्म के बेटा, वृद्ध को वॉश रूम ले गया। उनके
कपड़े साफ़ किये, उनका चेहरा साफ़ किया, उनके बालों में कंघी की,चश्मा
पहनाया और फिर बाहर लाया।
सभी लोग खामोशी से उन्हें ही देख रहे थे।बेटे ने बिल पे किया और वृद्ध के
साथ
बाहर जाने लगा।
तभी डिनर कर रहे एक अन्य वृद्ध ने बेटे को आवाज दी और उससे पूछा ” क्या
तुम्हे नहीं लगता कि यहाँ
अपने पीछे तुम कुछ छोड़ कर जा रहे हो ?? ”
बेटे ने जवाब दिया” नहीं सर, मैं कुछ भी छोड़ कर
नहीं जा रहा। ”
वृद्ध ने कहा ” बेटे, तुम यहाँ
छोड़ कर जा रहे हो,
प्रत्येक पुत्र के लिए एक शिक्षा (सबक) और प्रत्येक पिता के लिए उम्मीद
(आशा)। ”
आमतौर पर हम लोग अपने बुजुर्ग माता पिता को अपने साथ बाहर ले जाना
पसंद नहीँ करते
और कहते हैं क्या करोगे आप से चला तो जाता
नहीं ठीक से खाया भी नहीं जाता आप तो घर पर ही रहो वही अच्छा
होगा.
क्या आप भूल गये जब आप छोटे थे और आप के माता पिता आप को अपनी
गोद मे उठा कर ले जाया
करते थे,
आप जब ठीक से खा नही
पाते थे तो माँ आपको अपने हाथ से खाना खिलाती थी और खाना गिर
जाने पर डाँट नही प्यार जताती थी
फिर वही माँ बाप बुढापे मे बोझ क्यो लगने लगते हैं???
माँ बाप भगवान का रूप होते है उनकी सेवा कीजिये और प्यार दीजिये…
क्योंकि एक दिन आप भी बूढ़े होगें।

शेयर जरूर करे।जिससे लोग इससे सबक लें।

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महाकाल

लंका विजय के समय । समुद्र समुद्र पर पत्थरों का पुल बनाना शुरू हुआ । तभी श्री राम ने देखा एक गिलहरी पानी मे जाती है , फिर मिट्टी पर आती है और फिर पत्थरों के बीच जाती है। वापस आती है फिर पानी मे जाती है , मिट्टी पर आती है और फिर पत्थरों के बीच चली जाती है । वह बार बार लगातार यही किए जा रही थी ।श्री राम ने सोचा, आखिर यह गिलहरी कर क्या रही है । उन्होंने हनुमानजी से कहा , इस गिलहरी को पकडकर लाओ तो । हनुमानजी गिलहरी को पकड कर लाये और रामजी के हाथ मे दे दी । रामजी ने गिलहरी से पूछा ,- तुम यह बार बार क्या कर रही हो ? । तुम पानी मे जाती हो , फिर आकर मिट्टी मे लोटपोट होती हो , फिर पत्थरों के बीच जाती हो और कुछ करके वापिस आ जाती हो । इस पर उसने कहा ,’ भगवान! मैने सोचा , पतिव्रता सीता माता की रक्षा के लिए , उसकी आन – बान और शान रखने के लिए आप लंका पर चढाई करने जा रहे है , वानरों की सेना आपके साथ, युद्ध मे सहयोगी बन रही है तो मैने सोचा मै भी सहयोगी बनू । मेरे पास और तो कुछ मदद करने के लिए नहीं था क्योंकि इन पत्थरों को उठाने की क्षमता तो मुझमे नही है तो मैने सोचा इन पत्थरों के बीच मे जो खाली जगह है उसे मिट्टी डाल डालकर बर दूं , ताकि जब आप सेना सहित इस पर से गुजरें तो ये पत्थर आपको न चुभे ।
भगवान श्रीराम ने कहा, गिलहरी, तू महान है, पर एक बात तो बता । यहाँ तो इतनी बडी सेना है और तू छोटी सी बार बार आ जा रही है, अगर किसी के पाँव के नीचे आकर मर गई तो ?’गिलहरी ने कहा , ‘ प्रभु! तब मै यह सोचूंगी कि नारी जाति के शील और धर्म को बचाने के लिए जो युद्ध लडा गया उसमे सबसे पहले मै काम आई ।’तब श्रीराम ने गिलहरी की पीठ पर स्नेह प्रेम और वात्सल्य से भरकर अगुलियाँ चलाई और कहते है कि गिलहरी की पीठ पर फेरी भगवान की अगुलियाँ के निशान आज भी दिखाई देती है और श्रीराम ने कहा ‘ लंका विजय अभियान मे सबसे बडा सहयोग तुम्हारा है ।
तुम छोटे हो तो यह मत सोचो कि तुम कुछ नही कर सकते । जो तुम्हारी हैसियत है तुम उतना तो करो । जो औरो के वक्त – बेवक्त मे काम आता है । उनका वक्त बेवक्त नही आता है , जो दूसरो के लिए आहूति देता है। ईश्वर के घर से उसके लिए आहुतियाँ समर्पित होती है ।
किसी भी काम को करने के लिए कोई भी वक्त सही होता है और आप यदि समाज के लिए कुछ करना चाहते है तो आप किसी भी तरह से कर सकते है. जरुरी नहीं की धन या ताकत से समाज सेवा करे आप अपनी छमता के अनुसार काम करके भी सेवा कर सकते है.🚩🚩🚩🚩जय सीताराम

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पुष्पा गुप्ता

#दिवंगत_रिश्ते

“हैलो…हैलो…अंकित बेटा…हम पहुँचने वाले हैं…ट्रेन आउटर पर खड़ी है।” “अच्छा पापा, मैं भी निकलता हूँ ऑफिस से, बस दस मिनट में स्टेशन पहुँच जाऊँगा। आप वेटिंग रूम में बैठ जाइएगा” कहकर अंकित ने फोन …

“हैलो…हैलो…अंकित बेटा…हम पहुँचने वाले हैं…ट्रेन आउटर पर खड़ी है।”
“अच्छा पापा, मैं भी निकलता हूँ ऑफिस से, बस दस मिनट में स्टेशन पहुँच जाऊँगा। आप वेटिंग रूम में बैठ जाइएगा” कहकर अंकित ने फोन काट दिया।
उधर ट्रेन में बैठे राजेन्द्र जी और उनकी पत्नी उर्मिला ने भी बड़े उत्साह से अपना बैग-अटैची सँभाल ली क्योंकि दिल्ली का स्टेशन आने वाला ही था। गाड़ी भी रेंगने लगी थी।
उर्मिला ने बहुत गद्गद् होते हुए कहा, “पता ही नहीं चला कि पाँच साल कैसे बीत गये? लड्डू भी तो अब बोलने लगा है।”
राजेन्द्र जी भी मुस्कुराकर बोले, “हाँ…अगर उसने फोन पर नहीं कहा होता कि ‘दादा दी तब आओदे’ …तो मैं आता नहीं। पाँच साल में एकबार भी नहीं बुलाया अंकित और सलोनी ने।”
“ओफ्फो! आप तो हर समय झुँझलाते ही रहते हैं। अरे बच्चे अपने काम में बिजी थे कि हमारी देखभाल करते। दोनों को ऑफिस जाना होता है। खाली घर में क्या करते हम? ठीक है, अब बुला लिया ना?” उर्मिला ने समझाते हुए कहा, “अच्छा सुनिए, उनके फंक्शन में कुछ भी हो ज्यादा टेंशन मत करना…दिल्ली का सिस्टम अलग है।”
“हाँ-हाँ जानता हूँ…चलो प्लेटफार्म आ गया” राजेन्द्र जी ने कहा और अपनी अटैची ट्रेन के डिब्बे की गैलरी में घसीटते हुए गेट की ओर चल दिए। पीछे-पीछे बैग और पानी की बोतल सँभाले उर्मिला भी चल रही थी।
पाँच साल पहले अंकित और सलोनी ने दिल्ली में ही गुपचुप शादी कर ली थी। राजेन्द्र जी और उर्मिला को जब पता लगा तो वे बहुत नाराज़ हुए। अब पाँच साल बाद जब उनका बेटा लड्डू दो साल का हो गया तो उसके जन्मदिन पर एक ग्रांड पार्टी का आयोजन दिल्ली के एक बड़े होटल में किया जा रहा है। बहुत मनाया, कई-कई बार दोनों ने सॉरी बोला तब कहीं जाकर राजेन्द्र जी और उर्मिला ने पार्टी में दिल्ली आने का मन बनाया लेकिन पक्का निर्णय उस समय लिया जब दो साल के नन्हें लड्डू ने अपनी तोतली जबान में दादा-दादी को इन्वॉइट किया और सारे गिले-शिकवे भुलाकर दोनों ने रिज़र्वेशन करवा लिया।
राजेन्द्र जी ने उर्मिला को हाथ पकड़कर प्लेटफार्म पर उतारा और अंकित को फोन करने लगे, “बेटा, हम प्लेटफार्म पर आ चुके हैं…तुम कितनी देर में आ पहुँच रहे हो?”
“ओह पापा, बस आधा घंटा लगेगा। आप वेटिंग रूम में बैठिए। चाय-वाय पीजिए मैं ऑफिस से निकलता हूँ” अंकित ने उत्तर दिया।
“तुम अभी तक ऑफिस से निकले ही नहीं हो…तुम तो कह रहे थे कि दस मिनट में…” राजेन्द्र जी को झुँझलाहट आ रही थी।
“अरे पापा! एक इम्पार्टेंट फाइल साइन करनी थी, बस निकल ही रहा हूँ बीस-पच्चीस मिनट में” कहकर अंकित ने फोन काट दिया।
राजेन्द्र जी बड़बड़ाते हुए वेटिंग रूम की ओर चलने लगे, “अभी तक जनाब ऑफिस से निकले ही नहीं हैं…अभी आधा घंटा लगेगा…पहुँचेंगे करीब एक-डेढ़ घंटे में…ऑफिस यहाँ रखा है…हद है।”
“ओफ्फो, अब क्यों बड़बड़ा रहे हो? आ जाएगा। काम कर रहा है घूम तो नहीं रहा” उर्मिला ने कहा।
“तुम्हारी इसी आदत से मुझे चिढ़ है। हमेशा अंकित का पक्ष लेती हो। अरे! जब उसे मालूम था कि हम आज आ रहे हैं तो क्या गाड़ी नहीं भेज सकता था स्टेशन? और फिर जब पार्टी आज है तो एक दिन की छुट्टी भी ली जा सकती थी” राजेन्द्र जी बोले।
“छुट्टी की क्या ज़रूरत है? पार्टी होटल में है। सबकुछ तैयार करना तो होटल का काम है। हमें क्या हम तो पैसा लेकर पहुँच जाएँ बस” उर्मिला जी ने शान्ति से पुल पर चढ़ते हुए कहा।
“बस…माँ-बाप, रिश्तेदार सबको चूल्हे में झोंको और…” राजेन्द्र जी झुँझलाने लगे।
“अच्छा बस करो…किधर जाना है?” उर्मिला जी ने बात काटी।
“इधर चलो, प्लेटफार्म एक इधर है…वेटिंग रूम भी इधर ही है” राजेन्द्र जी सूटकेस घसीटते हुए बढ़ने लगे।
वेटिंग रूम में आकर हाथ-मुँह धोकर दोनों ने एक-एक कप चाय पी। लगभग आधा घंटा बीतने के बाद राजेन्द्र जी ने फिर अंकित को फोन किया, “हैलो…कहाँ हो?”
“बस पापा…अभी पहुँचा। ऑफिस से निकल चुका हूँ…ज़रा होटल में कुछ एडवांस देकर स्टेशन पहुँच रहा हूँ” अंकित का जवाब था।
फोन अपनी जेब में रखते हुए राजेन्द्र जी को खामोश देखकर उर्मिला ने कहा, “क्या हुआ?”
“अभी होटल जा रहा है…एडवांस देने। उसके बाद यहाँ आएगा” राजेन्द्र जी ने बिस्किट मुँह में डालते हुए कहा।
“चलो ठीक है। आ जाएगा। वैसै अभी साढ़े ग्यारह ही तो हुआ है…पूरा दिन पड़ा है। पार्टी तो शाम सात बजे से है” उर्मिला ने कहा।
लगभग एक बज चुका था। दोनों बैठे-बैठे ऊँघने लगे थे कि राजेन्द्र जी ने फिर अंकित को फोन किया। बहुत देर तक घंटी बजती रही और कोई उत्तर न मिला। दो-तीन बार फोन करने पर भी जब कोई उत्तर नहीं मिला तो राजेन्द्र जी झल्लाते हुए बोले, “अब फोन ही नहीं उठ रहा है।”
उर्मिला ने राजेन्द्र जी को समझाया, “क्यों गुस्सा कर रहे हैं? ट्रेफिक में फँसा होगा। गाड़ी चलाए कि फोन उठाए।”
“आधे घंटे में आ रहा हूँ बोला था और डेढ़ घंटा हो चुका है। क्या तरीका है?” राजेन्द्र जी के चेहरे पर अभी भी गुस्से के भाव थे।
“दिल्ली का ट्रेफिक मालूम है…खामख्वाह नाराज़ हो रहे हैं आप। आ जाएगा” उर्मिला ने कहा ही था कि फोन की घंटी बज उठी। राजेन्द्र जी ने झट से फोन उठाया, “हैलो…हाँ…कहाँ हो?”
अंकित ने उत्तर दिया, “अरे पापा, सारी…मैं जाम में फँसा हूँ…पता नहीं कितनी देर लगेगी…मैं सलोनी को फोन करता हूँ वह आपको लेने आ जाएगी…उसका ऑफिस स्टेशन के पास ही है।”
“जब उसका ऑफिस पास है तो पहले नहीं कर सकता था…ठीक है करो…हम भी बैठे-बैठे थक गये हैं” राजेन्द्र जी ने कहा और फिर उर्मिला जी के पास आकर बेंच पर बैठ गये।
प्रतीक्षा करते-करते एक घंटा और बीत गया। लगभग दो बज चुके थे, भूख भी लगने लगी थी और धैर्य भी साथ छोड़ रहा था। झुँझलाते हुए राजेन्द्र जी ने कहा, “क्या तमाशा लगा रखा है? ऑफिस पास है तो अभी तक नहीं आ पाई देवी जी…अच्छा बेवकूफ़ बनाया…ये बड़े शहर वाले भी…अरे हमें पता भी नहीं बताया वरना हम खुद ही पहुँच जाते।”
“आप बहुत जल्दी नाराज़ हो जाते हैं। अपना काम एकदम छोड़कर कोई कैसे आ सकता है? आ जाएगी, वैसे भी पहली बार उसे देखेंगे। अब तक तो केवल फोटो में ही तो देखा है। अच्छा, अब कुछ खा लीजिए,” कहते हुए उर्मिला ने पूड़ी-आलू और अचार डिस्पोज़ेबल प्लेट में लगाया और प्लेट राजेन्द्र जी के सामने बढ़ा दी। भूख ज़ोरों की लग रही थी, अतः सबकुछ भूलकर राजेन्द्र जी ने पूड़ी-आलू खाए, पानी पिया और एक-एक चाय का आर्डर देकर फिर इन्तज़ार करने लगे।
पौने तीन बज चुके थे पर अभी तक कोई भी नहीं आया था। राजेन्द्र जी ने फिर फोन किया तो अंकित ने कहा, “अरे पापा! मैं तो समझ रहा था कि सलोनी आपको ले आयी होगी। मैं तो बड़ी मुश्किल से जाम से निकलकर घर की तरफ जा रहा हूँ। मैं अभी सलोनी से बात करता हूँ।” फोन कट गया। राजेन्द्र जी एकदम शान्त होकर बैठ गये, उर्मिला बेंच पर पैर पसार चुकी थी। लगभग बीस मिनट बाद फिर अंकित का फोन आया, “हैलो पापा जी…सलोनी पहुँच रही है अभी, आप इन्क्वायरी ऑफिस पर पहुँच जाइए।” राजेन्द्र जी ने झटपट उर्मिला को उठाया और अपनी अटैची, बैग आदि सँभालते हुए इन्क्वायरी ऑफिस पर पहुँच गये। लगभग आधा घंटा तक खड़े-खड़े थकने के बाद पास ही पड़ी बेंच पर बैठ गये और घड़ी देखते हुए बोले, “लो, साढ़े तीन बज गया और अभी तक हमारी सुध नहीं आई इन लोगों को। तुम्हें क्या हुआ? आर यू ओके?” उर्मिला जी के चेहरे की ओर देखकर राजेन्द्र जी बोले।
“पता नहीं क्यों एकदम से पेट और सिर में दर्द होने लगा”, उर्मिला ने दर्द के कारण मुँह बिगाड़ते हुए कहा।
“अच्छा चलो, वेटिंग रूम में चलो वहीं लेट जाना। जब सलोनी आयेगी तो यहीं बुला लूँगा। अरे! उसका नम्बर तो पूछा ही नहीं अंकित से,” राजेन्द्र जी ने कहा और दोनों वेटिंग रूम लौट आए।
उर्मिला को बेंच पर लिटाना चाहा लेकिन तब तक अन्य यात्री आकर बैठ चुके थे। अतः केवल बैठने का ही स्थान शेष था जिसपर उर्मिला बैठ गयी। राजेन्द्र जी ने सलोनी का फोन नम्बर पूछने के लिए अंकित को कई बार फोन लगाया लेकिन फोन नॉट रीचेबल बताता रहा। थककर वह भी एक कोने में बैठ गये। शाम के साढ़े चार बज चुके थे। उर्मिला के चेहरे से पता लग रहा था कि उनकी तकलीफ़ बढ़ रही है। अब राजेन्द्र जी परेशान हो रहे थे। एकबार फिर अंकित को फोन मिलाया, “हैलो, बेटा तुम्हारी माँ की तबियत खराब हो रही है…जल्दी आओ।”
“आप कौन बोल रहे हैं?” एक नारी स्वर ने फोन पर प्रश्न पूछा।
“बेटा मैं अंकित का पापा बोल रहा हूँ…तुम सलोनी हो ना?”
“यस मैं सलोनी बोल रही हूँ…पर मैं आपको नहीं जानती और यह अंकित कौन है? सारी रांग नम्बर।” फोन कट गया।
राजेन्द्र जी हैरान व परेशान थे, ‘अभी थोड़ी देर पहले तक तो अंकित के नम्बर पर उससे बात हो रही थी, अब अचानक यह रांग नम्बर कैसे हो गया?’ उनके चेहरे पर उदासी और परेशानी के भाव साफ झलक रहे थे। उर्मिला भी अब तक कराहने की स्थिति में आ चुकी थी। उन्हें धर्य बँधाकर कुछ दवाइयाँ लेने वह स्टेशन के बाहर निकल आए। यहाँ-वहाँ देखा कोई मेडिकल स्टोर नज़र नहीं आया। आने-जाने वालों से पूछते हुए थोड़ी दूरी पर एक मेडिकल तक पहुँचे लेकिन उसने ऐसे कोई भी दवा देने से मना कर दिया और पहले डॉक्टर को दिखाने की सलाह दी।
राजेन्द्र जी दुखी हो रहे थे। इधर-उधर देखकर सड़क पार करके स्टेशन की ओर बढ़ गए और जेब से फोन निकाल कर फिर से अंकित को फोन किया, “हैलो…अंकित बेटा…तुम्हारी माँ की तबियत बिगड़ रही है…तुम कहाँ हो…” उनकी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि “सारी रांग नम्बर” सुनकर वह चुप हो गए। रुआँसा चेहरा लिए वे स्टेशन पर वेटिंग रूम में लौट आए। उर्मिला अभी तक कराह रही थी। राजेन्द्र जी को देखकर पूछने लगी, “कितनी देर में आएगा अंकित?” राजेन्द्र जी ने कुछ नहीं कहा, बस प्रश्न किया, “बहुत दर्द है?” ‘हाँ’ में सिर हिलाने के बाद उर्मिला ने फिर पूछा, “कितनी देर…?” “चलो बाहर किसी डॉक्टर को दिखा दूँ। पता नहीं क्या हो गया अचानक?” उर्मिला की बात काटते हुए राजेन्द्र जी उन्हें उठाने लगे।
“अरे, अंकित कब आएगा…आप कहाँ परेशान हो रहे हैं? अंकित को आने दीजिए, वही दिखा देगा” उर्मिला ने कहा।
राजेन्द्र जी ने उर्मिला से बिना नज़रे मिलाए कहा, “पता नहीं कब आयेगा…और तुम कब तक दर्द सहती रहोगी…चलो बाहर चलो…कोई-न-कोई डॉक्टर मिल ही जाएगा।”
उर्मिला चलने को खड़ी हुई पर लड़खड़ाकर फिर बैठ गयी, “नहीं चला जा रहा है, लगता है पैरों में जान ही नहीं रही।”
“अरे हिम्मत तो करो…आओ मैं पकड़ लेता हूँ” राजेन्द्र जी ने कहा।
“नहीं…रहने दो। मुझे लिटा दो बस…” उर्मिला ने आँखें बंद कर लीं और बेंच पर ही लुढ़कने लगी।
राजेन्द्र जी बहुत विचलित हो गये। जैसे-तैसे उर्मिला को लिटाकर फिर फोन निकाला और न चाहते हुए भी नंबर मिलाया लेकिन ‘नॉट रीचेबल’ ही सुनते रहे। लाचार मजबूर राजेन्द्र जी की आँखें उर्मिला के दर्द में डूबे चेहरे पर पड़ते ही भर आईं। उनकी इस हालत को वेटिंग रूम का सहायक बहुत देर से देख रहा था। वे रुमाल से अपनी आँखें पोंछ ही रहे थे कि वह उनके पास आकर बोला, “क्या हुआ अंकल, कोई परेशानी?” राजेन्द्र जी ने गीली आँखें लिए भर्राए गले से सारा हाल कह सुनाया।
सहायक बोला, “अरे अंकल! आप किस चक्कर में पड़े हैं? यह दिल्ली है। आपका बेटा और बहू कोई आपको लेने आने वाला नहीं है। आप मेरी सलाह मानों पहले आंटी को डॉक्टर को दिखाओ फिर गाड़ी में बैठकर वापस घर चले जाओ। यह दिल्ली जितनी बड़ी है, यहाँ के लोगों के दिल उतने ही छोटे हैं। रुकिए मैं अभी डॉक्टर को बुलाकर लाता हूँ।” सहायक चला गया।
राजेन्द्र जी उसकी बातों को याद करके सोचते हुए उर्मिला के चेहरे को देखते रहे। लगभग दस मिनट बाद वह सहायक डॉक्टर को साथ लेकर लौटा। डॉक्टर ने चेकअप किया और कुछ दवाइयाँ लिखकर राजेन्द्र जी को पर्चा पकड़ा दिया। राजेन्द्र जी ने डॉक्टर से फीस पूछी लेकिन डॉक्टर ने यह कहकर मना कर दिया कि “आप मेरे माता-पिता की तरह हैं, आपसे कैसी फीस? आप जल्दी मेरे साथ चलकर दवाइयाँ ले लीजिए, मेरा मेडिकल स्टोर भी यहीं पास में है।”
राजेन्द्र जी डॉक्टर के पीछे जाने को उठे तभी सहायक ने कहा, “अंकल, आप आंटी के पास बैठिए मैं दवाइयाँ लेकर आता हूँ।” डॉक्टर और सहायक को जाता हुआ देखकर राजेन्द्र जी को आश्चर्य हो रहा था कि इस शहर में जहाँ अपने भी बेगानों जैसे हो गये हैं, ये बेगाने लोग मेरी मदद कर रहे हैं। राजेन्द्र जी उर्मिला के पास बैठ गये। लगभग पन्द्रह-बीस मिनट के बाद सहायक लौटा और उसने दवाइयाँ राजेन्द्र जी को दे दीं। राजेन्द्र जी ने उर्मिला को उठाया और दवाइयाँ दीं।
सहायक अभी तक पास में खड़ा था। उसने राजेन्द्र जी से कहा, “अंकल, आप बरेली से आए हैं ना?” “हाँ… आज सुबह ही तो…” राजेन्द्र जी अपनी बात पूरी नहीं कर पाए कि सहायक ने कहा “जी मैंने देखा था। अंकल…वही गाड़ी अभी एक घंटे बाद इसी प्लेटफार्म से वापस जाएगी। यदि आप मेरी सलाह माने तो वापस चले जाइए क्योंकि आपको लेने यहाँ कोई नहीं आएगा। अभी चार दिन पहले आपकी ही तरह एक अंकल-आंटी पंजाब से आए थे। इसी वेटिंग रूम में दो दिनों तक अपने बेटे का इन्तज़ार करते रहे लेकिन वह नहीं आया और अन्त में उन्हें भी वापस जाना पड़ा। वैसे यदि आप चाहें तो मुझे अपने बेटे का पता बता दीजिए, मैं आपको आपके बेटे के पास पहुँचा…” वह बात पूरी नहीं कर पाया था कि राजेन्द्र जी ने जेब से पाँच सौ का नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, “लो बेटे, दवाई के पैसे ले लेना और हम दोनों का वापसी का टिकट भी ले आना।” नोट लेकर सहायक चला गया।
उर्मिला को दवाई से आराम मिलने लगा था। बरेली की ओर वापस जाने वाली ट्रेन भी प्लेटफार्म पर लग रही थी। टिकट लाकर और ट्रेन में आराम से बैठाकर सहायक ने कुछ बिस्किट-नमकीन, जूस के पैकेट और फल उर्मिला दे दिए और उनके पास बैठकर अपने परिवार की बातें करने लगा।
गाड़ी का सिगनल हो चुका था। सहायक ने दोनों को उनकी यात्रा के लिए शुभकामनाएँ दीं और उनके पैर छूकर वहाँ से चला गया। गाड़ी भी प्लेटफार्म से धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी कि तभी फोन की घंटी सुनकर राजेन्द्र जी ने फोन उठाया लिया। “हैलो…पापा…कहाँ हैं आप?” अंकित फोन पर पूछ रहा था।

“सॉरी रांग नम्बर” कहकर राजेन्द्र जी ने बन्द कर दिया और खिड़की से बाहर तेजी से पास होते हुए स्टेशन को देखने लगे।

#कॉपी

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सुजल शाह

#प्रेम पति पत्नी के बीच प्रेम क्या होता है कोई विजेंद्र सिंह राठौड़ से सीखे ! यह
तस्वीर अजेमर के निवासी विजेंद्र सिंह राठौड़ और उनकी धर्मपत्नी लीला की है। 2013 में लीला ने विजेंद्र से आग्रह किया के वह चार धाम की यात्रा करना चाहती हैं। विजेंद्र एक ट्रेवल एजेंसी में कार्यरत थे। इसी दरमियां ट्रैवेल एजेंसी का एक टूर केदारनाथ यात्रा जाने के लिये निश्चित हुआ। पतिपत्नी ने अपना बोरिया बिस्तर बांधा और केदारनाथ जा पहुंचे।
विजेंद्र और लीला एक लॉज में रुके थे। लीला को लॉज में छोड़ विजेंद्र कुछ दूर ही गये थे के चारों ओर हाहाकार मच गई। उत्तराखंड में आई भीषण बाढ़ का उफनता पानी केदारनाथ आ पहुंचा था। विजेंद्र ने बामुश्किल अपनी जान बचाई। मौत का तांडव और उफनते हुये पानी का वेग शांत हुआ तो विजेंद्र बदहवास होकर उस लॉज की ओर दौड़े जहाँ वह लीला को छोड़ कर आये थे। परन्तु वहाँ पहुंच कर जो नज़ारा दिखा वह दिल दहला देने वाला था। सब कुछ बह चुका था। प्रकृति के इस तांडव के आगे वहां मौजूद हर इंसान बेबस दिख रहा था।
तो क्या लीला भी …..
नहीं नहीं। ऐसा नहीं हो सकता।विजेंद्र ने अपने मन को समझाया।
“वह जीवित है” विजेंद्र का मन कह रहा था। इतने वर्षों का साथ पल भर में तो नहीं छूट सकता।
परन्तु आस पास कहीं जीवन दिखाई नहीं दे रहा था। हर ओर मौत तांडव कर रही थी। लाशें बिखरी हुई थी। किसी का बेटा किसी का भाई तो किसी का पति बाढ़ के पानी मे बह गया था।
विजेंद्र के पास लीला की एक तस्वीर थी तो हर समय उसके पर्स में रहती थी। अगले कुछ दिन वह घटनास्थल पर हाथ मे तस्वीर लिये घूमता रहा। हर किसी से पूछता “भाई इसे कहीं देखा है”।
और जवाब मिलता ………
“ना”
एक विश्वास था जिसने विजेंद्र को यह स्वीकारने से रोक रखा था के लीला अब इस दुनिया में नहीं है।
दो हफ्ते बीत चुके थे। राहत कार्य जोरों पर थे। इसी दरमियां उसे फौज के कुछ अफसर भी मिले जिन्होंने उससे बात की। लगभग सबका यही निष्कर्ष था के लीला बाढ़ में बह चुकी है।
विजेंद्र ने मानने से इनकार कर दिया।
घर मे फोन मिला कर बच्चों को इस हादसे के बारे में सूचित किया। बच्चे अनहोनी के डर से घबराये हुये थे। रोती बिलखती बिटिया ने पूछा के “क्या अब माँ नहीं रही” तो विजेंद्र ने उसे ज़ोर से फटकार दिया और कहा “वह ज़िंदा है “।
एक महीना बीत चुका था। अपनी पत्नी की तालाश में विजेंद्र दर दर भटक रहा था। हाथ मे एक तस्वीर थी और मन मे एक आशा।
“वह जीवित है”
इसी बीच विजेंद्र के घर सरकारी विभाग से एक फोन आया। एक कर्मचारी ने कहा के लीला मृत घोषित कर दी गयी है और हादसे में जान गवां चुके लोगों को सरकार मुआवजा दे रही है। मृत लीला के परिजन भी सरकारी ऑफिस में आकर मुआवजा ले सकते हैं।
विजेंद्र ने मुआवज़ा लेने से भी इंकार कर दिया।
परिजनों ने कहा के अब तो सरकार भी लीला को मृत मान चुकी है। अब तलाशने से कोई फ़ायदा नहीं है। परन्तु विजेंद्र ने मानने से इनकार कर दिया। जिस सरकारी कर्मचारी ने लीला की मौत की पुष्टि की थी उसे भी विजेंद्र ने कहा ….
“वह जीवित है”
विजेंद्र फिर से लीला की तालाश में निकल पड़े। उत्तराखंड का एक एक शहर नापने लगे। हाथ मे एक तस्वीर और ज़ुबाँ पर एक सवाल ” भाई इसे कहीं देखा है?” और सवाल का एक ही जवाब
“ना”
लीला से विजेंद्र को बिछड़े अब 19 महीने बीत चुके थे। इस दरमियां वह लगभग 1000 से अधिक गाँव मे लीला को तालाश चुके थे।
27 जनवरी 2015
उत्तराखंड के गंगोली गाँव मे एक राहीगर को विजेंद्र सिंह राठौर ने एक तस्वीर दिखाई और पूछा “भाई इसे कहीं देखा है”
राहीगर ने तस्वीर ध्यान से देखी और बोला ……..
“हां”
“देखा है। इसे देखा है”। ” यह औरत तो बौराई सी हमारे गाँव मे घूमती रहती है”।
विजेंद्र राहीगर के पांव में गिर पड़े। राहीगर के साथ भागते भागते वह गाँव पहुंचे। वही एक चैराहा था और सड़क के दूसरे कोने पर एक महिला बैठी थी।
“लीला”
वह “नज़र” जिससे “नज़र” मिलाने को “नज़र” तरस गयी थी।
वह लीला थी। विजेंद्र लीला का हाथ पकड़ कर अबोध बच्चे की तरह रोते रहे। इस तालाश ने उन्हें तोड़ दिया था। भावनायें और संवेदनायें आखों से अविरल बह रही थी। आँखें पत्थर हो चुकी थी फिर भी भावनाओं का वेग उन्हें चीरता हुआ बह निकला था।
लीला की मानसिक हालत उस समय स्थिर नहीं थी। वह उस शख्स को भी नहीं पहचान पाई जो उसे इस जगत में सबसे ज्यादा प्यार करता था। विजेंद्र ने लीला को उठाया और घर ले आये। 12 जून 2013 से बिछड़े बच्चे अपनी मां को 19 महीने के अंतराल के बाद देख रहे थे। आखों से आंसुओं का सैलाब बह रहा था।
यह 19 महीने विजेंद्र सिंह राठौर के जीवन का सबसे कठिनतम दौर था। परन्तु इस कठिनाई के बीच भी विजेंद्र के हौसले को एक धागे ने बांधे रखा। वह “प्रेम” का धागा है। एक पति का अपनी पत्नी के प्रति प्रेम और समर्पण जिसने प्रकृति के आदेश को भी पलट कर रख दिया। लीला के साथ बाढ़ में बह जाने वाले अधिकतर लोग नहीं बचे। लीला बच गयी। शायद विजेंद्र प्रभु से भी कह रहे थे ………
” वह जीवित है” और प्रभु को भी विजेंद्र के प्रेम और समर्पण के आगे अपना फैसला बदलना पड़ा।
आज का लेख एक पति के प्रेम की पराकाष्ठा को समर्पित है। प्रेम की इस सत्यकथा पर शीघ्र की बॉलीवुड के प्रख्यात डायरेक्टर सिद्धार्थ रॉय कपूर एक फ़िल्म भी बनाने जा रहे हैं.!!

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धर्मेन्द्र सिंग

🌹 “भक्त सूरदास”🌹

एक बार सूरदास जी कहीं जा रहे थे, चलते-चलते मार्ग में एक गढ्ढा आ गया और सूरदास जी उसमें गिर गए और जैसे ही गढ्ढे में गिरे तो किस को पुकारते ? अपने कान्हा को ही पुकारने लगे, भक्त जो ठहरे। एक भक्त अपने जीवन में मुसीबत के समय में प्रभु को ही पुकारता है, और पुकारने लगे की अरे मेरे प्यारे छोटे से कन्हैया आज तूने मुझे यहाँ भेज दिया और अब क्या तू यहाँ नहीं आएगा मुझे अकेला ही छोड़ देगा ?
सूरदास जी ने कान्हा को याद किया तो आज प्रभु भी उनकी पुकार सुने बिना नहीं रह पाए। और उसी समय एक बाल गोपाल के रूप में वहाँ प्रकट हो गए, और प्रभु के पांव की नन्ही-नन्ही सी पैजनियाँ जब छन-छन करती हुई सूरदास जी के पास आई तो सूरदास जी को समझते देर न लगी। कान्हा उनके समीप आये और बोले अरे बाबा नीचे क्या कर रहे हो, लो मेरा हाथ पकड़ो और जल्दी से ऊपर चले आओ। जैसे ही सूरदास जी ने इतनी प्यारी सी मिश्री सी घुली हुई वाणी सुनी तो जान गए की मेरा कान्हा आ गया, और बहुत प्रसन्न हो गए, तथा कहने लगे की अच्छा कान्हा, बाल गोपाल के रूप में आए हो। बाल गोपाल कहने लगे अरे कौन कान्हा ? किसका नाम लेते जा रहे हो, जल्दी से हाथ पकड़ो और ऊपर आ जाओ, ज्यादा बातें न बनाओ।
सूरदास जी मुस्कुरा पड़े और कहने लगे- सच में कान्हा तेरी बांसुरी के भीतर भी वो मधुरता नहीं, मानता हूँ की तेरी बांसुरी सारे संसार को नचा दिया करती है लेकिन कान्हा तेरे भक्तो का दुःख तुझे नचा दिया करता है। क्यों कान्हा सच है न ? तभी तो तू दौड़ा चला आया।
बाल गोपाल कहने लगे- अरे बहुत हुआ, पता नहीं क्या कान्हा-कन्हा किये जा रहा है। मैं तो एक साधारण सा बाल ग्वाल हूँ, मदद लेनी है तो लो नहीं तो मैं तो चला, फिर पड़े रहना इसी गढ्ढे में।
जैसे ही उन्होंने इतना कहा सूरदास जी ने झट से कान्हा का हाथ पकड़ लिया और कहा- कान्हा तेरा ये दिव्य स्पर्श, तेरा ये सान्निध्य, ये सुर अच्छी तरह जानता हूँ। मेरा दिल कह रहा है की तु मेरा श्याम ही है।
इतना सुन कर, जैसे ही आज चोरी पकडे जाने के डर से कान्हा भागने लगे तो सुरदास जी ने कह दिया-

बाँह छुडाये जात हो, निबल जान जो मोहे।
ह्रदय से जो जाओगे, सबल समझूंगा मैं तोहे।।

अर्थात- मुझे दुर्बल समझ यहाँ से तो भाग जाओगे लेकिन मेरे दिल की कैद से कभी नहीं निकल पाओगे।
ऐसे थे महान कृष्ण भक्त सूरदास जी।

“जय जय श्री राधे”

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Ramchandra arya

गली में कोई आवाज लगा रहा था । दाल ले लो …चावल ले लो ।

“ओ भैया ! कैसे दे रहे रहे हो ?” तीसरी मजिल से एक महिला ने आवाज लगाई थी । वह आदमी अपनी साइकिल पर तीन कट्टे चावल और हेंडिल पर दो थैलों में दाल लादे हुए था ।

“चावल चालीस का किलो है और मसूर सत्तर की किलो है ।”

“रुको मैं नीचे आती हूँ ।” कहकर महिला नीचे आने लगी । वह साइकिल लिए धूप में खड़ा रहा । कुछ देर बाद वह बाहर आई ।

“अरे! भैया , तुम लोग भी न हमें खूब चूना लगाते हो । चालीस रुपये किलो तो बहुत अच्छा चावल आता है और दाल भी महंगी है …सही – सही भाव लगा लो। ”

“बहिन जी ! इस से कम न दे सकूँगा । आप जानती नहीं हैं कि चावल और दाल को पैदा होने में सौ से एक सौ बीस दिन लगते हैं । एक किलो चावल पर बीस-तीस लीटर पानी लगता है । हर दिन डर लगता है हमें कि कुछ अनहोनी न हो जाय मौसम की । चार महीने पसीना बहाने के बाद भी कई बार फसल के दाम नहीं मिलते । आप लोग किसानों की बात खूब करते हैं पर कोई नहीं जानता कि हर साल दो लाख किसान मर जाते हैं । हमारे पास आप जैसे बड़े मकान नहीं , सुविधा के सामान नहीं । खुद ही निकल पड़े हैं इस लोहे के घोड़े पर लादकर ।”

“सब जानती हूँ भैया पर वहाँ स्टोर में तो सस्ता मिलता है ।” वह अपनी बात ऊपर करते हुए बोली ।

“बहिन जी , दो रुपए किलो का आलू चार सौ रुपये किलो में चिप्स में , बीस रुपये किलो का चावल सात-आठ सौ रुपये किलो और हमारी अस्सी रुपये किलो की मिर्च पीसकर डिब्बों ले तीन चार सौ रुपये किलो आपको सस्ती लगती । नहीं दे सकेंगे जी ।” वह आगे बढ्ने लगा ।

“लगता है तुम टी वी खूब देखते हो ।” महिला बोली ।

“हाँ, कभी-कभी देखते हैं अपना मज़ाक बनते हुए । खेती की जमीन पर कब्जे , पानी का नीचे जाता स्तर , खाद, बीज के बढ़ते भाव और किसानों की बेइज्जती तो आप भी जानती होंगी । यहाँ कोई बड़ा आदमी करोड़ों लेकर भाग जाय तो कुछ नहीं , हम कर्ज न चुका पाएँ तो बैंक दीवार पर नाम का नोटिस चस्पा कर देता है । सब के सामने बेइज्जत करता है , कुर्की लाता है । बहिन चाँदी तो बिचौलिये काट रहे हैं ।”

“लगता है राजनीति भी जानते हो तुम ।”

“हम तो शिकार हैं राजनीति के । जब इस देश की नदियां सूख जाएगी , जंगल खत्म हो जाएँगे , जब खेतों पर इमारतें होंगी तब इंसान लड़ेगा रोटी के हर टुकड़े के लिए मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी …फिर ये फेक्टरिया भूख मारने की दवाई बनाएँगी या एक -दूसरे को मारने की गोलियां ।” वह बोला ।

“बात तो पढे-लिखो जैसी कर रहे हो भैया । कहाँ तक पढे हो ?”

“सरकारी कालेज से बी ए किया है , पर हमारे लिए नौकरी नहीं है । हम अपनी भाषा में जो पढे हैं । यहाँ तो सबको चटर -पटर अङ्ग्रेज़ी चाहिए और ससुर गाली देंगे अपनी भाषा में । अनपढ़ करेंगे राज तो होगी ही मेहनतकश पर गाज ।” वह अपना पसीना पोंछते हुए बोला ।

“वोट तो तुम भी देते हो न ।”

“वोट भी हम देते हैं , जान भी हम देते हैं , भीड़ भी हम होते हैं और मरने को सेना में भी हम जाते हैं । आम आदमी बस साल में एक दिन नारा लगाता है जय जवान जय किसान और हो गए महान ।” वह बोला । धूप बहुत तेज थी सो सीधे सवाल किया ,” बहिन जी ! कितना लेना है ?”

“पाँच किलो चावल और दो किलो दाल ।” महिला दाल देखते हुए बोली ।

“ठीक है दस रुपया कम दे देना कुल पैसे में ।” और उसने साइकिल स्टेंड पर खड़ी कर दी । महिला उसका लाल तमतमाया हुआ चेहरा देखती रही । वह सामान तोलने में लग गया ।

“लो बहिन जी , आपका सामान तोल दिया ।

महिला ने सामान लिया और बोली , ” ऊपर जाकर पैसे देती हूँ भैया । ”

कुछ देर बाद एक टोकरी उसने लटका दी जिसमें उसके पूरे पैसे थे । एक पानी की बोतल थी और कुछ लपेटकर रखा हुआ था ।

उसने पैसे और पानी ले लिया ।

“बहिन आपने ज्यादा पैसे रख दिये हैं । दस रुपये काटे नहीं ।” वह चिल्लाया ।

“पहले खाना ले लो …समझना मैंने रुपये ले लिए ….तुमने बहिन कहा है मुझे , खाना जरूर खाना ।” उसने वहीं बैठकर खाना शुरू कर दिया था । तीसरे मंजिल से कुछ टपका था मगर तपती धूप में दिखा नहीं था। हथेलियों पर राहत की दो गरम बूंद आत्मीयता के मोतियों के बिखर गए थे । टोकरी धीरे-धीरे कर ऊपर चली गई थी और उसके हाथ ऊपर उठ गए थे दुआ में एक अनजान बहन के लिए ।

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अरुण पांडे

।। हम और हमारे कर्म ।।
एक चित्रकार था , जो अद्धभुत चित्र बनाता था . लोग उसकी चित्रकारी कीकाफी तारीफ़ करते थे .एक दिन कृष्ण मंदिर के भक्तों ने उनसे कृष्ण और कंस का एक चित्र बनाने की इच्छा प्रगट की .
चित्रकार इसके लिये तैयार हो गया आखिरभगवान् का काम था , पर उसने कुछ शर्ते रखी . उसने कहा मुझे योग्य पात्र चाहिए , अगर वे मिल जाएं तो मैं आसानी से चित्र बना दूंगा .कृष्ण के चित्र लिए एक योग्य नटखट बालक और कंस के लिए एक क्रूर भाव वाला व्यक्ति लाकर दें तब मैं चित्र बनाकर दूंगा कृष्ण मंदिर के भक्त एक बालक ले आये , बालक सुन्दर था .चित्रकार ने उसे पसंद किया और उस बालक को सामने रख बालकृष्ण का एक सुंदर चित्र बनाया .अब बारी कंस की थी पर क्रूर भाव वाले व्यक्ति को ढूंढना थोडा मुश्किल था . जो व्यक्ति कृष्ण मंदिर वालो को पसंद आता वो चित्रकार को पसंद नहीं आता उसे वो भाव मिल नहीं रहे थे… वक्त गुजरता गया . आखिरकार थक-हार कर सालों बाद वो अबजेल में चित्रकार को ले गए , जहा उम्रकेद काट रहे अपराधी थे . उन अपराधीयों में से एक कोचित्रकार ने पसंद किया और उसे सामने रखकर उसने कंस का एक चित्र बनाया .कृष्ण और कंस की वो तस्वीर आज सालों के बाद पूर्ण हुई . कृष्ण मंदिर के भक्त वो तस्वीरे देखकर मंत्रमुग्ध हो गए . उस अपराधी ने भी वह तस्वीरे देखने की इच्छा व्यक्त की .उस अपराधी ने जब वो तस्वीरें देखी तो वो फूट-फूट कर रोने लगा . सभी ये देख अचंभित हो गए .चित्रकार ने उससे इसका कारण बड़े प्यार सेपूछा . तब वह अपराधी बोला :”शायद आपने मुझे पहचाना नहीं , मैं वो ही बच्चा हूँ जिसे सालों पहले आपने बालकृष्ण के चित्र के लिए पसंद किया था . मेरे कुकर्मो से आज में कंस बन गया , इस तस्वीर मैं मैं ही कृष्ण मैं ही कंस हूँ .हमारे कर्म ही हमे अच्छा और बुरा इंसान बनाते हैं. भावार्थ :- अगर हमारे कर्म अच्छे और महान होते है तो लोग आपे ही हमे देवी-देवता का सम्मान देते हैं . कहते है देखो वो इन्सान देवता का रूप है .इसलिए कर्म का हमारे जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है .लोग कहते भी है-.कर्म करो तुम ऐसे भाई पड़े ना फिर पछताना ,एक दिन तो धर्मराज को पड़ेगा मुख दिखलाना .कर्म हमारे श्रेष्ठ बनेंगे जब हम खुद पर गौर करेंगे ,जैसा कर्म हम करेंगे हमे देखकर और करेंगे .
🌷राधे राधे🌷
🌷जय माता की🌷

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देव कृष्णा

!! #एकछोटीसीमाँ !!
!! #एक
नेकदिलइन्सान !!

एक दीन-हीन आठ दस वर्ष की लड़की से दुकान वाला बोला कि-

“छुटकी जा देख तेरा छोटा भाई रो रहा है तुमने दूध नही पिलाया क्या ..”

“नही सेठ मैंने तो सुबह ही दूध पिला दिया था”
“अच्छा तू जा जाकर देख मैं ग्राहक संभालता हूं…”

एक ग्राहक सेठ से -“अरे भाई ये कौन लड़की है जिसे तुमने इतनी छूट दे रखी हैं, परसो सारे ग्लास तोड़ दियें, कल एक आदमी पर चाय गिरा दी, और तुमने इसे कुछ नही कहा..”

सेठ – “भाईसाहब ये वो लड़की हैं, जो शायद तुम्हें आज के कलयुग में देखने को ना मिलें,”

ग्राहक -“मैं समझा नही”

सेठ_”चलो तुम्हे शुरू से बताता हूं..एक दिन दुकान पर बहुत भीड़ थी, और कोई नौकर भी नही था, ये लड़की, अपने छोटे भाई को गोद में लिए, काम माँगने आयी,”
और इसकी शर्त सुनेगा.. इसने शर्त रखी….
“मुझे काम के पैसें नही चाहिए बस काम के बीच में मेरा भाई रोया तो, मैं भाई को पहेले देखूंगी, सुबह, दोपहर, शाम, रात चार टाइम दूध चाहिए…”
“रहने के लिए मैं इसी होटल के किचन पर रहूंगी, खाने के लिए जो बचेगा, उसे खा लूंगी,
मेरे भाई के रोने पर आप चिल्लाओगे नही,
अगर कुछ काम बच गया, तो मेरे भाई के सोने के बाद, मैं रात को होटल के सारे काम कर दूंगी, अगर मंजूर हो तो बताओं”

ग्राहक -“फिर तुमने क्या कहा”

सेठ_”मैं तो हंस पड़ा, और कहा और कुछ मेरा मतलब की कोई पैसों की खास डिमांड वगैरह….”
तो इसने कहा- “बस इतना ही, की मुझे काम मिलें, मैं सड़को पर भीख नही माँगना चाहती, ना ही अपने भाई को भिखारी बनाना चाहती हूं, दिल लगाकर काम करूगी…उसे पढाऊंगी ..बडा आदमी बनाऊंगी ..”
उतने में छुटकी आ गई…..

“सेठजी उसने चड्डी पर सुसु कर दिया था, इसलिए रो रहा था, अब सो गया हैं अब नही रोयेगा, मैं अब काम पर लगती हूं…”

ग्राहक -“तुमने उसे फिर क्यू कुछ नही बोला…”

सेठ मुस्कुराते हुए -“अरे जनाब, आप बस किताबों में ही पढ़ते हो क्या… अच्छी चीजें…?

जरा इसको देखो तो, नन्ही सी जान, छोटी सी उम्र, काम करना चाहती हैं, हाथ फैलाना नही, कोई तो होना चाहिए ना, उसे अपने पैरों पर खड़े करने के लिए,

शायद बंसीवाले ने, ये काम मुझे सौपा हैं, कि मैं उसे एक रास्ता दिखाऊ, और फ्रिक इस बात की हैं न कि वो ग्लास ही तोड़ती हैं, विश्वास नही तोडेगी, और जरा ये भी तो सोच, बच्ची है कहा जाती, यही पड़ी हैं

दोस्त, जब तक प्रभु की मर्जी हैं,

मैं कौन होता हूं, उसकी कहानी में उसका लिखा बदलने वाला….”

छुटकी फिर दौड़ते हुए उस ग्राहक की चाय गिराते हुए बोली- “सेठ जी भाई रो रहा, आप आड॔र लो

इस बार ग्राहक भी हंस पड़ा, और कहने लगा, “जाइयें, सेठ सी, महारानी ने आदेश दिया है लग जाइए ….”

दोनों मुसकुराने लगे वही छुटकी छोटे भाई को संभालने लग गयी

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