यमाचार्य कहते हैं कि देह में रहनेवाले जिस चैतन्य तत्त्व के निकल जाने पर देह मृत हो जाता है अर्थात् जड एवं निश्चेष्ट हो जाता है, वही तो चैतन्य स्वरूप ब्रह्म है।
न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन।
इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ।। ५।।
हन्तं त इदं प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम्।
यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम।। ६।।
शब्दार्थ : कश्चन = कोई भी; मर्त्य: न प्राणेन न अपानेन जीवति = मरणशील प्राणी न प्राण से, न अपान से जीवित रहता है; तु = किन्तु; यस्मिन् एतौ उपाश्रितौ = जिसमें ये दोनों (वास्तव में पाँचों प्राणवायु) उपाश्रित हैं; इतरेण जीवन्ति = अन्य से ही जीवित रहते हैं;
गौतम = हे गौतमवंशीय नचिकेता; गुह्यम् सनातनम् = (वह) रहस्यमय सनातन; ब्रह्म = ब्रह्म; च आत्मा मरणम् प्राप्य = और जीवात्मा मरण को प्राप्त करक्; यथा भवति = जैसे होता है; इदम् ते हन्त प्रवक्ष्यामि = यह तुम्हें निश्चय ही बताऊँगा।
वचनामृत : कोई भी प्राणी न प्राण से, न अपान से जीवित रहता है, किन्तु जिसमें ये दोनों (अर्थात् पाँचों प्राणवायु) आश्रित हैं, उस अन्य से ही (प्राणी) जीवित रहते हैं। हे गौतमवंशीय नचिकेता, (मैं) उस गुह्य सनातन ब्रह्म का और मरने का जीवात्मा की जो अवस्था होती है, उसका अवश्य कथन करूँगा।
सन्दर्भ : यमाचार्य नचिकेता को देह में स्थित जीवात्मा की महिमा बताकर ब्रह्मतत्त्व के कथन का आश्वासन देते हैं।
दिव्यामृत : मुख्य प्राण ही विभिन्न कार्यों के अनुसार पाँच वायुओं के रूप मे विभक्त है जिनमे प्राण और अपान प्रमुख है। मनुष्य के जीवन का आधार प्राण और अपान से लक्षित केवल पांच वायु (प्राण अपान् व्यान उदान्) ही नही है। श्वास प्रश्वास का जीवन धारण के लिए असाधारण महत्व है कितु प्राणी के जीवन का आधार उनसे भिन्न उसका जीवात्मा होता है जिस पर प्राण अपान आदि पञ्चवायु रहते है। समस्त इन्द्रियां भी जीवात्मा पर ही आश्रित होती है। जीवात्मा के होने से ही जीवन होता है। जीवात्मा के रहने से ही मन बुद्धि और इन्द्रियां अपने कार्य करते है।
देह की मृत्यु का विशुद्ध चेतना अथवा आत्मा पर कोई प्रभाव नही होता ब्रह्म आत्मा अथवा परमात्मा शाश्वत नित्य शुद्ध और मुक्त है। यमाचार्य ब्रह्मतत्व के कथन का आश्वासन देते है। उतम गुरू अनावश्यक आश्वासन देकर जिज्ञासु शिष्य के धैर्य को टूटने नही देते।