Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

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🙏 બધાયે વાચશો 🙏

એકભાઇ સાંજે કામ પરથી ઘરે આવ્યા. ઘરનો દરવાજો ખોલતાની સાથે જ બઈરી એ વિલાયેલા મોઢે કહ્યુ, ” ગોમડેથી તમારા બાપુજી આયાં છે. એના ચહેરા પરથી એ કંઇક તકલીફમાં હોય એમ લાગે છે”

સાંભળતાની સાથે જ પતિના હોશકોશ ઉડી ગયા.મંદીને કારણે નાનો ધંધો બંધ કરીને નોકરી ચાલુ કરી દેવી પડી હતી. અને મોંડ મોંડ ઘરનું ગુજરાન ચાલતુ તુ. એવાંમાં ગોમડેથી બાપુજી આયા છે, તો ચોક્કસ કોઇક મદદ માંગવા માટે જ
આવ્યા હશે, આ વિચાર માત્રથી એ ભાઇ ધ્રુજી ગયા. ઘરમાં પ્રવેશીને મુરઝાયેલા ચહેરે પિતાને પ્રણામ કર્યા. સાંજનું ભોજન પતાવીને, પિતાએ પુત્રને કહ્યુ, ” બેટા, તારી સાથે થોડી વાતો કરવી છે”

પિતાની વાત સંભળતા જ દિકરાના હૈયામાં ફાળ પડી “નક્કી હવે બાપુજી પૈસાની માંગણી મુકશે. મારી કેવી સ્થિતી છે એનો બાપુજીને જરા પણ વિચાર નહી આવતો હોય ? મને ફોન કર્યા વગર સીધા જ, અહીંયા પહોંચી ગયા આવતા પહેલા ફોન કર્યો હોત, તો હુ ફોન પર પણ તેમને મારી મુશ્કેલી જણાવી શકત”.

વિચારોના વાવઝોડામાં સપડાયેલા દિકરાના ખભ્ભા પર પિતાનો હાથ મુકાયો, ત્યારે દિકરાને ખબર પડી કે, પિતાજી એમની બાજુમાં આવીને બેસી ગયા છે. પિતાએ દિકરાને કહ્યુ, ” બેટા, તું મહિને એકાદ વખત ગામડે અમને ફોન કરીને વાત કરી લેતો તો. પણ છેલ્લા 4 મહિનાથી તારો કોઇ જ ફોન નથી આવ્યો. એટલે તને કંઇક તકલીફ હશે એવુ, મને અને તારી મમ્મીને લાગ્યુ. હું તને બીજી તો શુ મદદ કરી શકુ પણ મારી પાસે થોડા ઘરેણા પડેલા હતા. એ વેંચીને આ
50,000 રૂપિયા ભેગા થયા છે એ તારા માટે લાવ્યો છું. હું તો કાલે સવારે ગામડે ચાલ્યો જઇશ પણ બસ ફોન કરતો રહેજે !! તારી મમ્મી બહુ જ ચિંતા કરતી હોય છે. અને કંઇ મુશ્કેલી હોય તો બેધડક કહેજે. તારા માટે જમીન વેંચવી પડે તો એ પણ વેંચી નાંખીશું”

આટલી વાત કરીને પિતાએ, દિકરાના હાથમાં નોટોનું બંડલ મુકી દીધુ. દિકરો કંઇજ ન બોલી શક્યો માત્ર ભીની આંખોએ બાપના ચહેરાને જોઇ રહ્યો. જે બાપની ભિખારી તરીકે કલ્પના કરી હતી એ તો ભગવાન બનીને આવ્યા હતા.

મિત્રો, આપણી મુશ્કેલીના સમયે પોતાનુ સર્વસ્વ આપીને આપણને મદદ કરનાર પિતા કોઇ મુશ્કેલીમાં તો નથીને એ
જોવાની ફરજ માત્ર ભગવાનની નહી, આપણી જ છે.

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ડિલીટ મારતા પહેલા, અન્ય ગ્રુપ માં ફોરવર્ડ કરવાનું ચૂંકશો નહીં. કોઈ ની આંખો ખૂલી જાય તો, મોકલનાર ને આંગળી ચીંધવા નું પુણ્ય મળશે . ધન્યવાદ !!

👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏

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संजय गुप्ता

मैं ही राम,मैं ही रावण !

“मैं सिटी हॉस्पिटल से बोल रही हूँ ।आप मि.मुदित की माँ बोल रही हैं?”……फोन पर ये चंद शब्द सुनते ही मीरा की आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा और ऐसा लगा जैसे वो अभी चक्कर खाकर गिर जाएगी। पर अगले ही पल दिल को मजबूत कर ,गला खँखारते हुए उसने पूछा ,”जी कहिए, मैं मुदित की माँ हूँ। क्या बात हुई ? “” घबराने की बात नहीं है। सुबह मि.मुदित एक एक्सीडेंट विक्टिम को लेकर अस्पताल आए थे। उन्हें मामूूूली चोटें आईं हैं पर अत्यधिक खून बह जाने के कारण विक्टिम की हालत बेहद नाजुक है।मि. मुदित ने रक्तदान किया है। वो ठीक हैंं, आप चाहें तो उन्हें आकर ले जा सकती हैंं।” मीरा का माथा ठनका।आज सुबह ही तो उसने दही चीनी खिलाकर बेटे को स्नातक परीक्षा के अंतिम पेपर के लिए विदा किया था और अभी ये अस्पताल कैसे पहुँच गया?पति की आकस्मिक मृत्यु के बाद उसने बड़ी कठिनाइयों से जूझते हुए अपने इकलौते बेटे मुदित को पाल पोस कर बड़ा किया है। ईश्वर की असीम अनुकंपा रही कि बेटा शुरू से मेधावी छात्र रहा और साल दर साल अच्छे अंकों से इम्तिहान पास करते हुए आज यहाँ तक पहुँचा। कितनी मुश्किलोंं का सामना करते हुए उसने बेटे की ट्यूशन और परीक्षा फीस तथा अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने का इंतजाम किया था। पर , ना जाने जब सब कुछ सुलझता हुआ सा दिख रहा था तो कहाँ से ये घना कोहरा आ गया। अपनी फूटी किस्मत को कोसती और बेटे पर गुस्साते हुए मीरा ने वार्ड में प्रवेश किया। “ये क्या किया तुमने ? परीक्षा छूट गई तुम्हारी ? साल बर्बाद हो गया ? क्या पड़ी थी समाज सेवा करने की ?” मीरा ने भर्राए गले से बेटे सेे पूछा।”माँ, माँ, माँ ….. तुम कैसी बातें कर रही हो ? मैंने जीवन भर तुम्हें उस एक एक्सीडेंट की आग में झुलसते देखा है। काश , पापा को किसी भलेमानस ने सही समय पर अस्पताल पहुँचा दिया होता ! और तुम ऐसा बोल रही हो ?” The New Johnson’s ” पुरानी बातों को छोड़ो। वो हमारे भाग्य का दोष था। पर आज तुमने अपने सुनहरे भविष्य के बारे में और मेरे बारे में एक बार भी नहीं सोचा ?””क्या बोल रही हो माँ ? तुमने ही तो सिखाया है जेंटलमैन बनो, पढ़े लिखे विद्वान से भी ज्यादा जरूरी है सज्जन पुरूष बनो और अब तुम ही……. !” तभी कमरे में उस बच्ची के माता-पिता ने हाथ जोड़े प्रवेश किया। विगत एक घंटे ने ही उन्हें मानो सालों का वृद्ध ,बेसहारा और असहाय बना दिया था। लेकिन अभी उनकी आँखों में आशा की चमक थी। उन्होंने विनम्र शब्दों में कहा, “बिटिया खतरे से बाहर है। बेटे हम जन्म जन्मांतर के लिए तुम्हारे ऋणी हो गए। तुमने हमारे ऊपर बहुत बड़ा एहसान किया। धन्य है वो माँ जिसने ऐसे सपूत को पैदा किया। “और फिर उन दोनों ने आशीर्वादों और दुआओं की झड़ी लगा दी माँ-बेटे के लिए।मीरा निःशब्द होकर उन्हें नीहार रही थी। सहृदया और उदार मीरा को खुद अपने अस्तित्व पर क्षोभ हो रहा था। आज उसके बेटे ने माँ के दूध की सच्ची कीमत देकर “अपनी माँ” के ओहदे को गर्वान्वित कर दिया था, किसी को जीवनदान देकर। पर स्वार्थ की मारी मीरा, उसे यह पुण्य कार्य नहीं दिख रहा था। उसका मन अंदर अंदर ही अंदर आत्ममंथन कर रहा था और नेत्रों से अनवरत आँसू बह रहे थे और वह बुदबुदा रही थी ……….मैं ही ‘राम’और मैं ही ‘रावण !’……

Posted in भारतीय उत्सव - Bhartiya Utsav

संजय गुप्ता

दशहरे के दिन क्यों की जाती है, शमी के वृक्ष की पूजा??????

भारतीय संस्कृति में हर त्योहार का अपना एक अलग खास महत्व होता है। हर त्योहर अपने साथ बेहतर जीवन जीने का एक अलग संदेश देता है। नवरात्रि में मां भगवती के 9 स्वरूपों की पूजा के बाद दशहरे के दिन रावण का दहन किया जाता है। दहन के बाद कई प्रांतों में शमी के पत्ते को सोना समझकर देने का प्रचलन है तो कहीं इस वृक्ष की पूजा की जाती है।

बताया जाता है कि दशहरे के दिन शमी के वृक्ष की पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। खासकर क्षत्रियों में इस पूजन का महत्व ज्यादा है। इसी तरह मान्यता है कि शमी का वृक्ष घर में लगाने से देवी-देवताओं की कृपा बनी रहती है। शमी के वृक्ष की पूजा करने से घर में शनि का प्रकोप कम होता है। शमी के वृक्ष होने से सभी तंत्र-मंत्र और नकारात्मक शक्तियों का नाश होता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, महाभारत युद्ध में पांडवों ने शमी के वृक्ष पर ही अपने हथियार छुपाए थे। बाद में उन्हीं हथियारों से पांडवों कौरवों को हराकर विजय प्राप्त की थी। एक मान्यता के अनुसार कवि कालिदास को शमी के वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या करने से ही ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। बता दें गुजरात कच्छ के भुज शहर में लगभग 450 साल पुराना एक शमीवृक्ष है।

विजयादशमी के दिन इसकी पूजा करने के पीछे एक वजह यह भी है कि यह वृक्ष कृषि विपदा पर आने वाली समस्याओं के बारे में पहले ही संकेत दे देता है। गुजरात में कई किसान अपने खेतों में शमी का वृक्ष लगाते हैं। जिससे उन्हें लाभ होता है। साथ ही बिहार और झारखंड में यह वृक्ष अधिकतर घरों के दरवाजे के बाहर लगा हुआ मिलता है।

विजयादशमी के संदर्भ में एक पौराणिक कथा भी है। महर्षि वर्तन्तु का शिष्य कौत्स थे। महर्षि ने अपने शिष्य कौत्स से शिक्षा पूरी होने के बाद गुरू दक्षिणा के रूप में 14 करोड़ स्वर्ण मुद्रा की मांग की थी। महर्षि को गुरू दक्षिणा देने के लिए कौत्स महाराज रघु के पास गए। महाराज रघु ने कुछ दिन पहले ही एक महायज्ञ करवाया था, जिसके कारण खजाना खाली हो चुका था।

कौत्स ने राजा से स्वर्ण मुद्रा की मांग की तब उन्होंने तीन दिन का समय मांगा। राजा धन जुटाने के लिए उपाय खोजने लग गया। उसने स्वर्गलोक पर आक्रमण करने का विचार किया। राजा ने सोचा स्वर्गलोक पर आक्रमण करने से उसका शाही खजाना फिर से भर जाएगा। राजा के इस विचार से देवराज इंद्र घबरा गए और कोषाध्याक्ष कुबेर से रघु के राज्य में स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा करने का आदेश दिया।

इंद्र के आदेश पर रघु के राज्य में कुबेर ने शमी वृक्ष के माध्यम से स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा करा दी। माना जाता है कि जिस तिथि को स्वर्ण की वर्षा हुई थी उस दिन विजयादशमी थी। राजा ने शमी वृक्ष से प्राप्त स्वर्ण मुद्राएं कौत्स को दे दीं। इस घटना के बाद विजयादशमी के दिन शमी के वृक्ष के पूजा होने लगी।

Posted in हिन्दू पतन

संजय गुप्ता

हिन्दुओ के सारे पवित्र काम दिन में होते हैं लेकिन शादी रात में ,जाने इसके पीछे क्या कारण है??????

हमारा हिन्दू समाज अनेक प्रकार की मान्यताओ से भरा है चाहे वो कोई शुभ कार्य हो या शादी विवाह सबके अपने कायदे कानून बने हुए है| हमारे हिन्दू धर्म में शादी को एक बहुत ही पवित्र रिश्ता माना जाता है| विवाह का कोई समानार्थी शब्द नहीं है।

विवाह= वि+वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है- विशेष रूप से वहन करना। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है, लेकिन हमारे हिन्दू धर्म में विवाह बहुत ही भली-भांति सोच- समझकर किए जाने वाला संस्कार माना गया है।

इस संस्कार में वर और वधू सहित सभी पक्षों की सहमति लिए जाने की प्रथा है। शादी एक ऐसा मौका होता है जब दो इंसानो के साथ-साथ दो परिवारों का भी मिलन होता है। ऐसे में विवाह संबंधी सभी कार्य पूरी सावधानी और शुभ मुहूर्त देखकर ही किए जाते हैं। हिंदू धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूरी होती है।

लेकिन क्या आप ने कभी सोचा है की शादी हमेशा रात में ही क्यों होती है? जबकि हिन्दु धर्म में रात में शुभकार्य करना अच्छा नहीं माना जाता है| रात को देर तक जागना और सुबह को देर तक सोने को, राक्षसी प्रव्रत्ति बताया जाता है ऐसा करने से हमारे घर में लक्ष्मी नही आती है|.

केवल तंत्र सिद्धि करने वालों को ही रात्री में हवन यज्ञ की अनुमति है| वैसे भी प्राचीन समय से ही सनातन धर्मी हिन्दू दिन के प्रकाश में ही शुभ कार्य करने के समर्थक रहे है तब हिन्दुओं में रात की विवाह की परम्परा कैसे पडी ?

तो आइये जानते है की विवाह रात में ही क्यों होता है| दरअसल पहले भारत में सभी उत्सव एवं संस्कार दिन में ही किये जाते थे और शास्त्रों के अनुसार सीता और द्रौपदी का स्वयंवर भी दिन में ही हुआ था।

दोस्तों प्राचीन काल से लेकर मुगलों के आने तक भारत में सभी विवाह दिन में ही हुआ करते थे| मुस्लिम पिशाच आक्रमणकारियों के भारत पर हमला करने के बाद, हिन्दुओं को अपनी कई प्राचीन परम्पराएं तोडनी पड़ी|

मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा भारत पर अतिक्रमण करने के बाद भारतीयों पर बहुत अत्याचार भी किये गये यह आक्रमणकारी पिशाच हिन्दुओं के विवाह के समय वहां पहुचकर काफी लूटपाट भी करते थे।

कामुक अकबर के शासन काल में, जब अत्याचार चरमसीमा पर थे, मुग़ल सैनिक हिन्दू लड़कियों को बलपूर्वक उठा लेते थे और उन्हें अपने आकाओं को सौंप देते थे भारतीय ज्ञात इतिहास में सबसे पहली बार रात्रि में विवाह सुन्दरी और मुंदरी नाम की दो ब्राह्मण बहनों का हुआ था, जिनकी विवाह दुल्ला भट्टी ने अपने संरक्षण में ब्राह्मण युवकों के साथ कराया था|

कहा जाता है की उस समय दुल्ला भट्टी ने अत्याचार के खिलाफ हथियार भी उठाये थे और दुल्ला भट्टी ने ऐसी अनेकों लड़कियों को मुगलों से छुडाकर, उनका हिन्दू लड़कों से उनका विवाह कराया था| उसके बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों के आतंक से बचने के लिए हिन्दू रात के अँधेरे में विवाह करने लगे।

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संजय गुप्ता

(((( स्वामी रामअवध दास ))))
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लगभग सौ वर्ष पहले की बात है

। भगवान् श्री राघवेंद्र के परम भक्त क्षेत्रसन्यासी स्वामी रामअवध दास जी वैरागी साधू थे।
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बरसों से मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचंद्र जी की राजधानी अयोध्यापुरी मे रहते थे। अहर्निश श्री सीताराम नाम का कीर्तन करना उनका सहज स्वभाव हो गया था।
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रात को कठिनता से केवल दो घंटे सोते। सरयू जी के तीर पर एक पेड़ के नीचे धूनी रात – दिन जलती रहती। बरसात के मौसम में भी कोई छाया नहीं करते थे।
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आश्चर्य तो यह कि मूसलधार वर्षा में भी उनकी धूनी ठंडी नहीं हाती थी। जब देखो तभी स्वामी जी के मुखारविन्द से बड़े मधुर स्वर में श्री सीताराम नाम की ध्वनि सुनायी पड़ती।
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आसपास के सभी मनुष्य -जीव – जंतु तक सीताराम ध्वनि करना सीख गये थे। वहाँ के पक्षियों की बोली में श्री सीताराम की ध्वनि सुनायी पड़ती,
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वहाँ के कुत्ते – बिल्ली की बोली में श्री सीताराम स्वर आता, वहाँ के वृक्षों की खड़खड़ाहट में श्री सीताराम नाम सुनायी देता और वहाँ की पवित्र सरयू धारा श्री सीताराम गान करती। तमाम वातावरण सीताराममय हो गया था।
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स्वामी जी कभी कभी सत्संग भी करते, कोई ख़ास अधिकारी आने पर उस समय वे जिन तर्क युक्तियो और शास्त्रप्रमाणों को अपने अनुभव के समर्थन में रखते, उनसे पता लगता कि वे षड्दर्शन के बहुत बड़े पण्डित है,
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परंतु इन ज्ञान की बातो को छोड़कर भजन में लगे रहते। सत्संग भी व भजन का ही उपदेश करते और कहते की मनुष्य और कर ही क्या सकता है ?
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भगवान् ने कृपा करके जीभ दी है; इससे उनका नाम रटता रहे तो बस, इसीसे प्रभु कृपा करके उसे अपने आश्रय मे ले लेते है।
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स्वामी जी वैष्णव साधु थे, पर किसी भी सम्प्रदाय और मत से उनका विरोध नहीं था। वे सब को अपने ही रामजी के विभिन्न स्वरूपो के उपासक मानकर उनसे प्रेम करते।
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खण्डन तो कभी किसीका करते ही नही। मधुर मुस्कान उनके होठो पर सदा खेलती रहती। वृद्ध होने पर भी उनके चेहरे पर जो तेज छाया रहता, उसे देखकर लोग चकित हो जाते।
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उन्होने एक बार अपने श्री मुख से अपने पूर्वजीवन का वृत्तान्त एक संत को सुनाया था। उन्होंने श्री अयोध्या जी के एक संत से उसको इस प्रकार कहा था।
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स्वामी श्री राम अवधदास जी जौनपुर के समीप के ब्राह्मण थे। इनका नाम था- रामलगन। पिता के इकलौते पुत्र थे। माता बडी साध्वी और भक्तिमति थी।
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माता ने ही इन्हें श्री सीताराम कीर्तन सिखाया था और प्रतिदिन वह इन्हें भगवान् के चरित्रो की मधुर कथा सुनाया करती थी।
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एक बार जब ये आठ वर्ष के थे, तब रात को एक दिन कुछ डाकू इनके घर मे आ पहुंचे।
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इनके पिता पंडित सत्यनारायण जी काशी मे पढ़ें हुए विद्वान् थे। पुरोहिती का काम था। सम्पन्न घर था।
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जिस दिन डाकू आये, उस दिन इनके पिता घर पर नही थे। किसी यजमान के घर विवाह में गये हुए थे। घर पर इनकी मा थीं और ये थे।
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दोनों माता पुत्र घर के अंदर आँगन में सो रहे थे। गरमी के दिन थे, इसलिये सब किवाड खुले थे। एक ओर गौएँ खुली खड़ी थीं।
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जिस समय डाकू आये, उस समय इनकी माता इनको हनुमान जी के द्वारा लंका दहन की कथा सुना रही थी।
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इसी समय लगभग पंद्रह – सोलह डाकू सशस्त्र घर में घुस आये। उन्हें देखकर इनकी माँ डर गयी, पर इन्होंने कहा – माँ ! तू डर क्यो गयी ?
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देख, अभी हनुमान जी लंका जला रहे है। उनको पुकारती क्यों नहीं ? वे तेरे पुकारते ही हमारी मदद को आएंगे। इन्होंने बिलकुल निडर होकर यह बात कही परंतु माँ तो भय से काँप रही थीं।
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उसे इस बात का विश्वास नहीं था कि सचमुच पुकारने से श्रीहनुमान जी मदद को आ जायेंगे।
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जब माँ कुछ नहीं बोली तब इन्होने स्वयं पुकारकर कहा -हनुमान जी ! ओ हनुमान जी !! हमारे घर में ये कौन लोग लाठी ले-लेकर आ गये हैं ! मेरी माँ डर रही है । आओं, जल्दी आओं, लंका बाद में जलाना।
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डाकू घर में घुसे ही थे की उसी क्षण सचमुच एक विशाल वानर कूदता -फाँदता आ रहा है; डाकू उसकी ओर लाठी तान ही रहे थे कि उसने आकर दो तीन डाकुओं को तो ऐसी चपत लगायी कि वे गिर पड़े।
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डाकुओ का सरदार आगे आया तो उसे गिराकर उसकी दाढ़ी पकडकर इतनी जोर से खींची कि वह चीख मारकर बेहोश हो गया।
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डाकुओं की लाठियां तनी ही गिर पड़ी। वानर को एक भी लाठी नहीं लगी।
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मारपीट की शोरगुल से आसपड़ोस के लोग आने लगे और लोगो से पीटने के भय से कुछ डाकू भागे। सरदार बेहोश था, उसे तीन-चार डाकुओं ने कंधे पर उठाया और भाग निकले ।
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बालक रामलगन जी और उसकी माँ बड़े आश्चर्य से इस दृश्य को देख रहे थे। डाकुओं के भागनेपर वह वानर भी लापता हो गया।
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बालक हंसकर कह रहा था -देखा नहीं माँ ! हनुमान जी मेरी आवाज़ सुनते ही आ गये और बदमाशो को मार भगाया। माँ के भी आश्चर्य और हर्ष का पार नहीं था।
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गाँव वालो में यह घटना सुनी तो सब-के-सब आश्चर्य में डूब गये। रामलगन की माँ ने बताया कि इतना बडा और बलवान वानर उसने जीवन में कभी नहीं देखा था।
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दो-तीन दिन बाद पण्डित सत्यनारायण जी घर लौटे। उन्होंने जब यह बात सुनी तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ।
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डाकू घर से चले गये, यह आनंद तो था ही; सबसे बडा आनंद तो इस बात से हुआ कि स्वयं श्री हनुमान जी ने पधार कर घर को पवित्र किया और ब्राह्मणी तथा बालक को बचा लिया।
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वे भगवान् में श्रद्धा तो रखते ही थे, अब उनकी भक्ति और भी बढ़ गयी। उन्होंने यजमानों के यहां आना-जाना प्राय: बंद कर दिया था। दिनभर भजन-साधन मे रहने लगे।
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बालक रामलगन को व्याकरण ओर कर्मकाण्ड पढ़ाने का काम उन्ही के गाँव के पंडित श्री विनायक जी के जिम्मे था। प्रात:काल तीन-चार घंटे पढ़ते। बाकी समय माता-पिता के साथ वे भी भगवान् का भजन करते।
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भजन में इनका चित्त रमने लगा। जब इनकी उम्र बारह वर्ष की हुई तब तो ये घंटो भगवान् श्री रामचंद्र जी के ध्यान मे बेठने लगे। उस समय इनकी समाधि-सी लग जाती। नेत्रो से अश्रुओ की धारा बहती। बह्यज्ञान नहीं रहता।
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समाधि टूटने पर ये माता-पिता को बतलाते कि भगवान् श्री रामचंद्र जी श्री जनक नंदिनी जी तथा लखन लाल जी के साथ यहाँ बहुमूल्य राजसिंहासनपर विराज रहे थे।
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बालक की इस स्थिति से भाग्यवान माता-पिता को बड़ा सुख होता। वे अपने को बड़ा सौभाग्यशाली समझते।
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असल मे वे ही माता पिता धन्य है, जिनकी सन्तान भगवद्भक्त हो और जो अपनी संतान को भगवान् की सेवा में समर्पण कर सके।
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रामलगन जी के माता- पिता सच्चे पुत्रस्नेही थे, वे अपने बालक को नर्क में न जाने देकर भगवान् के परमधाम का यात्री बनाने मे ही अपना सच्चा कर्तव्य पालन समझते थे;
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इसलिये उन्हाने पुत्र की भक्ति देखकर सुख माना तथा उसे और भी उत्साह दिलाया।
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गाँव के तथा सम्बन्ध के लोग जब रामलगन के विवाह के लिये कहते, तब माता पिता उन्हें डराकर उत्तर देते – यह रामलगन हमारा पुत्र नहीं है, यह तो प्रभु श्री रामचन्द्र जी का है; विवाह करना न करना उन्ही के अधिकार में है। हम कुछ नहीं जानते !
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उनकी ऐसी बाते सुनकर कुछ लोग चिढते, कुछ प्रसन्न होते और कुछ उनकी मूर्खता समझते। जैसी जिसकी भावना होती, वह वैसी ही आलोचना करता।
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रामलगन जी की उम्र ज्यो ज्यो बढने लगी, त्यों-ही-त्यों उनका भगवत्प्रेम भी बढने लगा।
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एक बार रामनवमी के मेले पर रामलगन जी ने श्री अयोध्या जी जानेकी इच्छा प्रकट की।
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पंडित सत्यनारायण जी और उनकी पत्नी ने सोचा – अब श्री अयोध्या जी में ही रहा जाय तो सब तरह से अच्छा है। शेष जीवन वही बीते। रामलगन भी वहीं पास रहे।
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इससे इसकी भी भक्ति बढ़ेगी और हमलोगो का भी जीवन सुधरेगा। ऐसा निश्चय करके पत्नी की सलाह से पण्डित सत्यनारायण जी ने घर का सारा सामान तथा अधिकांश खेत-जमीन वगैरह दान कर दिया। इतनी-सी जमीन रखी, जिससे अन्न वस्त्र का काम चलता रहे।
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एक कास्तकार को खेत दे दिया और हर साल उससे अमुक हिस्से का अन्न लेने की शर्त करके सब लोग श्री अयोध्या जी चले गये।
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इस समय रामलगन जी की उम्र साढ़े पंद्रह वर्ष की थी। माता, पिता और पुत्र तीनो अवध वासी बनकर भगवान् श्रीसीताराम जी का अनन्य भजन करने लगे।
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पुरे चार वर्ष के बाद पिता माता का देहान्त हो गया। दोनो का एक ही दिन ठीक रामनवमी के दिन शरीर छुटा। दोनों ही अन्तसमयतक सचेत थे और भजन मे निरत थे।
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शरीर छूटने के कुछ ही समय दोनों को भगचान् श्री रामचन्द्र जी का ने साक्षात् दर्शन देकर कृतार्थ किया।
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श्री रामलगन जी की उम्र उस समय साढे उन्नीस साल की थी। माता पिता की श्रद्धा क्रिया भलीभाँति सम्पन्न करने के बाद इन्होंने अवध के एक भजनानन्दी संत से दीक्षा ले ली। तबसे इनका नाम स्वामी रामअवधदास हुआ ।
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स्वामी जी मे उत्कट वैराग्य था। ये अपने पास कुछ भी संग्रह नहीं रखते थे। योगक्षेम का निर्वाह श्रीसीताराम जी अपने आप करते थे।
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इन्होंने न कोई कुटिया बनवायी, न चेला बनाया और न किसी अन्य आडम्बर मे रहे। दिन रात कीर्तन करना और भगवान् के ध्यान में मस्त रहते, यही इनका एकमात्र कार्य था। इन्हे जीवन मे बहुत बार श्री हनुमान जी ने प्रत्यक्ष दर्शन दिये थे ।
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भगवान् श्री रामचन्द्र जी के भी इनको सात बार दर्शन हुए। अन्तकाल में श्री रामचंद्र जी की गोद में सिर रखकर इन्होने शरीर छोड़ा।
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लोगो को विश्वास था कि ये बहुत उच्च श्रेणी के संत है। ये बहुत ही गृप्त रूप से रहा करते थे और बहुत गुप्त रूप से भजन भी किया करते थे।
साभार :- श्री भक्तमाल कथा

Posted in रामायण - Ramayan

संजय गुप्ता

मान्यता है कि नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई!!!!!!!

मान्यता है कि आश्विन मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि की आधी रात में श्रीराम और लक्ष्मण के समक्ष भगवती महाशक्ति प्रकट हो गईं। देवी उस समय सिंह पर बैठी हुईं थीं।…

श्रीराम ने किष्किंधा पर्वत पर किया था शारदीय नवरात्र व्रत। उनके व्रत-अनुष्ठान का क्या था प्रयोजन? मान्यता है कि शारदीय नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई और रावण पर विजय भी। इसलिए इस समय आदिशक्ति की आराधना पर विशेष बल दिया गया है।

मार्कंडेयपुराण के अनुसार, ‘दुर्गासप्तशतीÓ में स्वयं भगवती ने इस समय शक्ति-पूजा को महापूजा बताया है। अन्य धर्मग्रंथों में भी शारदीय नवरात्र की महत्ता का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। माना जाता है कि भगवान श्रीराम ने भी अजेय रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए इस व्रत का विधिवत अनुष्ठान किया था।

रावण ने सीता का हरण कर लिया, जिससे श्रीराम दुखी और चिंतित थे। किष्किंधा पर्वत पर वे लक्ष्मण के साथ रावण को पराजित करने की योजना बना रहे थे। उनकी सहायता के लिए उसी समय देवर्षि नारद वहां पहुंचे।

उन्हें आया देखकर श्रीराम उठ खड़े हुए। उन्होंने नारद को आसन पर बैठाकर उनका स्वागत किया। श्रीराम को दुखी देखकर देवर्षि बोले, ‘राघव! आप साधारण लोगों की भांति दुखी क्यों हैं? दुष्ट रावण ने सीता का अपहरण कर लिया है- यह बात मुझे मालूम है। अपने सिर पर मंडराती हुई मृत्यु को न जानने के कारण ही उसने यह कुकर्म किया है। रावण का वध ही आपके अवतार का प्रयोजन है, इसीलिए सीता का हरण हुआ है।

रावण के वध का उपाय बताते हुए देवर्षि नारद ने श्रीराम को यह परामर्श दिया, ‘आश्विन मास के नवरात्र-व्रत का श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करें। नवरात्र में उपवास, भगवती-पूजन, मंत्र का जप और हवन मनोवांछित सिद्धि प्रदान करता है। पूर्वकाल में ब्रह्म, विष्णु, महेश और देवराज इंद्र भी इसका अनुष्ठान कर चुके हैं। किसी विपत्ति या कठिन समस्या में घिर जाने पर मनुष्य को यह व्रत अवश्य करना चाहिए। भृगु, वसिष्ठ, कश्यप और विश्वमित्र जैसे ऋषि भी इस व्रत का अनुष्ठान कर चुके हैं।

नारद ने संपूर्ण सृष्टि का संचालन करने वाली उस महाशक्ति का परिचय राम को देते हुए बताया कि वे सभी जगह विराजमान रहती हैं। उनकी कृपा से ही समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं। आराधना किए जाने पर भक्तों के दुखों को दूर करना उनका स्वाभाविक गुण है। त्रिदेव-ब्रह्म,विष्णु, महेश उनकी दी गई शक्ति से सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार करते हैं।

श्रीराम ने देवर्षि नारद से नवरात्र के व्रत और देवी की उपासना की विधि पूछी। इस पर वे बोले- ‘राम! समतल भूमि पर एक सिंहासन रखकर उस पर भगवती जगदंबा को विराजमान कर दें। नौ दिनों तक उपवास रखते हुए उनकी आराधना करें। पूजा विधिपूर्वक होनी चाहिए। आप के इस अनुष्ठान का मैं आचार्य बनूंगा। आपका प्रयोजन शीघ्र सिद्ध हो, इसके लिए मेरे मन में प्रबल उत्साह उत्पन्न हो रहा है।

राम ने नारद के निर्देश पर एक उत्तम सिंहासन बनवाया और उस पर कल्याणमयी भगवती जगदंबा की मूर्ति विराजमान की। नवरात्र में व्रत रखकर श्रीराम ने विधि-विधान के साथ देवी-पूजन किया। श्रीराम ने नौ दिनों तक उपवास करते हुए सभी नियमों का पालन भी किया। उनके साथ लक्ष्मण ने भी यह नवरात्र-व्रत किया।

मान्यता है कि आश्विन मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि की आधी रात में श्रीराम और लक्ष्मण के समक्ष भगवती महाशक्ति प्रकट हो गईं। देवी उस समय सिंह पर बैठी हुईं थीं। पर्वत के ऊंचे शिखर पर विराजमान होकर भगवती ने प्रसन्न-मुद्रा में कहा- ‘श्रीराम! मैं आपके व्रत से संतुष्टï हूं।

जो आपके मन में है, वह मुझसे मांग लें। सभी जानते हैं कि रावण-वध के लिए ही आपने पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में अवतार लिया है। आप भगवान विष्णु के अंश से प्रकट हुए हैं और लक्ष्मण शेषनाग के अवतार हैं। सभी वानर देवताओं के ही अंश हैं, जो युद्ध में आपके सहायक होंगे। इन सबमें मेरी शक्ति निहित है। आप अवश्य रावण का वध कर सकेंगे। अवतार का प्रयोजन पूर्ण हो जाने के बाद आप अपने परमधाम चले जाएंगे।

इस प्रकार श्रीराम के शारदीय नवरात्र-व्रत से प्रसन्न भगवती उन्हें मनोवांछित वर देकर अंतर्धान हो गईं। महाशक्ति से वरदान पाकर श्रीराम अत्यंत प्रसन्न हुए और युद्ध में असत्य के प्रतीक रावण का वध किया।

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एस एन व्यास

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   ‼ *🔴दिव्य ज्ञान धारा🔴*‼
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‼हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे‼
‼हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

🔥📿🔥📿🔥1⃣3⃣4⃣🔥📿🔥📿🔥

🌞 प्रातः वंदन 🙏🏻 जय जय सियाराम 🚩

🗣श्रीराम के जन्म की सत्यता प्रमाणित करते हैं , ये तथ्य!!!

👉राम – ईश्वर या महापुरुष

भगवान राम के जन्म लेकर धरती पर अवतरित होने की घटना हमेशा से ही चर्चा का विषय रही है। कई बार यह प्रमाणित करने की कोशिश की जाती रही है कि इस कथन में कोई सत्यता नहीं है कि त्रेतायुग में जन्मे अयोध्या के राजा राम कोई चमत्कारी पुरुष थे। इस बात को सिद्ध करने के लिए कई प्रयत्न किए गए कि वह महज़ एक राजा थे ना कि विष्णु के अवतार, जिन्होंने अपनी चमत्कारी ताकतों द्वारा असुर सम्राट रावण का अंत किया था।

👉रामसेतु

यही वजह है कि रामायण में उल्लिखित रामसेतु, जिस पर चढ़कर राम और उनकी सेना ने लंका पर आक्रमण किया था, को भी भगवान राम की वानर सेना द्वारा बनाया गया मानने से इनकार किया जाता रहा है।

👉शोध

जहां एक ओर अनेक तथ्यों द्वारा भगवान राम की सत्यता पर संदेह किया जाता रहा है वहीं बहुत से शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों ने अपने-अपने दावों और शोधों से यह पुख्ता किया है कि भगवान राम एक चमत्कारी पुरुष थे और उन्होंने धरती पर जन्म लिया था।

👉रामायण की सत्यता

गादर कामिल बुल्के ने अपने शोध के द्वारा 300 ऐसे प्रमाण पेश किए थे जिनके आधार पर राम के जन्म की घटना को सत्य कहा जा सकता है। भगवान राम से जुड़ा एक अन्य शोध चेन्नई की एक गैर सरकारी संस्था द्वारा किया गया, जिसके अनुसार राम का जन्म 5,114 ईसापूर्व हुआ था। इस शोध के अनुसार राम के जन्म को करीब 7,123 वर्ष हो चुके हैं।

👉नक्षत्रों की गणना

वाल्मीकि रामायण में उल्लिखित राम के जन्म के समय के नक्षत्रों की स्थिति को ‘प्ले‍नेटेरियम’ नामक सॉफ्टवेयर से गणना की गई तो उस समय और तारीख का स्पष्ट ज्ञान हो गया जिस समय राम ने धरती पर जन्म लिया था। प्लेनेटेरियम एक ऐसा सॉफ्टवेयर है जो आगामी सूर्य और चंद्र ग्रहण की भविष्यवाणियों के साथ-साथ गत लाखों सालों के हालातों का भी वर्णन कर सकता है।

👉लव-कुश का जन्म

राम के पुत्र लव-कुश के विषय में भी शोध संपन्न किए गए, जिनके अनुसार यह प्रमाणित हुआ कि लव-कुश की 50वीं पीढ़ी से शल्य वंश का उद्भव हुआ था जिन्होंने महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से युद्ध किया था। इसे आधार माना जाए तो लव और कुश का जन्म महाभारत काल के 2500 वर्ष पूर्व से 3000 वर्ष पूर्व हुआ था यानि आज से करीब 6,500 से 7,000 वर्ष पूर्व।

👉संस्कृतियां और पौराणिक ग्रंथ

राम के जन्म लेने का प्रमाण केवल भारत में ही नहीं बल्कि अनेक देशों में लिखी गई पुस्तकों और ग्रंथों में भी मिलता है। बाली, जावा, सुमात्रा, नेपाल, लाओस, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, भूटान, कंपूचिया, मलेशिया, श्रीलंका और थाईलैंड आदि देशों की संस्कृतियों व पौराणिक ग्रंथों द्वारा आज भी वहां राम को जीवित रखा गया है।

👉पवित्र ग्रंथ रामायण

हिन्दू धर्म के सबसे पवित्र ग्रंथ रामायण के रचयिता वाल्मीकि ने रामायण की रचना भगवान राम के काल के दौरान ही की थी। इसी वजह से इस ग्रंथ को सबसे अधिक प्रमाणिक भी माना जाता है। वाल्मीकि ने पुराणों में गठित इतिहास को मिथकीय स्वरूप द्वारा रामायण में गढ़ा था। इसमें तथ्यों की क्रमबद्धता ना होने की वजह से ही शायद राम के जन्म को लेकर विवाद कायम रहा है।

👉तुलसीदास

इसके बाद गोस्वामी तुलसीदास, जिनका जन्म सन् 1554 ई. हुआ था, ने रामचरित मानस की रचना की। सत्य है कि रामायण से अधिक रामचरित मानस को लोकप्रियता मिली है लेकिन यह ग्रंथ भी रामायण के तथ्यों पर ही आधारित है।

👉प्राचीनकाल में रचना

संस्कृत के अलावा तमिल भाषा में कम्बन रामायण, असम में असमी रामायण, उड़िया में विलंका रामायण, कन्नड़ में पंप रामायण, कश्मीर में कश्मीरी रामायण, बंगाली में रामायण पांचाली, मराठी में भावार्थ रामायण आदि को प्राचीनकाल में ही लिख दिया गया था।

👉विदेशी रामायण

भारत के अलावा विदेशी भाषा में भी रामायण की रचना हुई जिनमें कंपूचिया की रामकेर्ति या रिआमकेर रामायण, लाओस फ्रलक-फ्रलाम, मलेशिया की हिकायत सेरीराम, थाईलैंड की रामकियेन और नेपाल में भानुभक्त कृत रामायण आदि प्रमुख हैं।

👉राम कथा का प्रभाव

इन सभी के अलावा अन्य भी बहुत से ऐसे देश हैं जहां रामायण को लिखा गया। इससे यह प्रमाणित होता है कि केवल भारत में ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी राम कथा का गहरा प्रभाव रहा है।

👉श्रीलंका में रामायण

संस्कृत और पालि साहित्य का प्राचीनकाल से ही श्रीलंका से गहरा संबंध रहा है। रामायण समेत अन्य कई भारतीय महाकाव्यों के आधार पर रचित जानकी हरण के श्रीलंकाई रचनाकार और वहां के राजा, कुमार दास को कालिदास के घनिष्ठ मित्र की संज्ञा दी जाती है। इतना ही नहीं सिंघली भाषा में लिखी गई मलेराज की कथा भी राम के जीवन से ही जुड़ी हुई है।

👉बर्मा और कंपूचिया में रामायण

शुरुआती दौर में बर्मा को ब्रह्मादेश के नाम से जाना जाता था। बर्मा की प्राचीनतम रचना रामवत्थु श्री राम के जीवन से ही प्रभावित है। इसके अलावा लाओस में भी रामकथा के आधार पर कई रचनाओं का विकास हुआ, जिनमें फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, पोम्मचक (ब्रह्म चक्र) और लंका नाई आदि प्रमुख हैं।

👉इंडोनेशिया और जावा की रामायण

प्रारंभिक काल में इंडोनेशिया और मलेशिया में पहले हिन्दू धर्म के लोग ही रहा करते थे लेकिन फिलिपींस के इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बाद वहां धार्मिक हिंसा ने जन्म लिया, जिसकी वजह से समस्त देश के लोगों ने इस्लाम को अपना लिया। इसलिए जिस तरह फिलिपींस में रामायण का एक अलग ही स्वरूप विद्यमान है कुछ उसी तरह इंडोनेशिया और जावा की रामायण भी उसी से मिलती-जुलती है।

👉कावी भाषा में रचना

डॉ. जॉन. आर. फ्रुकैसिस्को ने फिलिपींस की मारनव भाषा में रचित एक रामकथा को खोजा जिसका नाम मसलादिया लाबन दिया गया। रामकथा पर आधारित जावा की प्राचीनतम कृति ‘रामायण काकावीन’ है। काकावीन की रचना जावा की प्राचीनतम कावी भाषा में हुई है।

👉रावण का ननिहाल था मलेशिया

13वीं शताब्दी में मलेशिया का भी इस्लामीकरण हुआ। यहां रामकथा पर एक विस्तृत ग्रंथ की रचना हुई जिसका नाम है ‘हिकायत सेरिराम’। माना जाता है मूल रूप से मलेशिया पर रावण के मामा का शासन था।

👉जंबू द्वीप के सम्राट थे दशरथ

चीनी रामायण को ‘अनामकं जातकम्’ और ‘दशरथ कथानम्’ ने नाम से जाना जाता है। इन दोनों ही ग्रंथों में रामायण के अलग-अलग पात्रों का जिक्र है। इन चीनी रामायणों के अनुसार राजा दशरथ अयोध्या के नहीं बल्कि जंबू द्वीप के सम्राट थे जिनके पहले पुत्र का नाम लोमो था। चीनी लोक कथाओं के अनुसार राम का जन्म 7,323 ईसापूर्व हुआ था।

👉वानर सेना की प्रतिमाएं

चीन की अपेक्षा उसके उत्तर-पश्चिम में स्थित मंगोलिया के लोगों को राम के जीवन की विस्तृत जानकारी है। वहां रहने वाले लामाओं के घरों या निवास स्थलों से राम की सेना यानि वानरों की कई प्रतिमाएं मिलती हैं। मंगोलिया से राम के जीवन से जुड़ी कई पांडुलिपियां भी प्राप्त हुई हैं।

👉राम से परिचित हैं तिब्बत के लोग

तिब्बत के लोग रामकथा को किंरस-पुंस-पा से जानते हैं। प्राचीनकाल से ही यहां वाल्मीकि रामायण काफी प्रख्यात रही है। तिब्बत के तुन-हुआंग नामक स्थल से रामायण की छ: प्रतियां भी प्राप्त हुई हैं।

✍~रामचरणानुरागी🙏😊

     🙏🔥जय श्री राम🔥🙏
  🔅‼राम शरणम ममः‼🔅
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ज्ञानवर्धक- एक कहानी
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🌹ॐ श्री जयदयाल गोयन्दका जी की पुस्तक शिक्षाप्रद कहानियाँ से।🌹 ((श्री गीताप्रेस गोरखपुर के संस्थापक))
🕉🛑🔯💮🎯🕉🛑🔯💮🎯
ॐ आनन्दमय ॐ शान्तिमय💐 सुनसान जंगल में एक लकड़हारे से पानी पी कर प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा―
हे पानी पिलाने वाले ! किसी दिन मेरी राजधानी में अवश्य आना, मैं तुम्हें पुरस्कार दूँगा, लकड़हारे ने कहा―बहुत अच्छा।इस घटना को घटे पर्याप्त समय व्यतीत हो गया, अन्ततः लकड़हारा एक दिन चलता-फिरता राजधानी में जा पहुँचा और राजा के पास जाकर कहने लगा―

मैं वही लकड़हारा हूँ, जिसने आपको पानी पिलाया था,!

राजा ने उसे देखा और अत्यन्त प्रसन्नता से अपने पास बिठाकर सोचने लगा कि- इस निर्धन का दुःख कैसे दूर करुँ ?

अन्ततः उसने सोच-विचार के पश्चात् चन्दन का एक विशाल उद्यान (बाग) उसको सौंप दिया।

लकड़हारा भी मन में प्रसन्न हो गया। चलो अच्छा हुआ। इस बाग के वृक्षों के कोयले खूब होंगे, जीवन कट जाएगा।

यह सोचकर लकड़हारा प्रतिदिन चन्दन काट-काटकर कोयले बनाने लगा और उन्हें बेचकर अपना पेट पालने लगा।

थोड़े समय में ही चन्दन का सुन्दर बगीचा एक वीरान बन गया, जिसमें स्थान-स्थान पर कोयले के ढेर लगे थे। इसमें अब केवल कुछ ही वृक्ष रह गये थे, जो लकड़हारे के लिए छाया का काम देते थे।

राजा को एक दिन यूँ ही विचार आया। चलो, तनिक लकड़हारे का हाल देख आएँ। चन्दन के उद्यान का भ्रमण भी हो जाएगा। यह सोचकर राजा चन्दन के उद्यान की और जा निकला।

उसने दूर से उद्यान से धुआँ उठते देखा। निकट आने पर ज्ञात हुआ कि चन्दन जल रहा है और लकड़हारा पास खड़ा है।

दूर से राजा को आते देखकर लकड़हारा उसके स्वागत के लिए आगे बढ़ा।

राजा ने आते ही कहा― भाई ! यह तूने क्या किया ?

लकड़हारा बोला― आपकी कृपा से इतना समय आराम से कट गया। आपने यह उद्यान देकर मेरा बड़ा कल्याण किया।

कोयला बना-बनाकर बेचता रहा हूँ। अब तो कुछ ही वृक्ष रह गये हैं। यदि कोई और उद्यान मिल जाए तो शेष जीवन भी व्यतीत हो जाए।

राजा मुस्कुराया और कहा― अच्छा, मैं यहाँ खड़ा होता हूँ। तुम कोयला नहीं, प्रत्युत इस लकड़ी को ले-जाकर बाजार में बेच आओ।

लकड़हारे ने दो गज [ लगभग पौने दो मीटर ] की लकड़ी उठाई और बाजार में ले गया।

लोग चन्दन देखकर दौड़े और अन्ततः उसे तीन सौ रुपये मिल गये, जो कोयले से कई गुना ज्यादा थे।

लकड़हारा मूल्य लेकर रोता हुआ राजा के पास आय और जोर-जोर से रोता हुआ अपनी भाग्यहीनता स्वीकार करने लगा।

इस कथा में चन्दन का बाग मनुष्य का शरीर और हमारा एक-एक स्वास चन्दन के वृक्ष हैं पर अज्ञानता वश हम इन चन्दन को कोयले में तब्दील कर रहे हैं।

लोगों के साथ बैर, द्वेष, क्रोध, लालच, ईर्ष्या, मनमुटाव, को लेकर खिंच-तान आदि की अग्नि में हम इस जीवन रूपी चन्दन को जला रहे हैं।

जब अंत में स्वास रूपी चन्दन के पेड़ कम रह जायेंगे तब अहसास होगा कि व्यर्थ ही अनमोल चन्दन को इन तुच्छ कारणों से हम दो कौड़ी के कोयले में बदल रहे थे।

पर अभी भी देर नहीं हुई है हमारे पास जो भी चन्दन के पेड़ बचे है उन्ही से नए पेड़ बन सकते हैं।अर्थात अमूल्य शेष जीवन का सदुपयोग हो सकता है।

आपसी प्रेम, प्रसन्नता, सौहार्द, शांति, भाईचारा, और विश्वास, के द्वारा अभी भी जीवन ॐ आनन्दमय भगवान के सत्संग द्वारा सँवारा जा सकता है।🕉
🕉💐🌹🌻🔮🕉💐🌹🌻🔮

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🙏🙏वृद्धावस्था 🙏🙏

एक बार एक बुजुर्ग की तबियत खराब हो गई और उन्हें अस्पताल में दाखिल कराना पड़ा।

पता लगा कि उन्हें कोई गम्भीर बीमारी है हालांकि ये छूत की बीमारी नही है, पर फिर भी इनका बहुत ध्यान रखना पड़ेगा।

कुछ समय बाद वो घर आए। पूरे समय के लिए नौकर और नर्स रख लिए गए।

धीरे-धीरे पोतों ने कमरे में आना बंद कर दिया। बेटा-बहू भी ज्यादातर अपने कमरे में रहते।

बुजुर्ग को अच्छा नहीं लगता था लेकिन कुछ कहते नही थे।

ऐक दिन वो कमरे के बाहर टहल रहे थे तभी उनके बेटे-बहू की आवाज़ आई।
बहू कह रही थी कि पिताजी को किसी वृद्धाश्रम या किसी अस्पताल के प्राइवेट कमरे एडमिट करा दें कहीं बच्चे भी बीमार न हो जाए,

बेटे ने कहा कह तो तुम ठीक रही हो , आज ही पिताजी से बात करूंगा!

पिता चुपचाप अपने कमरे में लौटा,
सुनकर दुख तो बहुत हुआ पर उन्होंने मन ही मन कुछ सोच लिया।

शाम जब बेटा कमरे में आया तो पिताजी बोले अरे मैं तुम्हें ही याद कर रहा था कुछ बात करनी है।
बेटा बोला पिताजी मुझे भी आपसे कुछ बात करनी है।आप बताओ क्या बात हैं

पिताजी बोले तुम्हें तो पता ही है कि मेरी तबियत ठीक नहीं रहती, इसलिए अब मै चाहता हूं कि मैं अपना बचा जीवन मेरे जैसे बीमार, असहाय , बेसहारा बुजुर्गों के साथ बिताऊं।

सुनते ही बेटा मन ही मन खुश हो गया कि उसे तो कहने की जरूरत नहीं पड़ी। पर दिखावे के लिए उसने कहा, ये क्या कह रहे हो पिताजी आपको यहां रहने में क्या दिक्कत है?

तब बुजुर्ग बोले नही बेटे, मुझे यहां रहने में कोई तकलीफ नहीं लेकिन यह कहने में मुझे तकलीफ हो रही है कि तुम अब अपने रहने की व्यवस्था कहीं और कर लो, मैने निश्चय कर लिया है कि मै इस बंगले को वृद्धाश्रम बनाऊंगा ।
और असहाय और बेसहारों की देखरेख करते हुए अपना जीवन व्यतीत करूंगा। अरे हाँ तुम भी कुछ कहना चाहते थे बताओ क्या बात थी…!!!!

कमरे में चुप्पी छा गई थी…

कभी-कभी जीवन में सख्त कदम उठाने की जरूरत होती है…!!!😍😘😘👌👍👍👍👏

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प्रासंगिक- एक कहानी
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सुनसान जंगल में एक लकड़हारे से पानी पी कर प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा―
हे पानी पिलाने वाले ! किसी दिन मेरी राजधानी में अवश्य आना, मैं तुम्हें पुरस्कार दूँगा, लकड़हारे ने कहा―बहुत अच्छा।इस घटना को घटे पर्याप्त समय व्यतीत हो गया, अन्ततः लकड़हारा एक दिन चलता-फिरता राजधानी में जा पहुँचा और राजा के पास जाकर कहने लगा―
.
मैं वही लकड़हारा हूँ, जिसने आपको पानी पिलाया था,
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राजा ने उसे देखा और अत्यन्त प्रसन्नता से अपने पास बिठाकर सोचने लगा कि- इस निर्धन का दुःख कैसे दूर करुँ ?
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अन्ततः उसने सोच-विचार के पश्चात् चन्दन का एक विशाल उद्यान (बाग) उसको सौंप दिया।
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लकड़हारा भी मन में प्रसन्न हो गया। चलो अच्छा हुआ। इस बाग के वृक्षों के कोयले खूब होंगे, जीवन कट जाएगा।
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यह सोचकर लकड़हारा प्रतिदिन चन्दन काट-काटकर कोयले बनाने लगा और उन्हें बेचकर अपना पेट पालने लगा।
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थोड़े समय में ही चन्दन का सुन्दर बगीचा एक वीरान बन गया, जिसमें स्थान-स्थान पर कोयले के ढेर लगे थे। इसमें अब केवल कुछ ही वृक्ष रह गये थे, जो लकड़हारे के लिए छाया का काम देते थे।
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राजा को एक दिन यूँ ही विचार आया। चलो, तनिक लकड़हारे का हाल देख आएँ। चन्दन के उद्यान का भ्रमण भी हो जाएगा। यह सोचकर राजा चन्दन के उद्यान की और जा निकला।
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उसने दूर से उद्यान से धुआँ उठते देखा। निकट आने पर ज्ञात हुआ कि चन्दन जल रहा है और लकड़हारा पास खड़ा है।
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दूर से राजा को आते देखकर लकड़हारा उसके स्वागत के लिए आगे बढ़ा।
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राजा ने आते ही कहा― भाई ! यह तूने क्या किया ?
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लकड़हारा बोला― आपकी कृपा से इतना समय आराम से कट गया। आपने यह उद्यान देकर मेरा बड़ा कल्याण किया।
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कोयला बना-बनाकर बेचता रहा हूँ। अब तो कुछ ही वृक्ष रह गये हैं। यदि कोई और उद्यान मिल जाए तो शेष जीवन भी व्यतीत हो जाए।
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राजा मुस्कुराया और कहा― अच्छा, मैं यहाँ खड़ा होता हूँ। तुम कोयला नहीं, प्रत्युत इस लकड़ी को ले-जाकर बाजार में बेच आओ।
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लकड़हारे ने दो गज [ लगभग पौने दो मीटर ] की लकड़ी उठाई और बाजार में ले गया।
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लोग चन्दन देखकर दौड़े और अन्ततः उसे तीन सौ रुपये मिल गये, जो कोयले से कई गुना ज्यादा थे।
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लकड़हारा मूल्य लेकर रोता हुआ राजा के पास आय और जोर-जोर से रोता हुआ अपनी भाग्यहीनता स्वीकार करने लगा।


इस कथा में चन्दन का बाग मनुष्य का शरीर और हमारा एक-एक स्वास चन्दन के वृक्ष हैं पर अज्ञानता वश हम इन चन्दन को कोयले में तब्दील कर रहे हैं।
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लोगों के साथ बैर, द्वेष, क्रोध, लालच, ईर्ष्या, मनमुटाव, को लेकर खिंच-तान आदि की अग्नि में हम इस जीवन रूपी चन्दन को जला रहे हैं।
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जब अंत में स्वास रूपी चन्दन के पेड़ कम रह जायेंगे तब अहसास होगा कि व्यर्थ ही अनमोल चन्दन को इन तुच्छ कारणों से हम दो कौड़ी के कोयले में बदल रहे थे,
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पर अभी भी देर नहीं हुई है हमारे पास जो भी चन्दन के पेड़ बचे है उन्ही से नए पेड़ बन सकते हैं।
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आपसी प्रेम, सहायता, सौहार्द, शांति, भाईचारा, और विश्वास, के द्वारा अभी भी जीवन सँवारा जा सकता है।

JAI JINENDRA