कैनेडा में एक अभिनेता हुआ–चार्ल्स कार्लगन। मरने के दस साल पहले उसने वसीयत की और कहा कि जब मैं मर जाऊं तो मेरी कब्र मेरे गांव में ही बनाई जाए। उसका गांव कैनेडा के पास प्रिंस-द्वीप में एक छोटे से द्वीप पर है। मैं अपने ही गांव में दफनाया जाऊं।
लेकिन जब उसने वसीयत की थी तब उसके पास रुपये भी थे,इज्जत भी थी। अभिनेता की इज्जत और रुपये का कोई भरोसा नहीं। ऐसे तो किसी की इज्जत का और रुपये का कोई भरोसा नहीं। फिर अभिनेता की इज्जत और रुपया! जब वह मरा तब वह बिलकुल भिखमंगा था। लोग उसे भूल चुके थे। फारगॉटन फेसेस में, भूले हुए चेहरों में उसकी गिनती हो गई थी। और मरा भी तो अपने गांव से दो हजार मील दूर मरा। मरा वह टेक्सास में। कौन फिकर करे उसकी वसीयत की! कौन उसे पहुंचाए! उसके पास कफन के पैसे भी नहीं थे। वे भी गांव के लोगों ने भरे थे। उसे दो हजार मील की यात्रा कौन कराए! गांव के लोगों ने उसे दफना दिया।
मरते वक्त आखिरी क्षण भी उसके ओंठ पर एक ही बात थी,आखिरी बात भी उसने यही कही कि कुछ भी करके मुझे मेरे गांव भेज देना और जिस दरख्त के नीचे मैं पैदा हुआ था उसी दरख्त के नीचे मुझे दफना देना। लेकिन कैसे उसे पहुंचाया जाए? मर गया, तो लोगों ने उसे दफना दिया वहीं दो हजार मील दूर।
उस रात एक बहुत हैरानी की घटना घटी। उस रात अचानक तूफान आ गया। ऐसा तूफान जैसा कि कोई संभावना ही न थी। वृक्ष उखड़ गए, मकान गिर गए। जिस वृक्ष के नीचे उसे दफनाया था, वह वृक्ष उखड़ गया जड़ों सहित और उसकी लाश भी उखड़ गई। एक लकड़ी के ताबूत में उसे गड़ाया गया था, वह ताबूत सहित लाश बाहर आ गई। समुद्र वहां से दो मील दूर था, तूफान धक्के दे-दे कर उसकी लाश को, उसके ताबूत को सागर तक पहुंचा दिया। और दो हजार मील उस मुर्दे ने यात्रा की और प्रिंस-द्वीप के किनारे जाकर लग गया जहां वह पैदा हुआ था। जब लोगों ने उस ताबूत को खोला, तो सारा शरीर गल गया था, सिर्फ चेहरा बिलकुल साबुत बच गया था। वे पहचान गए कि वह तो चार्ल्स कार्लगन है, उनके गांव का पैदा हुआ अभिनेता। उन्होंने उसे उसी वृक्ष के नीचे दफना दिया जहां वह पैदा हुआ था।
मुझे किसी ने यह खबर भेजी और मुझसे पूछा कि क्या कहते हैं आप? क्या इस आदमी का मरने के पहले का संकल्प इतना प्रभावशाली हो सकता है? यह केवल संयोग है या कि इसके संकल्प का परिणाम है?
इतना प्रभावशाली संकल्प हो सकता है। जिंदगी भर हम संकल्प से ही जीते और मरते हैं। कमजोर होता है तो कमजोर जिंदगी होती है। प्रबल होता है तो प्रबल जिंदगी हो जाती है। आदमी के हाथ में एक ही ताकत है: वह उसके विल फोर्स की है, उसके संकल्प की है।
नहीं, न तो विश्वास से कोई भीतर की यात्रा पर जाता है, न कोई विचार से भीतर की यात्रा पर जाता है। न थिंकिंग से, न बिलीफ से। जाता है विल से, संकल्प से।
संकल्प को थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है। संकल्प का मतलब है कि जो भी मैं निर्णय ले रहा हूं, वह पूरा है। वह निर्णय अधूरा नहीं है। यदि मैं शांत होना चाहता हूं, तो यह मेरा निर्णय पूरा है, यह अधूरा नहीं है। ऐसा न हो कि मेरा आधा मन कहता हो कि शांत हो जाऊं और आधा मन कहता हो कि क्या करोगे शांत होकर। तो आपका आधा मन अपने बाकी आधे मन को काट देगा। आपका श्रम व्यर्थ हो जाएगा। यह ऐसे ही होगा जैसे कोई आदमी दीवाल पर एक ईंट चढ़ाए और दूसरे हाथ से ईंट एक उतार ले और मकान कभी न बने। हम करीब-करीब जिंदगी में ऐसे ही जीते हैं। हम सब संकल्प करते हैं, लेकिन इधर करते हैं और इधर से खींच लेते हैं।
सांझ एक आदमी कहता है: सुबह पांच बचे उठना है। और जब वह कहता है तब भी अगर थोड़ा भीतर झांके तो उसे पता है कि वह उठेगा नहीं। वह भी उसे मालूम है। वह पक्का करता है कि पांच बजे तो उठना ही है! और तब भी वह अगर थोड़ा गौर करे तो पता चलेगा: इस पांच बजे उठने के भीतर वह आवाज मौजूद है जो कह रही है कि कहां उठोगे! कैसे उठोगे! रात बहुत सर्द है! लेकिन अभी इस आवाज को वह झुठला देता है, सो जाता है। सुबह पांच बजे जब घड़ी का अलार्म बजता है तब वह दूसरी आवाज, जो सांझ भी मौजूद थी, वह कहती है: कहां इतनी सर्दी,फिर कभी सोचना, फिर कल उठना। वह फिर सो जाता है। सुबह पछताता है। जब पांच बजे रात वह करवट बदल कर सोता है तब भी भीतर एक आवाज होती है कि तुम यह क्या कर रहे हो? सांझ निर्णय किया था, सुबह पछताना पड़ेगा! लेकिन उसको सुनता नहीं। सुबह उठता है और पछताता है कि मैंने निर्णय लिया था और यह क्या हो गया? मैं उठा क्यों नहीं?
अपना ही संकल्प आधा अपने ही आधे संकल्प से कट जाता है।
मनुष्य की जिंदगी का बड़े से बड़ा दुख यही है कि उसका मन खुद ही खंडों में बंटा है और एक-दूसरे को काट देता है।
यह जो इन आने वाले दिनों में हम एक अंतर्यात्रा पर, जीवन की खोज पर, रहस्य के अनुभव के लिए जाने की तैयारी में आए हैं,ध्यान रखना है कि संकल्प पूरा हो, पूरे मन से तैयारी हो, पूरा मन राजी हो, तो दुनिया में कोई रोक नहीं सकता। इस दुनिया में एक ही शक्ति है जो कार्यकारी है, वह हमारे संकल्प की शक्ति है। लेकिन अगर वही हमारे पास नहीं है, तो हम बिलकुल निर्जीव हैं,जीते जी मरे हुए आदमी हैं।
तो दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं…पहली बात कि विचार करने हम यहां इकट्ठे नहीं हुए हैं। इसलिए इन तीनों दिनों के लिए विचार की फिकर छोड़ देना। हम यहां विश्वास करने इकट्ठे नहीं हुए हैं। इसलिए आप हिंदू हैं कि मुसलमान हैं कि जैन हैं कि ईसाई हैं, फिकर छोड़ देना। आपके विश्वासों से यहां कोई प्रयोजन नहीं है। आपके विचारों से कोई मतलब नहीं है। आपके संकल्प भर से अर्थ है। अपने भीतर टटोल लेना कि मैं जो भी निर्णय करूं वह पूरा है?
ध्यान रहे, छोटे-छोटे निर्णय से परीक्षा हो जाती है। इसलिए मैंने सोचा है कि कुछ लोग, जो समझते हों कि वे तीन दिन मौन रख सकते हैं, वे मौन ही रखें। वह तीन दिन का मौन उनके संकल्प के लिए बड़ा आधार बन जाएगा। वे तीन दिन शब्द का उपयोग ही न करें। थोड़ी अड़चन होगी, बहुत ज्यादा अड़चन नहीं होगी। और एक दिन में आप अनुभव करेंगे कि ज्यादा बोलने की जरूरत ही नहीं थी, हम फिजूल ज्यादा बोल रहे थे। जरूरत पड़े तो थोड़ा कागज पर लिख कर कुछ कह देना। अन्यथा तीन दिन अधिकतम लोग मौन रह सकें, तो गहरे परिणाम होंगे। छोटा सा संकल्प उनके लिए बड़ा उपयोगी हो जाएगा। जो लोग तीन दिन तक चुप रह सकते हैं, बहुत छोटी सी बात है, लेकिन बात बड़ी है। क्योंकि चुप रहने का निर्णय अगर निभाया जा सके, तो आपके भीतर संकल्प की पृष्ठभूमि को निर्माण कर जाएगा। और हम जो और प्रयोग करने जा रहे हैं उनमें वह सहयोगी हो जाएगा।
जो घर बारे आपना
ओशो
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