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-:भगवान के भोग का फल:-

लष्मीकांत विजेगढिया
एक सेठजी बड़े कंजूस थे। एक दिन दुकान पर् बेटे को बैठा दिया और बोले कि बिना पैसा लिए किसी को कुछ मत देना, मैं अभी आया। अकस्मात एक संत आये जो अलग अलग जगह से एक समय की भोजन सामग्री लेते थे, लड़के से कहा बेटा जरा नमक देदो। लड़के ने सन्त को डिब्बा खोल कर एक चम्मच नमक दिया। सेठजी आये तो देखा कि एक डिब्बा खुला पड़ा था, सेठजी ने कहा कि क्या बेचा, बेटा बोला एक सन्त जो तालाब पर् रहते हैं उनको एक चम्मच नमक दिया था। सेठ का माथा ठनका अरे मूर्ख इसमें तो जहरीला पदार्थ है।
अब सेठजी भाग कर संतजी के पास गए, सन्तजी भगवान के भोग लगाकर थाली लिए भोजन करने बैठे ही थे सेठजी दूर से ही बोले महाराजजी रुकिए आप जो नमक लाये थे वो जहरीला पदार्थ था।आप भोजन नहीं करें।
संतजी बोले भाई हम तो प्रसाद लेंगे ही क्योंकि भोग लगा दिया है और भोग लगा भोजन छोड़ नहीं सकते हाँ अगर भोग नहीं लगता तो भोजन नही करते और शुरू कर दिया भोजन। सेठजी के होश उड़ गए, बैठ गए वहीं पर्। रात पड़ गई सेठजी वहीं सो गए कि कहीं संतजी की तबियत बिगड़ गई तो कम से कम बैद्यजी को दिखा देंगे तो बदनामी से बचेंगे। सोचते सोचते नींद आ गई। सुबल जल्दी ही सन्त उठ गए और नदी में स्नान करके स्वस्थ दशा में आ रहे हैं। सेठजी ने कहा महाराज तबियत तो ठीक है। सन्त बोले भी भगवान की कृपा है, कह कर मन्दिर खोला तो देखते हैं कि भगवान का श्री विग्रह के दो भाग हो गए शरीर कला पड़ गया। अब तो सेठजी सारा मामला समझ गए कि अटल विश्वास से भगवान ने भोजन का जहर भोग के रूप में स्वयं ने ग्रहण कर लिया और भक्त को प्रसाद का ग्रहण कराया।
सेठजी ने आज घर आकर बेटे को घर दुकान सम्भला दी और स्वयं भक्ति करने सन्त शरण चले गए।
शिक्षा :- भगवान को निवेदन करके भोग लगा करके ही भोजन करें, भोजन अमृत बन जाता है।
आइये आज से ही नियम लें कि भोजन बिना भोग लगाएं नहीं करेंगे।
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महाकाव्य महाभारत से ली गई एक कहानी से यह लेख है ***

एक कहानी, जो विश्वास व समर्पण, नियति एवं ईश्वरत्व पर है***

यह घटना तब की है जब समस्त देश के असंख्य सैन्य-दलों को भारत के सर्वाधिक रक्तरंजित महायुद्ध के लिये संघटित किया जा रहा था***

कौरवों व पांडवों के बीच होने वाले महायुद्ध महाभारत के लिये, जो कि अठारह दिनों तक चलने वाला था***

कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र को विशाल अश्वरोही सेनाओं के आवागमन के योग्य बनाने हेतु सज किया जा रहा था***

प्रतिस्पर्धी तंबुओं के लिये स्थान साफ किये जा रहे थे***

विशाल सेनाओं के लिये भोजन पकाने हेतु लकड़ियों के विशाल गट्ठर बनाये जा रहे थे***

हाथियों द्वारा वृक्षों को गिराया जा रहा था***

ऐसे ही एक वृक्ष पर एक गौरैया का घोंसला था जिसमें चार छोटे बच्चे थे***

जैसे ही पेड़ को गिराया गया उसका घोेंसला धरती पर गिर पड़ा***

बच्चे जो अभी उड़ने के लिये बहुत छोटे थे, चमत्कारिक ढंग से सही-सलामत थे***

असुरक्षित व आतंकित गौरैया ने चारों ओर मदद के लिये देखा***

उसी समय उसे कृष्ण दिखाई दिये जो अर्जुन के साथ मैदान का निरीक्षण कर रहे थे***

वे वहाँ युद्धभूमि का परीक्षण करने आए थे जिससे युद्ध के आरंभ होने से पहले एक विजयी सैन्य रणनीति पर विचार किया जा सके***

गौरैया ने कृष्ण के रथ के पास पहुँचने के लिये पूरी शक्ति से अपने पंख फड़फड़ाए***

“हे कृष्ण, कृपया मेरे बच्चों की रक्षा कीजिये” गौरैया ने प्रार्थना की। “कल जब यह युद्ध आरंभ होगा तो यह सब कुचले जाएंगे।”***

“मैं तुम्हें सुन रहा हूँ” उन्होंने कहा जो सर्वज्ञ हैं। “किंतु मैं प्रकृति के नियम में बाधा नहीं डाल सकता।”***

“भगवन मैं केवल इतना जानती हूँ कि आप मुझे बचाने आये हैं। मैं अपने बच्चों का भाग्य आपके हाथों में सौंपती हूँ***

आप उन्हें मार सकते हैं या फिर बचा सकते हैं। अब यह आप पर है।”***

यह संकेत करते हुए कि वे इस विषय में कुछ भी नहीं कर सकते, कृष्ण ने साधारण मनुष्य की भांति कहा***

“समय का पहिया तो बिना विचार किए चलता है”।***

“मैं कोई दर्शनशास्त्र नहीं जानती।” गौरैया ने विश्वास एवं श्रद्धा से कहा “आप ही समय का पहिया हैं। मैं तो यही जानती हूँ। मैं आत्मसमर्पण करती हूँ।”***

“फिर अपने घोंसले में तीन सप्ताह का भोजन एकत्रित कर लो।”

इस वार्तालाप से अनभिज्ञ अर्जुन उस गौरैया को भगा रहा था***

कृष्ण गौरैया को देखकर मुस्कुरा रहे थे। गौरैया ने अभिवादन स्वरूप थोड़ी देर अपने पंख फड़फड़ाए और अपने घोंसले पर वापस आ गई***

दो दिन पश्चात् युद्ध आरंभ की घोषणा हेतु शंखनाद होने से पूर्व कृष्ण ने अर्जुन से उसका धनुष-बाण मांगा***

अर्जुन भौचक्का था क्योंकि कृष्ण ने युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा ली थी। इस के अतिरिक्त अर्जुन को यह विश्वास था कि वह ही वहाँ सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर है***

“आज्ञा दें प्रभु” उसने दृढ़ विश्वास से कहा “मेरे बाणों के लिये कुछ भी अभेद्य नहीं है।”***

अर्जुन से चुपचाप धनुष लेते हुए कृष्ण ने एक हाथी पर निशाना साधा***

किंतु उस जानवर को मार गिराने के बजाए वह तीर उसके गले में लटकी घंटी पर लगा और चिंगारियाँ निकलीं***

कृष्ण को एक सरल सा निशाना चूकते देख अर्जुन अपनी हंसी रोक न सका।***

“क्या, मैं करूँ?” उसने प्रस्ताव किया।
पुनः उसके प्रश्न एवं प्रतिक्रिया को अनदेखा करते हुए कृष्ण ने उसे उसका धनुष वापस कर दिया और कहा कि इसके आगे कुछ और करना आवश्यक नहीं है***

“किंतु केशव, आपने हाथी को क्यों निशाना बनाया?” अर्जुन ने पूछा***

“क्योंकि यही वह हाथी है जिसने उस पेड़ को गिराया था जिस पर उस गौरैया का घोंसला था।”***

“कौन सी गौरैया?” अर्जुन ने आश्चर्य प्रकट किया “और वह हाथी सकुशल और जीवित है। केवल उसकी घंटी ही गिरी है।”***

उसके प्रश्न की उपेक्षा करते हुए श्री कृष्ण ने उसे अपना शंख बजाने का आदेश दिया***

युद्ध शुरू हुआ और अगले अठारह दिनों में अनगिनत जीवन नष्ट हो गये। अन्त में पांडवों की विजय हुई। पुनः कृष्ण अर्जुन को लेकर रक्तिम युद्धक्षेत्र का निरीक्षण करने गये***

वहाँ कईं शव पड़े थे जिनका अंतिम संस्कार भी नहीं किया गया था। युद्ध-भूमि में कटे हुए सिर, हाथ-पैर, निर्जीव घोड़े व हाथी कूड़े करकट के समान पड़े हुए थे***

कृष्ण एक स्थान पर रुके और हाथी की एक घंटी को विचार मग्न होकर देखने लगे***

उन्होंने कहा “अर्जुन, क्या तुम मेरे लिये इस घंटी को उठाकर दूसरी ओर रख दोगे?”***

यद्यपि आदेश सरल था किंतु अर्जुन को तात्पर्य समझ नहीं आया***

आखिरकार इस विशाल युद्धक्षेत्र में जहाँ बहुत सी अन्य वस्तुओं को हटाने की आवश्यकता थी, कृष्ण ने उसे एक तुच्छ धातु के टुकड़े को हटाने के लिए क्यों कहा?***

उसने उन्हें प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा***

“हाँ, वह घंटी। यह वही घंटी है जो उस हाथी के गले से तब गिरी थी जब मैंने उस पर तीर चलाया था।”***

बिना कोई प्रश्न किये अर्जुन उस भारी घंटी को हटाने के लिये झुका। जैसे ही उसने उसे उठाया उसका संसार सदा के लिये परिवर्तित हो गया***

एक, दो, तीन, चार, पाँच। चार छोटी चिड़िया एक के पीछे एक करके उड़ गयीं और उनके पीछे एक गौरैया थी***

माँ चिड़िया कृष्ण के चारों ओर अत्यधिक प्रसन्नता में चक्कर लगाते हुए परिक्रमा करने लगी***

वह एक घंटी जो कृष्ण ने अठारह दिनों पूर्व विभाजित की थी उसने चिड़िया के पूरे परिवार की रक्षा की***

“मुझे क्षमा करें कृष्ण” अर्जुन ने कहा “आपको मानव शरीर में साधारण मनुष्यों की भांति व्यवहार करते देख मैं भूल गया था कि आप सचमुच कौन हैं।”***

कृष्ण ने गौरैया को युद्ध भूमि में ही छोड़ दिया था क्योंकि यह उसके भाग्य में पूर्व निर्धारित था***

वह चिड़िया अपने बच्चों के साथ किसी सुरक्षित स्थान पर जाने की इच्छा भी प्रकट कर सकती थी***

वह कृष्ण से उसे अपने साथ ले जाने के लिए भी तर्क कर सकती थी***

वह विनती कर सकती थी कि उसे तीन सप्ताहों का भोजन प्रदान किया जाये***

उसने इनमें से कुछ भी नहीं किया। उसने केवल निर्देशों का पालन किया तथा स्वयं को उनके हाथों में सौंप दिया जिस पर उसे विश्वास था***

उससे जो प्रयास अपेक्षित था उसने उसका त्याग नहीं किया***

बहुत से व्यक्ति विश्वास एवं समर्पण को ऐसे देखते हैं जैसे वे उनके सपनों को साकार करने का मार्ग हो***

वे यह विश्वास करते हैं कि वे किसी देवता से प्रार्थना करेंगे और उनकी इच्छा स्वीकार कर ली जायेगी***

प्रकृति इस प्रकार संचालन नहीं करती। वह ऐसा करने में समर्थ नहीं क्योंकि बहुधा हम अनुचित वस्तुओं की इच्छा करते हैं***

हम कुछ परिणामों की कामना करते रहते हैं यह समझे बिना कि उन इच्छाओं की पूर्ति के लिये हमें क्या मूल्य चुकाना होगा***

हम भूल जाते हैं कि हमारे द्वारा चयनित विकल्प हमारे दुर्भाग्य से जटिलता पूर्वक जुड़ा है***

वह हमारे भाग्य को ढालता है। “अच्छा” पाने की चाह में हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं***

उदाहरणार्थ बजाय इसके कि हम वह व्यक्ति बनें जो अपने साथी को प्रसन्न रख सके, हम उस साथी की कामना करते हैं जो हमें प्रसन्न रख सके***

और जैसे-जैसे समय के साथ हममें परिवर्तन आता है, जो वस्तुएं हमें पहले लुभाती थीं, वे अब हमें प्रसन्नता नहीं देतीं***

फिर हम एक दूसरे व्यक्ति, दूसरे साथी या फिर कुछ और की कामना करने लगते हैं***

बजाय इसके कि हमारे पास जो है हम उसमें संतुष्ट रहें, हम और वस्तुओं के लिये तरसते रहते हैं***

और वस्तुओं को पाने के लिये हम और मेहनत करते हैं। प्राय: इस के लिए हमें अपने स्वास्थ्य व अपने रिश्तों का मूल्य चुकाना पड़ता है***

रहन-सहन का स्तर तो बढ़ जाता है किंतु जीवन जीने के स्तर में समझौता करना पड़ता है और फिर हम आश्चर्य करते हैं कि अधिक वस्तुएं हमें प्रसन्न नहीं रख पा रही हैं***

विश्वास आपकी इच्छाओं व ईश्वर की कृपा के बीच कोई रस्साकसी के समान नहीं कि एक दिन आप ईश्वर को अपनी ओर पक्षपात करने के लिये लुभा लें***

इसके विपरीत विश्वास तो पकड़ ढीली करने जैसा है। यह अपने कर्म का त्याग किये बिना अपने हाथ समर्पण में ऊपर कर देने जैसा है***

विश्वास यह जानने में है कि बाहर हर समय उजाला नहीं होगा। जो भी हो रहा है ठीक है। विश्वास यह समझ लेने में है कि रात्रि के पश्चात सुबह होगी***

विश्वास इस जागरूकता में है कि एक मेघाच्छादित आकाश का अर्थ यह नहीं है कि सूर्यास्त हो गया***

उन सब पर मेहनत करना जो आप के हाथ में हो, और उन सब को छोड़ देना जिन पर आप का कोई नियंत्रण नहीं, संक्षिप्त में यह ही विश्वास है***

ऐसा विश्वास, जो कि कर्म और समर्पण से बना है, प्रत्येक भय की औषधि है***

विश्वास हृदय की बुद्धिमत्ता है। इसे आपकी बुद्धि समझ नहीं सकती किंतु हृदय जानता है। इसे अपने जीवन में स्थान दें और आप हजारों पंखों के साथ उड़ान भरेंगे। और ऊँचे, और तीव्र। समुंदर के पार, आकाश के परे***

🙏🙏जय श्री कृष्ण 🙏🙏