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P c sharma

बरसाने का ब्रह्मगिरी पर्वत

वराहपुराण में और पद्मपुराण में ऐसा लिखा है कि पहले ब्रह्मा जी ने 60 हजार वर्ष तक तप किया फिर भी गोपियों की रज नहीं मिली. उसके बाद सतयुग के अंत में ब्रह्मा जी ने फिर तप किया
भगवान ने कहा – कि तुम क्या चाहते हो ?
ब्रह्मा जी बोले – कि सब गोपियों की रज मिल जाये व माधुर्यमयी लीलाएँ देखने को मिले.
भगवान ने कहा – कि वहाँ पुरुषों का प्रवेश नहीं है.
ब्रह्मा जी बोले, फिर ?
भगवान ने कहा – कि तुम पर्वत बन जाओ.
ब्रह्मा जी बोले – कहाँ ?
भगवान ने कहा – कि तुम ब्रज में चले जाओ.
ब्रह्मा जी ने कहा – कि ब्रज तो बहुत बड़ा है, कहाँ जायें ?
भगवान बोले – कि वृषभानुपुर यानि बरसाना चले जाओ. वहाँ पर्वत बन जाना, अपने आप सब लीला मिल जायेगी व गोपियों की चरण रज भी मिल जायेगी. बरसाना – वहाँ नित्य श्री राधा रानी के चरण मिलेंगे.तब ब्रह्मा जी यहाँ आकर पर्वत बन गए.
एक कथा आती है बरसाने के पर्वतों के बारे में कि जब भगवान सती अनुसुइया की परीक्षा लेने गये थे तो वहाँ उसने ब्रहमा विष्णु शिव को श्राप दिया कि तुमने बड़ा अमर्यादित व्यवहार किया है इसीलिए जाओ पर्वत बन जाओ. तो तीनों देवता पर्वत बन गये और उनका नाम त्रिंग हुआ. जब श्री राम जी का सेतु बंधन हो रहा था तो पर्वत लाये जा रहे थे. त्रिंग को जब हुनमान जी ला रहे थे तो आकाशवाणी हुई कि अब पर्वत मत लाओ क्योंकि सेतु बंधन हो चुका है.
तो जब हुनमान जी ने उसे यहाँ पर रखा तो गिरिराज जी बोले कि हनुमान जी हम तुमको श्राप दे देंगे. हे वानर राज तुमने हमारा प्रभु से मिलन नहीं होने दिया. तो हुनमान जी ने प्रभु से प्रार्थना किया. एक पुराण में लिखा है कि तब राम जी ने कहा कि मैं स्वयं श्री कृष्ण के रूप में उनको अपने हाथों से धारण करूँगा जब कि औरों को तो सिर्फ चरण स्पर्श ही दूंगा.
एक और जगह आता है कि स्वयं राम जी आये और उन्होंने जो त्रिंग थे, ब्रह्मा विष्णु शिव, इन तीनों को अलग – अलग करके यहाँ स्थापित किया. ‘ नन्दगाँव’ में शिव जी को स्थापित किया, ‘ नन्दीश्वर’ के रूप में, और ‘गोवर्धन’ में विष्णु को ‘गिरिराज’ जी के रूप में, ब्रह्मा जी यहाँ ‘बरसाने’ में स्थापित किये ‘ ब्रह्मगिरी पर्वत’ के रूप में, आज हम लोग इस ब्रह्मगिरी की महिमा सुन रहे हैं यहाँ चार शिखर हैं , चार गढ़ है, मानगढ़, दानगढ़, भानुगढ़, विलासगढ़. ये जितने शिखर हैं ये ब्रह्मा जी के मस्तक हैं.
“जय जय श्री राधे “

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महाकाल

बनारस में एक चर्चित दूकान पर लस्सी का ऑर्डर देकर हम सब दोस्त-यार आराम से बैठकर एक दूसरे की खिंचाई और हंसी-मजाक में लगे ही थे कि एक लगभग 70-75 साल की बुजुर्ग स्त्री पैसे मांगते हुए मेरे सामने हाथ फैलाकर खड़ी हो गई।
उनकी कमर झुकी हुई थी, चेहरे की झुर्रियों में भूख तैर रही थी। नेत्र भीतर को धंसे हुए किन्तु सजल थे। उनको देखकर मन मे न जाने क्या आया कि मैने जेब मे सिक्के निकालने के लिए डाला हुआ हाथ वापस खींचते हुए उनसे पूछ लिया,
“दादी लस्सी पियोगी ?”
मेरी इस बात पर दादी कम अचंभित हुईं और मेरे मित्र अधिक। क्योंकि अगर मैं उनको पैसे देता तो बस 5 या 10 रुपए ही देता लेकिन लस्सी तो 25 रुपए की एक है। इसलिए लस्सी पिलाने से मेरे गरीब हो जाने की और उस बूढ़ी दादी के द्वारा मुझे ठग कर अमीर हो जाने की संभावना बहुत अधिक बढ़ गई थी।दादी ने सकुचाते हुए हामी भरी और अपने पास जो मांग कर जमा किए हुए 6-7 रुपए थे वो अपने कांपते हाथों से मेरी ओर बढ़ाए। मुझे कुछ समझ नही आया तो मैने उनसे पूछा,
“ये किस लिए?”
“इनको मिलाकर मेरी लस्सी के पैसे चुका देना बाबूजी !”
भावुक तो मैं उनको देखकर ही हो गया था… रही बची कसर उनकी इस बात ने पूरी कर दी।
एकाएक मेरी आंखें छलछला आईं और भरभराए हुए गले से मैने दुकान वाले से एक लस्सी बढ़ाने को कहा… उन्होने अपने पैसे वापस मुट्ठी मे बंद कर लिए और पास ही जमीन पर बैठ गई।
अब मुझे अपनी लाचारी का अनुभव हुआ क्योंकि मैं वहां पर मौजूद दुकानदार, अपने दोस्तों और कई अन्य ग्राहकों की वजह से उनको कुर्सी पर बैठने के लिए नहीं कह सका।डर था कि कहीं कोई टोक ना दे…..कहीं किसी को एक भीख मांगने वाली बूढ़ी महिला के उनके बराबर में बिठाए जाने पर आपत्ति न हो जाये… लेकिन वो कुर्सी जिसपर मैं बैठा था मुझे काट रही थी..लस्सी कुल्लड़ों मे भरकर हम सब मित्रों और बूढ़ी दादी के हाथों मे आते ही मैं अपना कुल्लड़ पकड़कर दादी के पास ही जमीन पर बैठ गया क्योंकि ऐसा करने के लिए तो मैं स्वतंत्र था…इससे किसी को आपत्ति नही हो सकती थी… हां! मेरे दोस्तों ने मुझे एक पल को घूरा… लेकिन वो कुछ कहते उससे पहले ही दुकान के मालिक ने आगे बढ़कर दादी को उठाकर कुर्सी पर बैठा दिया और मेरी ओर मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर कहा,”ऊपर बैठ जाइए साहब! मेरे यहां ग्राहक तो बहुत आते हैं किन्तु इंसान कभी-कभार ही आता है।”अब सबके हाथों मे लस्सी के कुल्लड़ और होठों पर सहज मुस्कुराहट थी, बस एक वो दादी ही थीं जिनकी आंखों मे तृप्ति के आंसू, होंठों पर मलाई के कुछ अंश और दिल में सैकड़ों दुआएं थीं।न जानें क्यों जब कभी हमें 10-20 रुपए किसी भूखे गरीब को देने या उसपर खर्च करने होते हैं तो वो हमें बहुत ज्यादा लगते हैं लेकिन सोचिए कि क्या वो चंद रुपए किसी के मन को तृप्त करने से अधिक कीमती हैं?क्या कभी भी उन रुपयों को बीयर , सिगरेट ,पर खर्च कर ऐसी दुआएं खरीदी जा सकती हैं?जब कभी अवसर मिले ऐसे दयापूर्ण और करुणामय काम करते रहें भले ही कोई अभी आपका साथ दे या ना दे, समर्थन करे ना करें। सच मानिए इससे आपको जो आत्मिक सुख मिलेगा वह अमूल्य है

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महाकाल

शहर के नज़दीक बने एक farm house में दो घोड़े रहते थे. दूर से देखने पर वो दोनों बिलकुल एक जैसे दीखते थे , पर पास जाने पर पता चलता था कि उनमे से एक घोड़ा अँधा है. पर अंधे होने के बावजूद farm के मालिक ने उसे वहां से निकाला नहीं था बल्कि उसे और भी अधिक सुरक्षा और आराम के साथ रखा था. अगर कोई थोडा और ध्यान देता तो उसे ये भी पता चलता कि मालिक ने दूसरे घोड़े के गले में एक घंटी बाँध रखी थी, जिसकी आवाज़ सुनकर अँधा घोड़ा उसके पास पहुंच जाता और उसके पीछे-पीछे बाड़े में घूमता. घंटी वाला घोड़ा भी अपने अंधे मित्र की परेशानी समझता, वह बीच-बीच में पीछे मुड़कर देखता और इस बात को सुनिश्चित करता कि कहीं वो रास्ते से भटक ना जाए. वह ये भी सुनिश्चित करता कि उसका मित्र सुरक्षित; वापस अपने स्थान पर पहुच जाए, और उसके बाद ही वो अपनी जगह की ओर बढ़ता.

दोस्तों, बाड़े के मालिक की तरह ही भगवान हमें बस इसलिए नहीं छोड़ देते कि हमारे अन्दर कोई दोष या कमियां हैं. वो हमारा ख्याल रखते हैं और हमें जब भी ज़रुरत होती है तो किसी ना किसी को हमारी मदद के लिए भेज देते हैं. कभी-कभी हम वो अंधे घोड़े होते हैं, जो भगवान द्वारा बांधी गयी घंटी की मदद से अपनी परेशानियों से पार पाते हैं तो कभी हम अपने गले में बंधी घंटी द्वारा दूसरों को रास्ता दिखाने के काम आते हैं.
🚩🚩🚩🚩🚩

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महाकाल

एक राजा के पास कई हाथी थे,
लेकिन एक हाथी बहुत शक्तिशाली था, बहुत आज्ञाकारी,
समझदार व युद्ध-कौशल में निपुण था।
बहुत से युद्धों में वह भेजा गया था
और वह राजा को विजय दिलाकर वापस लौटा था,
इसलिए वह महाराज का सबसे प्रिय हाथी था। समय गुजरता गया और एक समय ऐसा भी आया,
जब वह वृद्ध दिखने लगा। अब वह पहले की तरह कार्य नहीं कर पाता था।
इसलिए अब राजा उसे युद्ध क्षेत्र में भी नहीं भेजते थे।एक दिन वह सरोवर में जल पीने के लिए गया, लेकिन वहीं कीचड़ में उसका पैर धँस गया और फिर धँसता ही चला गया। उस हाथी ने बहुत कोशिश की,
लेकिन वह उस कीचड़ से स्वयं को नहीं निकाल पाया।उसकी चिंघाड़ने की आवाज से लोगों को यह पता चल गया कि वह हाथी संकट में है। हाथी के फँसने का समाचार राजा तक भी पहुँचा राजा समेत सभी लोग हाथी के आसपास इक्कठा हो गए और विभिन्न प्रकार के शारीरिक प्रयत्न उसे निकालने के लिए करने लगे।
जब बहुत देर तक प्रयास करने के उपरांत कोई मार्ग नहीं निकला तो राजा ने अपने सबसे अनुभवी मंत्री को बुलवाया। मंत्री ने आकर घटनास्थल का निरीक्षण किया और फिर राजा को सुझाव दिया कि सरोवर के चारों और युद्ध के नगाड़े बजाए जाएँ। सुनने वालोँ को विचित्र लगा कि भला नगाड़े बजाने से वह फँसा हुआ हाथी बाहर कैसे निकलेगा, जो अनेक व्यक्तियों के शारीरिक प्रयत्न से बाहर निकल नहीं पाया आश्चर्यजनक रूप से जैसे ही युद्ध के नगाड़े बजने प्रारंभ हुए, वैसे ही उस मृतप्राय हाथी के हाव-भाव में परिवर्तन आने लगा।
पहले तो वह धीरे-धीरे करके खड़ा हुआ और फिर सबको हतप्रभ करते हुए स्वयं ही कीचड़ से बाहर निकल आया। अब मंत्री ने सबको स्पष्ट किया कि हाथी की शारीरिक क्षमता में कमी नहीं थी, आवश्यकता मात्र उसके अंदर उत्साह के संचार करने की थी।हाथी की इस कहानी से यह स्पष्ट होता है कि यदि हमारे मन में एक बार उत्साह – उमंग जाग जाए तो फिर हमें कार्य करने की ऊर्जा स्वतः ही मिलने लगती है और कार्य के प्रति उत्साह का मनुष्य की उम्र से कोई संबंध नहीं रह जाता।जीवन मे उत्साह बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य सकारात्मक चिंतन बनाए रखे और निराशा को हावी न होने दे।
कभी – कभी निरंतर मिलने वाली असफलताओं से व्यक्ति यह मान लेता है कि अब वह पहले की तरह कार्य नहीं कर सकता, लेकिन यह पूर्ण सच नहीं है।
।।जय श्री महाकाल ।।

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🔴मुल्ला नसरुद्दीन कपड़ा बेचता था। एक दिन आधी रात में उठा और एकदम से उसने अपनी चादर फाड़ दी। उसकी पत्नी ने पूछा, “नसरुद्दीन, यह क्या कर रहे हो?’ उसने कहा, “तू कम से कम दुकान में दखल न दे, ग्राहक कपड़ा खरीदने आया है।’

वह सपने में कपड़ा फाड़कर ग्राहक को दे रहा है। सपने में भी ग्राहक! सपने में भी दुकान! सपने में भी वही चलेगा न, जो दिन में चला है!

आप कहां भागकर जायेंगे अपने से? तो एकांत निर्जन में आप जा सकते हैं, लेकिन आप अकेले नहीं हो सकते। अकेले होने की कला दूसरी है। जो आदमी अकेले होने की कला जान लेता है, वह भीड़ में भी अकेला है। उसके लिए भीड़ में भी एकांत है। महावीर को आप बाजार में ला ही नहीं सकते। इसका मतलब यह नहीं है कि उनको आप बाजार में नहीं निकाल सकते। बिलकुल निकाल सकते हैं। लेकिन महावीर को बाजार में नहीं लाया जा सकता। बाजार में से भी वह ऐसे ही गुजर जायेंगे, जैसे कि एकांत से गुजर रहे हों। क्योंकि उनके भीतर कोई भीड़ नहीं है।

भीड़ में अकेले होने की कला। और हम तो एक ही कला जानते हैं, अकेले में भी भीड़ में होने की कला। अकेले भी बैठे हैं, तो भी भीतर कुछ चलता रहता है।

निर्जन वन में रहने से कोई मुनि नहीं होता, हालांकि कोई मुनि हो जाये तो निर्जन उसे उपलब्ध हो जाता है।
“और न कुशा के वस्त्र पहन लेने मात्र से कोई तपस्वी होता है।’

अपने को कष्ट देने से कोई तपस्वी नहीं हो जाता, यद्यपि कोई तपस्वी हो तो कष्टों को झेलने की क्षमता आ जाती है।

इस फर्क को समझ लें। ये दोनों बातें बड़ी बुनियादी और भिन्न हैं।

~ OSHO
महावीर वाणी–(भाग–2) प्रवचन-19♣️

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कैनेडा में एक अभिनेता हुआ–चार्ल्स कार्लगन। मरने के दस साल पहले उसने वसीयत की और कहा कि जब मैं मर जाऊं तो मेरी कब्र मेरे गांव में ही बनाई जाए। उसका गांव कैनेडा के पास प्रिंस-द्वीप में एक छोटे से द्वीप पर है। मैं अपने ही गांव में दफनाया जाऊं।

लेकिन जब उसने वसीयत की थी तब उसके पास रुपये भी थे,इज्जत भी थी। अभिनेता की इज्जत और रुपये का कोई भरोसा नहीं। ऐसे तो किसी की इज्जत का और रुपये का कोई भरोसा नहीं। फिर अभिनेता की इज्जत और रुपया! जब वह मरा तब वह बिलकुल भिखमंगा था। लोग उसे भूल चुके थे। फारगॉटन फेसेस में, भूले हुए चेहरों में उसकी गिनती हो गई थी। और मरा भी तो अपने गांव से दो हजार मील दूर मरा। मरा वह टेक्सास में। कौन फिकर करे उसकी वसीयत की! कौन उसे पहुंचाए! उसके पास कफन के पैसे भी नहीं थे। वे भी गांव के लोगों ने भरे थे। उसे दो हजार मील की यात्रा कौन कराए! गांव के लोगों ने उसे दफना दिया।

मरते वक्त आखिरी क्षण भी उसके ओंठ पर एक ही बात थी,आखिरी बात भी उसने यही कही कि कुछ भी करके मुझे मेरे गांव भेज देना और जिस दरख्त के नीचे मैं पैदा हुआ था उसी दरख्त के नीचे मुझे दफना देना। लेकिन कैसे उसे पहुंचाया जाए? मर गया, तो लोगों ने उसे दफना दिया वहीं दो हजार मील दूर।

उस रात एक बहुत हैरानी की घटना घटी। उस रात अचानक तूफान आ गया। ऐसा तूफान जैसा कि कोई संभावना ही न थी। वृक्ष उखड़ गए, मकान गिर गए। जिस वृक्ष के नीचे उसे दफनाया था, वह वृक्ष उखड़ गया जड़ों सहित और उसकी लाश भी उखड़ गई। एक लकड़ी के ताबूत में उसे गड़ाया गया था, वह ताबूत सहित लाश बाहर आ गई। समुद्र वहां से दो मील दूर था, तूफान धक्के दे-दे कर उसकी लाश को, उसके ताबूत को सागर तक पहुंचा दिया। और दो हजार मील उस मुर्दे ने यात्रा की और प्रिंस-द्वीप के किनारे जाकर लग गया जहां वह पैदा हुआ था। जब लोगों ने उस ताबूत को खोला, तो सारा शरीर गल गया था, सिर्फ चेहरा बिलकुल साबुत बच गया था। वे पहचान गए कि वह तो चार्ल्स कार्लगन है, उनके गांव का पैदा हुआ अभिनेता। उन्होंने उसे उसी वृक्ष के नीचे दफना दिया जहां वह पैदा हुआ था।

मुझे किसी ने यह खबर भेजी और मुझसे पूछा कि क्या कहते हैं आप? क्या इस आदमी का मरने के पहले का संकल्प इतना प्रभावशाली हो सकता है? यह केवल संयोग है या कि इसके संकल्प का परिणाम है?

इतना प्रभावशाली संकल्प हो सकता है। जिंदगी भर हम संकल्प से ही जीते और मरते हैं। कमजोर होता है तो कमजोर जिंदगी होती है। प्रबल होता है तो प्रबल जिंदगी हो जाती है। आदमी के हाथ में एक ही ताकत है: वह उसके विल फोर्स की है, उसके संकल्प की है।

नहीं, न तो विश्वास से कोई भीतर की यात्रा पर जाता है, न कोई विचार से भीतर की यात्रा पर जाता है। न थिंकिंग से, न बिलीफ से। जाता है विल से, संकल्प से।

संकल्प को थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है। संकल्प का मतलब है कि जो भी मैं निर्णय ले रहा हूं, वह पूरा है। वह निर्णय अधूरा नहीं है। यदि मैं शांत होना चाहता हूं, तो यह मेरा निर्णय पूरा है, यह अधूरा नहीं है। ऐसा न हो कि मेरा आधा मन कहता हो कि शांत हो जाऊं और आधा मन कहता हो कि क्या करोगे शांत होकर। तो आपका आधा मन अपने बाकी आधे मन को काट देगा। आपका श्रम व्यर्थ हो जाएगा। यह ऐसे ही होगा जैसे कोई आदमी दीवाल पर एक ईंट चढ़ाए और दूसरे हाथ से ईंट एक उतार ले और मकान कभी न बने। हम करीब-करीब जिंदगी में ऐसे ही जीते हैं। हम सब संकल्प करते हैं, लेकिन इधर करते हैं और इधर से खींच लेते हैं।

सांझ एक आदमी कहता है: सुबह पांच बचे उठना है। और जब वह कहता है तब भी अगर थोड़ा भीतर झांके तो उसे पता है कि वह उठेगा नहीं। वह भी उसे मालूम है। वह पक्का करता है कि पांच बजे तो उठना ही है! और तब भी वह अगर थोड़ा गौर करे तो पता चलेगा: इस पांच बजे उठने के भीतर वह आवाज मौजूद है जो कह रही है कि कहां उठोगे! कैसे उठोगे! रात बहुत सर्द है! लेकिन अभी इस आवाज को वह झुठला देता है, सो जाता है। सुबह पांच बजे जब घड़ी का अलार्म बजता है तब वह दूसरी आवाज, जो सांझ भी मौजूद थी, वह कहती है: कहां इतनी सर्दी,फिर कभी सोचना, फिर कल उठना। वह फिर सो जाता है। सुबह पछताता है। जब पांच बजे रात वह करवट बदल कर सोता है तब भी भीतर एक आवाज होती है कि तुम यह क्या कर रहे हो? सांझ निर्णय किया था, सुबह पछताना पड़ेगा! लेकिन उसको सुनता नहीं। सुबह उठता है और पछताता है कि मैंने निर्णय लिया था और यह क्या हो गया? मैं उठा क्यों नहीं?

अपना ही संकल्प आधा अपने ही आधे संकल्प से कट जाता है।

मनुष्य की जिंदगी का बड़े से बड़ा दुख यही है कि उसका मन खुद ही खंडों में बंटा है और एक-दूसरे को काट देता है।

यह जो इन आने वाले दिनों में हम एक अंतर्यात्रा पर, जीवन की खोज पर, रहस्य के अनुभव के लिए जाने की तैयारी में आए हैं,ध्यान रखना है कि संकल्प पूरा हो, पूरे मन से तैयारी हो, पूरा मन राजी हो, तो दुनिया में कोई रोक नहीं सकता। इस दुनिया में एक ही शक्ति है जो कार्यकारी है, वह हमारे संकल्प की शक्ति है। लेकिन अगर वही हमारे पास नहीं है, तो हम बिलकुल निर्जीव हैं,जीते जी मरे हुए आदमी हैं।

तो दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं…पहली बात कि विचार करने हम यहां इकट्ठे नहीं हुए हैं। इसलिए इन तीनों दिनों के लिए विचार की फिकर छोड़ देना। हम यहां विश्वास करने इकट्ठे नहीं हुए हैं। इसलिए आप हिंदू हैं कि मुसलमान हैं कि जैन हैं कि ईसाई हैं, फिकर छोड़ देना। आपके विश्वासों से यहां कोई प्रयोजन नहीं है। आपके विचारों से कोई मतलब नहीं है। आपके संकल्प भर से अर्थ है। अपने भीतर टटोल लेना कि मैं जो भी निर्णय करूं वह पूरा है?

ध्यान रहे, छोटे-छोटे निर्णय से परीक्षा हो जाती है। इसलिए मैंने सोचा है कि कुछ लोग, जो समझते हों कि वे तीन दिन मौन रख सकते हैं, वे मौन ही रखें। वह तीन दिन का मौन उनके संकल्प के लिए बड़ा आधार बन जाएगा। वे तीन दिन शब्द का उपयोग ही न करें। थोड़ी अड़चन होगी, बहुत ज्यादा अड़चन नहीं होगी। और एक दिन में आप अनुभव करेंगे कि ज्यादा बोलने की जरूरत ही नहीं थी, हम फिजूल ज्यादा बोल रहे थे। जरूरत पड़े तो थोड़ा कागज पर लिख कर कुछ कह देना। अन्यथा तीन दिन अधिकतम लोग मौन रह सकें, तो गहरे परिणाम होंगे। छोटा सा संकल्प उनके लिए बड़ा उपयोगी हो जाएगा। जो लोग तीन दिन तक चुप रह सकते हैं, बहुत छोटी सी बात है, लेकिन बात बड़ी है। क्योंकि चुप रहने का निर्णय अगर निभाया जा सके, तो आपके भीतर संकल्प की पृष्ठभूमि को निर्माण कर जाएगा। और हम जो और प्रयोग करने जा रहे हैं उनमें वह सहयोगी हो जाएगा।

जो घर बारे आपना

ओशो

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स्वाति जाधव

एक औरत बहुत महँगे कपड़े में अपने मनोचिकित्सक के पास गई और बोली
“डॉ साहब ! मुझे लगता है कि मेरा पूरा जीवन बेकार है, उसका कोई अर्थ नहीं है। क्या आप मेरी खुशियाँ ढूँढने में मदद करेंगें?”
मनोचिकित्सक ने एक बूढ़ी औरत को बुलाया जो वहाँ साफ़-सफाई का काम करती थी और उस अमीर औरत से बोला – “मैं इस बूढी औरत से तुम्हें यह बताने के लिए कहूँगा कि कैसे उसने अपने जीवन में खुशियाँ ढूँढी। मैं चाहता हूँ कि आप उसे ध्यान से सुनें।”
तब उस बूढ़ी औरत ने अपना झाड़ू नीचे रखा, कुर्सी पर बैठ गई और बताने लगी – “मेरे पति की मलेरिया से मृत्यु हो गई और उसके 3 महीने बाद ही मेरे बेटे की भी सड़क हादसे में मौत हो गई। मेरे पास कोई नहीं था। मेरे जीवन में कुछ नहीं बचा था। मैं सो नहीं पाती थी, खा नहीं पाती थी, मैंने मुस्कुराना बंद कर दिया था।”
मैं स्वयं के जीवन को समाप्त करने की तरकीबें सोचने लगी थी। तब एक दिन,एक छोटा बिल्ली का बच्चा मेरे पीछे लग गया जब मैं काम से घर आ रही थी। बाहर बहुत ठंड थी इसलिए मैंने उस बच्चे को अंदर आने दिया। उस बिल्ली के बच्चे के लिए थोड़े से दूध का इंतजाम किया और वह सारी प्लेट सफाचट कर गया। फिर वह मेरे पैरों से लिपट गया और चाटने लगा।”
“उस दिन बहुत महीनों बाद मैं मुस्कुराई। तब मैंने सोचा यदि इस बिल्ली के बच्चे की सहायता करने से मुझे ख़ुशी मिल सकती है,तो हो सकता है कि दूसरों के लिए कुछ करके मुझे और भी ख़ुशी मिले। इसलिए अगले दिन मैं अपने पड़ोसी, जो कि बीमार था,के लिए कुछ बिस्किट्स बना कर ले गई।”
“हर दिन मैं कुछ नया और कुछ ऐसा करती थी जिससे दूसरों को ख़ुशी मिले और उन्हें खुश देख कर मुझे ख़ुशी मिलती थी।”
“आज,मैंने खुशियाँ ढूँढी हैं, दूसरों को ख़ुशी देकर।”
यह सुन कर वह अमीर औरत रोने लगी। उसके पास वह सब था जो वह पैसे से खरीद सकती थी।
लेकिन उसने वह चीज खो दी थी जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती।
मित्रों! हमारा जीवन इस बात पर निर्भर नहीं करता कि हम कितने खुश हैं अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी वजह से कितने लोग खुश हैं।
तो आईये आज शुभारम्भ करें इस संकल्प के साथ कि आज हम भी किसी न किसी की खुशी का कारण बनें।

😊 मुस्कुराहट का महत्व 😊
👍अगर आप एक अध्यापक हैं और जब आप मुस्कुराते हुए कक्षा में प्रवेश करेंगे तो देखिये सारे बच्चों के चेहरों पर मुस्कान छा जाएगी।
👍
अगर आप डॉक्टर हैं और मुस्कराते हुए मरीज का इलाज करेंगे तो मरीज का आत्मविश्वास दोगुना हो जायेगा।
👍अगर आप एक ग्रहणी है तो मुस्कुराते हुए घर का हर काम किजिये फिर देखना पूरे परिवार में खुशियों का माहौल बन जायेगा।
👍
अगर आप घर के मुखिया है तो मुस्कुराते हुए शाम को घर में घुसेंगे तो देखना पूरे परिवार में खुशियों का माहौल बन जायेगा।
👍अगर आप एक बिजनेसमैन हैं और आप खुश होकर कंपनी में घुसते हैं तो देखिये सारे कर्मचारियों के मन का प्रेशर कम हो जायेगा और माहौल खुशनुमा हो जायेगा।
👍
अगर आप दुकानदार हैं और मुस्कुराकर अपने ग्राहक का सम्मान करेंगे तो ग्राहक खुश होकर आपकी दुकान से ही सामान लेगा।
👍_कभी सड़क पर चलते हुए अनजान आदमी को देखकर मुस्कुराएं, देखिये उसके चेहरे पर भी मुस्कान आ जाएगी।

मुस्कुराइए
😊क्यूंकि मुस्कराहट के पैसे नहीं लगते ये तो ख़ुशी और संपन्नता की पहचान है।

मुस्कुराइए
😊क्यूंकि आपकी मुस्कराहट कई चेहरों पर मुस्कान लाएगी।

मुस्कुराइए
😊क्यूंकि ये जीवन आपको दोबारा नहीं मिलेगा।

मुस्कुराइए
😊क्योंकि क्रोध में दिया गया आशीर्वाद भी बुरा लगता है और मुस्कुराकर कहे गए बुरे शब्द भी अच्छे लगते हैं।

मुस्कुराइए
😊क्योंकि दुनिया का हर आदमी खिले फूलों और खिले चेहरों को पसंद करता है।

मुस्कुराइए
😊क्योंकि आपकी हँसी किसी की ख़ुशी का कारण बन सकती है।

मुस्कुराइए
😊 क्योंकि परिवार में रिश्ते तभी तक कायम रह पाते हैं जब तक हम एक दूसरे को देख कर मुस्कुराते रहते है
और सबसे बड़ी बात

मुस्कुराइए
😊 क्योंकि यह मनुष्य होने की पहचान है। एक पशु कभी भी मुस्कुरा नही सकता।
इसलिए स्वयं भी मुस्कुराए और औराें के चहरे पर भी मुस्कुराहट लाएं.

यही जीवन है।
*आनंद ही जीवन 🌹🙏

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देव कृष्णा

शीर्षक…….,मेहमान

बात छोटी सी थी परन्तु न जाने कैसे बढ़ गयी।पति पत्नी की ज़ुबां से जो न निकलना चाहिये था वह निकल गया और तैश में आ कर राघव ने सिया को बोल दिया,”इस तरह मेरे साथ तुम्हारा गुज़ारा नहीं हो सकता…मैं तुम्हारे साथ और नहीं रह सकता”।
राघव तो कह कर दफ्तर चला गया पर सिया सन्न रह गयी।जिस लहज़े में यह बात बोली गई थी उससे यहां रहने में उसे अपमानित महसूस हो रहा था।’क्या करे वह……’
इसी उधेड़बुन में उसने अपना सूटकेस पैक कर लिया।’रात की गाड़ी से वह आगरा चली जाएगी मां के पास और अभी राघव के आने से पहले ही वह अपनी सहेली के घर चली जाएगी’।
“सिया जल्दी तैयार हो जाओ मैं पिक्चर के टिकट ले कर आ रहा हूं”,तीन बजे ही राघव का फ़ोन आया तो वह असमंजस में पड़ गई तभी डोर बैल बजने पर उसने दरवाज़ा खोला तो राघव था मुस्कुराता हुआ,”अरे…तुम तैयार नहीं हुईं?”
“पर सुबह आपका गुस्सा…….”
“अरे वह तो मेहमान था आया और चला गया मैहमान भी कभी ज्यादा देर रुकते हैं……और तुमसे ज़्यादा मुझे मेहमान थोड़े ही अज़ीज़ है”,एक मीठी मुस्कुराहट के साथ उसने अपनी एक आंख दबा दी।
सिया की आंखों में आशाओं के अनगिनत इन्द्रधनुशी दीप जगमगा उठे थे।
एक अनचाहा मेहमान घर मे ठहरने से पहले ही वापस लौट गया था। Copied

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देव कृष्णा

🌹एक कहानी🌹

🍁🍁 एक राज्य का क़ानून था
कि वो एक साल बाद अपना राजा बदल लेते थे।
उस दिन जो भी सब से पहले शहर में आता था तो उसे राजा घोषित कर लेते थे,
और इससे पहले वाले राजा को एक बहुत ही ख़तरनाक और मीलों मॆं फैले जंगल के बीचों बीच छोड़कर आते
जहां बेचारा अगर खूंखार जानवरो से किसी तरह अपने आप को बचा लेता तो भूख- प्यास से मर जाता ।
ना जाने कितने ही राजा ऐसे ही एक साल की राजगद्दी के बाद जंगल में जा कर मर गए ।
एक बार राज्य में एक नौजवान किसी दूसरे राज्य से आया और इस राज्य के कानून से अनजान था,
तब सब लोगों ने आगे बढ़कर उसे बधाईयाँ दी
और
उसे बताया कि उसको इस राज्य का राजा चुन लिया गया है
और
उसे बड़े मान-शान के साथ राजमहल में ले गए ।
वो हैरान भी हुआ
और
बहुत ख़ुश भी । राजगद्दी पर बैठते ही
उसने पूछा कि मुझ से पहले जो राजा था,
वो कहाँ है?
तो दरबारियों ने उसे इस राज्य का क़ानून बताया
कि
हर राजा को एक साल बाद जंगल में छोड़ दिया जाता है और नया राजा चुन लिया जाता है ।
ये बात सुनते ही वो एक बार तो परेशान हुआ
लेकिन फिर उसने अपनी दिमाग का इस्तेमाल करते हुए कहा कि मुझे उस जगह लेकर चलो जहाँ तुम अपने पहले के राजाओ को छोड़कर आते हो। दरबारियों ने सिपाहियों को साथ लिया और नये नियुक्त राजा को वो जगह दिखाने जंगल में ले गए,
राजा ने अच्छी तरह उस जगह को देख लिया और वापस आ गया अगले दिन उसने सबसे पहला आदेश ये दिया कि मेरे राजमहल से जंगल तक एक सड़क बनाई जाये और जंगल के बीचों बीच एक ख़ूबसूरत राजमहल बनाया जाये जहां पर हर तरह की सुविधा मौजूद हों और राजमहल के बाहर ख़ूबसूरत बाग़ बनाया जाएं।
राजा के आदेश का पालन किया गया, जंगल मे सड़क और राजमहल बनकर तैयार हो गया। एक साल के पूरे होते ही राजा ने दरबारियों से कहा कि आप अपने कानून का पालन करो और मुझे वहां छोड़ आओ जहां मुझ से पहले राजाओ को छोड़ के आते थे।
दरबारियों ने कहा कि महाराज आज से ये कानून ख़त्म हो गया क्योंकि हमें एक अक़लमंद राजा मिल गया है , वहाँ तो हम उन बेवक़ूफ राजाओ को छोड़कर आते थे जो एक साल की राजशाही के मज़े में बाक़ी की ज़िंदगी को भूल जाते और अपने लिए कोई बंदोबस्त ना करते थे, लेकिन आप ने अपने दिमाग का इस्तेमाल किया और आगे का बंदोबस्त कर लिया। हमें ऐसे ही होशियार राजा की ज़रूरत थी
अब आप आराम से सारी ज़िंदगी हमारे राज्य पर राज करें ।

अब हम लोग भी यह सोचें कि कुछ दिन बाद हमें भी ये दुनिया वाले एक दिन ऐसी जगह छोड़कर आयेंगे जहां से कोई वापस नहीं आता तो क्यो ना हम भी वक्त रहते हुए नेक कर्म और ईश्वर की बदंगी करके अपने
अगले सफर की तैयारी कर लें या बेवक़ूफ़ बन कर कुछ दिनों की ज़िंदगी के मज़ों में लगे रहें ।
और ये जन्म बर्बाद कर लें । ।
ज़रा सोचिए कि फिर पछताने का वक्त भी नहीं रहेगा……….इसलिए समय रहते ही हमे अपनी मंजिल को पाने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए अर्थात परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार जीवन यापन कर उन्हें पाने का प्रयास करना चाहिए…… न की ये अनमोल जीवन इस संसार के मायावी विकारों में फंस कर यूँ ही व्यर्थ गंवा दे।

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देव कृष्णा

#लघुकथा#

सोच में सफलता का राज

मैंनें देखा लीफ्ट में बिल्डिंग में काम करने वाले सफाई कर्मचारी के साथ आज लगभग पंद्रह साल का लङका था जिसके हाथ में पौंछा लगाने वाली बाल्टी और झाङू था।

किसे ले आए काका ,मैनें ने पूछा ।

भाभी, ये मेरा बेटा है।अभी छुट्टियाँ चल रही है इसलिए मेरे साथ ले आया।

वो तो ठीक है पर इसे किसी दूसरे काम में लगाते काका, मैंनें कहा ।

तभी तीसरे फ्लोर पर लीफ्ट रूकी और लङका बाहर निकल गया।

भाभी इसे साथ में लाने के तीन कारण है काका ने कहा।

अच्छा…, मैनें हैरान होते हुए कहा।

पहला तो ये इसकी माँ को थोड़ा आराम मिल जाएगा।दूसरा अगर ये पढ- लिखकर बङा अफसर बनता हैतो इसे मेहनतकश लोगोंकी मेहनत का अंदाजा होगा और ये कभी उन्हें दीन- हीन नहीं समझेगा।तीसरा अगर ये अफसर न बन पाया तो मेहनत करके अपना और परिवार का पेट पालने में शर्मीन्दगी नहीं महसूस करेगा काका ने मुझे अपनी सोच से रूबरू करवाया।

मैं काका की सोच की कायल हो गई थी ।
शायद कुछ ओर बातें करती पर तब तक लीफ्ट से मैं बाहरवें मंजिल पर पहूंच गई थी जहाँ मेरा ऑफिस था।

अनपढ काका की सोच , उनकी सीख उनके वर्तमान और भविष्य की सुखद, सुन्दर इबारत लिखें यही सोचते हुए मैं अपने काम में व्यस्त हो गई।

मन कह रहा था- सोच में छुपा है सफलता का राज….।

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