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😠😠 कडवा सच 😠😠

संजय बंसल

एक दोस्त हलवाई की दुकान पर मिल गया ।
मुझसे कहा- ‘आज माँ का श्राद्ध है, माँ को लड्डू बहुत पसन्द है, इसलिए लड्डू लेने आया हूँ ‘
मैं आश्चर्य में पड़ गया ।
अभी पाँच मिनिट पहले तो मैं उसकी माँ से सब्जी मंडी में मिला था ।
मैं कुछ और कहता उससे पहले ही खुद उसकी माँ हाथ में झोला लिए वहाँ आ पहुँची ।
मैंने दोस्त की पीठ पर मारते हुए कहा- ‘भले आदमी ये क्या मजाक है ?
माँजी तो यह रही तेरे पास !
दोस्त अपनी माँ के दोनों कंधों पर हाथ रखकर हँसकर बोला, ‍’भई, बात यूँ है कि मृत्यु के बाद गाय-कौवे की थाली में लड्डू रखने से अच्छा है कि माँ की थाली में लड्डू परोसकर उसे जीते-जी तृप्त करूँ ।
मैं मानता हूँ कि जीते जी माता-पिता को हर हाल में खुश रखना ही सच्चा श्राद्ध है ।
आगे उसने कहा, ‘माँ को मिठाई,
सफेद जामुन, आम आदि पसंद है ।
मैं वह सब उन्हें खिलाता हूँ ।
श्रद्धालु मंदिर में जाकर अगरबत्ती जलाते हैं । मैं मंदिर नहीं जाता हूँ, पर माँ के सोने के कमरे में कछुआ छाप अगरबत्ती लगा देता हूँ ।
सुबह जब माँ गीता पढ़ने बैठती है तो माँ का चश्मा साफ कर के देता हूँ । मुझे लगता है कि ईश्वर के फोटो व मूर्ति आदि साफ करने से ज्यादा पुण्य
माँ का चश्मा साफ करके मिलता है ।
यह बात श्रद्धालुओं को चुभ सकती है पर बात खरी है ।
हम बुजुर्गों के मरने के बाद उनका श्राद्ध करते हैं ।
पंडितों को खीर-पुरी खिलाते हैं ।
रस्मों के चलते हम यह सब कर लेते है, पर याद रखिए कि गाय-कौए को खिलाया ऊपर पहुँचता है या नहीं, यह किसे पता ।
अमेरिका या जापान में भी अभी तक स्वर्ग के लिए कोई टिफिन सेवा शुरू नही हुई है ।
माता-पिता को जीते-जी ही सारे सुख देना वास्तविक श्राद्ध है ॥

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कहानी – “परम्परा”

संजय बंसल

एक बार एक महात्माजी अपने कुछ शिष्यों के साथ
जंगल में आश्रम बनाकर रहते थें, एक दिन कहीं से एक
बिल्ली का बच्चा रास्ता भटककर आश्रम में आ
गया । महात्माजी ने उस भूखे प्यासे बिल्ली के
बच्चे को दूध-रोटी खिलाया । वह बच्चा वहीं
आश्रम में रहकर पलने लगा। लेकिन उसके आने के बाद
महात्माजी को एक समस्या उत्पन्न हो गयी कि
जब वे सायं ध्यान में बैठते तो वह बच्चा कभी उनकी
गोद में चढ़ जाता, कभी कन्धे या सिर पर बैठ जात
ा । तो महात्माजी ने अपने एक शिष्य को बुलाकर
कहा देखो मैं जब सायं ध्यान पर बैठू, उससे पूर्व तुम इस
बच्चे को दूर एक पेड़ से बॉध आया करो। अब तो यह
नियम हो गया, महात्माजी के ध्यान पर बैठने से
पूर्व वह बिल्ली का बच्चा पेड़ से बॉधा जाने लगा
। एक दिन महात्माजी की मृत्यु हो गयी तो उनका
एक प्रिय काबिल शिष्य उनकी गद्दी पर बैठा । वह
भी जब ध्यान पर बैठता तो उससे पूर्व बिल्ली का
बच्चा पेड़ पर बॉधा जाता । फिर एक दिन तो
अनर्थ हो गया, बहुत बड़ी समस्या आ खड़ी हुयी कि
बिल्ली ही खत्म हो गयी। सारे शिष्यों की
मीटिंग हुयी, सबने विचार विमर्श किया कि बड़े
महात्माजी जब तक बिल्ली पेड़ से न बॉधी जाये,
तब तक ध्यान पर नहीं बैठते थे। अत: पास के गॉवों से
कहीं से भी एक बिल्ली लायी जाये। आखिरकार
काफी ढॅूढने के बाद एक बिल्ली मिली, जिसे पेड़ पर
बॉधने के बाद महात्माजी ध्यान पर बैठे।
विश्वास मानें, उसके बाद जाने कितनी बिल्लियॉ
मर चुकी और न जाने कितने महात्माजी मर चुके।
लेकिन आज भी जब तक पेड़ पर बिल्ली न बॉधी
जाये, तब तक महात्माजी ध्यान पर नहीं बैठते हैं।
कभी उनसे पूछो तो कहते हैं यह तो परम्परा है। हमारे
पुराने सारे गुरुजी करते रहे, वे सब गलत तो नहीं हो
सकते । कुछ भी हो जाये हम अपनी परम्परा नहीं
छोड़ सकते।
यह तो हुयी उन महात्माजी और उनके शिष्यों की
बात । पर कहीं न कहीं हम सबने भी एक नहीं; अनेकों
ऐसी बिल्लियॉ पाल रखी हैं । कभी गौर किया है
इन बिल्लियों पर? सैकड़ों वर्षो से हम सब ऐसे ही
और कुछ अनजाने तथा कुछ चन्द स्वार्थी तत्वों
द्वारा निर्मित परम्पराओं के जाल में जकड़े हुए हैं। जरा सोचिए प्लीज
👍👍👍👍👍👍👍👍

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सुखी वैवाहिक जीवन का राज

एक दंपत्ति नें जब अपनी शादी की 25
वीं वर्षगांठ मनायी तो एक पत्रकार
उनका साक्षात्कार लेने पहुंचा.

वो दंपत्ति अपने शांतिपुर्ण और सुखमय
वैवाहिक जीवन के लिये प्रसिद्ध थे.
उनके बीच
कभी नाम मात्र का भी तकरार नहीं हुआ था.

लोग उनके इस सुखमय वैवाहिक जीवन का राज
जानने को उत्सुक थे…..

पति ने बताया :
हमारी शादी के फ़ौरन बाद हम हनीमुन मनाने
शिमला गये. वहाँ हम लोगो ने घुड़सवारी की.
मेरा घोड़ा बिल्कुल ठीक था
लेकिन मेरी पत्नी का घोड़ा थोड़ा नखरैल था.

उसने दौड़ते दौड़ते अचानक मेरी पत्नी को गिरा दिया.

मेरी पत्नी उठी और घोड़े के पीठ पर हाथ फ़ेर
कर कहा :
“यह पहली बार है”,

और फ़िर उसपर सवार
हो गयी. थोड़े दुर चलने के बाद घोड़े ने फ़िर उसे
गिरा दिया. पत्नी ने घोड़े से फ़िर कहा : “यह
दुसरी बार है”,

और फ़िर उस पर सवार हो गयी.
लेकिन थोड़े दुर जा कर घोड़े ने फ़िर उसे
गिरा दिया.
अबकी पत्नी ने कुछ नहीं
कहा.
चुपचाप अपना पर्स खोला,
पिस्तौल निकाली और घोड़े को गोली मार दी.

मुझे देखकर काफ़ी गुस्सा आया और मैं जोर से पत्नी पर चिल्लाया : “ये तुमने क्या किया, पागल हो गयी हो?”

पत्नी ने मेरी तरफ़ देखा और कहा :

“ये पहली बार है”

और बस उसके बाद से हमारी ज़िंदगी सुख और
शांति से चल रही है |||

?😂Very good message to all married men 😜

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देव कृष्णा

चन्दन के कोयले न बनाओ
सुनसान जंगल में एक लकड़हारे से पानी का लोटा पीकर प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा― हे पानी पिलाने वाले ! किसी दिन मेरी राजधानी में अवश्य आना, मैं तुम्हें पुरस्कार दूँगा, लकड़हारे ने कहा―बहुत अच्छा।
इस घटना को घटे पर्याप्त समय व्यतीत हो गया, अन्ततः लकड़हारा एक दिन चलता-फिरता राजधानी में जा पहुँचा और राजा के पास जाकर कहने लगा― मैं वही लकड़हारा हूँ, जिसने आपको पानी पिलाया था, राजा ने उसे देखा और अत्यन्त प्रसन्नता से अपने पास बिठाकर सोचने लगा कि- इस निर्धन का दुःख कैसे दूर करुँ ? अन्ततः उसने सोच-विचार के पश्चात् चन्दन का एक विशाल उद्यान(बाग) उसको सौंप दिया। लकड़हारा भी मन में प्रसन्न हो गया। चलो अच्छा हुआ। इस बाग के वृक्षों के कोयले खूब होंगे, जीवन कट जाएगा।
यह सोचकर लकड़हारा प्रतिदिन चन्दन काट-काटकर कोयले बनाने लगा और उन्हें बेचकर अपना पेट पालने लगा। थोड़े समय में ही चन्दन का सुन्दर बगीचा एक वीरान बन गया, जिसमें स्थान-स्थान पर कोयले के ढेर लगे थे। इसमें अब केवल कुछ ही वृक्ष रह गये थे, जो लकड़हारे के लिए छाया का काम देते थे।
राजा को एक दिन यूँ ही विचार आया। चलो, तनिक लकड़हारे का हाल देख आएँ। चन्दन के उद्यान का भ्रमण भी हो जाएगा। यह सोचकर राजा चन्दन के उद्यान की और जा निकला। उसने दूर से उद्यान से धुआँ उठते देखा। निकट आने पर ज्ञात हुआ कि चन्दन जल रहा है और लकड़हारा पास खड़ा है। दूर से राजा को आते देखकर लकड़हारा उसके स्वागत के लिए आगे बढ़ा। राजा ने आते ही कहा― भाई ! यह तूने क्या किया ? लकड़हारा बोला― आपकी कृपा से इतना समय आराम से कट गया। आपने यह उद्यान देकर मेरा बड़ा कल्याण किया। कोयला बना-बनाकर बेचता रहा हूँ। अब तो कुछ ही वृक्ष रह गये हैं। यदि कोई और उद्यान मिल जाए तो शेष जीवन भी व्यतीत हो जाए।
राजा मुस्कुराया और कहा― अच्छा, मैं यहाँ खड़ा होता हूँ। तुम कोयला नहीं, प्रत्युत इस लकड़ी को ले-जाकर बाजार में बेच आओ। लकड़हारे ने दो गज [लगभग पौने दो मीटर] की लकड़ी उठाई और बाजार में ले गया। लोग चन्दन देखकर दौड़े और अन्ततः उसे तीन सौ रुपये मिल गये, जो कोयले से कई गुना ज्यादा थे।
लकड़हारा मूल्य लेकर रोता हुआ राजा के पास आय और जोर-जोर से रोता हुआ अपनी भाग्यहीनता स्वीकार करने लगा।
इस कथा में चन्दन का बाग मनुष्य का शरीर और हमारा एक-एक श्वास चन्दन के वृक्ष हैं पर अज्ञानता वश हम इन चन्दन को कोयले में तब्दील कर रहे हैं। लोगों के साथ बैर, द्वेष, क्रोध, लालच, ईर्ष्या, मनमुटाव, को लेकर खिंच-तान आदि की अग्नि में हम इस जीवन रूपी चन्दन को जला रहे हैं। जब अंत में श्वास रूपी चन्दन के पेड़ कम रह जायेंगे तब अहसास होगा कि व्यर्थ ही अनमोल चन्दन को इन तुच्छ कारणों से हम दो कौड़ी के कोयले में बदल रहे थे, पर अभी भी देर नहीं हुई है हमारे पास जो भी चन्दन के पेड़ बचे है उन्ही से नए पेड़ बन सकते हैं। आपसी प्रेम, सहायता, सौहार्द, शांति,भाईचारा, और विश्वास, के द्वारा अभी भी जीवन सँवारा जा सकता है।

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*देव कृष्णा

चन्दन के कोयले न बनाओ*
सुनसान जंगल में एक लकड़हारे से पानी का लोटा पीकर प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा― हे पानी पिलाने वाले ! किसी दिन मेरी राजधानी में अवश्य आना, मैं तुम्हें पुरस्कार दूँगा, लकड़हारे ने कहा―बहुत अच्छा।
इस घटना को घटे पर्याप्त समय व्यतीत हो गया, अन्ततः लकड़हारा एक दिन चलता-फिरता राजधानी में जा पहुँचा और राजा के पास जाकर कहने लगा― मैं वही लकड़हारा हूँ, जिसने आपको पानी पिलाया था, राजा ने उसे देखा और अत्यन्त प्रसन्नता से अपने पास बिठाकर सोचने लगा कि- इस निर्धन का दुःख कैसे दूर करुँ ? अन्ततः उसने सोच-विचार के पश्चात् चन्दन का एक विशाल उद्यान(बाग) उसको सौंप दिया। लकड़हारा भी मन में प्रसन्न हो गया। चलो अच्छा हुआ। इस बाग के वृक्षों के कोयले खूब होंगे, जीवन कट जाएगा।
यह सोचकर लकड़हारा प्रतिदिन चन्दन काट-काटकर कोयले बनाने लगा और उन्हें बेचकर अपना पेट पालने लगा। थोड़े समय में ही चन्दन का सुन्दर बगीचा एक वीरान बन गया, जिसमें स्थान-स्थान पर कोयले के ढेर लगे थे। इसमें अब केवल कुछ ही वृक्ष रह गये थे, जो लकड़हारे के लिए छाया का काम देते थे।
राजा को एक दिन यूँ ही विचार आया। चलो, तनिक लकड़हारे का हाल देख आएँ। चन्दन के उद्यान का भ्रमण भी हो जाएगा। यह सोचकर राजा चन्दन के उद्यान की और जा निकला। उसने दूर से उद्यान से धुआँ उठते देखा। निकट आने पर ज्ञात हुआ कि चन्दन जल रहा है और लकड़हारा पास खड़ा है। दूर से राजा को आते देखकर लकड़हारा उसके स्वागत के लिए आगे बढ़ा। राजा ने आते ही कहा― भाई ! यह तूने क्या किया ? लकड़हारा बोला― आपकी कृपा से इतना समय आराम से कट गया। आपने यह उद्यान देकर मेरा बड़ा कल्याण किया। कोयला बना-बनाकर बेचता रहा हूँ। अब तो कुछ ही वृक्ष रह गये हैं। यदि कोई और उद्यान मिल जाए तो शेष जीवन भी व्यतीत हो जाए।
राजा मुस्कुराया और कहा― अच्छा, मैं यहाँ खड़ा होता हूँ। तुम कोयला नहीं, प्रत्युत इस लकड़ी को ले-जाकर बाजार में बेच आओ। लकड़हारे ने दो गज [लगभग पौने दो मीटर] की लकड़ी उठाई और बाजार में ले गया। लोग चन्दन देखकर दौड़े और अन्ततः उसे तीन सौ रुपये मिल गये, जो कोयले से कई गुना ज्यादा थे।
लकड़हारा मूल्य लेकर रोता हुआ राजा के पास आय और जोर-जोर से रोता हुआ अपनी भाग्यहीनता स्वीकार करने लगा।
इस कथा में चन्दन का बाग मनुष्य का शरीर और हमारा एक-एक श्वास चन्दन के वृक्ष हैं पर अज्ञानता वश हम इन चन्दन को कोयले में तब्दील कर रहे हैं। लोगों के साथ बैर, द्वेष, क्रोध, लालच, ईर्ष्या, मनमुटाव, को लेकर खिंच-तान आदि की अग्नि में हम इस जीवन रूपी चन्दन को जला रहे हैं। जब अंत में श्वास रूपी चन्दन के पेड़ कम रह जायेंगे तब अहसास होगा कि व्यर्थ ही अनमोल चन्दन को इन तुच्छ कारणों से हम दो कौड़ी के कोयले में बदल रहे थे, पर अभी भी देर नहीं हुई है हमारे पास जो भी चन्दन के पेड़ बचे है उन्ही से नए पेड़ बन सकते हैं। आपसी प्रेम, सहायता, सौहार्द, शांति,भाईचारा, और विश्वास, के द्वारा अभी भी जीवन सँवारा जा सकता है।

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

*देव कृष्णा

चन्दन के कोयले न बनाओ*
सुनसान जंगल में एक लकड़हारे से पानी का लोटा पीकर प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा― हे पानी पिलाने वाले ! किसी दिन मेरी राजधानी में अवश्य आना, मैं तुम्हें पुरस्कार दूँगा, लकड़हारे ने कहा―बहुत अच्छा।
इस घटना को घटे पर्याप्त समय व्यतीत हो गया, अन्ततः लकड़हारा एक दिन चलता-फिरता राजधानी में जा पहुँचा और राजा के पास जाकर कहने लगा― मैं वही लकड़हारा हूँ, जिसने आपको पानी पिलाया था, राजा ने उसे देखा और अत्यन्त प्रसन्नता से अपने पास बिठाकर सोचने लगा कि- इस निर्धन का दुःख कैसे दूर करुँ ? अन्ततः उसने सोच-विचार के पश्चात् चन्दन का एक विशाल उद्यान(बाग) उसको सौंप दिया। लकड़हारा भी मन में प्रसन्न हो गया। चलो अच्छा हुआ। इस बाग के वृक्षों के कोयले खूब होंगे, जीवन कट जाएगा।
यह सोचकर लकड़हारा प्रतिदिन चन्दन काट-काटकर कोयले बनाने लगा और उन्हें बेचकर अपना पेट पालने लगा। थोड़े समय में ही चन्दन का सुन्दर बगीचा एक वीरान बन गया, जिसमें स्थान-स्थान पर कोयले के ढेर लगे थे। इसमें अब केवल कुछ ही वृक्ष रह गये थे, जो लकड़हारे के लिए छाया का काम देते थे।
राजा को एक दिन यूँ ही विचार आया। चलो, तनिक लकड़हारे का हाल देख आएँ। चन्दन के उद्यान का भ्रमण भी हो जाएगा। यह सोचकर राजा चन्दन के उद्यान की और जा निकला। उसने दूर से उद्यान से धुआँ उठते देखा। निकट आने पर ज्ञात हुआ कि चन्दन जल रहा है और लकड़हारा पास खड़ा है। दूर से राजा को आते देखकर लकड़हारा उसके स्वागत के लिए आगे बढ़ा। राजा ने आते ही कहा― भाई ! यह तूने क्या किया ? लकड़हारा बोला― आपकी कृपा से इतना समय आराम से कट गया। आपने यह उद्यान देकर मेरा बड़ा कल्याण किया। कोयला बना-बनाकर बेचता रहा हूँ। अब तो कुछ ही वृक्ष रह गये हैं। यदि कोई और उद्यान मिल जाए तो शेष जीवन भी व्यतीत हो जाए।
राजा मुस्कुराया और कहा― अच्छा, मैं यहाँ खड़ा होता हूँ। तुम कोयला नहीं, प्रत्युत इस लकड़ी को ले-जाकर बाजार में बेच आओ। लकड़हारे ने दो गज [लगभग पौने दो मीटर] की लकड़ी उठाई और बाजार में ले गया। लोग चन्दन देखकर दौड़े और अन्ततः उसे तीन सौ रुपये मिल गये, जो कोयले से कई गुना ज्यादा थे।
लकड़हारा मूल्य लेकर रोता हुआ राजा के पास आय और जोर-जोर से रोता हुआ अपनी भाग्यहीनता स्वीकार करने लगा।
इस कथा में चन्दन का बाग मनुष्य का शरीर और हमारा एक-एक श्वास चन्दन के वृक्ष हैं पर अज्ञानता वश हम इन चन्दन को कोयले में तब्दील कर रहे हैं। लोगों के साथ बैर, द्वेष, क्रोध, लालच, ईर्ष्या, मनमुटाव, को लेकर खिंच-तान आदि की अग्नि में हम इस जीवन रूपी चन्दन को जला रहे हैं। जब अंत में श्वास रूपी चन्दन के पेड़ कम रह जायेंगे तब अहसास होगा कि व्यर्थ ही अनमोल चन्दन को इन तुच्छ कारणों से हम दो कौड़ी के कोयले में बदल रहे थे, पर अभी भी देर नहीं हुई है हमारे पास जो भी चन्दन के पेड़ बचे है उन्ही से नए पेड़ बन सकते हैं। आपसी प्रेम, सहायता, सौहार्द, शांति,भाईचारा, और विश्वास, के द्वारा अभी भी जीवन सँवारा जा सकता है।

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अब्दुल रशीद है आधुनिक भारत का पहला आतंकवादी… जी हां गोडसे नहीं, अब्दुल रशीद ने इस देश की पहली आतंकवादी घटना को अंजाम दिया था… औवेसी साहब, मिस्टर कमल हासन और सिकलुर गैंग के माननीय सदस्यों… महात्मा (गांधी) से भी पहले एक और महात्मा (स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती) की निर्मम हत्या हुई थी… और इस राक्षसी कांड को अंजाम दिया था अब्दुल रशीद ने…

इतिहास की इस सच्चाई को जानने से पहले और आतंकवादी अब्दुल रशीद को जानने से पहले आपको ये जानना ज़रूरी है कि स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती थे कौन ??? कितना दुखद है कि आज इस महान हस्ती का परिचय भी करवाना पड़ता है, क्योंकि हम तो अपने इतिहास और अपने अतीत से भागने लगे हैं…. खैर, स्वामी श्रद्धानन्द 1920 के दौर में हिंदुओं के सबसे बड़े धार्मिक गुरू थे… आर्य समाज के प्रमुख थे और उनकी लोकप्रियता के सामने उस दौर के शंकराचार्य भी उनके सामने कहीं नहीं ठहरते थे… लेकिन वो सिर्फ हिंदुओं के आराध्य ही नहीं थे, महान स्वतन्त्रता सेनानी भी थे… वो अपनी छत्र छाया में मोहनदास करमचन्द गांधी को भारतीय राजनीति में स्थापित कर रहे थे… असहयोग आंदोलन के समय वो गांधी के गांधी सबसे बड़े सहयोगी थे… कुछ इतिहासकारों का दावा है कि स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने ही मोहन दास करमचंद गांधी को पहली बार महात्मा की उपाधि दी थी।

खैर… अब बात करते हैं भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद की… वो 23 दिसंबर 1926 की बात है… दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में दोपहर के वक्त स्वामी श्रद्धानंद अपने घर में आराम कर रहे थे… वो बेहद बीमार थे… तब वहां पहुंचा अब्दुल रशीद, उसने स्वामी जी से मिलने का समय मांगा… स्वामी जी ने वक्त दे दिया… वो उनके पास पहुंचा उन्हे प्रणाम किया और देसी कट्टे से 4 गोलियां स्वामी जी के शरीर में आर-पार कर दीं… स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने वहीं दम तोड़ दिया…भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद ने स्वामी जी के साथ वही किया जो गोडसे ने इस घटना के पूरे 22 साल बाद बापू के साथ किया।

अब जानिए… क्यों भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद ने स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या की थी ??? दरअसल स्वामी श्रद्धानन्द ने हिंदू धर्म को इस तरह से जागृत कर दिया था कि पूरी दुनिया हिल गई थी… वो हिंदू धर्म की कुरुतियों को दूर कर रहे थे, नवजागरण फैला रहे थे… और उन्होने चलाया था “शुद्धि आंदोलन” जिसकी वजह से भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद ने उनकी हत्या की।

“शुद्धि आंदोलन” यानि वो लोग जो किसी वजह से हिंदू धर्म छोड़ कर मुस्लिम या ईसाई बन गए हैं, उन्हे स्वामी श्रद्धानन्द वापस हिंदू धर्म में शामिल कर रहे थे… इसे आज की भाषा में घर वापसी कह सकते हैं… ये आंदोलन इतना आगे बढ़ चुका था कि धर्मांतरण करने वाले लोगों को चूले हिल गईं… स्वामी जी ने उस समय के यूनाइटेड प्रोविंस (आज के यूपी) में 18 हज़ार मुस्लिमों की हिंदू धर्म में वापसी करवाई… और ये सब कानून के मुताबिक हुआ… कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों को लगा कि तब्लीग में तो धर्मांतरण एक मज़हबी कर्तव्य है लेकिन एक हिंदू संत ऐसा कैसे कर सकता है ??? तब कांग्रेस के नेता और बाद में देश के राष्ट्रपति बने डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपनी किताब “इंडिया डिवाइडेट (पेज नंबर 117)” में स्वामी के पक्ष में लिखा कि “अगर मुसलमान अपने धर्म का प्रचार और प्रसार कर सकते हैं तो उन्हे कोई अधिकार नहीं है कि वो स्वामी श्रद्धानंद के गैर हिंदुओ को हिंदू बनाने के आंदोलन का विरोध करें”… लेकिन कुछ कट्टरपंथियों की नफरत इतनी बढ़ चुकी थी कि वो स्वामी की जान के प्यासे हो गए… नतीजा एक दिन भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद से स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या करवा दी गई।

अब आगे क्या हुआ… भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद को जब हत्या के आरोप में फांसी सुना दी गई तो… कांग्रेस के नेता आसफ अली ने उसकी पैरवी की… 30 नवम्बर, 1927 के ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के अंक में छपा था कि स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद की रूह को जन्नत में स्थान दिलाने के लिए देवबंद में दुआ मांगी गई कि “अल्लाह मरहूम (आतंकी अब्दुल रशीद) को अलाये-इल्ली-ईन (सातवें आसमान की चोटी पर) में स्थान दें।”

लेकिन सबसे चौंकाने वाली थी महात्मा गांधी की प्रतिक्रिया… स्वामी जी की हत्या के 2 दिन बाद गांधी जी ने गुवाहाटी में कांग्रेस के अधिवेशन के शोक प्रस्ताव में कहा कि – “मैं अब्दुल रशीद को अपना भाई मानता हूं… मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूं… वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के खिलाफ घृणा की भावना पैदा की… हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए… मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूं।

नोट – मैं पूरी तरह से गांधी जी की बात से सहमत हूं… कि हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए… गोडसे ने अगर जघन्य पाप किया था तो उसके लिए पूरे हिंदू समाज को आतंकी नहीं ठहराया जा सकता है… जैसे अब्दुल रशीद के लिए मैं पूरे मुस्लिम समाज को आतंकी नहीं ठहराता… खैर, मैं जल्द आपको ये बताऊंगा कि कैसे गांधी के हत्यारे गोडसे के कर्म की सज़ा 8 हज़ार मासूमों को चुकानी पड़ी… #हुआतोहुआ … भारत का आधुनिक इतिहास सात तालों में कैद है, इसे खुलना ही चाहिए…
साभार- #प्रखर_श्रीवास्तव

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अब्दुल रशीद है आधुनिक भारत का पहला आतंकवादी… जी हां गोडसे नहीं, अब्दुल रशीद ने इस देश की पहली आतंकवादी घटना को अंजाम दिया था… औवेसी साहब, मिस्टर कमल हासन और सिकलुर गैंग के माननीय सदस्यों… महात्मा (गांधी) से भी पहले एक और महात्मा (स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती) की निर्मम हत्या हुई थी… और इस राक्षसी कांड को अंजाम दिया था अब्दुल रशीद ने…

इतिहास की इस सच्चाई को जानने से पहले और आतंकवादी अब्दुल रशीद को जानने से पहले आपको ये जानना ज़रूरी है कि स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती थे कौन ??? कितना दुखद है कि आज इस महान हस्ती का परिचय भी करवाना पड़ता है, क्योंकि हम तो अपने इतिहास और अपने अतीत से भागने लगे हैं…. खैर, स्वामी श्रद्धानन्द 1920 के दौर में हिंदुओं के सबसे बड़े धार्मिक गुरू थे… आर्य समाज के प्रमुख थे और उनकी लोकप्रियता के सामने उस दौर के शंकराचार्य भी उनके सामने कहीं नहीं ठहरते थे… लेकिन वो सिर्फ हिंदुओं के आराध्य ही नहीं थे, महान स्वतन्त्रता सेनानी भी थे… वो अपनी छत्र छाया में मोहनदास करमचन्द गांधी को भारतीय राजनीति में स्थापित कर रहे थे… असहयोग आंदोलन के समय वो गांधी के गांधी सबसे बड़े सहयोगी थे… कुछ इतिहासकारों का दावा है कि स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने ही मोहन दास करमचंद गांधी को पहली बार महात्मा की उपाधि दी थी।

खैर… अब बात करते हैं भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद की… वो 23 दिसंबर 1926 की बात है… दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में दोपहर के वक्त स्वामी श्रद्धानंद अपने घर में आराम कर रहे थे… वो बेहद बीमार थे… तब वहां पहुंचा अब्दुल रशीद, उसने स्वामी जी से मिलने का समय मांगा… स्वामी जी ने वक्त दे दिया… वो उनके पास पहुंचा उन्हे प्रणाम किया और देसी कट्टे से 4 गोलियां स्वामी जी के शरीर में आर-पार कर दीं… स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने वहीं दम तोड़ दिया…भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद ने स्वामी जी के साथ वही किया जो गोडसे ने इस घटना के पूरे 22 साल बाद बापू के साथ किया।

अब जानिए… क्यों भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद ने स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या की थी ??? दरअसल स्वामी श्रद्धानन्द ने हिंदू धर्म को इस तरह से जागृत कर दिया था कि पूरी दुनिया हिल गई थी… वो हिंदू धर्म की कुरुतियों को दूर कर रहे थे, नवजागरण फैला रहे थे… और उन्होने चलाया था “शुद्धि आंदोलन” जिसकी वजह से भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद ने उनकी हत्या की।

“शुद्धि आंदोलन” यानि वो लोग जो किसी वजह से हिंदू धर्म छोड़ कर मुस्लिम या ईसाई बन गए हैं, उन्हे स्वामी श्रद्धानन्द वापस हिंदू धर्म में शामिल कर रहे थे… इसे आज की भाषा में घर वापसी कह सकते हैं… ये आंदोलन इतना आगे बढ़ चुका था कि धर्मांतरण करने वाले लोगों को चूले हिल गईं… स्वामी जी ने उस समय के यूनाइटेड प्रोविंस (आज के यूपी) में 18 हज़ार मुस्लिमों की हिंदू धर्म में वापसी करवाई… और ये सब कानून के मुताबिक हुआ… कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों को लगा कि तब्लीग में तो धर्मांतरण एक मज़हबी कर्तव्य है लेकिन एक हिंदू संत ऐसा कैसे कर सकता है ??? तब कांग्रेस के नेता और बाद में देश के राष्ट्रपति बने डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपनी किताब “इंडिया डिवाइडेट (पेज नंबर 117)” में स्वामी के पक्ष में लिखा कि “अगर मुसलमान अपने धर्म का प्रचार और प्रसार कर सकते हैं तो उन्हे कोई अधिकार नहीं है कि वो स्वामी श्रद्धानंद के गैर हिंदुओ को हिंदू बनाने के आंदोलन का विरोध करें”… लेकिन कुछ कट्टरपंथियों की नफरत इतनी बढ़ चुकी थी कि वो स्वामी की जान के प्यासे हो गए… नतीजा एक दिन भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद से स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या करवा दी गई।

अब आगे क्या हुआ… भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद को जब हत्या के आरोप में फांसी सुना दी गई तो… कांग्रेस के नेता आसफ अली ने उसकी पैरवी की… 30 नवम्बर, 1927 के ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के अंक में छपा था कि स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद की रूह को जन्नत में स्थान दिलाने के लिए देवबंद में दुआ मांगी गई कि “अल्लाह मरहूम (आतंकी अब्दुल रशीद) को अलाये-इल्ली-ईन (सातवें आसमान की चोटी पर) में स्थान दें।”

लेकिन सबसे चौंकाने वाली थी महात्मा गांधी की प्रतिक्रिया… स्वामी जी की हत्या के 2 दिन बाद गांधी जी ने गुवाहाटी में कांग्रेस के अधिवेशन के शोक प्रस्ताव में कहा कि – “मैं अब्दुल रशीद को अपना भाई मानता हूं… मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूं… वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के खिलाफ घृणा की भावना पैदा की… हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए… मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूं।

नोट – मैं पूरी तरह से गांधी जी की बात से सहमत हूं… कि हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए… गोडसे ने अगर जघन्य पाप किया था तो उसके लिए पूरे हिंदू समाज को आतंकी नहीं ठहराया जा सकता है… जैसे अब्दुल रशीद के लिए मैं पूरे मुस्लिम समाज को आतंकी नहीं ठहराता… खैर, मैं जल्द आपको ये बताऊंगा कि कैसे गांधी के हत्यारे गोडसे के कर्म की सज़ा 8 हज़ार मासूमों को चुकानी पड़ी… #हुआतोहुआ … भारत का आधुनिक इतिहास सात तालों में कैद है, इसे खुलना ही चाहिए…
साभार- #प्रखर_श्रीवास्तव

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*એક રમતીયાળ કવિતા, ગમે તો કહો ગમી!

નથી રમાતી આઇસ-પાઇસ,કે
નથી રમાતો હવે થપ્પો,
એક બીલાડી જાડી હવે,
નથી પહેરતી સાડી,
બચપન આખું મોબાઇલ રમે…..

નથી કહેવાતી કોઇ વારતા,
નથી વેરાતાં બોખા વહાલ,
દાદા કરે ફેસબુક અને
દાદી યુ-ટ્યુબ માં ગુલતાન!
બચપન આખું મોબાઇલ રમે…

મમ્મી હવે ક્યાં રાંધે છે,
બાઇ ની રસોઇ નો છે સ્વાદ,
પપ્પા પણ સદાય ઘાંઘા થૈ,
આપે લાઇક અને આપે દાદ!
બચપન આખું મોબાઇલ રમે….

કન્યા વ્યસ્ત છે સેલ્ફી માં,
વરરાજા પણ બહુ વ્યસ્ત,
વિધી વિધાન ની ઐસીતૈસી,
સૌ સૌમાં છે બસ મસ્ત!
બચપન આખું મોબાઇલ રમે….

બધા કરે ગુટુર-ગુ હવે,
વોટ્સેપ ના સથવારે,
કવિઓ પણ જો ને ચઢી ગયા,
ફેસબુક ના રવાડે,
બચપન આખું મોબાઇલ રમે…

ડીજીટલ અમે હસીએ હવે,
ડીજીટલ અમારું રુદન,
લાગણી ઓ અંગુઠે વ્યક્ત થાય,
એવા થયા બધા સંબંધ!
બચપન આખું મોબાઇલ રમે…

પાંચ ઇંચ ના સ્ક્રીન માં
બધું સુખ જઇ ને સમાયું,
આ રમકડું આમ રમવામાં,
પોતીકું સ્વજન ભૂલાયું!
બચપન આખું મોબાઇલ રમે…

લોકો ભલે ને ગમે તે કહે,
અમને બહુ મજા આવે છે,
જબરું થયું હવે તો જગમાં,
માણસ કરતાં મોબાઇલ વધુ ફાવે છે!
બચપન આખું મોબાઇલ રમે….

*– મેહુલ ભટ્ટ *

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मेरा गांव माउंट आबू

स्वतंत्रता के समय सिरोही का शासक नाबालिग था। वहाँ के शासन प्रबन्ध की देखभाल दोवागढ़ की महारानी की अध्यक्षता में एजेन्सी कॉउन्सिल कर रही थी। उत्तराधिकार के प्रश्न पर भी विवाद था। सिरोही राजपूताने की अन्य रियासतों के समान द राजपूताना एजेन्सी’ के अन्तर्गत आती थी। देश की स्वतंत्रता के कुछ समय पश्चात् रियासती विभाग ने सिरोही को राजपूताना एजेन्सी से हटा कर द वेस्टर्न इण्डिया एण्ड गुजरात स्टेट्स एजेन्सी’ के अधीन कर दिया था। सिरोही की जनता ने रियासती विभाग के निर्णय का विरोध किया। सिरोही का वकील संघ भी इस निर्णय के खिलाफ था।

गोकुलभाई भट्ट जो राजस्थान कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष होने के साथ साथ दोवागढ़ महारानी के सलाहकार भी थे, ने सिरोही को तत्काल केन्द्रशासित राज्य के रुप में ले लेने का सुझाव दिया। नवम्बर ८, १९४८ को एक समझौते के अन्तर्गत सिरोही को केन्द्रशासित राज्य बना दिया गया।

गुजराती समाज चाहता था कि सिरोही का विलय बंबई में हो । माउन्ट आबू परम्परा तथा इतिहास की दृष्टि से गुजराती सभ्यता से जुड़ा है। दूसरी तरफ राजपूताना की जनता का तर्क था कि सिरोही की अधिकांश जनता गुजराती नहीं बल्कि राजस्थानी भाषा बोलती है। राजपूताना के अनेक शासकों ने अपने निवास हेतु आबू में अनेक विशाल भवनों का निर्माण कराया है।

सरदार पटेल ने चतुराई से सिरोही राज्य का विभाजन कर दिया जिसके अनुसार आबूरोड और दिलवाड़ा तहसील बंबई में तथा शेष राज्य को राजस्थान में मिला दिया गया।

इस निर्णय के विरुद्ध सिरोही में आन्दोलन शुरु हो गया जिसमें गोकुलभाई भट्ट तथा बलवन्त सिंह मेहता की महत्वपूर्ण भागीदारी थी। लेकिन सरदार पटेल ने अपनी कार्य कुशलता व कूटनीति से विलय सम्बंधी समस्याओं का हल कर दिया।