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मौत पीछा न छोड़ेगी… 


मौत पीछा न छोड़ेगी…

यदि तुम ठीक छाया की ओर बढ़ो, जहां धूप न हो, तो परछाई गायब हो जायेगी क्योंकि परछाई धूप या रोशनी के कारण ही बनती है। वह सूर्य की किरणों की अनुपस्थिति है। यदि तुम एक वृक्ष की छाया तले बैठ जाओ, तो परछाई लुप्त हो जायेगी…

एक बहुत प्यारी सूफ़ी कहानी हैः
एक बादशाह ने एक दिन सपने में अपनी मौत को आते हुए देखा। उसने सपने में अपने पास खड़ी एक छाया देख, उससे पूछा-‘तुम कौन हो? यहां क्यों आयी हो?’

उस छाया या साये ने उत्तर दिया-मैं तुम्हारी मौत हूं और मैं कल सूर्यास्त होते ही तुम्हें लेने तुम्हारे पास आऊंगी।’ बादशाह ने उससे पूछना भी चाहा कि क्या बचने का कोई उपाय है, लेकिन वह इतना अधिक डर गया था कि वह उससे कुछ भी न पूछ सका। तभी अचानक सपना टूट गया और वह छाया भी गायब हो गयी। आधी रात को ही उसने अपने सभी अक्लमंद लोगों को बुलाकर पूछा-‘इस स्वप्न का क्या मतलब है, यह मुझे खोजकर बताओ।’ और जैसा कि तुम जानते ही हो, तुम बुद्धिमान लोगों से अधिक बेवकूफ कोई और खोज ही नहीं सकते। वे सभी लोग भागे-भागे अपने-अपने घर गये और वहां से अपने-अपने शास्त्र साथ लेकर लौटे। वे बड़े-बड़े मोटे पोथे थे। उन लोगों ने उन्हें उलटना-पलटना शुरू कर दिया और फिर उन लोगों में चर्चा-परिचर्चा के दौरान बहस छिड़ गयी। वे अपने-अपने तर्क देते हुए आपस में ही लड़ने-झगड़ने लगे।

उन लोगों की बातें सुनकर बादशाह की उलझन बढ़ती ही जा रही थी। वे किसी एक बात पर सहमत ही नहीं हो पा रहे थे। वे लोग विभिन्न पंथों के थे। जैसा कि बुद्धिमान लोग हमेशा होते हैं, वे स्वयं भी स्वयं के न थे।

वे उन सम्प्रदायों से सम्बन्ध रखते थे, जिनकी परम्पराएं मृत हो चुकी थीं। उनमें एक हिन्दू, दूसरा मुसलमान और तीसरा ईसाई था। वे अपने साथ अपने-अपने शास्त्र लाये थे और उन पोथों को उलटते-पलटते, वे बादशाह की समस्या का हल खोजने की कोशिशों पर कोशिशें कर रहे थे। आपस में तर्क-विर्तक करते-करते वे जैसे पागल हो गये। बादशाह बहुत अधिक व्याकुल हो उठा क्योंकि सूरज निकलने लगा था और जिस सूर्य का उदय होता है, वह अस्त भी होता है क्योंकि उगना ही वास्तव में अस्त होना है। अस्त होने की शुरुआत हो चुकी है। यात्रा शुरू हो चुकी थी और सूर्य डूबने में सिर्फ बारह घंटे बचे थे।

उसने उन लोगों को टोकने की कोशिश की, लेकिन उन लोगों ने कहा-‘आप कृपया बाधा उत्पन्न न करें। यह एक बहुत गम्भीर मसला है और हम लोग हल निकालकर रहेंगे।’

तभी एक बूढ़ा आदमी-जिसने बादशाह की पूरी उम्र खिदमत की थी-उसके पास आया और उसके कानों में फुसफुसाते हुए कहा-‘यह अधिक अच्छा होगा कि आप इस स्थान से कहीं दूर भाग जायें क्योंकि ये लोग कभी किसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे नहीं और तर्क-वितर्क ही करते रहेंगे और मौत आ पहुंचेगी। मेरा आपको यही सुझाव है कि जब मौत ने आपको चेतावनी दी है, तो अच्छा यही है कि कम-से-कम आप इस स्थान से कहीं दूर सभी से पीछा छुड़ाकर चले जाइए। आप कहीं भी जाइयेगा, बहुत तेजी से।’ यह सलाह बादशाह को अच्छी लगी-‘यह बूढ़ा बिल्कुल ठीक कह रहा है। जब मनुष्य और कुछ नहीं कर सकता, वह भागने का, पीछा छुड़ाकर पलायन करने का प्रयास करता है।’

बादशाह के पास एक बहुत तेज दौड़ने वाला घोड़ा था। उसने घोड़ा मंगाकर बुद्धिमान लोगों से कहा-‘मैं तो अब कहीं दूर जा रहा हूं और यदि जीवित लौटा, तो तुम लोग तय कर मुझे अपना निर्णय बतलाना, पर फिलहाल तो मैं अब जा रहा हूं।’

वह बहुत खुश-खुश जितनी तेजी से हो सकता था, घोड़े पर उड़ा चला जा रहा था क्योंकि आखिर यह जीवन और मौत का सवाल था। वह बार-बार पीछे लौट-लौटकर देखता था कि कहीं वह साया तो साथ नहीं आ रहा है, लेकिन वहां स्वप्न वाले साये का दूर-दूर तक पता न था। वह बहुत खुश था, मृत्यु पीछे नहीं आ रही थी और उससे पीछा छुड़ाकर दूर भागा जा रहा था।

अब धीमे-धीमे सूरज डूबने लगा। वह अपनी राजधानी से कई सौ मील दूर आ गया था। आखिर एक बरगद के पेड़ के नीचे उसने अपना घोड़ा रोका। घोड़े से उतरकर उसने उसे धन्यवाद देते हुए कहा-‘वह तुम्हीं हो, जिसने मुझे बचा लिया।’

वह घोड़े का शुक्रिया अदा करते हुए यह कह ही रहा था कि तभी अचानक उसने उसी हाथ को महसूस किया, जिसका अनुभव उसने ख्वाब में किया था। उसने पीछे मुड़कर देखा, वही मौत का साया वहां मौजूद था।

मौत ने कहा-‘मैं भी तेरे घोड़े का शुक्रिया अदा करती हूं, जो बहुत तेज दौड़ता है। मैं सारे दिन इसी बरगद के पेड़ के नीचे खड़ी तेरा इन्तजार कर रही थी और मैं चिन्तित थी कि तू यहां तक आ भी पायेगा या नहीं क्योंकि फासला बहुत लंबा था। लेकिन तेरा घोड़ा भी वास्तव में कोई चीज है। तू ठीक उसी वक्त पर यहां आ पहुंचा है, जब तेरी जरूरत थी।’

तुम कहां जा रहे हो? तुम कहां पहुंचोगे? सारी भागदौड़ और पलायन आखिर तुम्हें बरगद के पेड़ तक ही ले जायेगी। और जैसे ही तुम अपने घोड़े या कार को धन्यवाद दे रहे होगे, तुम अपने कंधे पर मौत के हाथों का अनुभव करोगे। मौत कहेगी-‘मैं एक लम्बे समय से तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही थी। अच्छा हुआ, तुम खुद आ गये।’

और प्रत्येक व्यक्ति ठीक समय पर ही आता है। वह एक क्षण भी नहीं खोता। प्रत्येक व्यक्ति ठीक वक्त पर ही पहुंचता है, कोई भी कभी देर लगाता ही नहीं। मैंने सुना है कि कुछ लोग वक्त से पहले ही पहुंच गये, लेकिन मैंने यह कभी नहीं सुना कि कोई देर से आया हो। कुछ लोग, जो समय से पहले पहुंचे थे, वह लोग अपने चिकित्सकों की मेहरबानी के कारण।

अपनी असफलता की वजह उसने यह ठहराई

कि वह काफी तेजी से नहीं दौड़ रहा था।

इसीलिए वह बिना रुके तेज और तेज दौड़ने लगा।

यहां तक कि अन्त में वह नीचे गिर पड़ा और मर गया।

वह यह समझने में असफल रहा

कि यदि उसने सिर्फ किसी पेड़ या किसी छांव की ओर कदम रखे होते,

तो उसकी छाया बनती ही नहीं

और यदि वह उसके नीचे बैठकर स्थिर हो ठहर गया होता,

तो न पैरों के कदम उठते और उनकी ध्वनि होती।

यह बहुत आसान था-सबसे अधिक आसान।

यदि तुम ठीक छाया की ओर बढ़ो, जहां धूप न हो, तो परछाई गायब हो जायेगी क्योंकि परछाई धूप या रोशनी के कारण ही बनती है। वह सूर्य की किरणों की अनुपस्थिति है। यदि तुम एक वृक्ष की छाया तले बैठ जाओ, तो परछाई लुप्त हो जायेगी।

वह यह समझने में असफल रहा

कि यदि उसने सिर्फ किसी पेड़ या किसी छांव की ओर कदम रखे होते,

तो उसकी परछाई बनती ही नहीं। वह गायब हो जाती।

इस छांव को कहते है–मौन। इस छांव को कहते हैं-आंतरिक शान्ति। मन की सुनो ही मत, बस केवल मौन की छांव में सरक जाओ, अपने अंदर गहरे में उतर जाओ, जहां सूर्य की कोई किरण प्रविष्ट नहीं हो सकती, जहां परम शान्ति है।

-ओशो
पुस्तकः सत्य-असत्य

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भगवान, क्राइस्ट ने कहा : गांव के मुरदे मुरदे को दफना देंगे। कबीर ने कहा : साधो, ई मुरदन के गांव। और मलूक कहते हैं : मुरदे मुरदे लड़ि मरे। लोकजीवन मृत है, इसका क्या कारण है? क्या जीवन—निषेध का दर्शन इसका कारण है? या अहंकार और अज्ञान कारण है? क्या इस मृतवत जीवन से उबरने के लिए बुद्धत्व ही एकमात्र उपाय है? हमें समझाने की अनुकंपा करें।

आनंद मैत्रेय! मूर्छा एकमात्र कारण है और बुद्धत्व एकमात्र उपाय है। बुद्धत्व यानी जागरण, होश से भर जाना। मूर्छा यानी ऐसे जीना जैसे कोई शराब पी कर रास्ते पर चल रहा हो लड़खड़ाता—लड़खड़ाता। जिसे अपना पता नहीं है, वह मूर्छित है। और जिसे अपना पता है, वह बुद्ध है।

एक दार्शनिक ने सुबह—सुबह अपनी पत्नी से सुना कि : “जानते हो जी, हमारे मुन्ने ने चलना शुरू कर दिया!”

दार्शनिक ने सोचते हुए पूछा : “कब से?”

“अजी, कोई एक हफकीरता हो गया!”

“ओह! तब तो वह काफी दूर निकल गया होगा!” दार्शनिक महोदय चिंतित स्वर में बोले।

होश कहां? अपने दर्शन में खोए हैं। चारों तरफ देखने की फुर्सत कहां?

चंदूलाल हनीमून मनाने किसी हिल स्टेशन पर गए। कार की पिछली सीट पर बैठे वे अपनी नयी—नवेली दुल्हन गुलाबो से प्यार—मुहब्बत कर रहे थे, किंतु उन्हें डर लग रहा था कि साला ड्राइवर कहीं देख न रहा हो!

ड्राइवर रास्ता भटक गया था, किंतु प्रेम में मदहोश चंदूलाल को इसकी खबर न थी कि उसकी कार एक ही जगह का चक्कर काट रही है। जब उसी चौराहे पर से कार फिर गुज़री तो ड्राइवर ने पूछा—”क्यों साहब, यह सातवीं बार है न?”

गुलाबो को दूर खिसकाते हुए गुस्से में चंदूलाल बोले—”सातवीं बार हो या सौवीं बार, तुझे इससे क्या मतलब? तू अपना काम कर, मैं अपना काम कर रहा हूं।”

लोग अपने भीतर बंद हैं, लोगों की आंखें बंद हैं, कान बंद हैं! संवेदनशीलता बंद है।

मूर्छा। एक गहरी मूर्छा है। हम चल लेते हैं, उठ लेते हैं, काम भी कर लेते हैं, किसी तरह जिंदगी बीत ही जाती है। मगर किसी तरह! हमें कुछ पता नहीं चलता कि हम कहां थे, क्यों थे, किसलिए थे? क्यों जन्मे, क्यों जीए, क्यों मरे; कौन था जो आया और कौन था जो गया, कुछ पता नहीं चलता! इसको तुम होश कहोगे? हां, नाम हम बता सकते हैं। वह नाम हमारा नहीं है, दिया हुआ है। और अपना पता भी बता सकते हैं। वह भी हमारा नहीं है, दिया हुआ है। तुम्हें अपना पता ही नहीं है। जागो! झकझोरो अपने को! अपने प्रत्येक कृत्य को जागरण से जोड़ दो!

अचानक ढब्बूजी को खबर लगी कि चंदूलाल अस्पताल में भरती हैं। उसके शरीर में घाव ही घाव हो गए हैं और करीब बीस फैक्चर हुए हैं; हालत गंभीर है। समाचार मिलते ही ढब्बूजी भागे—भागे अस्पताल पहुंचे। देखा कि पूरे शरीर में पट्टियां ही पट्टियां बंधी हैं, आक्सीजन लगी है, ग्लूकोज की बोतल लटकी है, और पास ही में बैठी गुलाबो सिर के बाल नोंचकर जार—जार रो रही है, छाती पीट रही है। ढब्बूजी ने कहा : “भाभी, यह क्या हो गया; कोई दुर्घटना हो गयी क्या?”

“मुझसे क्या पूछते हो”, गुलाबो ने दहाड़ मारते हुए रोकर कहा, “अपने भैया से ही पूछो न!”

“क्या हुआ, भाई चंदूलाल”, ढब्बूजी ने उदास स्वर में पूछा, “क्या कर बैठे यह? आखिर ऐसी कौन—सी गलती हो गयी कि जिससे पूरे शरीर पर प्लास्टर ही प्लास्टर चढ़ गया?”

बेचारे चंदूलाल ने बामुश्किल मुंह खोलकर जवाब दिया, “क्या बताऊं, दोस्त, मैंने तो बस इतना ही कहा था कि दाल में ज़रा नमक कम है।”

यह सुनते ही गुलाबो की आंखें गुस्से से लाल हो गयीं। “शर्म नहीं आती झूठ बोलते”, वह पूरी ताकत लगाकर चीखी, “तुमने यह नहीं कहा था कि नमक ज़रा कम है, तुमने यह कहा था कि नमक है ही नहीं।”

“मगर भाभी इतने नाराज होने की तो कोई बात नहीं थी”, ढब्बूजी ने समझाया, “आपको दाल में और नमक डाल देना था।”

गुलाबो बोली, “यदि घर में नमक होता तो मैंने पहले ही न डाल दिया होता! एक हफकीरते से घर में नमक है ही नहीं। कहो अपने भैया से, घर में सामान लाकर क्यों नहीं रखते?”

“क्या बात करती हो, जी!” चंदूलाल बोले, “मैंने पिछले शनिवार को ही तो दस किलो नमक लाकर तुम्हें दिया था।”

गुलाबो का गुस्सा तो अब आसमान पर चढ़ गया। वह बोली, “अरे कलमुंहे, मुझे बताया क्यों नहीं कि वह नमक है। मैं तो उसे शक्कर समझकर रोज चाय में डालकर तुझे पिलाती रही!”

ऐसी जिंदगी चल रही है!

तुम पूछते हो, क्राइस्ट ने कहा : गांव के मुरदे मुरदे को दफना देंगे। कबीर ने कहाः साधो, ई मुरदन के गांव। और मलूक कहते हैं : मुरदे मुरदे लड़ि मरे। लोकजीवन मृत है, इसका क्या कारण है?

एकमात्र कारण है कि लोग बेहोश हैं, मूर्छित हैं। और एकमात्र औषधि, रामबाण औषधि, और वह बुद्धत्व है। इसके सिवाय न कभी कोई उपाय था, न है, न हो सकता है।

जागो! और जाग तुम सकते हो, वह तुम्हारी संभावना है। वह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है!♣️

Oso

मृत्यु बोध.

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કદીક સીધું


કદીક સીધું

કદીક સીધું, કદીક આડું
ચાલ્યા કરવાનું આ ગાડું.

કરમની ઘંટી દળતી રહેતી
થોડું ઝીણું, થોડું જાડું.

સપનાંઓને રોકો ત્યાં તો
ઇચ્છાઓનું આવે ધાડું.

એનું હૈયું ખાલી કરીએ?
સાવ નકામું ભરવું ભાડું!

આંસુના તોરણ બાંધીને
આંખો પૂછે – સેલ્ફી પાડું?

ઘડીક અંદર, બ્હાર ઘડીમાં
શ્વાસને બન્ને હાથે લાડુ.

મંઝિલ છેલ્લી છે સામે, પણ
જીવન રોજે ઉતરે આડું.

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लष्मीकांत

तिरंगे के पांच रंग

राजकुमार जी ओझा का संदेश
में तो निरूतर ओर शब्द शेष हू

कक्षा में मास्टर जी ने पूछा-

“बच्चों, बताओ तो भारत के राष्ट्रीय ध्वज में कितने रंग है ?”

“तीन”। सारे बच्चों के स्वर कक्षा में एक साथ गूंजा।

शोर थमने के बाद एक सहमा-सा बच्चा धीरे धीरे खड़ा होकर विनम्र स्वर में बोला, “मास्टर जी, पांच”।

सारे बच्चे यह सुन कर हँसने लगे।

मास्टर जी अपने गुस्से को दबाने की कोशिश करते हुए बोले, “चलिए, आप ही सबको बता दीजिए कौन कौन से पाँच रंग है हमारे तिरंगे में”?

तिरंगे के नाम सुनने के बाद भी बच्चा धीरे धीरे बोलने लगा-
“सबसे उपर केसरिया, उसके नीचे सफेद, सबसे नीचे हरा और बीच में एक चक्र जिसका रंग नीला है।”

मास्टर जी ने अपने हाथ दायें-बायें हिलाते हुए हल्के से ऊंची आवाज में पूछा-

“फिर भी तो चार ही हुआ। ये पांचवां रंग कौन सा है?”

मासूम बच्चे ने आंख झुकाए सरलता से उत्तर दिया-
“वो है पूरे ध्वज में फैला हुआ लाल-लाल धब्बा।
मुझे याद है मास्टर जी, जब मैंने पापा को अंतिम बार देखा था।
घर के आंगन में एक ताबूत के अंदर पापा एक वैसे ही ध्वज को ओढ़ कर सोये हुए थे।”

कक्षा का शोर अचानक थम सा गया। मास्टर जी का गुस्सा गायब हो चुका था। गला भर आया था। कुछ बोल नहीं पाये। सिर्फ हाथ के इशारे से सबको शाँत बैठने को कह कर सर झुकाए कक्षा के बाहर निकल आए और भीगी आँखों से आसमान के तरफ़ देखते हुए सोंचने लगे-

“तिरंगे में लगे खून के उन लाल धब्बों को हम कैसे भूल गए?
कैसे भूल गए कि हमें कितनी महंगी पड़ी थी ये आज़ादी?

हँसते हँसते अपने खून से धरती को रंगने वाले, उन वतनपरस्त शहीदों ने तो ये वतन हमारे हवाले कर दिया था। पर हमने उनके मकसद और दिशा से भटक कर किस ओर का रुख अपना लिया?”

क्या आज ये पंक्तियां हमारे लिए कोई मायने भी रखती हैं-

एक पुष्प की अभिलाषा-

“मुझे तोड़ लेना बनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जायें वीर अनेक॥”

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लष्मीकांत

क्या हम अपने बच्चे को सही परवरिश दे रहे हैं?

शहर से कुछ दूरी पर बसे एक मोहल्ले में रुचिका अपने परिवार के साथ रहती थी. उसके ठीक बगल में एक बुजर्ग व्यक्ति अकेले ही रहा करते थे, जिन्हें सभी “दादा जी” कह कर बुलाते थे
बचपन थामते हाथ!
एक बार मोहल्ले में एक पौधे वाला आया. उसके पास कई किस्म के खूबसूरत, हरे-भरे पौधे थे.

रुचिका और दादाजी ने बिलकुल एक तरह का पौधा खरीदा और अपनी-अपनी क्यारी में लगा दिया. रुचिका पौधे का बहुत ध्यान रखती थी. दिन में तीन बार पानी डालना, समय-समय पर खाद देना और हर तरह के कीटनाशक का प्रयोग कर वह कोशश करती की उसका पौधा ही सबसे अच्छा ढंग से बड़ा हो.

दूसरी तरफ दादा जी भी अपने पौधे का ख़याल रख रहे थे, पर रुचिका के तुलना में वे थोड़े बेपरवाह थे… दिन में बस एक या दो बार ही पानी डालते, खाद डालने और कीटनाशक के प्रयोग में भी वे ढीले थे.

समय बीता. दोनों पौधे बड़े हुए.
रुचिका का पौधा हरा-भरा और बेहद खूबसूरत था. दूसरी तरफ दादा जी का पौधा अभी भी अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में नहीं आ पाया था.
यह देखकर रुचिका मन ही मन पौधों के विषय में अपनी जानकारी और देखभाल करने की लगन को लेकर गर्व महसूस करती
फिर एक रात अचानक ही मौसम बिगड़ गया. हवाएं तूफ़ान का रूप लेने लगीं…बादल गरजने लगे… और रात भर आंधी-तूफ़ान और बारिश का खेल चलता रहा.

सुबह जब मौसम शांत हुआ तो रुचिका और दादा जी लगभग एक साथ ही अपने अपने पौधों के पास पहुंचे. पर ये क्या ? रुचिका का पौधा जमीन से उखड़ चुका था, जबकि दादा जी का पौधा बस एक ओर जरा सा झुका भर था.

“ऐसा क्यों हुआ दादाजी, हम दोनों के पौधे बिलकुल एक तरह के थे, बल्कि आपसे अधिक तो मैंने अपने पौधे की देख-भाल की थी… फिर आपका पौधा प्रकृति की इस चोट को झेल कैसे गया जबकि मेरा पौधा धराशायी हो गया?”, रुचिका ने घबराहट और दुःख भरे शब्दों में प्रश्न किया.

इस पर दादाजी बोले, “देखो बेटा, तुमने पौधे को उसके ज़रुरत की हर एक चीज प्रचुरता में दी… इसलिए उसे अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए कभी खुद कुछ नहीं करना पड़ा… न उसे पानी तलाशने के लिए अपनी जड़ें जमीन में भीतर तक गाड़नी पड़ीं, ना कीट-पतंगों से बचने के लिए अपनी प्रतिरोधक क्षमता पैदा करनी पड़ी…नतीजा ये हुआ कि तुम्हारा पौदा बाहर से खूबसूरत, हरा-भरा दिखाई पड़ रहा था पर वह अन्दर से कमजोर था और इसी वजह से वह कल रात के तूफ़ान को झेल नहीं पाया और उखड़ कर एक तरफ गिर गया.

जबकि मैंने अपने पौधे की बस इतनी देख-भाल की कि वह जीवित रहे इसलिए मेरे पौधे ने खुद को ज़िंदा रखने के लिए अपनी जडें गहरी जमा लीं और अपनी प्रतिरोधक क्षमता को भी विकसित कर लिया और आसानी से प्रकृति के इस प्रहार को झेल गया.”

रुचिका अब अपनी गलती समझ चुकी थी पर अब वह पछताने के सिवा और कुछ नहीं कर सकती थी.

दोस्तों, आज कल families छोटी होने लगी हैं. अधिकतर couples 2 या सिर्फ 1 ही बच्चा कर रहे हैं. ऐसे में माता-पिता बच्चों की care करने में उन्हें इतना pamper कर दे रहे हैं कि बच्चे को खुद grow करने और challenges face करने का मौका ही नहीं मिल रहा. As a result वे emotionally और physically मजबूत बनने की जगह कमजोर बन जा रहे हैं.

बच्चों को पालना और plants की देखभाल करने में काफी similarities हैं… ऐसे ही छोड़ देने पर बच्चे और प्लांट्स दोनों बिगड़ जाते हैं और ज़रुरत से अधिक care करने पर वे कमजोर हो जाते हैं… इसलिए बतौर अभिभावक ज़रुरी है कि हम एक सही balance के साथ अपने बच्चों को पाले-पोसें और सही परवरिश दें ताकि वे उस पौधे की तरह बनें जो मुसीबतों के आने पर गिरें नहीं बल्कि अपना सीना चौड़ा कर उनका सामना कर सकें.

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लष्मीकांत

यह भी नहीं रहने वाला

एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला हुआ था। एक बार रात हो जाने पर वह एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के दरवाजे पर रुका।
आनंद ने साधू की खूब सेवा की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर साधू को विदा किया।

साधू ने आनंद के लिए प्रार्थना की – “भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।”

साधू की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला – “अरे, महात्मा जी! जो है यह भी नहीं रहने वाला ।” साधू आनंद की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया ।

दो वर्ष बाद साधू फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है । पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है । साधू आनंद से मिलने गया।

आनंद ने अभाव में भी साधू का स्वागत किया । झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया । खाने के लिए सूखी रोटी दी । दूसरे दिन जाते समय साधू की आँखों में आँसू थे । साधू कहने लगा – “हे भगवान् ! ये तूने क्या किया ?”

आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला – “महाराज आप क्यों दु:खी हो रहे है ? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान् इन्सान को जिस हाल में रखे, इन्सान को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और सुनो ! यह भी नहीं रहने वाला।”

साधू मन ही मन सोचने लगा – “मैं तो केवल भेष से साधू हूँ । सच्चा साधू तो तू ही है, आनंद।”

कुछ वर्ष बाद साधू फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है । मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था, मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया।

साधू ने आनंद से कहा – “अच्छा हुआ, वो जमाना गुजर गया । भगवान् करे अब तू ऐसा ही बना रहे।”

यह सुनकर आनंद फिर हँस पड़ा और कहने लगा – “महाराज ! अभी भी आपकी नादानी बनी हुई है।”

साधू ने पूछा – “क्या यह भी नहीं रहने वाला ?”

आनंद उत्तर दिया – “हाँ! या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा । कुछ भी रहने वाला नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा की अंश आत्मा।”

आनंद की बात को साधू ने गौर से सुना और चला गया।

साधू कई साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं, और आनंद का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है ।

कह रहा है आसमां यह समा कुछ भी नहीं।

रो रही हैं शबनमें, नौरंगे जहाँ कुछ भी नहीं।
जिनके महलों में हजारों रंग के जलते थे फानूस।
झाड़ उनके कब्र पर, बाकी निशां कुछ भी नहीं।

साधू कहता है – “अरे इन्सान! तू किस बात का अभिमान करता है ? क्यों इतराता है ? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता। तू सोचता है पड़ोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ । लेकिन सुन, न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा। सच्चे इन्सान वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते हैं, और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं।”

साधू कहने लगा – “धन्य है आनंद! तेरा सत्संग, और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु! मैं तो झूठा साधू हूँ, असली फकीरी तो तेरी जिन्दगी है। अब मैं तेरी तस्वीर देखना चाहता हूँ, कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं।”

साधू दूसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद ने अपनी तस्वीर पर लिखवा रखा है – “आखिर में यह भी नहीं रहेगा ।”🙏🏻

Posted in यत्र ना्यरस्तुपूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:

आजकल अनभिज्ञविद्वान तथाकथित विद्वानो द्वारो ए कहना की स्त्रियो को गुरु नही बनाना चाहिए उनके लिए एक तमाचा सप्रमाण सहित

नारीदीक्षाविमर्श

नारियों को गुरु बनाना चाहिए या नहीं ??–इस विषय पर बड़ा विवाद चल रहा है । शास्त्रीय प्रमाणों के कुछ वाक्य प्रस्तुत करके पण्डितम्मन्य नारी दीक्षा का खण्डन बडे ज़ोर शोर से कर रहे हैं ।उनका एक वाक्य है–

सामान्यत: द्विजाति का गुरु अग्नि, वर्णों का गुरु ब्राह्मण, स्त्रियों का गुरु पति और सबका गुरु अतिथि होता है-

गुरुग्निद्विजातीनां वर्णानां बाह्मणो गुरु:.
पतिरेको गुरु: स्त्रीणां सर्वेषामतिथिर्गुरु:॥–औशनस स्मृति

” पतिरेको गुरु: स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरु:॥”–चाणक्यनीति:

कूर्ममहापुराण के उत्तरार्ध अध्याय-१२ का ४८-४९ वां श्लोक प्रस्तुत है । जिसमें स्त्री का गुरु पति ही कहा गया है-

“गुरुरग्निर् र्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरु: ॥४८॥ पतिरेव गुरु: स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरु: ॥४९॥”

द्विजातियों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ) का गुरु अग्नि है । चारों वर्णों का गुरु ब्राह्मण है । स्त्रियों का गुरु पति ही है । और अभ्यागत सबका गुरु है ।

श्लोक का सीधा अर्थ लें तो सब गड़बड़ हो जायेगा ।क्या द्विजातियों का गुरु अग्नि है?? ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों में किसको अग्नि ने दीक्षा दी है ?? द्विजातीनां में बहुवचन है । तथा इन तीनों के प्रति अग्नि का गुरुत्व प्रत्यक्ष बाधित है । इन तीनों के गुरु अग्निदेव से भिन्न कोई देहधारी विप्र होते हैं ।दूसरी बात यह कि जब द्विजातियों का गुरु अग्नि बतला दिये गये । तब शेष बचे शूद्र । तब शूद् का गुरु ब्राह्मण को बतलाना चाहिये, न कि सभी वर्णों का=वर्णानां।

श्लोक के चतुर्थ पाद में अभ्यागत अर्थात् अतिथि को सबका गुरु बतलाया गया है । सबमें तो सभी वर्ण के लोग आ गये । और अतिथि किसी भी वर्ण का प्राणी हो सकता है –

” यस्य न ज्ञायते नाम न च गोत्रं नच स्थिति:। अकस्मात् गृहमायाति सोSतिथि: प्रोच्यते बुधै: ॥

महर्षि शातातप कहते हैं कि प्रिय हो या मूर्ख अथवा पतित जो वैश्वदेव कर्म के अन्त में पहुँच जाय वह अतिथि स्वर्ग का संक्रम ही होता है । अब बतलायें क्या मूर्ख या पतित व्यक्ति ब्राह्मणादि सभी वर्णों का गुरु माना जा सकता है?? नहीं ना ।

प्रकृत श्लोक में गुरु शब्द का अर्थ दीक्षा गुरु नहीं अपितु सम्मान्य है । द्विजातियों का गुरु अग्नि है । अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय एवं वैश्य इन सबको अग्नि का सम्मान करना चाहिए । अग्निहोत्रादि से प्रतिदिन त्रैवर्णिकों को अग्नि की पूजा करनी चाहिए । वर्णानां= सभी वर्णों का गुरु = सम्मान्य आदरणीय ब्राह्मण होता है । ब्राह्मण स्वयं भी ब्राह्मण का सम्मान करे । इसी प्रकार स्त्री का गुरु= समादरणीय उसका पति ही होता है । पति के कारण ही सास ससुर आदि से सम्बन्ध है । परिवार के अन्य सदस्यों की अपेक्षा पति ही अधिक सम्माननीय है नारी के लिए । यही उक्त श्लोक का अर्थ है ।

इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि स्त्री किसी को गुरु ही न बनाये । पद्ममहापुराण के उत्तरखण्ड के २५४वें अध्याय में ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी ने महाराज दिलीप को यह तथ्य प्रकाशित किया है कि भगवती उमा स्वयं पति चन्द्रशेषर भगवान् की अर्धांगिनी होने पर भी उनसे मन्त्र न लेकर मह्रर्षि वामदेव को अपना गुरु बनायीं ।

सर्वज्ञ एवं सर्वसमर्थ भगवान् शंकर भी अपनी प्रियतमा पार्वती जी को महर्षि वामदेव के पास ही दीक्षा के लिए भेजते हैं ।

शिव जी कहते हैं हे गिरिजे ! गुरु के उपदेश द्वारा ही केशव की पूजा करके प्राणी मनोवांछित फल प्राप्त कर सकता है ,अन्यथा नहीं ।–

“गुरूपदेशमार्गेण पूजयित्वैव केशवम् ।प्राप्नोति वाञ्छितं सर्वं नान्यथा भूधरात्मजे ॥७॥

भगवान् भव की बात मानकर भगवती पार्वती वामदेव महर्षि के समीप भगवान् विष्णु के पूजन की लालसा से पहुँचीं। –

एवमुक्ता तदा देवी वामदेवान्तिकं नृप ! जगाम सहसा हृष्टा विष्णुपूजनलालसा ॥८॥

और उनको गुरु रूप में प्राप्त करके पूजन और प्रणाम किया तथा विनम्रभाव से बोलीं–

समेत्य तं गुरुं देवी पूजयित्वा प्रणम्य च ।विनीता प्राञ्जलिर्भूत्वा उवाच मुनिसत्तमम् ॥९॥

वे महर्षि वामदेव से कहती हैं कि भगवन् मैं आपकी कृपा से भगवन्मन्त्र प्राप्त करके हरिपूजन करना चाहती हूँ । आप मुझपर कृपा करें ।तत्पश्चात् गुरुवर महर्षि वामदेव ने भगवती शैलपुत्री को विधिपूर्वक भगवन्मन्त्र दिया –

इत्युक्तस्तु तया देव्या वामदेवो महामुनि: । तस्यै मन्त्रवरं श्रेष्ठं ददौ स विधिना गुरु: ॥११॥

क्या जगद्गुरु कामारि भगवान् शङ्कर से भी आजकल के तथाकथित कामकिङ्कर ज्ञानी बन चुके हैं ??
नारी को केवल कामवासना की पूर्ति का साधन समझने वाला ही पत्नी के परमार्थ पथ का घातक बनता है ।और कहता है कि–” पतिरेको गुरु: स्त्रीणां-”

भगवान् शिव ने भगवती पार्वती को भगवान् विष्णु की आराधना के विषय में बतलाया कि वह सभी आराधनाओं सर्वश्रेष्ठ है । भगवान् भव स्वयं सर्वज्ञ तथा सम्पूर्ण मन्त्रशास्त्र के मूल हैं फिर भी अपनी प्रियतमा को स्वयं मन्त्र न देकर ब्रह्मर्षि वामदेव के पास भेजते हैं ।इससे सिद्ध होता है कि “पति स्वयम् अपनी परिणीता को मन्त्र प्रदान न करे ।”

और इस तथ्य में प्रमाण है ब्रह्मवैवर्तमहापुराण का देवर्षि नारद के प्रति चतुरानन का वचन । जब उन्होंने अपने पिता ब्रह्मा जी से कृष्णमन्त्र प्रदान करने की उत्कण्ठा व्यक्त की । तब ब्रह्मा जी ने उन्हें मन्त्र देने से मना करते हुए कहा—

” पत्युर्मन्त्रं पितुर्मन्त्रं न गृह्णीयाद्विचक्षण ।”–ब्रह्मखण्ड-२४/४२,

हे प्राज्ञ ! कोई भी प्राणी पति एवं पिता से मन्त्रग्रहण न करे ।

यह एक प्रबल तमाचा है उन लोगों को जो स्त्री का गुरु पति को बतलाने का प्रयास करते हैं । ” पतिरेको गुरु: स्त्रीणां ” वचन में गुरु का अर्थ मात्र पूज्य है, दीक्षा गुरु नहीं । अतएव भगवान् भोलेनाथ ने अपनी प्राणवल्लभा भगवती उमा को ब्रह्मर्षि वामदेव से दीक्षा लेने भेजा । प्राज्ञ को शास्त्रीय वचनों का सामञ्जस्य बिठाना चाहिए ।
नारी को मात्र भोग की वस्तु समझने वाले भगवदुपासना या मोक्षमार्ग की ओर उसका बढ़ना कैसे स्वीकार कर सकते हैं ?? ॥अस्तु॥

कुमारी कन्याओं के मन्त्रदीक्षा में प्रमाण–

श्रीपार्वती जी ने विवाह से पूर्व देवर्षि नारद से शिवमन्त्र की दीक्षा ग्रहण की थी । भगवती शैलजा कहती हैं कि हे सर्वज्ञ मुने ! आप मुझे भगवान् रुद्र की आराधना के लिए मन्त्र प्रदान करें–

त्वं तु सर्वज्ञ जगतामुपकारकर प्रभो । रुद्रस्याराधनार्थाय मन्त्रं देहि मुने हि मे ॥

क्योंकि सम्पूर्ण प्राणियों का सद्गुरु के विना कोई कार्य सिद्ध नहीं होता है । ऐसी सनातनी श्रुति मैंने पहले सुन रखी है –

” नहि सिद्ध्यति क्रिया कापि सर्वेषां सद्गुरुं विना । मया श्रुता पुरा यत्या श्रुतिरेषा सनातनी ॥

ऐसा सुनकर देवर्षि नारद ने भगवती पार्वती को विधिपूर्वक पञ्चाक्षर शिवमन्त्र का उपदेश दिया–

इति श्रुत्वा वचस्तस्या: पार्वत्या मुनिसत्तम । पञ्चाक्षरं शम्भुमन्त्रं विधिपूर्वमुपादिशत् ॥

बाल्यावस्था में ही कुन्ती जी को महर्षि दुर्वासा ने देवों के आवाहन का विशेष मन्त्र दिया था–

तस्यै स प्रददौ मन्त्रमापद्धर्मान्ववेक्षया ।अभिचाराभिसंयुक्तमब्रवीच्चैव तां मुनि:॥ –महाभारत, आदिपर्व-१११/६,

स्कन्दमहापुराण के ब्रह्मोत्तरखण्ड- ३ के प्रथम अध्याय में यह कथा आयी है कि प्राचीनकाल में मथुरानरेश दाशार्ह का विवाह काशीनरेश की कन्या कलावती से हो गया । महा राज ने अपनी पत्नी का अंग बलपूर्वक स्पर्श किया तो उसका देह लौहपिण्ड की भाँति जलता हुआ प्रतीत हुआ । राजा ने कारण पूछा कि तुम्हारा सुकोमल शरीर अग्नि के समान क्यों लग रहा है –

” कथमग्निसमं जातं वपु:पल्लवकोमलम् ?–१/४३,

महारानी ने उत्तर दिया कि बाल्यावस्था में महर्षि दुर्वासा ने मुझ पर कृपा करके पञ्चाक्षरी विद्या ( शिवमन्त्र ) का उपदेश किया था । उस मन्त्र के प्रभाव से मेरे समस्त पाप नष्ट हो चुके हैं ।अत: पापी पुरुष मेरा स्पर्श नहीं कर सकते ।आप नित्य स्नान नहीं करते हैं और कुलटा वेश्याओं का सेवन तथा मदिरापान करते रहते हैं । इसलिए पापपरायण आप मेरे निष्पाप शरीर का स्पर्श नहीं सह सकते । अपनी शुद्धि के लिए महाराज ने पत्नी से पञ्चाक्षरी मन्त्र प्रदान करने की बात कही । तो उन्होंने कहा कि मैं आपको मन्त्र नहीं दे सकती ; क्योंकि आप मेरे पूज्य हैं । आप मन्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षि गर्ग को अपना गुरु बनायें —

” नाहं तवोपदेशं वै कुर्यां मम गुरुर्भवान् । उपातिष्ठ गुरुं राजन् गर्गं मन्त्रविदाम्वरम् –१/५०,

तत्पश्चात पत्नी के साथ महर्षि गर्ग के चरणों में जाकर महाराज दाशार्ह ने वन्दना की और उनसे मन्त्रदीक्षा ली–

इति सम्भाषमाणौ तौ दम्पती गर्गसन्निधिम् । प्राप्य तच्चरणौ मूर्ध्ना ववन्दाते कृताञ्जली ॥–१/५१,
तन्मस्तके करं न्यस्य ददौ मन्त्रं शिवात्मकम् ॥१/५७

पूर्वोक्त इतिहास एवं पुराणों के वचनों से यह सिद्ध होता है कि पति से भिन्न व्यक्ति स्त्रियों का दीक्षा गुरु
होता है ।

पतिरेको गुरु: स्त्रीणां का तात्पर्य है कि स्त्री के लिए अन्य सम्बन्धियों की अपेक्षा ”पति ही पूज्य है” ; क्योंकि ननद, सास, ससुर आदि सम्बन्ध पतिमूलक ही हैं । पति की उपेक्षा करके इन सम्बन्धियों से उसका कल्याण कथमपि नहीं हो सकता है ।

##आचार्य सियारामदासनैयायिक##

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कुछ महान जातियों के कुछ हिस्सों का एक छोटा सा अंश

१. चर्मकार या चमार : आज सबसे नीची दृष्टि से देखे जाने वाली ये जाती एक समय बड़ी समृद्ध होती थी | १९वि सदी के प्रारंभ में कानपुर के सम्हाल दास चमार प्रसिद्ध है धन ऐश्वर्य के लिए | जो जानवर मरता था उसकी खाल को उतारकर वैदिक पद्धति से शोधित किया जाता था | कबूतर के मल को डाल कर पैरों से मसलने की विधि थी | ना जल दूषित होता था जैसा के आज टेनरियो के जल से नदिया दूषित हों रही है जिसमे गंगा माता प्रमुख है | अंग्रेजो ने सामूहिक बूचड़ खाने यानी पशुवध शालाये खुलवा के चर्मकारो की रोजी रोटी बंद कर दी | एक तों जीव हत्या ऊपर से समाज के सबसे समृद्ध वर्ग को तोड़ दिया | आज ये कार्य मुसलमानों ने प्रमुखता से पकड लिया है और टेनरी उद्योग मे अरबो कमा रहे है | अखबार उनके, संचार माध्यम उनके, तों दबे वर्ग की आवाज लोगो तक पहुचाये कौन ?

२. कुम्भकार या कुम्हार या प्रजापति : समृद्ध वर्गों में ये वर्ग भी रहा क्यों के सब बर्तन प्रयोग करते थे | जैसे ही फसल होती थी फसल के बदले बर्तन ले लिए जाते थे | मृदा वर्तन प्रयोग करने से कोई बीमार नहीं पड़ता था | शरीर पुष्ट रहता था और समाज के बड़े वर्ग की आर्थिक समृधि रहती थी | धातु के वर्तन उद्योगों को चला कर कुम्भकारो के काम को शनैः-शनैः बंद करवा दिया गया | आज कुम्हारों ने अधिकतर अपना कार्य छोड़ हि दिया है | प्रजापति यानि प्रजा की रक्षा करने वाला स्वास्थ की रक्षा तों कर्ता ही था इस प्रकार के भी वर्तनो को बनाने की विद्या रही है भारत में के विषयुक्त भोजन होने पर वर्तन चिटक जाते थे |

३. सविता या कलपक या वृत्ति या नाऊ : ये शैल्य चिकित्सक होते थे | आज भी फोड़ा इत्यादि होता तों नाइ उस्तरे से काट देते | अंग्रेजो ने भारत से सर्जेरी सीखी और भारत में ही प्राचीन पद्धति से सर्जरी खत्म करा दी | आज यदि लोग स्वास्थ सेवाओ के महंगे होने का रोना रो रहे है वो ब्राह्मणों द्वारा संचालित शिक्षा व्यवस्था के बंद होने के कारण ही है | आज के नाऊ सविता नाम इसलिए पड़ा क्यों के परमात्मा का नाम है उत्पादक होने के कारण, इसी प्रकार नाऊ बच्चा होता था तों नाडा काटता था | आज ये वर्ग या तों अन्य नौकरी ढूंड रहा है या बाल काट के अपनी जीविकोपार्जन कर्ता है |

४. लोहार या विश्वकर्मा : ये भी वेद में परमात्मा का नाम था इनकी कमर तोड़ी इन्डियन फोरेस्ट एक्ट १८६५ बना कर | भारत का इस्पात उद्योग जो कुटीर उद्योग था वो खत्म कर दिया एक तों इस से भारतीय स्वतंत्र रूप से हथियार नहीं बना सकते थे ऊपर विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था को तोडना आवश्यक था लोग स्वतंत्र थे उन्हें गुलाम बनाने के लिए आपको उनके अर्थ के मार्ग को नियंत्रित करना था वही किया गया | बड़े-२ उद्योगपति खड़े किये गए जो केंद्रित थे उन्हें नियंत्रण करना कर कानूनों से अधिक सरल था बजाये बड़े समाज को नियंत्रित करने के |

५. जुलाहे : हाथ से कपडे बनाने वालो को पावर लूम खड़ा कर के खत्म कर दिया गया | कुछ विद्वानों ने तों ये भी कहा के अंग्रेजो ने जुलाहों के हाथ तक कटवाए ठीक वैसे ही जैसे गुरुकुलो को बंद करने के लिए ब्राह्मणों के हाथ कटवाए हत्या करवाई |

६. रजका या वरिष्ठा या दिवाकर धोबी : मिट्टी से कपडे धोने की विद्या थी और कपडे उद्योग पर पकड़ से इनका व्यवसाय प्रभावित हुआ | आज ये प्रभावित वर्ग है |

७. मोची : मोची चर्मकार का सीधा सम्बन्ध था जब चमार प्रभावित हुआ तों मोची भी प्रभावित हुआ आज मोची सड़क पर है |

८. कहार या बाथम : ये डोली उठाने का कार्य करते थे श्रमिक कार्य के लिए अधिक धन दिया जाता था क्यों के उसे धन की अधिक आवयश्कता थी | आज अंग्रेजो का ब्रास बैंड चलता है | डोली की परंपरा पुनः चालु की जाए तों ये ब्रास बैंड जैसी गुलामी की निशानी बंद हों जाये |

९. कश्यप या केवट : नाव चलाने का कार्य कर्ता था | क्यों के सभी वर्ग प्रभावित हों रहे थे अंग्रेजो की नीतियों से तों श्रमिक वर्ग पर भी प्रभावित हुआ | याद करिये श्री राम ने केवट को नदी पार कराइ मुद्रिका दी थी |

दक्षिण भारत की जातियों के साथ भी यही सब हुआ | इसके अतिरिक्त अंग्रेजो ने योद्धा ज्ञातियो को पिछड़ा वर्ग घोषित कर दिया जैसे यादव, जाट, गुर्जर इत्यादि क्यों के ये लड़ाकू कौम थी | कितना आश्चर्य है के श्री कृष्ण के वंशज आज गर्व से अपने को पिछड़ा कहते हैं। अंग्रेजो ने जाल में ऐसा फसाया के आज तक आपस में ही उलझे पड़े है | कुछ कौमों को तों जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया अंग्रेजो ने | ठगी प्रथा है इस जाती मे ऐसा प्रचार किया उस देश मे जो त्याग और तपस्या के सिधान्तो पर चलता रहा है लाखो वर्षों से और वो कह रहे थे ये बात जो इस देश मे लूटने आये थे | उस वक्त तों राष्ट्रभक्तो पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा।

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Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

🔴बहुत पुरानी कथा है, तीन ऋषि थे, उनकी बहुत ख्याति थी। लोक लोकांतर में उनका यश था। इंद्र पीड़ित हो गया उनका यश देखकर और इंद्र ने, उर्वशी को, अपने नगर की श्रेष्ठतम अप्सरा से कहा कि इन तीन ऋषियों को मैं निमंत्रित कर रहा हूँ अपने जन्मदिन पर, तू ऐसी कोशिश करना कि उन तीनों का चित्त विचलित हो जाए।

उन तीन ऋषियों को आमंत्रित किया गया। वे तीन ऋषि इंद्र की अलकानगरी में उपस्थित हुए। सारे देवता, सारा नगर देखने आया जन्मदिन के उत्सव को। उर्वशी ऐसी सजी थी कि खुद इंद्र भी हैरान हो गए। वह आज इतनी सुंदर मालूम हो रही थी जिसका कोई हिसाब नहीं। फिर नृत्य शुरू हुआ। उर्वशी ने आधी रात बीतते तक अपने नृत्य से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। फिर जब रात गहरी होने लगी और लोगों पर नृत्य का नशा छाने लगा, तब उसने अपने आभूषण फेंकने शुरू कर दिए फिर धीरे धीरे वस्त्र भी। एक ऋषि घबराया और चिल्लाया, “उर्वशी बंद करो, यह तो सीमा के बाहर है, यह नहीं देखा जा सकता।” दूसरे दो ऋषियों ने कहा, “मित्र, नृत्य तो चलेगा, अगर तुम्हें न देखना हो तो अपनी आंखें बंद कर ले सकते हो। नृत्य नहीं बंद होगा। इतने लोग देखने को उत्सुक हैं, तुम्हारे अकेले के भयभीत होने से नृत्य बंद नहीं होगा। अपनी आंखें बंद कर लो अगर तुम्हें नहीं देखना।” ऋषि ने आंखें बंद कर लीं। सोचा था उस ऋषि ने कि आंखें बंद कर लेने से उर्वशी दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी। लेकिन पाया कि यह गलती थी, भूल थी।

क्या आंख बंद करने से कुछ दिखाई पड़ना बंद होता है ? आंख बंद करने से तो जिससे डरकर हम आंख बंद करते हैं वह और प्रगाढ़ होकर भीतर उपस्थित हो जाता है। रोज हम जानते हैं, सपनों में हम उनसे मिल लेते हैं, जिनको देख कर हमने आंख बंद कर ली थी। रोज हम जानते हैं जिस चीज से हम भयभीत होकर भागे थे वह सपनों में उपस्थित हो जाती है। दिन भर उपवास किया था तो रात सपने में किसी भोज पर आमंत्रित हो जाते हैं। यह हम सब जानते हैं। उस ऋषि की भी वही तकलीफ। आंख बंद की और मुश्किल में पड़ा। नृत्य चलता रहा, फिर उर्वशी ने और भी वस्त्र फेंक दिए, केवल एक ही अधोवस्त्र उसके शरीर पर रह गया। अब दूसरा ऋषि घबराया और चिल्लाया कि बंद करो उर्वशी, अब तो अश्लीलता की हद हो गई, बंद करो, यह नृत्य नहीं देखा जा सकता। यह क्या पागलपन है ? तीसरे ऋषि ने कहा, “मित्र, तुम भी पहले जैसे ही हो। आंख बंद कर लो, नृत्य तो चलेगा। इतने लोग देखने को उत्सुक हैं। फिर मैं भी देखना चाहता हूं। तुम आंख बंद कर लो। नृत्य बंद नहीं होगा।” दूसरे ऋषि ने भी आंख बंद कर ली।

आंख जब तक खुली थी तब तक उर्वशी एक वस्त्र पहने हुई थी। आंख बंद करते ही ऋषि ने पाया वह वस्त्र भी गिर गया। स्वाभाविक है, चित्त जिस चीज से भयभीत होता है उसी में ग्रसित हो जाता है। चित्त जिस चीज को निषेध करता है, उसी में आकर्षित हो जाता है। फिर उर्वशी का नृत्य और आगे चला, उसने सारे वस्त्र फेंक दिए, वह नग्न हो गई। फिर उसके पास फेंकने को कुछ भी न बचा। वह तीसरा ऋषि बोला, “उर्वशी, और भी कुछ फेंकने को हो तो फेंक दो, मैं आज पूरा ही देखने को तैयार हूँ। अब तो अपनी इस चमड़ी को भी फेंक दे, ताकि मैं और भी देख लूं कि और आगे क्या है ?” उर्वशी ने कहा, “मैं हार गई आपसे।” वह पैरों पर गिर पड़ी उस ऋषि के, उसने कहा, “अब मेरे पास फेंकने को कुछ भी नहीं है। मैं हार गई क्योंकि आप अंत तक देखने को तैयार हो गए। दो ऋषि हार गए, क्योंकि बीच में ही उन्होंने आंख बंद कर ली। मैं हार गई, अब मेरे पास फेंकने को कुछ भी नहीं, और जिसने मुझे नग्न जान लिया, अब उसके चित्त में जानने को भी कुछ शेष न रहा। उसका चित्त मुक्त ही हो गया।”

चित्त का निरीक्षण करना है पूरा। मन के भीतर जो भी उर्वशियां हैं, मन के भीतर जो भी वृत्तियों की अप्सराएं हैं, चाहे काम की, चाहे क्रोध की, चाहे लोभ की, चाहे मोह की, उन सबको पूरी नग्नता में देख लेना है। उनका एक एक वस्त्र उतार कर देख लेना है। आंख बंद करके भागना नहीं है। एस्केप नहीं है, पलायन नहीं है जीवन की साधना, जीवन की साधना है पूरी खुली आंखों से चित्त का दर्शन। और जिस दिन कोई व्यक्ति अपने चित्त के सब वस्त्रों को उतार कर चित्त की पूरी नग्नता में, पूरी नेकेडनेस में, पूरी अग्लीनेस में, चित्त की पूरी कुरूपता में पूरी आंख खोल कर देखने को राजी हो जाता है, उसी दिन चित्त की उर्वशी पैरों पर गिर पड़ती है और कहती है मुझे क्षमा करें, मैं हार गई हूँ। अब आगे जानने को कुछ भी नहीं है।

चित्त की पूरी जानकारी, चित्त का पूरा ज्ञान चित्त से मुक्ति बन जाता है।
🌹🌹👁🙏👁🌹🌹$$
अंतर की खोज-9~
ओशो…..
♣️

Posted in હાસ્ય કવિતા

⭕પતિ ને ભૂલશો નહીં⭕

ભૂલો ભલે શોપિંગ બધું,
પતિ પમેશ્વર ને ભૂલશો નહિ
ચૂકવ્યા અગણિત બીલ તેણે,
એ કદી વિસરશો નહિ !
👞👡👡👠👟
ચંપલ ધસ્યા બાટા તણા,
ત્યારે પામ્યા તમ થોબડું
એ ભોળા ભાયડાનાં કાળજાં,
કઠણ બની છુંદશો નહિ !
👜👜👝
કાઢી પાકીટથી રૂપિયા,
હાથમાં દઈ ઉજળા કર્યા
પાર્લરનાં પૈસા દેનાર સામે,
ઝેર જરા ઉગળશો નહિ !
🙅🙅💑💑💑💑
ખોટા લડાવ્યાં લાડ તમને,
કોડ સાળીઓના પુરા કર્યા
એ લાડ લડાવનાર લાડજીના,
ઉપકારને ભૂલશો નહિ !
👴👵👴👵👴👵
લાખો રૂપાળા હો ભલે,
સાસરીયા તમારાથી ના ઠર્યા
એ સંસ્કાર બધા તમારા રાખ છે,
એ માનવું ભૂલશો નહિ !
👦👦👦👦👦👦
પતિ પરમેશ્વરથી સેવા ચાહો,
પત્ની બની સેવા કરો,
એ ગીવ એન્ડ ટેઈક ની,
ભાવના ભૂલશો નહિ !
🛏🛏🛏🛌🛌🛌
ભોંય પર કરી પથારીને,
પલંગે સુવડાવ્યા આપને,
એ બાયડી ધેલા ધેલાજીને,
ભૂલીને ભીંજવશો નહિ !
🌺🌻🌹🌼🌸🌾
પુષ્પો બિછાવ્યાં પ્રેમથી,
જેણે તમારા રાહ પર
એ રાહબરના રાહ પર,
કંટક કદી બનશો નહિ !
💰💰💰💰💰💰💰
ધન ખરચતાં મળશે બધું,
પતિનો પ્રેમ મળશે નહિ
કાળજા ભીના એ કંથની,
ચાહના ચરણની ભૂલશો નહિ !

🙏દરેક ની પત્નીઓ ને સમર્પિત🙏